Thursday, August 6, 2009

सबी धाणी देहरादून, होणी खाणी देहरादून



उत्तराखण्ड की स्थायी राजधानी के सवाल पर गठित दीक्षित आयोग की रिपोर्ट जिस तरह से राजधानी के सवाल का हल ढूंढती है उससे यह साफ हो गया है कि राज्य का गठन ही उन जन भावनाओं के साथ नहीं हुआ जिसमें अपने जल, जंगल और जमीन पर यकीन करने वाली जनता के सपनों का संसार आकार ले सकता है।
गैरसैंण जो राज्य आंदोलन के समय से ही राजधानी के रूप में जनता की जबान पर रहा और रिपोर्ट के प्रस्तुत हो जाने के बाद भी है, उसको जिन कारणों से आयोग ने स्थायी राजधानी के लिए उपयुक्त नहीं माना, उत्तराखण्ड का राज्य आंदोलन वैसे ही सवालों का लावा था। भौगालिक विशिष्टता जो पहाड़ का सच है, यातायात के समूचित साधनों का होना और दूसरे उन स्थितियों का अभाव जो शहरी क्षेत्र के विकास की संभावनाओं को जन्म देने वाली होती हैं गैरसैंण का ही नहीं बल्कि उत्तराखण्ड के एक विशाल क्षेत्र का सच रहा। बावजूद इसके जनता ने गैरसैंण को ही राज्य की राजधानी माना तो तय है कि एक साफ समझ इसके पीछे रही कि यदि राजधानी किसी ठेठ पहाड़ी इलाके में बनेगी तो उन सारी संभावनाओं के रास्ते खुलेंगे। लेकिन विकास के टापू बनाने वाले तंत्र का हिमायती दीक्षित आयोग शुद्ध मुनाफे वाली मानसिकता के साथ देहरादून को ही स्थायी राजधानी के लिए चुन रहा है, जहां दूसरे पहाड़ी क्षेत्रों की अपेक्षा स्थिति कुछ बेहतर है। दूसरा गढ़वाल और कुमाऊ के दो बड़े क्षेत्रों में फैले उत्तराखण्ड राज्य का लगभग एक भौगोलिक केन्द्र होना भी गैरसैंण को राजधानी के लिए उपयुक्त तर्क रहा, जिसके चलते भी गैरसैंण जनता के सपनों की राजधानी आज भी बना हुआ है। नैनीताल समाचार के सम्पादक और सक्रिय राज्य आंदोलनकारी राजीवलोचन शाह के आलेख का प्रस्तुत अंश ऐसे ही सवालों को छेड़ रहा है।
-वि़.गौ.




राजीवलोचन शाह


देहरादून में अखबार कुकुरमुत्तों की तरह फैल रहे हैं। शराब के बड़े ठेकेदार और भू माफिया रंगीन पत्रिकायें निकाल रहे हें और उनके संवाददाता किसी भी आन्दोलनात्मक गतिविधि को उपहास की तरह देखते हैं। जब उनके मालिक अपने धंधे निपटा रहे हैं तो वे भी क्यों न मंत्रियों विधायकों के साथ गलबहिंयां डाले अपने लिए विलास के साधन जुटाने में लगें ? उनके लिए सिर्फ भगवान से प्रार्थना की जा सकती है कि उन्हें सदबुद्धि मिले।
लेकिन उन पुराने पत्रकारों,जो कि कभी राज्य आन्दोलन की रीढ़ हुआ करते थे,के पतन पर वास्तव में दुख होता है। क्या उनका जमीर इतना सस्ता था? क्या उनके लालच इतने छोटे थे कि नौ साल में प्राप्त छाटे माटे प्रलोभनों में ही वे फिसल गये? क्या उनके पास उाराखंड राज्य आन्दोलन की ही तरह इस नवोदित प्रदेश के लिए कोई सपना नहीं था? वे इतना भी नहीं जानते कि राजधानी शासन प्रशासन का एक केन्द्र होता हे, बाजार या स्वास्थ्य शिक्षा की सुविधाओं का नहीं। राजधानी एक विचार होता है और गैरसैंण तो हमारी कल्पनाशीलता ओर रचनात्मकता के लिए असीमित संभावनायें भी छोड़ता है। जिस तरह कुम्हार एक मिट्टी के लोंदे को आकार देता है हम दसियों मील तक फैले इस खूबसूरत पर्वतीय प्रांतर को गढ़ सकते हैं। मुगलों और अंग्रेजों ने इतने खूबसूरत शहर बसाये ,हम क्यों नहीं बसा सकते ? लेकिन नहीं, भ्रष्ट हो चुके दिमागों में सकारात्मक सोच आ ही नहीं सकती।
यह इस "बागी" हो चुके मीडिया और अपनी अपनी जगहों पर फिट हो चुके आन्दोलनकारियों के ही कुकर्म हैं कि उत्तराखंड आन्दोलन के मु्द्दे अब शहरों, खासकर देहरादून में भी उतनी भीड़ नहीं जुटा पाते। लेकिन आन्दोलन के मुद्दे तो अभी जीवित हैं। पहाड़ के दूरस्थ इलाके तो अभी भी उतने ही उपेक्षित उतने ही पिछड़े हैं,जितने उत्तराखंड राज्य बनने से पहले थे। वहां से कुछ चुनिन्दा लोग, जिनके पास कुछ था, बेच बाच कर देहरादून, ऋषिकेश, कोटद्वार,हल्द्वानी, टनकपुर या रामनगर में अवश्य आ बसे हैं लेकिन वहां की बहुसंख्य जनता तो अभी भी बदहाली में जी रही है । तो क्या वह अपने हालातों को अनन्त काल तक यूं ही स्वीकार किये रहेगी? कभी न कभी तो वह उठ खड़ी होगी और जब वह खड़ी होगी तो भ्रष्ट हुए आन्दोलनकारियों की भी पिटाई लगायेगी और मीडिया की भी। गैरसैण तो एक टिमटिमाते हुए दिये की तरह उनकी स्मृति में है ओर बना रहेगा---तब तक जब तक उत्तराखंड राज्य, बलिदानी शहीदों की आकांक्षाओं के अनुरूप एक खुशहाल राज्य नहीं बन जाता।





प्रस्तुति;
दिनेश चन्द्र जोशी
युगवाणी से साभार


शीर्षक: उत्तराखण्ड के लोक गायक नरेन्द्र सिंह नेगी के गीत की पंक्ति

Wednesday, August 5, 2009

चलो चलें मेरे हम सफर इंक्लाब की राह पर

अरविन्द शेखर मेरा मित्र है। अखबार में काम करता है । अरविन्द के व्यक्तित्व पर कभी फिर बात हो सकती है पर जिस वजह से मैं यहां उसका जिक्र करना चाहता हूं वह यही कि निरंतर सामाजिक बदलाव के सपनों को देखने वाले अरविन्द के मार्फत मैं पाकिस्तान के लाल बैंड तक पहुंच पाया हूं। एक ऐसे बैंण्ड तक जिसके युवा साथियों के जोश और इंक्लाबी जुनून को यू टयूब में देखा और सुना जा सकता है। शाहराम, तैमूर रहमान, हैदर रहमान और महाविश वकार जैसे लाल बैंड के युवा साथियों का जोश जिन कारणों से उल्लेखनीय है उसे उनके ही मुंह से सुना जा सकता है। वे कहते हैं कि हमारा संगीत आवाम की निजात के लिए है। गरीबी और बदहाली में जीती पाकिस्तानी आवाम के प्रति अपने प्रतिबद्धता को प्रकट करते हुए उनको सुना जा सकता है कि हमारी कोशिश खुद का विकास भी है और युवाओं में प्रगतिशील चेतना को प्रसार भी। लाल बैण्ड का सफर उम्मीद-ए-सहर का सफर है। जिसमें हबीब जालिब, फैज अहमद फैज और अहमद फराज जैसे तरक्की पसंद शाइरों की शाइरी गूंज रही है। अरविन्द के ही हवाले से एक रिपोर्ट भी यहां प्रस्तुत है:-



उत्तराखंड की तीन संरक्षित विरासतें गुम

देहरादून।
उत्तराखंड में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित 44 विरासतों में से तीन का कोई अता-पता नहीं है। अल्मोड़ा जिले की रानीखेत तहसील के द्वाराहाट स्थित कुटंबरी मंदिर, हरिद्वार जिले की रुड़की तहसील के खेड़ा की बंदी और नैनीताल जिले की रामनगर तहसील के ढिकुली स्थित विराटपत्तन की प्राचीन इमारतों के अवशेषों का भी कुछ पता नहीं है।

उत्तराखंड में केंद्रीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का देहरादून सर्किल प्रदेश में 44 पुरातात्विक महत्व के ढांचों और स्थानों का देखरेख करता है। इनमें से तीन का गुम हो जाना अचरज की बात है। मालूम हो कि हाल में ही केंद्र सरकार ने स्वीकार किया है कि देश भर में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित कुल 3675 पुरातात्विक महत्व की इमारतों व स्थानों में से 36 गुम हो गई हैं। इनमें से तीन उत्तराखंड, 12 दिल्ली की, आठ यूपी की, तीन जम्मू कश्मीर, दो राजस्थान, दो हरियाणा, दो गुजरात, दो कर्नाटक व एक-एक असम व अरुणाचल प्रदेश से हैं। देहरादून सर्किल के अधीक्षण पुरातत्वविद डा. देवकी नंदन डिमरी का कहना है कि पचास के दशक में जब देश में पहली बार पुरातत्व स्थलों की सूची बनाई गई तो उसमें कई नाम स्थानीय लोगों की सूचना पर दर्ज कर लिए गए। इनमें से कई स्थानों का पुरातत्व विभाग ने भौतिक सत्यापन भी नहीं किया। तब पुरातत्व विभाग ने द्वाराहाट के कुटुंबरी मंदिर के बारे में स्थानीय लोगों से जानकारी चाही तो उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं थी। बहुत संभव है कि वह द्वाराहाट के मंदिर समूहों में से ही कोई मंदिर रहा हो या समय की मार से नष्ट हो गया हो। ढिकुली के विराटपत्तन के बारे में कहा जाता है कि यहां महाभारत का विराटनगर था और यहां पांडव आए थे। वैसे ढिकुली में कत्यूरी शासक जाड़ों में धूप तापने आते थे। यहां आज भी खुदाई में कत्यूरी काल की इमारतों के अवशेष मिल जाते हैं, लेकिन एएसआई के मुताबिक विराटपत्तन का अब तक कुछ पता नहीं है। तीसरी गुम हुई जगह रुड़की की खेड़ा बांदी कब्र है। डा. डिमरी का कहना है कि खेड़ा बांदी के गुम होने के बारे में भ्रम है, क्योंकि इसी नाम का एक स्थल आगरा सर्किल में भी संरक्षित है। दरअसल पचास के दशक में जब पुरातात्विक जगहों का नोटिफिकेशन हुआ तब तक यह क्षेत्र सहारनपुर जिले में था। उस समय रुड़की, हरिद्वार भी सहारनपुर जिले में था।

Tuesday, August 4, 2009

कुर्दिस्तान की कविता



फिलीस्तीन जैसा करीब 4 करोड़ की आबादी वाला काल्पनिक (अ-वास्तविक ) देश है कुर्दिस्तान जो मध्यपूर्व की दुर्गम पहाड़ियों में बसा हुआ तो है पर भूगोल की किताबों में इसका कोई जिक्र नहीं मिलेगा--- भौगोलिक स्तर पर यदि देखा जाए तो जिसको लाग कुर्दिस्तान मानते हैं उसका आकार फ़्रांस जितना होगा--- तुर्की, इरान और इराक जैसे देशों में कुर्द आबादी बनती हुई है---और पूरी दुनिया में लाखों कुर्द लोग बनते बिखरते हुए हैं--- इराक में इनको अलग राजनैतिक पहचान मिली हुई है और पिछले दिनों इस इलाके में चुनाव सम्पन्न हुए थे--- अकूत प्राकृतिक सम्पदा (मुख्यतौर पर तेल) इस क्षेत्र में जमीन के गर्भ में दबी होने के कारण पश्चिम देशों की निगाहें इन पर लगी हुई हैं।
अब्दुल्ला पेसिऊ इसी कुर्दिस्तान के कवि हैं।

परिचय: 1946 में इराकी कुर्दिस्तान में जन्म। कुर्द लेखक संगठन के सक्रिय कार्यकर्ता। अध्यापन के प्रारंभिक प्रशिक्षण के बाद सोवियत संघ्ा (तत्कालीन) से डाक्टरेट। कुछ वर्षों तक लीबिया में प्राफेसर। फिर 1995 से फिनलैंड में रह रहे हैं। 1963 में पहली कविता प्रकाशित, करीब दस काव्यसंकलन प्रकाशित। अनेक विश्व कवियों का अपनी भाषा में अनुवाद प्रकाशित।

-यादवेन्द्र


अब्दुल्ला पेसिऊ




तलवार


मैं नंगी तलवार हूं
और मेरी मातृभूमि उसकी म्यांन
जिसे चोरी कर ले गया कोई और
यह मत सोचना कि रक्त पिपासु हो गया हूं मैं
अपने इर्द गिर्द देखो
उस चोर को ढूंढ निकालो
जिसने नंगा कर दिया है मुझे।



शर्त

नहीं, मैं बिल्कुल नहीं हूं विरोधी
तानाशाहों का
उन्हें फैला लेने दो पग-पग पर अपने पैर
सम्पूर्ण विश्व में
ईश्वर के प्रतिबिंब की तरह
पर एक ही शर्त रहेगी मेरी-
बन जाने दो ताना्शाह दुनिया के तमाम बच्चों को।



अज्ञात सैनिक


यदि अचानक बाहर से कोई आए
और मुझसे पूछे:
यहां कहां है अज्ञात सैनिक की कब्र?
मैं कहूंगा उससे:
सर, आप किसी भी नदी के किनारे चले जाएं
आप किसी भी मस्जिद की बैंच पर बैठ जाएं
आप किसी भी घर की छाया में खड़े हो जाएं
आप किसी भी चर्च की दहलीज पर कदम रख दें
किसी कंदरा के मुहाने पर
किसी पर्वत की किसी शिला पर
किसी बाग के किसी वृक्ष के नीचे
मेरे देश में
कहीं भी किसी कोने में
असीम आका्श के नीचे कहीं भी-
फिक्र मत करिए बिल्कुल भी
थोड़ा सा नीचे झुकिए
और रख दीजिए फूलों की माला
चाहे कहीं भी---

अनुवाद: यादवेन्द्र


यादवेन्द्र जी द्वारा अनुदित अब्दुल्ला पेसिऊ की अन्य कविताएं भी आप आगे पढते रहेंगे।

Thursday, July 30, 2009

गनीमत हो





बारिश के रुकने के बाद
मौसम खुला तो
रूइनसारा ताल के नीचे से
दिख गई स्वर्गारोहिणी
आंखों में दर्ज हो चुका
दिखा पाऊं तुम्हें,
खींच ही लाया बस तस्वीर

ललचा क्यों रही हो
ले चलूंगा तुम्हे कभी
कर लेना दर्शन खुद ही-
पिट्ठू तैयार कर लो
गरम कपड़े रख लो
सोने के लिए कैरी मैट और स्लिपिंग बैग भी
टैंट ले चलूंगा
बस कस लो जूते

चढ़ाई-उतराई भरे रास्ते पर चलते हुए
रूइनसारा के पास पहुंचकर ही जानोगी,
झलक भर दर्शन को कैसे तड़फता है मन
कितनी होती है बेचैनी
और झल्लाहट भी

गनीमत हो कि मौसम खुले
और स्वर्गारोहिणी दिखे।

Tuesday, July 21, 2009

उम्मीदों की एक नई पहल

अभी अभी एक मेल प्राप्त हुई। एक ऎसी खबर जिसके सच होने की कामना ही की जा सकती है।

प्रिय मित्र,

कुछ समय पहले सुप्रतिष्ठित पत्रिका पहल कुछ समय के लिए स्थगित कर दी गई थी। संपादक ज्ञानरंजन की ओर से की गई इस घोषणा को लेकर साहित्य एवं बौद्धिक जगत में अच्छा-ख़ासा विवाद भी उठ खड़ा हुआ था। पहल के चाहने वालों को पत्रिका का इस तरह अचानक बंद होना बेहद अखरा था।

लेकिन अब खुशी की बात ये है कि पहल को फिर से शुरू करने की योजना बन रही है। इस ख़बर को लेकर आप क्या सोचते हैं ये संपादक ज्ञानरंजन और पत्रिका को फिर से शुरू करने वाले लोग जानना चाहते हैं। अत: आपसे निवेदन है कि अपनी विचार हमें फौरन info@deshkaal.com पर भेजें।

हम आपकी प्रतिक्रिया का व्यग्रता से इंतज़ार कर रहे हैं, इसलिए भूलें नहीं।

धन्यवाद एवं शुभकामनाएं।
संपादक
www.deshkaal.com