Tuesday, August 4, 2009

कुर्दिस्तान की कविता



फिलीस्तीन जैसा करीब 4 करोड़ की आबादी वाला काल्पनिक (अ-वास्तविक ) देश है कुर्दिस्तान जो मध्यपूर्व की दुर्गम पहाड़ियों में बसा हुआ तो है पर भूगोल की किताबों में इसका कोई जिक्र नहीं मिलेगा--- भौगोलिक स्तर पर यदि देखा जाए तो जिसको लाग कुर्दिस्तान मानते हैं उसका आकार फ़्रांस जितना होगा--- तुर्की, इरान और इराक जैसे देशों में कुर्द आबादी बनती हुई है---और पूरी दुनिया में लाखों कुर्द लोग बनते बिखरते हुए हैं--- इराक में इनको अलग राजनैतिक पहचान मिली हुई है और पिछले दिनों इस इलाके में चुनाव सम्पन्न हुए थे--- अकूत प्राकृतिक सम्पदा (मुख्यतौर पर तेल) इस क्षेत्र में जमीन के गर्भ में दबी होने के कारण पश्चिम देशों की निगाहें इन पर लगी हुई हैं।
अब्दुल्ला पेसिऊ इसी कुर्दिस्तान के कवि हैं।

परिचय: 1946 में इराकी कुर्दिस्तान में जन्म। कुर्द लेखक संगठन के सक्रिय कार्यकर्ता। अध्यापन के प्रारंभिक प्रशिक्षण के बाद सोवियत संघ्ा (तत्कालीन) से डाक्टरेट। कुछ वर्षों तक लीबिया में प्राफेसर। फिर 1995 से फिनलैंड में रह रहे हैं। 1963 में पहली कविता प्रकाशित, करीब दस काव्यसंकलन प्रकाशित। अनेक विश्व कवियों का अपनी भाषा में अनुवाद प्रकाशित।

-यादवेन्द्र


अब्दुल्ला पेसिऊ




तलवार


मैं नंगी तलवार हूं
और मेरी मातृभूमि उसकी म्यांन
जिसे चोरी कर ले गया कोई और
यह मत सोचना कि रक्त पिपासु हो गया हूं मैं
अपने इर्द गिर्द देखो
उस चोर को ढूंढ निकालो
जिसने नंगा कर दिया है मुझे।



शर्त

नहीं, मैं बिल्कुल नहीं हूं विरोधी
तानाशाहों का
उन्हें फैला लेने दो पग-पग पर अपने पैर
सम्पूर्ण विश्व में
ईश्वर के प्रतिबिंब की तरह
पर एक ही शर्त रहेगी मेरी-
बन जाने दो ताना्शाह दुनिया के तमाम बच्चों को।



अज्ञात सैनिक


यदि अचानक बाहर से कोई आए
और मुझसे पूछे:
यहां कहां है अज्ञात सैनिक की कब्र?
मैं कहूंगा उससे:
सर, आप किसी भी नदी के किनारे चले जाएं
आप किसी भी मस्जिद की बैंच पर बैठ जाएं
आप किसी भी घर की छाया में खड़े हो जाएं
आप किसी भी चर्च की दहलीज पर कदम रख दें
किसी कंदरा के मुहाने पर
किसी पर्वत की किसी शिला पर
किसी बाग के किसी वृक्ष के नीचे
मेरे देश में
कहीं भी किसी कोने में
असीम आका्श के नीचे कहीं भी-
फिक्र मत करिए बिल्कुल भी
थोड़ा सा नीचे झुकिए
और रख दीजिए फूलों की माला
चाहे कहीं भी---

अनुवाद: यादवेन्द्र


यादवेन्द्र जी द्वारा अनुदित अब्दुल्ला पेसिऊ की अन्य कविताएं भी आप आगे पढते रहेंगे।

3 comments:

Vineeta Yashsavi said...

sari kavitaye bahut achhi hai...per AGYAT SAINIK kavita dil ko chhu lene wali hai...

ओम आर्य said...

bahut hi sahi kaha hai aapane .....atisundar

sanjay vyas said...

अपनी विशिष्ट पहचान कायम रखने की जिद में कुर्दों का सरकारों द्बारा व्यापक नरसंहार होता रहा है. यहाँ धर्म भी उनके बचाव में नहीं आ पाता. आर्मीन्याई समुदाय के नस्ली सफाए का तुर्की अभियान हमारे सामने है.
कवितायेँ अपनी अस्मिता का कोई आकार, कोई संस्थागत रूप पुनः पा सकने की तीव्र और आक्रामक अभिलाषा लेकर आती हैं. कवि से मिलवाने का शुक्रिया.