Tuesday, June 2, 2009

एक चूजे की यात्रा


यह एक सच्ची कहानी है। 1 जनवरी 1913 के दिन अमरीकी डाक विभाग ने घरेलू पार्सल सेवा शुरू की थी और फरवरी 1914 के दिन पांच साल की शार्लट मे को ग्रैंगविल से लुइसटन, इदाहो तक चूजों की श्रेणी में बतौर पार्सलभेजा गया। कौन ऐसा बच्चा होगा जिसने बंद डिब्बे में बैठकर नानी के घर जाने की कल्पना की होगी!
उन दिनों सड़कें भी इतनी अच्छी थीं कि 75 मील का दूभर पहाड़ी सफर तय किया जा सके। ट्रैन ही यात्रा कासबसे उपयुक्त जरिया था। डाक और टेलीग्राफ के अलावा किसी और तरीके से संदेश पहुंचाना कापफी कठिन कामथा। मे को भेजा जाना इतना अचानक तय हुआ कि दादी मेरी को इसकी खबर भी की जा सकी थी। या हो सकता है मे के माता-पिता इस अतिरिक्त खर्च से बचना चाहते थे।


एक दिन मां-बाबा ने मुझसे कहा कि मैं कुछ दिनों के लिए अपनी दादी के घर जा सकती हूं। यह तो उनको भी मालूम था कि वे हजारों मील दूर रहती हैं, इदाहो के पहाड़ों के उस पार!
फ़िर कई दिनों तक इस पर कोई बात नहीं हुई। मैंने ही एक दिन मां से पूछा। उन्होंने लंबी आह भरी। सिर हिलाया और काम में लगी रहीं। जब बाबा से पूछा तो बोले, "मे बेटा, इतने पैसे कहां हैं? रेलगाड़ी से वहां तक जाने में 55 डॉलर लग जाएंगे। ऐसा करो, तुम अगले साल चली जाना।"
मैं एक साल इंतजार नहीं कर सकती थी! अगले दिन मां ने मुझे एक भारी कोट और टोप पहनाकर बाहर बर्फ में खेलने भेजा। और मैं सीधे एलक्जेंडर महाशय की दुकान में जा पहुंची। वे सीढ़ी पर चढे हुए थे। मुझे देखते ही चहककर "हैलो" कहा।
मैं खुद को रोक न सकी। "मुझे काम चाहिए। रेल के टिकट के लिए पैसे जुटाने हैं मुझे।"
"काम! काश मैं ऐसा कर पाता, मे। देखो यहां के सारे काम बड़ों के लिए ही हैं।" सीढ़ी से उतरते हुए वे बोले।
और फ़िर मेरी रोनी सूरत को देखते हुए वे टॉफी की बरनी खोलने लगे। पर टॉफी की मिठास भी मेरे दुख को कम न कर पाई।
उस रात जब बाबा काम से आए तो चीजें और ज्यादा बिगड़ी हुई लगीं। वे धीरे-धीरे मां से कुछ कह रहे थे। बीच-बीच में दोनों सिर उठाकर मुझे देखते भी जा रहे थे। और फ़िर मुझे सुला दिया गया। इतनी जल्दी! मुझे बहुत बुरा लगा।
अगली सुबह जब मां ने मुझे उठाया तो चारों तरफ एकदम अंधेरा था। मैं चकराई। बाबा का छोटा बैग दरवाजे के पास रखा था। मैंने पूछा, "हम कहां जा रहे हैं?" वे मुस्कुराते हुए बोलीं, "चलो, नाश्ता कर लो फटापफट।"
इतने में हल्की-सी दस्तक हुई। बाबा ने दरवाजा खोला। सामने हमारे एक रिश्तेदार लियोनार्ड खड़े थे।
"जल्दी करो मे, हमें लियोनार्ड के साथ पोस्टऑफ़िस जाना है।" बाबा बैग उठाते हुए बोले। मां मेरे कोट की सिलवटें सही करने में लगी थीं। मैंने मुंह खोला ही था कि बाबा आंख दबाते हुए बोले, "न, न कोई सवाल मत करना।"
मां ने मुझे गले लगाया। मेरा माथा चूमा और मैं बाबा का हाथ थामे बाहर आ गई।
हम ग्रैंगविल पोस्टऑफ़िस पहुंचे। गोंद, कैनवस के बैग और लकड़ी के चिकने फर्श की मिली-जुली अजीब-सी गंध् आने लगी थी। तब तक बाबा पोस्टमास्टर के पास पहुंच गए थे। "डाक के नए नियमों की सूची तुम तक पहुंच गई होगी। मुझे पता है कि आजकल 50 पाउंड (लगभग 22 किलो) वजन तक की सामग्री पार्सल भेजी जा सकती है। लेकिन कैसी-कैसी चीजें पार्सल से भेजी जा सकती हैं?"
मिस्टर पार्किन्स ने अजीब-सी निगाहों से बाबा को घूरते हुए पूछा, "आपके दिमाग में क्या चल रहा है, जॉन?"
"यह मेरी बेटी मे है। मैं इसे डाक से लुइसटन पार्सल करना चाहता हूं। और आपको तो पता ही है कि लियोनार्ड रेल में डाक के डिब्बे की देख-रेख करता है। वह हमारे पार्सल का भी ख्याल कर लेगा।"
"हां, हां क्यों नहीं।" लियोनार्ड बोला।
"मैं बाबा की इस तरकीब से पूरी तरह हैरान थी।" मिस्टर पार्किन्स का भी कुछ ऐसा ही हाल था, "मे को डाक से भेजेंगे?" वे बुदबुदाए।
"देखते हैं डाक के नियम बताते हैं कि डाक से छिपकली, कीड़े या कोई दूसरी बदबूदार चीजें नहीं भेज सकते हैं।" मिस्टर पार्किन्स ने चश्मे में से मुझे देखा और हवा में सूंघते से बोले, "मेरे ख्याल से यह टैस्ट तो तुमने पास कर लिया है।"
"और लड़कियां ? क्या मुझे डाक से भेजा जा सकता है?"
"भई, नियमों की किताब में बच्चों के बारे में तो कुछ नहीं कहा गया है। लेकिन हां, चूजे जरूर भेजे जा सकते हैं।" मिस्टर पार्किन्स ने मुस्कुराते हुए बोले। "देखें तुम्हारा और तुम्हारे बैग का वजन कितना है?"
मैं फौरन एक बड़े-से तराजू पर चढ़ गई। बाबा ने मेरा बैग मेरे पास रख दिया।
"48 पाउंड और 8 सेंट। आज तक का दर्ज सबसे बड़ा चूजा।"
फ़िर एक चार्ट पर उंगली फेरते हुए वे बोले, "मे को ग्रैंगविल से लुइसटन भेजने का खर्च है 53 सेंट (लगभग 132 रूपए)। तो लियोनार्ड इस रेलगाड़ी में तुम्हें कुछ मुर्गियों का भी ख्याल रखना होगा, हूं।" वे शरारत भरे अंदाज में बोले।
कोई कुछ बोलता इससे पहले ही मिस्टर पार्किन्स ने मेरे कोट पर 53 सेंट का डाकटिकट चिपका दिया था। साथ में एक पर्ची भी थी, जिस पर दादी का पता लिखा था।
बाबा ने मुझे गले लगाया और कहा कि मैं दादी को ज्यादा परेशान न करूं। उनके जाने के बाद मैं पोस्टऑफ़िस में एक बंडल की तरह बैठ गई। लियोनार्ड ने मुझे बाकी डाक के साथ एक गाड़ी में बिठाया और प्लेटफॉर्म पर ले गया। वहां एक बड़ा-सा काला इंजन खड़ा था - धुंआ छोड़ता, जंगली सुअर की तरह फुफकारता-सा। मेरे अंदर सिहरन-सी पैदा हो गई। लगा, जैसे मैं पहले कभी रेल में बैठी ही न हूं।
रेल पर सारा सामान चढ़ा लेने के बाद लियोनार्ड ने मुझे भी डिब्बे में चढ़ाते हुए कहा, "चलने का समय हो गया, मे।"
ठीक सात बजे रेल मेरे घर से चल दी। दूर पहाड़ों की ओर। कितना रोमांचकारी लग रहा था सब!
डाक वाला डिब्बा एक छोटे-से पोस्टऑफ़िस जैसा ही लग रहा था। लियोनार्ड रास्ते में आने वाले शहरों में बांटी जाने वाली डाक की छंटाई करने लगे। मैं पास रखे स्टोव के पास दुबककर बैठ गई - ताकि गर्माहट भी मिलती रहे और नजरों में भी रहूं।
लियोनार्ड को जब भी समय मिलता वो मुझे दरवाजे के पास ले जाते। ओह, क्या बढ़िया नजारे थे! कभी हम पहाड़ों के किनारे से गुजरते, कभी सुरंग में घुसते। गहरी-गहरी खाइयां हमने लोहे की टांगों पर खड़े पुल से पार कीं।
काफी देर बाद जब रेलगाड़ी लैपवाइ नाम के दर्रे के पास पहाड़ों पर गोल-गोल होती हुई उरतने लगी तो मेरे पेट में कुछ अजीब-अजीब-सा होने लगा। उल्टी-सी होने को आई। मैं ताजी हवा लेने दरवाजे के पास दौड़ने ही वाली थी कि एक गुस्सैल आवाज कानों में पड़ी। "लियोनार्ड बेहतर है यह लड़की टिकट ले ले या निकाले पैसे।" ये हैरी मॉरिस थे। गाड़ी के टिकट चैकर। इस पर लियोनार्ड बोले, जनाब, यह सवारी नहीं सामान है। देखिए, इसके कोट पर लगी यह चिप्पी।
मॉरिस जोर से हंस पड़े और चले गए।
मिस्टर मॉरिस की डांट ने मेरे पेट की गुड़गुड़ाहट को ठीक कर दिया था। मुझे भूख भी लग आई थी। लियोनार्ड ने कहा कि खाना तो दादी के घर ही मिलेगा। टे्रन स्वीटव्हॉटर और जोसेपफ जैसे दो-एक शहरों में रूकने के बाद लुइसटन पहुंची। यह आखिरी स्टेशन था। कुछ देर बाद लियोनार्ड ने मेरा हाथ पकड़ा और इस डाक को छोड़ने चल पड़ा।
दादी को देखते ही मैं दौड़ पड़ी। मां-बाबा ने अपनी बात रख ली थी। थोड़ी-बहुत मदद अमरीकी डाक विभाग की भी रही।

साभार: चकमक मई २००९
लेखक: माइकल ओ टनेल

Tuesday, May 26, 2009

चकमक को पढते हुए

चकमक के मई अंक पर पवि ने यह समीक्षात्मक टिप्पणी लिखी और स्वंय ही टाइप की है। पवि कक्षा नौ की छात्रा है। इससे पहले भी पवि ने संवेदना की मासिक गोष्ठी की एक रिपोर्ट तैयार की थी।




चकमक को पढते-पढते मुझे सात आठ साल हो गए है । चकमक का हर अंक एक दिलचस्प किस्सा लेकर आता है । इस बार के मई अंक में भी काफी मजेदार चीजे प्रकाशित हुई है । इस अंक में छपी "अनारको के मन की घड़ी" कहानी मुझे सबसे बेहतरीन कहानी लगी, इस कहानी को सती नाथ षडंगी जी ने लिखा है, उन्होनें कहानी को इतने अच्छे ढंग से लिखा है कि कहानी पढ़ने में बडा मजा आया । इस अंक में और भी कई मजेदार कहानियॉं प्रकाशित हुई हैं, जैसे "एक चूजे की यात्रा" "ये बुजुर्ग" "बॉसुरी नही बजती बजाता है आदमी" "गधे की हजामत"। इस अंक में सिर्फ मजेदार कहानियॉं ही नहीं मसालेदार कविताऍ भी है और सबसे ज्यादा मजेदार कविता तो गुलजार जी की है "एक और अगोडा"। इस अंक के अलावा पिछले कुछ अंको में भी गुलजार जी की कविताऍ छपी हैं । हर बार की तरह इस बार के अंक में भी माथापच्ची और चित्र पहेली है । इस बार के अंक में "बहादुर शाह जफर का खत अपनी बेटी के नाम" और "क्या बताएं कि बेंजामिन फैंकलिन कौन थे" भी है । हर बार की तरह इस बार का अंक भी अच्छा है ।


-पवि

Monday, May 25, 2009

गुरूदीप खुराना की लघु कथा

गुरुदीप खुराना महत्वपूर्ण कथाकार हैं। दिखावे की किसी भी तरह की संस्कृति से उन्हें परहेज है। रचना में ही नहीं सामान्य जीवन में भी उनके मित्र उन्हें इसी तरह पाते हैं। उनकी रचनाओं की खास विशेषता है कि वे ऐसे ही, जैसे कोई बहुत चुपके से, आपके बगल में आकर कुछ कह गया हो और आप उस वक्त किसी दूसरे काम में उलझे होने के कारण उस पर ध्यान दे पाए हों लेकिन वह बात जब दुबारा दोहराई ही जानी हो तो आप उस क्षण में अपने भीतर अटक गए बहुत सारे शब्दों, स्थितियों को दोहराते हुए उस तक पहुंचने को उतावले हो जा रहे हो कि आखिर क्या कहा गया था। उनकी रचनाओं पर आलोचकों की एक खास किस्म की चुप्पी की एक वजह यह भी है। वरना नई आर्थिक औद्योगिक नीति ने किस तरह से नौकरशाहों के चरित्र को आकार दिया है, इसे जानना हो तो उनके उपन्यास बागडोर को पढ़ना जरूरी हो जाता है। उजाले अपने-अपने उनका एक अन्य उपन्यास है जो उस नयी आर्थिक नीति के कारण परेशानियों में उलझी दुनिया को बाबा महात्माओं तक ले जाने वाले कारणों और आए दिन धर्म के बाजार में नई से नई सजती जा रही दुकान के खेल का ताना बाना कैसे खड़ा होता है, इसे रखने में सक्षम है।



भाग्य
-गुरूदीप खुराना



हम तीनों एक दूसरे का हाथ थामें, साथ-साथ टहल रहे थे।
अचानक एक गोली कहीं से आकर। बीच वाले को लगी और वह वही ढेर हो गया।
गोली उसी को क्यों लगी, दोनो में से किसी को क्यों नहीं? मैनें पूछा। दूसरे ने कहा यह भाग्य है और मैं धबराया रहा।
मेरा यह भाग्यवादी साथी, निश्चित था क्यों कि उसकी कुण्डली में अस्सी पार करना लिखा था। वह खूब मस्ती में गुनगुना रहा था-जाको राखे साईया मार सके न कोए।।।
वह दोहा पूरा कर पाता इससे पहले एक और गोली कहीं से आयी और उसके सीने से आर पार हो गई।
वह भी गया। पर वह मेरा तरह घबराया हुआ नहीं रहा। वह अतं तक निश्चिंत बना रहा और मस्त रहा।

Friday, May 22, 2009

यूरो- इंगलिश : "X" WOULD NO LONGER BE PART OF THE ALPHABET

कविता कोश के सम्पादक अनिल जनविजय के द्वारा प्रेषित पत्र यहां सूचनार्थ प्रस्तुत है :-


The European Commission has just announced an agreement whereby English will be the official language of the European Union rather than German, which was the other possibility. As part of the negotiations, the British Government conceded that English spelling had some room for improvement and has accepted a 5-year phase-in plan that would become known as 'Euro-English'.

In the first year, 's' will replace the soft 'c'. Sertainly, this will make the sivil servants jump with joy. The hard 'c' will be dropped in favour of 'k'. This should klear up konfusion, and keyboards kan have one less letter. There will be growing publik enthusiasm in the sekond year when the troublesome 'ph' will be replaced with 'f'. This will make words like fotograf 20% shorter.
In the 3rd year, publik akseptanse of the new spelling kan be expekted to reach the stage where! more komplikated changes are possible.
Governments will enkourage the removal of double letters which have always ben a deterent to akurate speling.
Also, al wil agre that the horibl mes of the silent 'e' in the languag is disgrasful and it should go away.
By the 4th yer people wil be reseptiv to steps such as replasing 'th' with 'z' and 'w' with 'v'.
During ze fifz yer, ze unesesary 'o' kan be dropd from vords kontaining 'ou' and after ziz fifz yer, ve vil hav a reil sensibl riten styl.
Zer vil be no mor trubl or difikultis and evrivun vil find it ezi tu understand ech oza. Ze drem of a united urop vil finali kum tru.
Und efter ze fifz yer, ve vil al be speking German like zey vunted in ze forst plas.
If zis mad you smil, pleas pas on to oza pepl.


--
anil janvijay


रोमन लिपि में है "X"का भविष्य खतरे में



Saturday, May 16, 2009

नाटक देखो, नाटक देखो, नाटक देखो भाई

मैं उनके पीछे-पीछे, वे मेरे आगे, दौड़ते रहे। एक को तब पकड़ पाया जब धुंए के बादलों ने उसके भीतर सीलन उतारनी शुरू कर दी और सांसों की धौंकनी उसकी दौड़ने की ताकत को छीनने लगी। दूसरे को पकड़ने का आज कोई मतलब नहीं। आदमखोर समय जिसके भीतर उगते चीड़ के पेड़ से लीसे को निचोड़ता जा रहा है। पत्तियों के पुआल का इस्तेमाल कौन करेगा? मेरी स्मृतियों की दीवार पर जिस तरह 'संध्या छाया' आज भी धुंधला नहीं हुआ दूसरों की स्मृतियों में भी शायद उसी तरह दर्ज होगा 'अन्धा भोज'।
दरअसल दादा की स्मृतियां मेरे जहन में दो रूपों में मौजूद रही हैं। एक थोड़ा ढीला-ढाला चेहरा, समय जिस पर अपनी स्याही पोतते हुए, जिसे बुढापे की ओर धकेल रहा है-राम प्रसाद 'अनुज' और दूसरा, जमाने की चिड़चिड़ाहट जिसके चेहरे पर अपना अक्श छोड़ती गयी, अपनी पैनी आंखों को गोल-गोल घुमाते हुए दूसरे के सीने में छेदकर घुसने वाला- अशोक चक्रवर्ती।
मैंने जब नाटक करना शुरू किया दादा गली-गली, चौराहों-चौराहों और नु्क्कड़ों पर ''नाटक देखो, नाटक देखो, नाटक देखो भाई'' गाता फिरता था। मंचों पर होने वाले नाटक जिसके उत्साह को निचोड़ने लगे थे और 'वातायन’ नाट्य संस्था, जो देहरादून के नाट्य आंदोलन में एक चमकता किला था, दादा उसकी स्थापना से ही साथ था। पर उस चमकते किले की दीवारें दादा के भीतर घुटन पैदा करने लगी थी। नाटक को जनता तक ले जाने का जोश बन्द थियेटर से गली, सड़क और चौराहों पर भागती दौड़ती जिन्दगी के बीच नाटक करने के लिए उसे बेचैन करने लगा। मैं उस वक्त युगान्तर नाट्य संस्था में नाटक करने लगा था। यह बात 1984-85 के आस-पास की है। युगान्तर मेरा घर है इसे मैंने हमेशा महसूस किया। इसीलिए युगान्तर की कोई भी प्रस्तुति मुझे घर में होने वाले, किसी भी पारम्परिक कार्य में, असहमति के बावजूद, उपस्थित होने को मजबूर करती रही। दादा का व्यक्तित्व किस्से कहानियों के रूप में ही 'नेहरू युवक केन्द्र" की दीवारों और 'फाईव-स्टार’ के फट्टों से सुना था। दादा के साथ नाटक करने की इच्छा मुझे भी 'दृष्टि' तक खींच ले गई। पर दादा उस वक्त दृष्टि छोड़ चुका था। लेकिन दादा रब तक दृष्टि छोड चुका था । दादा के दृष्टि छोड़ने के पीछे क्या कारण रहे, ठीक से नहीं कह सकता। दृष्टि में नाटक करते हुए ही मैं मंचीय नाटक और नुक्कड़ नाटक के भेद को समझ पाया।
मंचीय नाटकों में जहां दर्शकों को जुगाड़ने में ही सारी ऊर्जा खत्म हो जाती है, वहीं नुक्कड नाट्कों में दर्शकों के पास जाकर ही नाटक करने का अनुभव दृष्टि में ही हासिल हुआ। सच कहूं तो जीवन-दृष्टि, चाहे वो जैसी भी बनी, दृष्टि में ही काम करते हुए पाई। इराक-अमेरिकी युद्ध और दुनिया के तत्कालीन बदलते चेहरे की तस्वीर को दृष्टि ने अपने एक नाटक में प्रस्तुत किया था। वह दौर नई आर्थिक और औद्योगिक नीतियों का आरम्भिक दौर था।
दुनिया के पैमाने पर पेरोस्त्रोइका और ग्लास्तनोत के बाद, बेशक छद्म ही सही, समाजवादी रूस का विखण्डन हो चुका था। बदलती हुई सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक दुनिया का चेहरा और दुनिया पर धौंस पट्टी का चालू होने वाला समाज, जैसे विषय को, दृष्टि ने कलात्मक ढंग से नाटक में दिखाया गया था। कला और विचार का ऐसा संयोजन मैंने कभी किसी भी अन्य नाटक में न देखा था। न ही मंचीय नाटकों में और न ही नुक्कड़ नाटकों में। मेरे ही नहीं बल्कि उस नाटक के सैंकड़ों दर्शको के जहन में आज भी उसकी तस्वीर ताजा होगी ही।
अफसोस, दृष्टि अपनी इस आदत से कि नाटकों की स्क्रिप्ट को संभाले कौन? हमेशा ग्रसित रहा और एक महत्वपूर्ण नाटक को सिर्फ स्मृतियों में ही छोड़ गया। दादा उस वक्त दृष्टि में नहीं था। अरूण विक्रम राणा ही सबसे वरिष्ठ साथी थे। दृष्टि का जनपक्षीय स्वरूप और सामाजिक प्रतिबद्धताओं के नाटकों का असर मुझ पर होने लगा था और उसी के चलते दादा के कहने पर भी मैं 'स्पंदन' में उनके साथ नाटक नहीं कर पाया। उस वक्त दृष्टि के जनपक्षीय नाटकों का असर मुझे भी मंचीय नाटकों से दूर कर रहा था। दादा चाहते थे मैं उनके साथ काम करूं पर वे मंचीय नाटक में व्यस्त थे। उस वक्त दादा के साथ काम न करने के बावजूद उनके साथ काम करने की इच्छा फिर भी बनी रही। 'वातायन' के नाटक 'हत्यारे', जिसका निर्देशन दादा कर रहे थे, में काम करने की इच्छा चमकदार किले की दीवारों को छूने में सहायक हुई। यह अलग वाकया है कि दादा जिस पात्र की भूमिका मुझ से करवाना चाहते रहे उसे करने के लिए किलेदारों के कानून अर्हताओं की मांग करते थे। बेशक उसका पालन उसी भूमिका को करने वाले दूसरे उस साथी जिसे ढूंढ कर लाया गया, पर लागू नहीं हुआ। फिर भी दादा के साथ उस नाटक में काम करने का अवसर नहीं गंवाया हांलाकि उसमें काम करने को कुछ ज्यादा नहीं रह गया था। पर दादा की खौफनाक आंखें कुछ ही देर पहले उन्हीं के द्वारा बताए गए किस्से के कारण उदासी के रंग में डूबने लगी थीं। दादा के साथ काम करने का आकर्षण और बढ़ता गया।
राज्य आंदोलन के दौर में जब पुलिस ज्यादितयों की आक्रमकता चालू थी, सांस्कृतिक मोर्चे का गठन दून रंग कर्मियों की सार्थक कार्रवाई थी। मोर्चे के नेतृत्व के सवाल को दादा का व्यक्तित्व ही हल कर सकता था। शारीरिक अस्वस्थता के बावजूद दादा ने मोर्चे का नेतृत्व संभाला। एक समय तक अपने दृष्टि के दो एक साथियों के साथ ही गली, चौराहों और नुक्कड़ों पर नाटक करने वाला दादा देहरादून के अधिकांश रंग कर्मियों को सड़कों पर ले जा सकने में कामयाब रहा। प्रभात फेरी में जनगीत और नाटक के लिए दर्शकों को इक्ट्ठा करते रंगकर्मी, दादा के साथ -साथ "नाटक देखो, नाटक देखो, नाटक देखो भाई" गाने लगे। यह पहला अवसर था जब देहरादून के अधिकांशत: रंगकर्मियों ने जनता से अपने को सीधे जोड़ा। लेकिन आंदोलन की जो चेतना उस वक्त राज्य-आंदोलन को निर्धारित कर रही थी, मोर्चा उसमें पूरी तरह से हस्तक्षेप नहीं कर पाया बल्कि अंततः उसी का शिकार होने लगा। शारीरिक अस्वस्थता ने भले ही दादा के शरीर को कमजोर किया था पर विचार के स्वर पर उसे डिगा नहीं पाया था और दादा ही नहीं अधिकांश लोग मोर्चे से उदासीन होते चले गए। कुछ चुप बैठ गए और कुछ दूसरी तरहों से आंदोलन में सक्रियता बनाए रखते रहे। आंदोलन के उस दौर में पूरे सांस्कृतिक-साहित्यिक माहौल से मेरा भी मोह भंग होने लगा था। एक लम्बे समय तक किसी भी तरह की कोई गतिविधि मुझे आकर्षित न कर पायी। टिप-टॉप जो कभी बैठकों का अड्डा होता था, उससे दूर रहने लगे। कभी-कभार पहुंचना हो जाता तो सिगरेट सूतता दादा मिल जाता। वरना दादा से मिलना होली वाले दिन ही संभव होता। होली के दिन, जो मेरे आत्मीय मित्र थे उनसे मिलना नहीं छोड़ा आज भी। दादा भी मेरे उन आत्मीयों में से था- होली के दिन जिसकी दाढ़ी पर गुलाल मल कर मैं अपने होने को उनके साथ दर्ज कर पाता था।
यूं घटनाओं के तौर पर ऐसा मेरे पास कुछ नहीं है जो दादा की स्मृतियों को रख सकूं। ऐसे ही एक होली का किस्सा है दूसरे मित्रों की तरह दादा भी तहमत बांधकर रंग से पुता होने के बावजूद भी मेरा इंतजार कर रहा था। कथाकार जितेन ठाकुर के घर से निकलता हुआ मैं दादा के पास पहुंचा। रंग खेलकर गले मिलना तो एक औपचारिकता होती, असली मकसद तो मिलना ही रहता। सो औपचारिकता निभाने के बाद गपियाते हुए दादा ने बताया था कि वे 'नान्दनिक' से नाटक कर रहे हैं, "तुम्हें भी उसमें काम करना है।" बिना किसी भूमिका के मुझे आदेश मिला था।
दादा के साथ काम करना वर्षों की साध थी, बस मैंने हामी भर दी। यह भी नहीं पूछा कौन सा नाटक है, किसका लिखा है। वह बंग्ला नाटक का हिन्दी अनुवाद था- नोइशे भोज ( अंधा भोज) इस तरह वर्षों से दबी इच्छा ने मुझे साहित्य और साहित्यकारों से मोहभंग की उस स्थिति से ही बाहर नहीं निकाला, जिसका जिक्र कभी वक्त पड़ने पर करूंगा, बल्कि मैंने दादा के अन्तिम नाटक 'अन्धा भोज' में काम भी किया। उस समय तक दादा गले के कैंसर के ऑपरेशन के बाद दादा शारीरिक रूप से बेहद कमजोर हो चुका था लेकिन रिहर्सल के दौरान भीतर कुलबुलाती सिगरेट की लत फिर भी उसको बेचैन करने लगती थी। जैसे ही दादा सिगरेट सुलगाता भाई प्रदीप घिल्डियाल और हरीश भट्ट की भंगिमाएं तन जाती। कमजोर होते जा रहे दादा की सेहत के लिए सिगरेट पीना ठीक नहीं था। लेकिन जब लत बेचैनी की हदों को पार करने लगती तो इस बात पर छूट मिलती कि एक सिगरेट प्रदीप भाई भी पिएगा। कभी कभार ही सिगरेट पीने वाले प्रदीप घिल्डियाल इस तरह से डिब्बे में रखी सिगरेट की संख्या को जल्द से जल्द कम कर रहे होते। अंधा भोज के तीन प्रदर्शन हुए उसके बाद दादा शारीरिक रूप से इतना कमजोर हो गया कि फिर कोई नाटक करना उसके लिए संभव ही नहीं रहा।

देहरादून रंगमंच में दादा के बाद छा गए उस शून्य को भरने की कोई सार्थक कोशिश फिर न सफल न हो पाई। विश्व रंगमंच दिवस के अवसरों पर सरकारी अनुदानों से आयेजित होने वाले समारोह भी उसे आज तक न भर पाए। दादा मुझे आज क्यों यादा आया, समझ नहीं पा रहा हूं। यूंही ब्लाग-पोस्ट लिखने को तो मैं हरगिज उन्हें याद नहीं कर रहा हूं। दून रंगमंच में फैलता शून्य टूटे और गति आए, कुछ ऐसा ही भाव मन में है। हां, सत्ताधारियों की बदलती हुई टोपियां उस गति का कारक न हो, बस। वरिष्ठ साथियों के सकारात्मक हस्तक्षेप उसे निर्घारित कर पाएं तो निश्चित ही ऐसा माहौल बनेगा जिसमें हेकड़ीबाजों की हेकड़ी के प्रदर्शन के बजाय जन-पक्षधर संस्कृति का विकास संभव होगा, ऐसी उम्मीद करता हूं।

--विजय गौड

जैसा कि पहले भी जिक्र किया जा चुका है कि इस ब्लाग को एक पत्रिका की तरह निकालना चाहते हैं। एक ऐसी पत्रिका जिसमें साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विमर्श जैसा कुछ हो और जो एक सार्थक हस्तक्षेप करने में सहायक हो। देहरादून के साहित्यिक, सांस्कृतिक माहौल को भी इसके माध्यम से पकड़ने और दर्ज करने की कोशिश भी जारी है। पिछले दिनों नवीन नैथानी के एक आलेख पर देहरादून के एक ऐसे साथी की टिप्पणी प्राप्त हुई जोसामाजीक आंदोलनों में लगातार सक्रिय रहे हैं। सुनील कैंथोला । सुनील भाई ने अपनी टिप्पणी के मार्फत देहरादून के कुछ चरित्रों को याद किया था। एक ऐसे ही चरित्र, नाटककार अशोक चक्रवर्ती को यहां याद किया गया है। सुनील कैंथोला की टिप्पणी बाक्स में दर्ज है।



अभी कुछ दिन पहले नवीन से मुलाकात हुई तो उसने अवधेश और हरजीत का जिक्र किया, मेरे पास अवधेश की हस्तलिखित गीत की कॉपी और स्कैच हैं, आरिजनल गजेन्द्र वर्मा के पास हैं। ये गीत उत्तराखण्ड आंदोलन में बहुत लोकप्रिय था और सुरेन्द्र भण्डारी के नाटक में इस्तेमाल हुआ था। कहो तो यहां इस ब्लोग में पोस्ट कर दूं !

मैंने कुछ और लोगों के बारे में भी लिखने का जिक्र किया था, जैसे 'दादा" दीपक भट्टाचार्य। "डिलाइट" के पार हिमालयन आर्म्स के सामने एक पुराना रोड़ रोलर खड़ा है, इसे देहरादून नगरपालिका ने सहारनपुर के कबाड़ियों को 60 हजार में बेच दिया था, दादा नगरपालिका में था। उसको जब पता चला तो हम लोगों को "टिपटाप" से धमकाते हुए एक डेलीगेशन के रूप में नगरपालिका ले गया, नीलामी रुकवाने के लिए, कहता था कि ये वर्ल्ड-वॉर-1 के पीरियड की टैक्नोलॉजी है, कल देहरादून के बच्चों को डेमोस्ट्रेशन करने के काम आएगा! आंदोलन के समय जहां भी दिखता, बोलता- "हां बे ! खण्ड खण्ड उत्तराखण्ड!!" फिर सलाह देता और चाय पेलता ! वो पहला आदमी था जो अपना ब्रीफकेश साइकिल के कैरियर पर बांध कर चलता था, एक बार पूछा कि इसमें रखते क्या हो तो बोला कि स्वरोजगार लोन की अप्लीकेशन हैं जो मैं प्रोसेस करता हूं। कमाल का आदमी था ! घूस खा भी लेता तो कौन सी बड़ी बात हो जाती, पर वो पक्का ईमानदार किस्म का इंसान था। वो शायद होमगार्ड में भी काम कर चुका था। हर चौराहे पर होमगार्ड वालों को धमकाना नहीं भूलता था। अफसोस कि जिस संगठन के लिए उसने दशकों काम किया वो उसके सामने बिखर गया, मेरा आशय ’वातायन’ से है!

और भी बहुत से लोग हैं कि जिनके बारे में लिखा जाना चाहिए। जैसे दूसरे दादा, शायद वो पहले हो, याने अशोक चक्रवर्ती ! एक सज्जन और थे, गुणा नन्द 'पथिक", फिर अपना टिपटाप को फोटोग्राफर अरविन्द शर्मा जो फोटोग्राफी छोड़ अवधेश-हरजीत के मोहपाश में फंस गया था, नवीन की तरह ! एक बार हरजीत ने अरविन्द को मसूरी में कवि सम्मेलन का न्योता दिलवा दिया, इन्वीटेशन (invitation) मिलने के बाद अरविन्द ने फोटोग्राफी कुछ दिन के लिए पॉज मोड (pause mode) में डाल दी, कुछ उधार भी उठा लिया कि मसूरी की पेमेंट के बाद चुका देंगे। वहां, मसूरी में कवि सम्मेलन देर से शुरू हुआ, तब तक अरविन्द भाई काफी लगा चुके थे ओर इंतजार करते-करते रिसेप्शन (reception) में ही सो गए, उधर कवि सम्मेलन शुरू होकर खत्म भी हो गया, पर अरविन्द हैं कि बाहर गढ़वाल मण्डल के रिसेप्शन (reception) के सोफे पर खर्रांटे मार रहे हैं। फिर पेमेंट का टाइम आया तो हरजीत को ध्यान आया कि अरे हमारे साथ तो कविवर अरविन्द भी आए हैं, ढूंढ कर बुलाया, पर पेमेंट देने वालों का कहना था कि जब कवि ने कविता पढ़ी नहीं तो पेमेंट कैसा ? खैर वहीं खड़े-खड़े पेमेंट के वाऊचर पर साइन करते हुए अरविन्द ने कविता सुना डाली। उसने एक उपन्यास भी लिखने की कोशिश की थी जिसे हम फेंटा कह कर बुलाते थे, यानी एक छोटे खुले पन्नों वाला उपन्यास जिसको पढ़ना शुरू करो, अगर फिर भी मजा ना आए तो एक बार फिर---

- सुनील कैंथोला