अब्दुल्ला पेसिऊ
ललक
मैं इस वक्त हड़बड़ी में हूं
कि जल्द से जल्द इकट्ठा कर लूं
पेड़ों से कुछ पत्तियां
चुन लूं हरी दूब की कुछ नोंक
और सहेज लूं कुछ जंगली फूल
इस मिट्टी से -
डर यह नहीं
कि विस्मृत हो जाएंगे उनके नाम
बल्कि यह है कि कहीं
धुल न जाए स्मृति से उनकी सुगंध।
कविता
कविता एक उश्रृंखल स्त्री है
और मैं उसके प्रेम में दीवाना।।।
सौगंध तो रोज़ रोज़ आने की खाती है
पर आती है कभी-कभार ही
या बिल्कुल आती ही नहीं कई बार।
यदि सेब---
यदि मेरे सामने गिर जाए कोई सेब
तो मैं उसे बीच से दो हिस्सों में काट दूंगा
एक अपने लिए
दूसरा तुम्हारे लिए-
यदि मुझे कोई बड़ा इनाम मिल जाए
और उसमें मिले मुस्कुराहट
तो इसे भी मैं
बांट दूंगा दो बराबर के हिस्सों में
एक अपने लिए
दूसरा तुम्हारे लिए-
यदि मुझसे आ टकराए दु:ख और विपदा
तो उसे मैं समा लूंगा अपने अंदर
आखिरी सांस तक।
खजाना
दुनिया जब से निर्मित हुई
लगा हुआ है आदमी
कि हाथ लग जाए उसके
मोतियों, सोने और चांदी के खजाने
सागर तल से लेकर
पर्वत शिखर तक।
पर मेरे हाथ लगता है बिला नागा
ही सुबह एक खजाना
जब मुझे दिख जाती हैं
आधी तकिया परए अल्हड़ पसरी हुई सलवटें।
बिदाई
हर रात जब तकिया
दावत देती है हमारे सिरों को मातम मनाने का
जैसे हों वे धरती के दो धुव्रांत
तब मुझे दिख जाती हैं
हम दोनों के बीच में पड़ी
कौंधती खंजर सी
बिदाई-
नींद काफूर हो जाती है मेरी
और मैं अपलक देखने लगता हूं उसे-
क्या तुम्हें भी दिखाई दे रही है वो
जैसे दिख रही है मुझे?
मुक्त विश्व
मुक्त विश्व ने अब तक नहीं सुनीं
सभी क्रियाओं के मर्म में बैठी हुई
तेल की धड़कनें
एक ही बात सुनती रही दुनिया निरंतर
और अब तो हो गई है बहरी-
धधकते हुए पर्वतों की गर्जना भी
नहीं सुनाई दे रही है
अब तो उन्हें।
यदि तुम चाहते हो
यदि तुम चाहते हो
कि बच्चों के बिछौने पर
खिल खिल जाएं गुलबी फूल-
यदि तुम चाहते हो
कि लद जाए तुम्हारा बगीचा
किस्म किस्म के फूलों से-
यदि तुम चाहते हो
कि घने काले मेघ आ जाएं
खेतों तक पैगाम लेकर हरियाली का
और हौले हौल खोले
मुंदी हुई पलकें बसंत की
तो तुम्हें आजाद करना ही होगा
उस कैदी परिन्दे को
जिसने घोंसला सजा रखा है
मेरी जीभ पर।
अब्दुल्ला पेसिऊ की अन्य कविताओं के लिए यहां जाएं।
अनुवाद : यादवेन्द्र
ं
11 comments:
बहुत बढ़िया।
बधाई।
उम्दा कविताएं और उम्दा अनुवाद. आपको और भाई यादवेन्द्र जी को बधाई.
पहली दो कविताएं अच्छी लगी विजय जी ..इन दिनों आप भी कुछ नहीं लिख रहे कोई खास वजह ?
kavita" achchhee lagee:
teen din pahale me bhee aisaa hee kuchh likh raha tha. abhee bahar hoon . baad me post karoongaa.
" vo din bhar atee rahee thee ...."
विजय भाई
कवितायें बहुत अच्छी लगी।
अनुवाद ऐसा है कि लगा ही नहीं कि किसी और भाषा मे लिखी गयीं हैं।
बहुत बहुत आभार…
इतनी सुन्दर कविताओं से परिचय कराने का बहुत आभार ..!!
Behtreen Kavitaye...pahli kavita to khas taur pe achhi lagi...
baut achhi kavitayen padhvane ke liye dhanyvaad
शानदार कविताएं ... हैपी ब्लॉगिंग :)
Sundar kavitaayen.
( Treasurer-S. T. )
यादवेन्द्र जी ने बहुत सही कृतियाँ घडीं हैं -
- "अनुवाद"
एक कठिन और हमेशा पाठकों की नज़रों में ,
तराजू पे तुल्नेवाली रचना रह जातीं हैं
जिसे सार सहित प्रस्तुत करना ,
एक साहस तथा समर्पण
से कम नहीं --
बधाई हो !
- लावण्या
Post a Comment