Friday, June 19, 2009

सिर्फ़ एक फ़ोटो

क्या कुछ लिखा जाए इस पर ?
यह स्वर्गारोहिणी है।






चित्र-विजय गौड 12 June 2009

Friday, June 5, 2009

रात किसी पुरातन समय का एक टुकड़ा है




कहानी: मर्सिया
लेखक: योगेन्द्र आहूजा
पाठ : विजय गौड
पाठ समय- 1 घंटा 17 मिनट

मैंने अन्यत्र लिखा था कि योगेन्द्र की कहानियां अपने पाठ में नाटकीय प्रभाव के साथ हैं। उनमें नैरेटर इस कदर छुपा बैठा होता है कि कहानियों को पढ़ते हुए सुने जाने का सुख प्राप्त किया जा सकता है। मर्सिया में तो उनकी यह विशिष्टता स्पष्ट परिलक्षित होती है। योगेन्द्र की कहानियों पर पहले भी लिखा जा चुका है। इसलिए अभी उन पर और बात करने की बजाय प्रस्तुत है उनकी कहानी मर्सिया का यह नाट्य पाठ। मर्सिया को अपने कुछ साथियों के साथ, उसके प्रकाशन के वक्त नाटक रूप में मंचित भी किया जा चुका है।

कथा पाठ में कई ज्ञात और अज्ञात कलाकारों के स्वरों का इस्तेमाल किया गया है। सभी का बहुत बहुत आभार। कुछ कलाकार जिनके बारे में सूचना है, उनमें से कुछ के नाम है - उस्ताद राशिद खान, पं जस राज महाराज, सुरमीत सिंह, पं भीमसेन जोशी ।



कहानी को यहां से डाउनलोड किया जा सकता है

Tuesday, June 2, 2009

एक चूजे की यात्रा


यह एक सच्ची कहानी है। 1 जनवरी 1913 के दिन अमरीकी डाक विभाग ने घरेलू पार्सल सेवा शुरू की थी और फरवरी 1914 के दिन पांच साल की शार्लट मे को ग्रैंगविल से लुइसटन, इदाहो तक चूजों की श्रेणी में बतौर पार्सलभेजा गया। कौन ऐसा बच्चा होगा जिसने बंद डिब्बे में बैठकर नानी के घर जाने की कल्पना की होगी!
उन दिनों सड़कें भी इतनी अच्छी थीं कि 75 मील का दूभर पहाड़ी सफर तय किया जा सके। ट्रैन ही यात्रा कासबसे उपयुक्त जरिया था। डाक और टेलीग्राफ के अलावा किसी और तरीके से संदेश पहुंचाना कापफी कठिन कामथा। मे को भेजा जाना इतना अचानक तय हुआ कि दादी मेरी को इसकी खबर भी की जा सकी थी। या हो सकता है मे के माता-पिता इस अतिरिक्त खर्च से बचना चाहते थे।


एक दिन मां-बाबा ने मुझसे कहा कि मैं कुछ दिनों के लिए अपनी दादी के घर जा सकती हूं। यह तो उनको भी मालूम था कि वे हजारों मील दूर रहती हैं, इदाहो के पहाड़ों के उस पार!
फ़िर कई दिनों तक इस पर कोई बात नहीं हुई। मैंने ही एक दिन मां से पूछा। उन्होंने लंबी आह भरी। सिर हिलाया और काम में लगी रहीं। जब बाबा से पूछा तो बोले, "मे बेटा, इतने पैसे कहां हैं? रेलगाड़ी से वहां तक जाने में 55 डॉलर लग जाएंगे। ऐसा करो, तुम अगले साल चली जाना।"
मैं एक साल इंतजार नहीं कर सकती थी! अगले दिन मां ने मुझे एक भारी कोट और टोप पहनाकर बाहर बर्फ में खेलने भेजा। और मैं सीधे एलक्जेंडर महाशय की दुकान में जा पहुंची। वे सीढ़ी पर चढे हुए थे। मुझे देखते ही चहककर "हैलो" कहा।
मैं खुद को रोक न सकी। "मुझे काम चाहिए। रेल के टिकट के लिए पैसे जुटाने हैं मुझे।"
"काम! काश मैं ऐसा कर पाता, मे। देखो यहां के सारे काम बड़ों के लिए ही हैं।" सीढ़ी से उतरते हुए वे बोले।
और फ़िर मेरी रोनी सूरत को देखते हुए वे टॉफी की बरनी खोलने लगे। पर टॉफी की मिठास भी मेरे दुख को कम न कर पाई।
उस रात जब बाबा काम से आए तो चीजें और ज्यादा बिगड़ी हुई लगीं। वे धीरे-धीरे मां से कुछ कह रहे थे। बीच-बीच में दोनों सिर उठाकर मुझे देखते भी जा रहे थे। और फ़िर मुझे सुला दिया गया। इतनी जल्दी! मुझे बहुत बुरा लगा।
अगली सुबह जब मां ने मुझे उठाया तो चारों तरफ एकदम अंधेरा था। मैं चकराई। बाबा का छोटा बैग दरवाजे के पास रखा था। मैंने पूछा, "हम कहां जा रहे हैं?" वे मुस्कुराते हुए बोलीं, "चलो, नाश्ता कर लो फटापफट।"
इतने में हल्की-सी दस्तक हुई। बाबा ने दरवाजा खोला। सामने हमारे एक रिश्तेदार लियोनार्ड खड़े थे।
"जल्दी करो मे, हमें लियोनार्ड के साथ पोस्टऑफ़िस जाना है।" बाबा बैग उठाते हुए बोले। मां मेरे कोट की सिलवटें सही करने में लगी थीं। मैंने मुंह खोला ही था कि बाबा आंख दबाते हुए बोले, "न, न कोई सवाल मत करना।"
मां ने मुझे गले लगाया। मेरा माथा चूमा और मैं बाबा का हाथ थामे बाहर आ गई।
हम ग्रैंगविल पोस्टऑफ़िस पहुंचे। गोंद, कैनवस के बैग और लकड़ी के चिकने फर्श की मिली-जुली अजीब-सी गंध् आने लगी थी। तब तक बाबा पोस्टमास्टर के पास पहुंच गए थे। "डाक के नए नियमों की सूची तुम तक पहुंच गई होगी। मुझे पता है कि आजकल 50 पाउंड (लगभग 22 किलो) वजन तक की सामग्री पार्सल भेजी जा सकती है। लेकिन कैसी-कैसी चीजें पार्सल से भेजी जा सकती हैं?"
मिस्टर पार्किन्स ने अजीब-सी निगाहों से बाबा को घूरते हुए पूछा, "आपके दिमाग में क्या चल रहा है, जॉन?"
"यह मेरी बेटी मे है। मैं इसे डाक से लुइसटन पार्सल करना चाहता हूं। और आपको तो पता ही है कि लियोनार्ड रेल में डाक के डिब्बे की देख-रेख करता है। वह हमारे पार्सल का भी ख्याल कर लेगा।"
"हां, हां क्यों नहीं।" लियोनार्ड बोला।
"मैं बाबा की इस तरकीब से पूरी तरह हैरान थी।" मिस्टर पार्किन्स का भी कुछ ऐसा ही हाल था, "मे को डाक से भेजेंगे?" वे बुदबुदाए।
"देखते हैं डाक के नियम बताते हैं कि डाक से छिपकली, कीड़े या कोई दूसरी बदबूदार चीजें नहीं भेज सकते हैं।" मिस्टर पार्किन्स ने चश्मे में से मुझे देखा और हवा में सूंघते से बोले, "मेरे ख्याल से यह टैस्ट तो तुमने पास कर लिया है।"
"और लड़कियां ? क्या मुझे डाक से भेजा जा सकता है?"
"भई, नियमों की किताब में बच्चों के बारे में तो कुछ नहीं कहा गया है। लेकिन हां, चूजे जरूर भेजे जा सकते हैं।" मिस्टर पार्किन्स ने मुस्कुराते हुए बोले। "देखें तुम्हारा और तुम्हारे बैग का वजन कितना है?"
मैं फौरन एक बड़े-से तराजू पर चढ़ गई। बाबा ने मेरा बैग मेरे पास रख दिया।
"48 पाउंड और 8 सेंट। आज तक का दर्ज सबसे बड़ा चूजा।"
फ़िर एक चार्ट पर उंगली फेरते हुए वे बोले, "मे को ग्रैंगविल से लुइसटन भेजने का खर्च है 53 सेंट (लगभग 132 रूपए)। तो लियोनार्ड इस रेलगाड़ी में तुम्हें कुछ मुर्गियों का भी ख्याल रखना होगा, हूं।" वे शरारत भरे अंदाज में बोले।
कोई कुछ बोलता इससे पहले ही मिस्टर पार्किन्स ने मेरे कोट पर 53 सेंट का डाकटिकट चिपका दिया था। साथ में एक पर्ची भी थी, जिस पर दादी का पता लिखा था।
बाबा ने मुझे गले लगाया और कहा कि मैं दादी को ज्यादा परेशान न करूं। उनके जाने के बाद मैं पोस्टऑफ़िस में एक बंडल की तरह बैठ गई। लियोनार्ड ने मुझे बाकी डाक के साथ एक गाड़ी में बिठाया और प्लेटफॉर्म पर ले गया। वहां एक बड़ा-सा काला इंजन खड़ा था - धुंआ छोड़ता, जंगली सुअर की तरह फुफकारता-सा। मेरे अंदर सिहरन-सी पैदा हो गई। लगा, जैसे मैं पहले कभी रेल में बैठी ही न हूं।
रेल पर सारा सामान चढ़ा लेने के बाद लियोनार्ड ने मुझे भी डिब्बे में चढ़ाते हुए कहा, "चलने का समय हो गया, मे।"
ठीक सात बजे रेल मेरे घर से चल दी। दूर पहाड़ों की ओर। कितना रोमांचकारी लग रहा था सब!
डाक वाला डिब्बा एक छोटे-से पोस्टऑफ़िस जैसा ही लग रहा था। लियोनार्ड रास्ते में आने वाले शहरों में बांटी जाने वाली डाक की छंटाई करने लगे। मैं पास रखे स्टोव के पास दुबककर बैठ गई - ताकि गर्माहट भी मिलती रहे और नजरों में भी रहूं।
लियोनार्ड को जब भी समय मिलता वो मुझे दरवाजे के पास ले जाते। ओह, क्या बढ़िया नजारे थे! कभी हम पहाड़ों के किनारे से गुजरते, कभी सुरंग में घुसते। गहरी-गहरी खाइयां हमने लोहे की टांगों पर खड़े पुल से पार कीं।
काफी देर बाद जब रेलगाड़ी लैपवाइ नाम के दर्रे के पास पहाड़ों पर गोल-गोल होती हुई उरतने लगी तो मेरे पेट में कुछ अजीब-अजीब-सा होने लगा। उल्टी-सी होने को आई। मैं ताजी हवा लेने दरवाजे के पास दौड़ने ही वाली थी कि एक गुस्सैल आवाज कानों में पड़ी। "लियोनार्ड बेहतर है यह लड़की टिकट ले ले या निकाले पैसे।" ये हैरी मॉरिस थे। गाड़ी के टिकट चैकर। इस पर लियोनार्ड बोले, जनाब, यह सवारी नहीं सामान है। देखिए, इसके कोट पर लगी यह चिप्पी।
मॉरिस जोर से हंस पड़े और चले गए।
मिस्टर मॉरिस की डांट ने मेरे पेट की गुड़गुड़ाहट को ठीक कर दिया था। मुझे भूख भी लग आई थी। लियोनार्ड ने कहा कि खाना तो दादी के घर ही मिलेगा। टे्रन स्वीटव्हॉटर और जोसेपफ जैसे दो-एक शहरों में रूकने के बाद लुइसटन पहुंची। यह आखिरी स्टेशन था। कुछ देर बाद लियोनार्ड ने मेरा हाथ पकड़ा और इस डाक को छोड़ने चल पड़ा।
दादी को देखते ही मैं दौड़ पड़ी। मां-बाबा ने अपनी बात रख ली थी। थोड़ी-बहुत मदद अमरीकी डाक विभाग की भी रही।

साभार: चकमक मई २००९
लेखक: माइकल ओ टनेल

Tuesday, May 26, 2009

चकमक को पढते हुए

चकमक के मई अंक पर पवि ने यह समीक्षात्मक टिप्पणी लिखी और स्वंय ही टाइप की है। पवि कक्षा नौ की छात्रा है। इससे पहले भी पवि ने संवेदना की मासिक गोष्ठी की एक रिपोर्ट तैयार की थी।




चकमक को पढते-पढते मुझे सात आठ साल हो गए है । चकमक का हर अंक एक दिलचस्प किस्सा लेकर आता है । इस बार के मई अंक में भी काफी मजेदार चीजे प्रकाशित हुई है । इस अंक में छपी "अनारको के मन की घड़ी" कहानी मुझे सबसे बेहतरीन कहानी लगी, इस कहानी को सती नाथ षडंगी जी ने लिखा है, उन्होनें कहानी को इतने अच्छे ढंग से लिखा है कि कहानी पढ़ने में बडा मजा आया । इस अंक में और भी कई मजेदार कहानियॉं प्रकाशित हुई हैं, जैसे "एक चूजे की यात्रा" "ये बुजुर्ग" "बॉसुरी नही बजती बजाता है आदमी" "गधे की हजामत"। इस अंक में सिर्फ मजेदार कहानियॉं ही नहीं मसालेदार कविताऍ भी है और सबसे ज्यादा मजेदार कविता तो गुलजार जी की है "एक और अगोडा"। इस अंक के अलावा पिछले कुछ अंको में भी गुलजार जी की कविताऍ छपी हैं । हर बार की तरह इस बार के अंक में भी माथापच्ची और चित्र पहेली है । इस बार के अंक में "बहादुर शाह जफर का खत अपनी बेटी के नाम" और "क्या बताएं कि बेंजामिन फैंकलिन कौन थे" भी है । हर बार की तरह इस बार का अंक भी अच्छा है ।


-पवि

Monday, May 25, 2009

गुरूदीप खुराना की लघु कथा

गुरुदीप खुराना महत्वपूर्ण कथाकार हैं। दिखावे की किसी भी तरह की संस्कृति से उन्हें परहेज है। रचना में ही नहीं सामान्य जीवन में भी उनके मित्र उन्हें इसी तरह पाते हैं। उनकी रचनाओं की खास विशेषता है कि वे ऐसे ही, जैसे कोई बहुत चुपके से, आपके बगल में आकर कुछ कह गया हो और आप उस वक्त किसी दूसरे काम में उलझे होने के कारण उस पर ध्यान दे पाए हों लेकिन वह बात जब दुबारा दोहराई ही जानी हो तो आप उस क्षण में अपने भीतर अटक गए बहुत सारे शब्दों, स्थितियों को दोहराते हुए उस तक पहुंचने को उतावले हो जा रहे हो कि आखिर क्या कहा गया था। उनकी रचनाओं पर आलोचकों की एक खास किस्म की चुप्पी की एक वजह यह भी है। वरना नई आर्थिक औद्योगिक नीति ने किस तरह से नौकरशाहों के चरित्र को आकार दिया है, इसे जानना हो तो उनके उपन्यास बागडोर को पढ़ना जरूरी हो जाता है। उजाले अपने-अपने उनका एक अन्य उपन्यास है जो उस नयी आर्थिक नीति के कारण परेशानियों में उलझी दुनिया को बाबा महात्माओं तक ले जाने वाले कारणों और आए दिन धर्म के बाजार में नई से नई सजती जा रही दुकान के खेल का ताना बाना कैसे खड़ा होता है, इसे रखने में सक्षम है।



भाग्य
-गुरूदीप खुराना



हम तीनों एक दूसरे का हाथ थामें, साथ-साथ टहल रहे थे।
अचानक एक गोली कहीं से आकर। बीच वाले को लगी और वह वही ढेर हो गया।
गोली उसी को क्यों लगी, दोनो में से किसी को क्यों नहीं? मैनें पूछा। दूसरे ने कहा यह भाग्य है और मैं धबराया रहा।
मेरा यह भाग्यवादी साथी, निश्चित था क्यों कि उसकी कुण्डली में अस्सी पार करना लिखा था। वह खूब मस्ती में गुनगुना रहा था-जाको राखे साईया मार सके न कोए।।।
वह दोहा पूरा कर पाता इससे पहले एक और गोली कहीं से आयी और उसके सीने से आर पार हो गई।
वह भी गया। पर वह मेरा तरह घबराया हुआ नहीं रहा। वह अतं तक निश्चिंत बना रहा और मस्त रहा।