Friday, September 11, 2009

येमेन की युवा कवयित्री की कविताएं

होडा एल्बन का जन्म सन् 1971 में येमिन में हुआ था। होडा ने अपनी मास्टरस डिग्री पॉलिटिकल साइंस में सान्ना यूनिर्वसिटी से सन् 1993 में प्राप्त की। वो अपनी कविताओं के पाठ कई कवि सम्मेलनों में कर चुकी हैं। अभी तक होडा के तीन कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। पहला संग्रह डामस्कस 1989 में तथा 1998 में तीसरा संग्रह प्रकाशित हुआ। उनकी कई कविताओं को सीमा अतल्ला द्वारा ब्लेसोक और बेनिपाल मैगजीन के लिये अनुवादित किया जा चुका है।

कबाड़

उसके चले जाने के बाद

कुछ भी शेष नहीं बचा उसका

मेरे सिवा...



स्वीकारोक्ती

कई बार रात के बीचो बीच

फूट-फूट पड़ती है मेरी रुलाई...

फिर अपने आंसुओं को मना कर

भेजती हूँ वापस

उन्हीं से आज जगमग है ये दुनिया

और बुझ पायी है मेरी धधक भी...



विभाजन

हम दोनों के बीचो बीच

पसरी हुई है रात

रूप रंग बदलती हुई निरंतर

एक तारा टूटा उसकी चुनर से

स्मृतियों के

ओर जा कर टंग गया सुदूर आकाश में

एकाकी...



बिछोह

तुम हो कि वहां बना रहे हो एक घर

और मैं हूं यहां ढहाती हुई

स्मृतियां एक एक कर

तुम्हारा घर तो खुला रहेगा सारी दुनिया के लिये

पर मेरी स्मृतियां

कुछ भी तो नहीं तुम्हारी निगाहों की पहुंच के सिवा...



समुद्री सफर


क्यों होता है ऐसा

कि जब ऊंघने लगती है हवा

तो बे-वतनी

अचानक फड़फड़ाने लगती हैं

मेरे तंग कपड़ों के अंदर ही अंदर...



क्षतीपूर्ति

जब भी सर्द सड़कें पसरने लगती हैं मेरे सामने

और चुकने लगती है मेरी रज़ाई की तपिश

मैं निकालती हूं उसे अपनी स्मृतियों की तिजोरी से

और लौ जला देती हूं उसमें

कोमलता की तीली से...

अनुवाद : यादवेन्द्र 



इस ब्लाग पत्रिका के सहयोगी लेखकों की तकनीक से एक हद तक परहेज की प्रवृत्ति के चलते पत्रिका को नियमित रूप से अपडेट करने में अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पा रहा था। अपनी व्यस्ताताओं से चुराए जा रहे समय में मेरे लिए भी इसे नियमित रूप से अपडेट करना संभव नहीं हो रहा है। विनीता यशस्वी ने न सिर्फ इस पोस्ट को टाइप कर प्रकाशित करने में मद्द की बल्कि इसके साथ ही उन्होंने नियमित रूप से पत्रिका में लेखकीय भागीदारी निभाने का विश्वास भी जताया है। मैं अपने सभी सहयोगी साथियों की ओर से विनीता जी का आभार और स्वागत करते हुए उम्मीद करता हूं कि पत्रिका को नियमित और सामाग्री को समृद्ध करने में वे अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी निभाती रहेंगी।

वि। गौ।

Monday, September 7, 2009

निष्कर्षों तक पहुंचने से पहले के प्रयोग


रचना का संकट उस जटिल यथार्थ को संम्प्रेषित करने से शुरू होता है जिसकी व्याख्या को किसी घटना के मार्फत सरलीकृत करना उसकी पहली शर्त होता है। वह यथार्थ जिसे हम, यानी बहुत ही सामान्य लोग, ठीक से समझ न पा रहे हों। संवेदना की मासिक गोष्ठी में कथाकार नवीन नैथानी
की कहानियों पर आयोजित चर्चा के दौरान वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत की यह टिप्पणी न सिर्फ नवीन की कहानियों को समझने के लिए एक जरूरी बिन्दु है बल्कि समग्र रचनात्मक साहित्य को समझने में भी मद्दगार है। कहानी की व्याख्या में उन्होंने स्पष्ट कहा कि जो मुझे जीवन देती है, सघर्ष करने की ताकत देती है, उसे ही मैं कहानी मानता हूं।
नवीन की कहानी पारस को निर्विवाद रूप से सभी चर्चाकारों ने एक ऐसी कहानी के रूप में चिहि्नत किया जिसमें जीवन का संघर्ष कथानायक खोजराम के चरित्र से नये आयाम पाता है। सौरी नवीन कुमार नैथानी की कल्पनाओं का एक ऐसा लोक है जो जीवन की आपाधापी के इस ताबड़तोड़ समय में भी सौरी के बांशिदों को अपने सौरीपन को जिन्दा रखने की कोशिश के साथ है। ललचाऊपन की ओर बढ़ती दुनिया की ओर जाने वाला कोई भी रास्ता सौरी से होकर नहीं गुजरता है।


प्रयोगों से प्राप्त परिणाम के आधार पर जान लिए गए को ही हम विज्ञान मानते हैं, यह विज्ञान की बहुत स्थूल व्याख्या है, कवि राजेश सकलानी का यह वाक्य नवीन की कहानियों में उस वैज्ञानिकता की तलाश करती टिप्पणी का जवाब था जो कार्यकारण संबंधों की स्पष्ट पहचान में ही यथार्थ की पुन:रचना को किसी भी रचना की सार्थकता के लिए एक जरूरी शर्त मानता है। सकलानी ने नवीन की कहानियों की वैज्ञानिकता को स्पष्ट रूप से उन अर्थों में पकड़ने की कोशिश की जिसमें वे उन्हें निष्कर्षों तक पहुंचने से पहले किए गए प्रयोगों के रूप में देखते हैं।


रूड़की में रहने वाले और देहरादून के साथियों मित्र यादवेन्द्र जी ने अपनी उपस्थिति से चर्चा को एक जीवन्त मोड़ देते हुए संग्रह की तीन कहानियों के मार्फत अपनी बात रखी- पारस, आंधी और तस्वीर दिनेशचंद्र जोशी और यादवेन्द्र ने नवीन के कल्पना लोक सौरी को हिन्दी का मालगुड़ी मानते हुए अपनी टिप्पणियों में उसकी सार्थकता को रेखांकित किया। पारस को एक महत्वपूर्ण कहानी मानते हुए भी यादचेन्द्र जी ने कहानी के अंत से अपनी दोस्ताना असहमति को भी दर्ज किया। दिनेश चंद्र जोशी, कृष्णा खुराना, मनमोहन चढडा, गीता गैरोला और कथाकार जितेन ठाकुर ने अपने लिखित पर्चों पढ़े और कहानियों पर विस्तार से अपनी बातें रखीं। पुनीत कोहली एवं गुरूदीप खुराना ने अपनी-अपनी तरह से नवीन की कहानियों पर बात रखते हुए कहा कि नवीन की कहानियों को किसी एक खांचें में कस कर नहीं देखा जाना चाहिए।
डॉ जितेन्द्र भारती ने नवीन की कहानियों के संदर्भ से बदलाव के संघर्षों में निरन्तर गतिमान रहने वाली एक अन्तर्निहित धारा के बहाव को परिभाषित करते हुए कहा कि नवीन की कहानियां अपने मूल अर्थों में एक चेतना की संवाहक हैं। सहमति और असहमति के मिले-जुले स्वर के बीच पुस्तक पर हुई चर्चा गोष्ठी में कथाकार विद्यासागर नौटियाल, ओमप्रकाश वाल्मीकि, मदन शर्मा, समर भण्डारी, चंद्र बहादुर रसाइली, प्रेम साहिल, इंद्रजीत, मनोज कुमार और प्रमोद सहाय आदि संवेदना के कई मित्र शामिल थे। सौरी की कहानियां नवीन कुमार नैथानी की कहानियों का हाल ही में प्रकाशित पहला कथा संग्रह है।

पिछले दिनों इस दुनिया से विदा हो गए आर्टिस्ट एच एन मिश्रा को गोष्ठी में शिद्दत से याद किया गया और विनम्र श्रद्धाजंली दी गई। मिश्रा एक ऐसे आर्टिस्ट थे जिनकी पेटिंग्स में गणेश के ढेरों रूप आकार पाते हैं। मिथ गणेश के विभिन्न रूपों का सृजन उनका प्रिय विषय था। पेंटर चन्द्रबहादुर ने मिश्रा जी के रचना संसार पर विस्तार से अपनी बात रखी।


Monday, August 24, 2009

मैं इस वक्त हड़बड़ी में हूं-चुन लूं हरी दूब की कुछ नोंक



आतंक मचाते साम्राज्यवाद के खिलाफ तीसरी दुनिया के बेहद सामान्य लोगों के महत्वपूर्ण पत्रों के अनुवादों के अलावा उन्हीं स्वरों में गूंजती कविताओं के अनुवादों के लिए जाने, जाने वाले यादवेन्द्र जी ने भविष्य में अपने विषय, विज्ञान के मार्फत कुछ जरूरी सवालों को छेड़ने का मन बनाया है। कुर्दिस्तान के कवि अब्दुल्ला पेसिऊ की कविताओं के अनुवादों को प्रकाशन के लिए उपलब्ध कराते हुए यह बात उन्होंने खुद होकर कही है। यादवेन्द्र जी में जम कर और प्रतिबद्ध तरह से काम करने की जो असीम ऊर्जा हम महसूस करते हैं, उसके आधार पर अनुमान कर सकते हैं कि उनके लेखन का यह अगला पड़ाव निश्चित ही हिंदी साहित्य के बीच विधागत विस्तार में भी याद किया जाने वाला होगा और प्रेरित करने वाला भी। उनकी विज्ञान विषयक रचनाओं के उपलब्ध होते ही उन्हें पाठ के लिए प्रस्तुत किया जाएगा। तब तक के लिए प्रस्तुत है उनके द्वारा अनुदित अब्दुल्ला पेसिऊ की कविताएं।

अब्दुल्ला पेसिऊ : 1946 में इराकी कुर्दिस्तान में जन्म। कुर्द लेखक संगठन के सक्रिय कार्यकर्ता। अध्यापन के प्रारंभिक प्रशिक्षण के बाद सोवियत संघ (तत्कालीन) से डाक्टरेट। कुछ वर्षों तक लीबिया में प्राफेसर। फिर 1995 से फिनलैंड में रह रहे हैं। 1963 में पहली कविता प्रकाशित, करीब दस काव्यसंकलन प्रकाशित। अनेक विश्व कवियों का अपनी भाषा में अनुवाद प्रकाशित।




अब्दुल्ला पेसिऊ


ललक


मैं इस वक्त हड़बड़ी में हूं
कि जल्द से जल्द इकट्ठा कर लूं
पेड़ों से कुछ पत्तियां
चुन लूं हरी दूब की कुछ नोंक
और सहेज लूं कुछ जंगली फूल
इस मिट्टी से -
डर यह नहीं
कि विस्मृत हो जाएंगे उनके नाम
बल्कि यह है कि कहीं
धुल न जाए स्मृति से उनकी सुगंध।



कविता

कविता एक उश्रृंखल स्त्री है
और मैं उसके प्रेम में दीवाना।।।
सौगंध तो रोज़ रोज़ आने की खाती है
पर आती है कभी-कभार ही
या बिल्कुल आती ही नहीं कई बार।



यदि सेब---


यदि मेरे सामने गिर जाए कोई सेब
तो मैं उसे बीच से दो हिस्सों में काट दूंगा
एक अपने लिए
दूसरा तुम्हारे लिए-
यदि मुझे कोई बड़ा इनाम मिल जाए
और उसमें मिले मुस्कुराहट
तो इसे भी मैं
बांट दूंगा दो बराबर के हिस्सों में
एक अपने लिए
दूसरा तुम्हारे लिए-
यदि मुझसे आ टकराए दु:ख और विपदा
तो उसे मैं समा लूंगा अपने अंदर
आखिरी सांस तक।




खजाना


दुनिया जब से निर्मित हुई
लगा हुआ है आदमी
कि हाथ लग जाए उसके
मोतियों, सोने और चांदी के खजाने
सागर तल से लेकर
पर्वत शिखर तक।
पर मेरे हाथ लगता है बिला नागा
ही सुबह एक खजाना
जब मुझे दिख जाती हैं
आधी तकिया परए अल्हड़ पसरी हुई सलवटें।




बिदाई


हर रात जब तकिया
दावत देती है हमारे सिरों को मातम मनाने का
जैसे हों वे धरती के दो धुव्रांत
तब मुझे दिख जाती हैं
हम दोनों के बीच में पड़ी
कौंधती खंजर सी
बिदाई-
नींद काफूर हो जाती है मेरी
और मैं अपलक देखने लगता हूं उसे-
क्या तुम्हें भी दिखाई दे रही है वो
जैसे दिख रही है मुझे?




मुक्त विश्व


मुक्त विश्व ने अब तक नहीं सुनीं
सभी क्रियाओं के मर्म में बैठी हुई
तेल की धड़कनें
एक ही बात सुनती रही दुनिया निरंतर
और अब तो हो गई है बहरी-
धधकते हुए पर्वतों की गर्जना भी
नहीं सुनाई दे रही है
अब तो उन्हें।





यदि तुम चाहते हो


यदि तुम चाहते हो
कि बच्चों के बिछौने पर
खिल खिल जाएं गुलबी फूल-
यदि तुम चाहते हो
कि लद जाए तुम्हारा बगीचा
किस्म किस्म के फूलों से-
यदि तुम चाहते हो
कि घने काले मेघ आ जाएं
खेतों तक पैगाम लेकर हरियाली का
और हौले हौल खोले
मुंदी हुई पलकें बसंत की
तो तुम्हें आजाद करना ही होगा
उस कैदी परिन्दे को
जिसने घोंसला सजा रखा है
मेरी जीभ पर।


अब्दुल्ला पेसिऊ की अन्य कविताओं के लिए यहां जाएं।

अनुवाद : यादवेन्द्र

Tuesday, August 18, 2009

शतरंज के खिलाड़ी - पाठ व प्रदर्शन

उदयपुर
प्रेमचंद जयंती पर माणिक्यलाल वर्मा श्रमजीवी महाविद्यालय के अंग्रेजी विभाग और जन संस्कृति के संयुक्त तत्वावधान में प्रसिद्ध निर्देशक सत्यजित राय की फिल्म "शतरंज के खिलाड़ी" का जन प्रदर्शन किया गया। गौरतलब है कि यह फिल्म प्रेमचंद की इसी शीर्षक की अमर कहानी पर आधारित है।
प्रेमचंद की यह कहानी नवाब वाजिद शाह के समय के लखनऊ की कथा कहती है। यह वह समय था जब ईस्ट इंडिया कम्पनी भारत में पांव पसार चुकी थी और राजनीतिक हस्तांतरण की तैयारी हो रही थी। फिल्म पस्त पड़ चुके सामंती ढांचे की ब्रिटिश उपनिवेशवाद के हाथों पराजित होने की त्रासदी का उद्धघाटन करती है। फिल्म में संजीव कुमार, सईज जाफरी, शबाना आजमी और अमजद खान की मुख्य भूमिकाएं हैं।
आयोजन में वरिष्ठ कवि प्रो। नंद चतुर्वेदी ने कहा कि नये समय के दबावों का सामना करने के लिए साहित्य को भी नये नये रूप धारण करने होंगे। उन्होंने कहा कि कहानी और फिल्म का अंत अलग अलग है ऐसे में क्या यह बहस का विषय नहीं है कि दूसरे रूप में बदलते समय कलाकृति का बदलने की कितनी छूट होनी चाहिए। विख्यात समालोचक प्रो। नवल किशोर ने कहा कि युवा वर्ग को साहित्य से जोड़ने के लिए ऐसे नवाचारों का स्वागत किया जाना चाहिए। रंगकर्मी महेश नायक ने फिल्म के एक विशेष पहलू की ओर ध्यान दिलाया कि सत्यजित राय के अनुरोध पर हॉलीवुड के प्रसिद्ध निर्देशक रिचर्ड एटनबरो ने फिल्म में लॉर्ड डलहौजी की भूमिका निभाई थी।
अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष प्रो. हेमेन्द्र चण्डालिया ने कहा कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद और भारतीय सामंतवाद दोनों प्रेमचंद की कलक के निशाने पर रहे और यह फिल्म इसी बात की सच्ची गवाही देती है। उन्होंने कहा कि कहानी और फिल्म आज भी प्रासंगिक है क्योंकि ग्लोबलाइजेशन की शतरंज में हमारे जैसे देश फंस चुके हैं। संयोजन कर रहे जसम के राज्य संयोजक हिमांशु पण्ड्या ने कहा कि फिल्म में अमजद खान अपनी अभिनय कला के शिखर पर हैं। उन्होंने कहा कि शोले की अपूर्व ख्याति ने उनकी इस यादगार भूमिका को विस्मृत कर दिया। चर्चा में बनास के सम्पादक डॉ। पल्लव ने कहा कि अच्छी कलाकृति किसी भी माध्यम में आये वह श्रेष्ठ साहित्य का आस्वाद देती है। आयोजन में फिल्म पर चर्चा में डॉ। सुधा चौधरी, डॉ। सर्वतुन्निसा खां, डॉ। फरहत बानो, डॉ। रजनी कुलश्रेष्ठ, डॉ। लालाराम जाट, डॉ. चंद्रदेव ओला, नौशीन, शोधार्थी नंदलाल जोशी, गणेशलाल मीणा, केसरीमल निनामा ने भी भाग लिया। अंत में जसम की ओर से प्रज्ञा जोशी व गजेन्द्र मीणा ने सभी का आभार ज्ञापित किया।
इससे पूर्व जसम के युवा सदस्य शैलेन्द्र भाटी ने कहानी "शतरंज के खिलाड़ी" का प्रभावी पाठ किया।


प्रो। हेमेन्द्र चण्डालिया
अध्यक्ष - अंग्रेजी विभाग
माणिक्यलाल वर्मा श्रमजीवी महाविद्यालय
उदयपुर

Friday, August 14, 2009

खबर घटना का एकांगी पाठ है



जिसने ख़ून होते देखा / अरुण कमल

नहीं, मैंने कुछ नहीं देखा
मैं अन्दर थी। बेसन घोल रही थी
नहीं मैंने किसी को...

समीर को बुला देंगी
समीर, मैंने पुकारा
और वह दौड़ता हुआ आया जैसे बीच मेंखेल छोड़
कुछ हाँफता
नहीं, नहीं, मैं चुप रहूंगी, मेरे भी बच्चे हैं, घर है

वह बहुत छोटा था अभी
एकदम शहतूत जब सोता
बहुत कोमल शिरीष के फूल-सा
अभी भी उसके मुँह से दूध की गन्ध आतीथी
ओह, मैंने क्यों पुकारा
क्यों मेरे ही मार्फ़त यह मौत, मैं ही क्योंकसाई का ठीहा, नहीं, नहीं, मैं कुछ नहींजानती, मैंने कुछ नहिं देखा
मैंने किसी को...

वे दो थे। एक तो वही... उन्होंने मुझेबहन जी कहा या आंटी
रोशनी भी थी और बहुत अंधेरा भी, बहुतफतिंगे थे बल्ब पर
मैं पीछे मुड़ रही थी
कि अचानक
समीर, मैं दौड़ी, समीर
दूध और ख़ून
ख़ून
नहीं नहीं नहीं कुछ नहीं

मैं सब जानती हूँ
मैं उन सब को जानती हूँ
जो धांगते गए हैं ख़ून
मैं एक-एक जूते का तल्ला पहचानती हूँ
धीरे-धीरे वो बन्दूक घूम रही है मेरी तरफ़

चारों तरफ़


खबर और रचना में क्या फर्क है ? किसी एक घटना को कब खबर और कब रचना कहा जा सकता है ? खबर होती है कि एक जीप उलटने पर हताहतों को अपेक्षित इमदाद न मिलने की वजह से जान से हाथ धोना पड़ा। खबर यह भी होती है कि गुजरात नरसंहार में अपने भाई और पिता की चश्मदीद गवाह ने आरोपियों को पहचानने से इंकार कर दिया। या ऐसी ही दूसरी घटनाएं जो अपराध को दुर्घटना और दुर्घटना को अपराध में बदल रही होती है। सवाल है कि वह क्या है जिसके कारण कोई एक खबर, तथ्यात्मक प्रमाणों के बावजूद भी, उस सत्य को कह पाने में चूक जा रही होती है ? या सत्य होने के बावजूद भी खबर घटना का विवरण भर हो कर रह जा रही होती है।
खबर घटना का एकांगी पाठ होता है। सत्य का ऐसा टुकड़ा जो तात्कालिक होता है। जिसमें यथार्थ सिर्फ घटना की भौगोलिक पृष्ठभूमि के रूप में ही दिख रहा होता है और जिस सत्य का उदघाटन हो रहा होता वह सिर्फ और सिर्फ सूचना होती है। इतिहास और भविष्य से ही नहीं अपने वर्तमान से भी उसकी तटस्थता तमाम दृश्य-श्रृव्य प्रमाणों के बाद भी समाजिक संदर्भों की प्रस्तुति से परहेज के साथ होती है या उससे बच निकलने की एक चालाक कोशिश के रूप में बहुधा व्यवस्था की पोषकता ही उसका उद्देश्य हो रही होती है। रचना का यथार्थ इसीलिए खबर के यथार्थ से भिन्न होता है।


स्पष्ट है कि सत्य कोई देखे और सुने को रख देने से ही प्रकट नहीं हो सकता। सत्य के प्रति पक्षधरता ही सत्य का बयान हो सकती है। खबर प्राफेशन (व्यवसाय) का हिस्सा है। प्रोफेशन का मतलब प्रोफेशन। एक किस्म की तटस्तथता। तटस्थता वाकई हो तो वह भी कोई बुरी बात नहीं। क्योंकि वहां प्रोफेशनलिज्म वाली तटस्थता तथ्यों के साथ छेड़-छाड़ नहीं करेगी। घटना या दुर्घटना के विवरण दुर्घटना को दुर्घटना और अपराध को अपराध रहने दे सकते हैं। पर शब्दों में तटस्थता और प्रकटीकरण में एक पक्षधरता की कलाबाजी खबरों का जो संसार रच रही है वह किसी से छुपा नहीं है। एक रचना का सच ऐसे ही गैरजनतांत्रिक मूल्यों की स्थापना के प्रतिरोध का सच होता है। उसकी तीव्रता रचनाकार के समुचित सरोकारों से बन रही होती है। वे सरोकार जो कानून के जामे में जकड़ी और भाषाई चालाकी के बावजूद जनतांत्रिक न रह जा रही शासन-प्रशासन की उस व्यवस्था को अलोकतांत्रिक होने से बचाने के लिए बेचैन होते हैं। घटनाओं की तथ्यात्मकता, उसके होने और उस होने से नाइतफाकी रखती स्थितियों की झलक न सिर्फ एक रचना को खबर से अलग कर रही होती है बल्कि प्रतिरोध की संभावना को भी आधार देती है। कवि अरुण कमल की कविता "जिसने खून होते देखा" एक ऐसी ही रचना है जो किसी घटित हत्या के विरोध की सूचना भी है और काव्य तत्वों की संरचना में ऐसी किसी भी स्थिति के प्रतिरोध की संभावनाओं का सच भी है।
खबर घटना का एकांगी पाठ होता है। सत्य का ऐसा टुकड़ा जो तात्कालिक होता है। जिसमें यथार्थ सिर्फ घटना की भौगोलिक पृष्ठभूमि के रूप में ही दिख रहा होता है और जिस सत्य का उदघाटन हो रहा होता वह सिर्फ और सिर्फ सूचना होती है। इतिहास और भविष्य से ही नहीं अपने वर्तमान से भी उसकी तटस्थता तमाम दृश्य-श्रृव्य प्रमाणों के बाद भी समाजिक संदर्भों की प्रस्तुति से परहेज के साथ होती है या उससे बच निकलने की एक चालाक कोशिश के रूप में बहुधा व्यवस्था की पोषकता ही उसका उद्देश्य हो रही होती है। रचना का यथार्थ इसीलिए खबर के यथार्थ से भिन्न होता है। अपने काल से मुठभेड़ और इतिहास से सबक एवं भविष्य की उज्जवल कामनाओं के लिए बेचैनी उसका ऐसा सच होता है कि लााख पुरातनपंथी मान्यताओं के पक्षधर और व्यवस्था के अमानवीयता के पर्दाफाश करने की प्रक्रिया से बचकर चलने के पक्षधर भी रचनाओं में वही नहीं दिख रहे होते और न ही लिख पा रहे होते हैं। उनकी रचनाओं का पाठ भी एक प्रगतिशील चेतना के मूल्य का, बेशक सीमित ही, सर्जन कर रहा होता है। नाजीवाद के समर्थक कामिलो खोसे सेला की कृति "पास्कलदुआरते का परिवार" हो चाहे धार्मिक मान्यताओं के पक्षधर बाल्जाक की रचनाएं- एक बड़े और व्यापक स्तर पर वे अपने समय का आइना हो जाती है।
अन्य अर्थों में रचना को यदि खबरों पर लिखी टिकाएं कहें तो एक हद तक उन्हें ज्यादा करीब से परिभाषित किया जा सकता है। वरिष्ठ कवि अरुण कमल की कविता "जिसने खून होते देखा" एक मासूम की निर्मम हत्या के ऐसे सच का बयान है जिसमें अपराधी को पहचान लिए जाने लेकिन उसके प्रकटिकरण पर खुद को एक वैसे ही खतरे में घिरा देखने की वे मनोवैज्ञानिक स्थितियां है कि उसकी पृष्ठभूमि में जो यथार्थ उभरता है वह वैसे ही दूसरी अनेकों खबरों को भी परिभाषित करने लगता है। ऐसी बहुत सी खबरों की ढेरों खबरे होती है जो लोक में व्याप्त होती है पर जो एक बड़े दायरे की खबर से वंचित होती है उसमें देख सकते हैं कल का अपराधी आज का सफेदपोश नजर आता है। उसके अपराधों की फेहरिस्त बेशक जितनी लम्बी हो चाहे पर किसी भी सम्मानीय जगह पर कोई सबमें सम्मानीय हो तो तमाम कोशिशों से जड़ी गई कोमल मुस्कान में उसका ही चेहरा दमकता है। कविता बेशक अपराध जगत के इस आयाम को नहीं छूती पर उसकी परास इतनी है कि अपराध जगत के ऐसे ढेरों कोने जो पूंजीवादी समाज व्यवस्था का जरूरी हिस्सा होते जा रहे हैं कविता को पढ़ लेने के बाद पाठक को बेचैन करने लगते हैं। प्रतिरोध की वे स्थितियां जो लाख चाहने के बाद भी यदि सीधे तौर पर दिखाई नहीं दे रही होती हैं तो क्यों ? कविता जिसने खून होते देखा उन कारणों की ओर ही इशारा करती है। तमाम खतरों के बावजूद प्रतिरोध की संभावनाओं को कविता में जिस खूबसूरती से रखा गया है वह काबिलेगौर है-

मैं सब जानती हूं
मैं उन सब को जानती हूं
जो धांगते गए हैं खून
मैं एक-एक जूते का तल्ला पहचानती हूं
धीरे-धीरे वो बन्दूक घूम रही है मेरी तरफ;

चारों तरफ।


कविता की ये अन्तिम पंक्तियां जिन खतरों की इशारा करती है, जान के जिस जोखिम को ताक पर रखते हुए भी हत्यारों की निशानदेही को जिस तरह रखने का साहस करती है, वह उल्लेखनीय है। डरते-डरते हुए भी सब कुछ कह जाने की वे स्थितियां जिस मनोविज्ञान को रख रही होती हैं और जिस समाज व्यवस्था का पर्दाफाश करती है उसमें कहन की युक्ति को देखना तो दिलचस्प है ही बल्कि उससे भी इतर समाज के भीतर दबी-छुपी, लेकिन फूट पड़ने का आतुर, प्रतिरोध की संभावनाएं उम्मीद जगाती है।

समीर को बुला देंगी
समीर, मैंने पुकारा
और वह दौड़ता हुआ आया जैसे बीच खेल छोड़ ;
कुछ हांफता
नहीं, नहीं मैं चुप रहूंगी, मेरे भी बच्चे हैं, घर है

जिस स्पष्टता और जिस बेबाकी और जिस निडरता की जरूरत ऐसे स्थितियों के प्रतिरोध के लिए जरूरी होनी चाहिए यानी उसको जिस तरह से मुक्कमल स्वर दिया सकता है, अरुण कमल की यह कविता उसे अच्छे से साधती है। कविता की अन्य पंक्तियों में भी उसे देखा जा सकता है-

वह बहुत छोटा था अभी
एकदम शहतूत जब सोता
बहुत कोमल शिरीष के फूल-सा
अभी भी उसके मुंह से दूध की गंध आती थी
ओह, मैंने क्यों पुकारा
क्यों मेरे ही मार्फत यह मौत,
मैं ही क्यों कसाई का ठीहा,
नहीं, नहीं, मैं कुछ नहीं जानती,
मैंने कुछ नहीं देखा
मैंने किसी को---


अपराध के शिकार मासूम के प्रति एक स्त्री की संवेदनाएं तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी बार बार उसके एकालाप में उन खतरों को उठाती है जो अपराधी को चिहि्नत कर लेने को बेचैन है।

।।।।

नहीं, नहीं मैं चुप रहूंगी, ।।।।।
मैं कुछ नहीं जानती
मैंने कुछ नहीं देखा
।।।
नहीं, नहीं, मैं चुप रहूंगी, मेरे भी बच्चे हैं, घर है
।।।।


अपने अन्तर्विरोधों से उबरने की कोशिश कोई नाट्कीय प्रभाव नहीं बल्कि एक ईमानदार प्रयास है जो पाठक को लगातार उस मनौवैज्ञानिक स्थिति तक पहुंचाता है जहां खतरों और आशंकाओं की उपस्थिति भी उसे डिगा नहीं पाती। भय और अपराध के वे सारे दृश्य जो आए दिन की खबरों को जानते समझते हुए किसी भी पाठक के अनुभव का हिस्सा होते हैं, उनके प्रतिकार की प्रस्तुति को देखना कविता को महत्वपूर्ण बना दे रहे हैं।






विजय गौड़