Saturday, December 5, 2009

सामूहिक प्रतिरोध जरूरी है

29 नवम्बर 2009 के जनसत्ता में प्रकाशित विष्णु खरे जी के आलेख पर बहुत सख्ती से न भी कहा जाए तो भी यह तो देखा ही जा सकता है कि एक गैर जनतांत्रिक शासकीय (साहित्य अकादमी एक स्वायत संस्था है, बावजूद इसके ) प्रक्रिया के खिलाफ उनकी टिप्पणी आत्मरक चिंताओं से घिरी है जिसमें उस प्रक्रिया की जो साहित्य संस्कृति को भी बाजार का हिस्सा बना रही है, मुखालफत कम और खुद की आत्मतुष्टी कहीं ज्यादा है। विरोध के नाम पर जो कुछ है उसमें विरोध की संभावना को जन्म देने वाली चिंताओं की बजाय एक ताल ठोकू और ललकार भरी चुनौति के साथ खुद मामले से पल्ला झाड़ लेने की कवायद भी। व्यक्तियों को निशाना की बनाने की यह ऐसी प्रवृत्ति है जो खुद को ही चर्चा के केन्द्र में देखने की खराब मंशाओं भरी मनौवैज्ञानिक बिमारी है। एक वरिष्ठ एवं जिम्मेदार आलोचक और नागरिक की इस प्रवृत्ति पर आखिर सवाल क्यों नहीं उठना चाहिए जो किसी भी घटनाक्रम में सनसनी पैदा करने वाली एक बाजारू मानसिकता का परिचय बनकर सामने आ रही है। मामला देश की सर्वोच्च संस्था साहित्य अकादमी द्वारा एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी के साहित्यिक, सांस्कृतिक चेहरे को चमकाने वाली बेहद गैर जनतांत्रिक प्रक्रिया का है। जनता के द्वारा चुनी हुई एक सरकार का बहुराष्ट्रीय पूंजी की वाहक सैमसुंग कम्पनी के तिजारती मंसूबों को सांस्कृतिक चेहरा प्रदान करने वाली घृणित मानसिकता का है। उसकी मुखालफत होनी ही चाहिए और सामूहिक रूप से होनी चाहिए। ऐसी किसी भी जनतंत्र विरोधी कार्रवाई की मुखालफत ताल ठोकू वक्तव्यों से संभव नहीं, यह बात विष्णु जी की समझ नहीं आती क्या ? विष्णु जी ही क्यों अन्य उनकी जैसी ही समझदारी रखने वालों को भी भली प्रकार से मालूम होगा कि एकल प्रतिरोध का कोई मायने नहीं। फिर इतने मजबूत तंत्र के सामने तो कोई नहीं। बावजूद इसके विष्णु जी साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त चंद कवियों के नाम ही इसके प्रतिरोध का ठेका क्यों छोड़ देना चाहते हैं फिर ? सामूहिक कार्रवाई की किसी ठोस पहल की शुरूआत करने की बात विष्णु जी क्यों नहीं करना चाहते, जनपक्षधर लेखकों के संगठनों के सामने वे इस सवाल को क्यों नहीं रखना चाहते ? ऐसी किसी भी नीति के विरोध में किसी अकेले व्यक्ति के विरोध का क्या मायने ? लेखक संगठनों को चाहिए कि ऐसे सवालों पर गम्भीरता पूर्वक विचार कर एक राय तैयार करें और किसी ठोस कार्यनीति की शुरूआत हो। जिसमें साहित्य अकादमी द्वारा घोषित पुरस्कारों का मामला ही नहीं, दूसरे, अन्य घरानों द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कार और लेखकीय नैतिकताओं से जुड़े अन्य सवालों पर भी एक सर्वानुमति कायम हो। ठीक वैसे ही जैसे दलित शोषित आम जन के बारे में और साम्प्रदायिकता के मामले में एक सामाजिक स्वीकृति बनी हुई है, वैसा ही, अमुक अमुक पुरस्कार के बारे में भी स्पष्ट हो। वरना तो किसी रचनाकार द्वारा किसी पुरस्कार को ग्रहण कर लेना और किसी का छोड़ देना व्यक्ति की निजी नैतिकता का मामला हो जाएगा, जो कि आज भी ऐसा ही बना हुआ है। पुरस्कारों को रचनाकारों का निजी मामाला जैसा मानने की समझदारी पर लेखक संगठनों को विचार करना चाहिए और उसे सार्वजनिक मसला बनाना चाहिए। कौन सा पुरस्कार किस घराने और किस संस्था द्वारा किस मंशा के लिए दिया जा रहा है, इसे वक्त बेवक्त के हिसाब से परिभाषित करने के गैर जनतांतत्रिक रवैये पर भी होने वाली थुक्का-फजिहत से भी बचा जाना चाहिए। सिर्फ छिछालेदारी करना ही यदि रचनात्मक अलोचना है तो विष्णु जी के वक्तव्य पर खूब ताली पीटी जा सकती है। आखिर वरिष्ठ अलोचक ही तो पहले व्यक्ति है न जो हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा सैमसुंग के सहयोग से दिए जाने वाले रवीन्द्र पुरस्कार की मुखालफत कर रहे हैं !!!!     

-विजय गौड़

Monday, November 30, 2009

टिप्पणी जो प्रकाशित न हो पा रही थी

सबद मे प्रकाशित इस आलेख पर यह टिप्पणी पोस्ट करना चाह्ता था  पर तकनीकी खामियो के चलते बार बार यही संदेश मिलता रहा -

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लिहाजा इसे यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।

बेहद शर्मनाक खबर है यह तो, इसमें कोई दो राय नहीं। विष्णु जी ने निश्चित ही यह पहल की है, कल जनसत्ता में भी पढ लिया था। पर तब से ही सोच रहा हूं कि जिस मामले क प्रतिरोध बिना सामूहिकता के नहीं उसके लिए वरिष्ट आलोचक चंद कुछ नामों को लेकर ताल ठोकते से क्यों दिख रहे हैं ? क्या किसी सामूहिक कार्रवाई से अलग लिए गए नाम कोई इतने बड़े रसूखदार इंसान है कि जिनके कहने भर से साहित्य अकादमी अपना फ़ैसला बदल देगी या ये कोई गुंडे बदमाश है कि जिन्हें ललकारा जा रहा है कि अब दिखाओ अपनी गुंडई जब साहित्य अकादमी खुले तौर पर तुम्हारे आगे आ खड़ी हुई है। विष्णु जी के आलेख का यह हिस्सा तो मुझे ऎसा ही कुछ कहता हुआ लग रहा है-
" देखना दिलचस्प होगा कि प्रगतिशील, जनवादी तथा जन संस्कृति मोर्चा लेखक संगठनों के हमारे मित्र जिनमें सर्वश्री ज्ञानेंद्रपति, लीलाधर जगूड़ी, राजेश जोशी, अरुण कमल, विरेन डंगवाल तथा मंगलेश डबराल जैसे मनसा-वाचा-कर्मणा नई आर्थिक व्यवस्था और नव-साम्राज्यवाद के सक्रिय विरोधी हैं, जो उनके काव्य और गद्य तथा सक्रियता में स्पष्ट दीखता है, उस साहित्य अकादेमी के इस प्रयोज्य 'सामसुंग रवीन्द्रनाथ साहित्य पुरस्कार' के बारे में क्या सोचेंगे जिसने उन्हें अपने नियमित पुरस्कार से कभी सम्मानित किया था।"
विष्णु जी के इस हिस्से को भी देखिए-
"गुरुदेव को जोतकर अकादेमी ने बांग्ला साहित्यकारों का तो मुंह शायद बंद कर दिया, ज़ाहिर है कि इसमें अकादेमी के उपाध्यक्ष सुनील गंगोपाध्याय ने भी अपना कहावती 'पाउंड -भर मांस' वसूला होगा, लेकिन सवाल यह है कि क्या अन्य भारतीय भाषाओँ में महान साहित्यकार हैं ही नहीं कि सिर्फ़ नोबेल पुरस्कार के कारण भारतीय साहित्यों को चिरकाल तक मात्र रवीन्द्र-संगीत गाना पड़े?"
यहां विष्णु जी का विरोध पुरस्कार से है या, क्या है(?) समझ नहीं पा रहा हूं।
अच्छा हो कि प्रस्तुत कर्ता भी अपनी बात रखें, ताकि इस आलेख को पुन: प्रस्तुत करते हुए वह द्रष्टिकोण भी नजर आए जो इसी आलेख को प्रस्तुत करने के उद्देश्य के रूप में रहा होगा।

Wednesday, November 25, 2009

भाषा का वर्गीय एवं औपनिवेशिक चरित्र

डॉ.शोभाराम शर्मा

भाषा का वर्गीय एवम् औपनिवेशिक चरित्र होता है। यह बात कुछ अटपटी लग सकती है, लेकिन सच्चाई यही है कि कोई भी समाज जिन परिस्थितियों से गुजरता है उनका प्रभाव सर्वग्रासी होता है। और तो और भाषा तक भी अछूती नहीं रह पाती। हर समाज आर्थिक, राजनीतिक, धर्मिक और सांस्कृतिक आदि कारणों से समस्तर नहीं होता। वह अनेक वर्गों और उपवर्गों में बंटा होता है। उन वर्गों-उपवर्गों की भाषा-बोलियां एक मूल की होने पर भी एक जैसी नहीं रह पाती। पढ़े-लिखे पंडितों और जन-साधरण की भाषा का अंतर इसका अकाटय प्रमाण है। भारतीय इतिहास पर नजर डालें तो भाषा के वर्गीय एवं औपनिवेशिक चरित्रा का तथ्य खुली किताब के रूप में सामने आ जाता है। आर्य भाषा-भाषी जन-गणों का यहां द्रविड़ भाषा-भाषियों से ही नहीं अपितु आग्नेय भाषा-भाषी संथाल, मुंडा और कोल-भीलों से भी जूझना पड़ा। संघर्ष में आर्य प्रबल सिद्ध हुए और आर्येतर भाषा-भाषियों को या तो दक्षिण-पूर्व की ओर हटना पड़ा या आर्य कबीलों के बीच उनके उपनिवेशों में ही अधीन होकर रहना पड़ा। इन उपनिवेशों के विस्तार और उनमें आर्येतर भाषा-भाषियों के संसर्ग से उनकी भाषा-बोलियों का प्रभावित होना स्वाभाविक था। भाषा वैज्ञानिकों का मत है कि संस्कृत में टवर्गीय ध्वनियाँ द्राविड़ी प्रभाव स्वरूप आई हैं। जहाँ तक शब्दों के आदान-प्रदान का सवाल है, आर्य और आर्येतर मूल की सभी भाषा-बोलियों में एक-दूसरे के शब्द सैकड़ों नहीं हजारों की संख्या में उपलब्ध् हैं और उनकी रूपात्मकता भी निश्चित रूप से प्रभावित हुई है।
प्राचीन आर्यावर्त या मध्य देश तथा उसके बाहर जहां तक आर्य भाषा-भाषी प्रबल सिद्ध हुए वहां पैशाची, खस, शौरसैनी, महाराष्ट्री, अर्द्धर्माग्धी और पाली आदि प्राकृत भाषाओं के और आगे विकास में आर्य और आर्येतर भाषा-भाषियों का संसर्ग ही मुख्य कारण था। इन प्राकृत भाषाओं का स्वरूप मोटे रूप में आर्य भाषा-भाषियों की बोल-चाल की भाषा ही थी लेकिन विभिन्न क्षेत्रों में उनमें जो अंतर पैदा हुए वे उन आर्येतर भाषा-भाषियों का प्रभाव था जो आर्य भाषा-भाषियों के बीच रहने पर बाध्य हो गए थे। इनमें से अधिकांश समाज के निचले स्तर के वे लोग थे जिन्हें शूद्र कहा गया। इन क्षेत्रों में कई आर्येतर भाषा-भाषी कबीले तो अपनी मूल भाषा तक त्यागने पर बाध्य हो गए। भील आदि जन-जातियों का यही इतिहास है। वे आज पूर्णत: आर्य भाषा-भाषी हो चुके हैं। मध्य पहाड़ी क्षेत्रा में जोहार-मुन्सार के भोटांतिक आज कुमाउफंनी के ही एक रूप का उपयोग करते हैं, जबकि उनकी मूल भाषा दारमा-चौदाँस और व्यास के भोटांतिकों की मुंडा प्रभावित तिब्बत-बर्मी बोलियों की सजातीय थी।
समाज के शीर्ष पर बैठे ब्राह्मण-पुरोहितों और शासकों को दलित शूद्रों के प्रभाव से अपनी देव-भाषा को बचा कर रखने की चिंता सताने लगी और इस तरह पाणिनि आदि के द्वारा संस्कृत का स्वरूप निर्धरण संभव हुआ। अपने धर्म और संस्कृति के प्रसार के लिए उन्हें पूर्व और दक्षिण के आर्येतर भाषा-भाषियों के बीच जाना पड़ा और उनसे वैवाहिक संबंध् भी स्थापित करने पड़े। आर्यावर्त या मध्य देश में अपनी अतिरिक्त कामेच्छा की पूर्ति के लिए भी वे दलित स्त्रियों को दासी या रखैलों के रूप में स्वीकार करने लगे थे। आर्येतर भाषा-भाषी पत्नियों या रखैलों, दास-दासियों से भी देव-भाषा के विकृत होने का खतरा था और इसीलिए शूद्र व नारी वर्ग को संस्कृत के पठन-पाठन आदि से वंचित कर दिया गया। संस्कृत के नाटक इस तथ्य के प्रमाण हैं कि उनमें ब्राह्मण, क्षत्रिाय आदि पात्रों के संभाषण संस्कृत में हैं लेकिन शूद्र या नारी पात्रा प्राकृत में ही अपनी बात कहते नजर आते हैं। इतना ही नहीं शूद्रों पर वेद मंत्रा सुनने या बोलने पर भी पाबंदी लगा दी गई। यहां तक कहा गया है कि वेद मंत्रा सुनने पर उनके कानों में खौलता हुआ सीसा उड़ेल देना चाहिए और अगर वह वेद मंत्रा जुबान पर लायें तो जुबान काट देनी चाहिए।
आपसी वार्तालाप, अभिवादन और कुशल-क्षेम पूछने तक में भी भाषा का वर्गीय स्वरूप नजर आता है। मनुस्मृति के अनुसार-
भवत्पूर्वं चरेभ्दैक्ष मुपनीतो द्विजोत्त्म।
भवन्मध्यं तु राजन्यो वैश्यस्तु भवदुत्तरम्।।

अर्थात् यज्ञोपवीतधरी ब्राह्मण को भिक्षा मांगने पर "भवत्" शब्द का उच्चारण पहले क्षत्रिय को मध्य में और वैश्य को अंत में करना चाहिए। ब्राह्मण कहे- "भवति भिक्षां देहि", क्षत्रिय कहे- "भिक्षां भवति देहि" और वैश्य कहे- "भिक्षां देहि भवति।" इस श्लोक में चौथे वर्ण शूद्र का जिक्र नहीं है क्योंकि उसे न तो यज्ञोपवीत धरण करने का अधिकार था न संस्कृत बोलने का। न्यायालय तक में यह भाषा-भेद बरता जाता था। मनुस्मृति के ही अनुसार-

ब्रृहीति ब्राह्मणं पृच्छेत्सत्यं ब्रूहीति पार्थिवम्।
गो बीज काञ्चनेर्वैश्यं शूद्रं सर्वेस्तु पातकै:।।

अर्थात् न्यायकर्ता ब्राह्मण से गवाही देने और क्षत्रिाय से सत्य बोलने को कहें। वैश्य से कहें कि अगर झूठ बोले तो उसे गौ, बीज और स्वर्ण चुराने का पाप लगेगा और शूद्र से कहें कि झूठ बोलने पर तुम्हें सारे पातकों का दोष लगेगा।
हिंदू वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत भाषा का यह वर्गीय चरित्रा आज भी समाप्त नहीं हो पाया है। खस प्राकृत से निकली गढ़वाली में एक दलित को ब्राह्मण आदि का अभिवादन "समन्या ठाकुरो या समन्या साब" (सेवा मानें ठाकुर या साहब) कहकर करना होता है। बदले में आर्शीवचन "जी रै" (जिंदा रह) कहा जाता है। उनके लिए "प्रणाम", "नमस्कार", "आयुष्मान" या "चिरंजीव" आदि शब्द वर्जित हैं। आर्य समाज के प्रभाव में कुछ पढ़े-लिखे दलितों ने अपने को आर्य लिखना आरंभ किया तथा अभिवादन के लिए "नमस्ते" का प्रयोग शुरू किया। लेकिन वर्ण व्यवस्था के समर्थकों की नजर में "आर्य" और "नमस्ते" दोनों ही अपना मूल्य खो बैठे और यही हाल गांध्ी जी के दिए गए नाम 'हरिजन" का भी हुआ। गढ़वाली में दलित वर्ग से संबंध्ति डूम (नीच/शूद्र), डुमण (शूद्र निवास) डुमिणु (नीच/शूद्र होना), डुमण्य (शूद्रता प्राप्त), डुम्याणु (शूद्र बना देना), डुमटाल (नीचता का पातक), डुमैण (नीच शूद्रा) जैसे शब्दों के पीछे निश्चित रूप से वर्गीय घृणा ही नजर आती है। उनसे संबंधित मुहावरों और कहावतों में भी उसी घृणा के दर्शन होते हैं और यही स्थिति इस देश की अन्य भाषा-बोलियों में भी मिलती है।
समाज में पेशों पर आधरित जो विभिन्न वर्ग बन जाते हैं उनकी बोल-चाल भी एक जैसी नहीं रह पाती। उदाहरणार्थ, जिन जातियों को आपराधिक प्रवृति का मान लिया गया है, उनकी भाषा बोली कुछ ऐसा रूप ले लेती है कि दूसरे उसे समझ पाने में अपने को असमर्थ पाते हैं। साँसी, बावरिया और भाँतू जिस छद्म भाषा का प्रयोग करते हैं उसे वे ही आपस में समझ पाते हैं। गुप्तचरों और सटोरियों की भाषा भी सामान्य जन की भाषा से अलग ही होती है। पढे-लिखे सुसंस्कृत वर्ग और दबे-कुचले दलित-शोषितों की भाषा-बोलियों में जो अंतर होता है, वह भाषा के वर्गीय चरित्र को ही स्पष्ट करता है।
आर्य भाषी जन-गण जब दक्षिण और पूरब के आर्येतर भाषा-भाषियों के बीच अपने उपनिवेश बसाने तथा सत्ता हथियाने में सपफल हो गए तो उनकी भाषा, ध्म और रहन-सहन को महत्व मिलना जरूरी था। आर्येतर भाषा-भाषी कुछ कबीले बीहड़ घने जंगलों की शरण लेने पर बाध्य हो गए थे लेकिन अध्सिंख्य आर्य भाषा-भाषियों के रंग में रंगते चले गए। उनके शासकों ने भी ब्राह्मणवाद के प्रभाव में आकर संस्कृत को ही धर्म, प्रशासन और साहित्य की भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की। यही कारण है कि संस्कृत साहित्य के विशाल भंडार का एक बहुत बड़ा हिस्सा दक्षिण भारत की देन है। द्रविड़ भाषा-बोलियों ने भी बहुत कुछ संस्कृत से ग्रहण किया लेकिन उनकी कीमत पर सत्ता और आश्रमों के गलियारों में संस्कृत की अभिवि्र्द्धि ही होती रही। उत्तर और दक्षिण दोनों जगह संस्कृत जन-सामान्य से दूर होती गई। पंडितों ने उसे ऐसे नियमों में जकड़ दिया कि सामान्य जन उनका पालन नहीं कर सके और संस्कृत पंडित, पुरोहित वर्ग तक सीमित रह गई। मध्य कालीन निर्गुणपंथी संत कबीर ने इसीलिए कहा- "संस्कीरत है कूप जन भाखा बहता नीर" कबीर से बहुत पहले ही संस्कृत के वर्चस्व के विरूद्ध विद्रोह का सूत्रापात हो चुका था। बौद्धों ने जन-भाषा पालि-प्राकृत को तो जैनियों ने अपभ्रंश को अपनाया। धुर दक्षिण में आलवार संतों ने भी अपनी बात वहां की जन-भाषा में ही कही।
मुसलमान शासकों की ध्म-भाषा तो अरबी थी लेकिन प्रशासनिक कार्य के लिए उन्होंने पफारसी का सहारा लिया। शायद इसलिए कि फारसी भी उसी मूल से निकली थी जिससे संस्कृत और उत्तर भारत की अन्य प्राकृत भाषा-बोलियां निकली थीं। पश्चिमोत्तर भारत ईरान के संपर्क में प्राचीन काल से ही रहा था। किंतु इध्र प्राचीन ईरानी से विकसित फारसी में इस्लाम की धर्म-भाषा अरबी की भारी घुसपैठ से फारसी भी भारतीय जन-मानस के लिए बहुत कुछ समझ से परे हो चुकी थी पिफर भी रोजी-रोटी का प्रश्न जुड़ा होने से एक छोटे से वर्ग ने उसे अपनाया और उसका असर जन-सामान्य की भाषा-बोलियों तक भी पहुंचता चला गया। शासक वर्ग में भी कुछ ऐसे संवेदनशील व्यक्ति थे जो समझते थे कि ऊपर से थोपी गई भाषा में प्रजा का एक छोटा-सा वर्ग पैठ बनाने में सपफल हो पाएगा। अधिसंख्यक लोगों को समझने-समझाने के लिए तो उन्हीं की जुबान का सहारा लेना होगा। फारसी के विद्वान अमीर खुसरो ने इसीलिए ब्रज और खड़ी बोली की ओर ध्यान दिया और इसी प्रक्रिया में आगे चलकर उर्दू जैसी एक नयी भाषा का प्रादुर्भाव संभव हुआ जिसमें इस्लाम की धर्म भाषा अरबी से ग्रस्त फारसी का खड़ी बोली हिंदी से घाल-मेल बखूबी हुआ है। दूसरी ओर धर्म संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में प्रादेशिक भाषाओं ने अपना वर्चस्व स्थापित करना आरंभ किया और इस तरह थोपी गई फारसी को प्रशासन के एक कोने तक सिमट कर रहने को बाध्य कर दिया।
थोपी गई भाषा का प्रतिरोध् एक विश्व व्यापी लक्षण है। उत्तर भारत में कबीर जैसे निर्गुणपंथियों ने जहाँ पंचमेल खिचड़ी भाषा का उपयोग किया, वहीं सगुणोपासकों ने ब्रज और अवधी का आश्रय लिया। और तो और प्रेम मार्गी सूफियों तक ने भी अरबी-पफारसी की जगह अवधी का दामन थाम लिया। अन्यत्रा भी मराठी, बांग्ला और गुजराती आदि ने भी उभरना आरंभ कर दिया। जहां तक दक्षिण का सवाल है, वहां भी तमिल, तेलुगू, मलयालम और कन्नड़ जैसी प्रादेशिक भाषाओं ने अपनी पकड़ और महत्व में उत्तरोत्तर व्रद्धि आरंभ कर दी। इसी समय देश पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। अंग्रेजों ने आरम्भ में फारसी से छेड़-छाड़ नहीं की लेकिन धीरे-धीरे एक सोची-समझी योजना के अंतर्गत उसकी जगह अपनी भाषा अंग्रेजी थोप दी। भारत ही नहीं दुनिया में जहां कहीं भी अंग्रेज अपने उपनिवेश स्थापित करने में सपफल हुए, वहां सर्वत्र अंग्रेजी भी अपना पैर जमाने में सपफल हो गई। उस समय दुनिया की एकमात्र बड़ी शक्ति होने के कारण दूसरे स्वतंत्र देशों को भी अंग्रेजी का महत्व स्वीकार करना पड़ा और इस तरह अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा होने का दर्जा प्राप्त करने में सपफल हो गई। र्‍ेंच, जर्मन और रूसी जैसी सशक्त भाषाएँ भी उसका मुकाबला नहीं कर सकीं। सोवियत व्यवस्था के अंतर्गत रूसी भाषा की चुनौती भी अंग्रेजी का कुछ नहीं बिगाड़ पाई। आज स्थिति यह है कि अंग्रेजी का वैश्वीकरण हो चुका है। सारे महा्द्वीपों में उसी की तूती बोल रही है। इसका एक बड़ा कारण तो यह भी है कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की मौलिक सामग्री का सबसे बड़ा भंडार उसी में है और सभी देशों को एक-दूसरे से संपर्क रखने के लिए उसी का सहारा लेना पड़ता है।
अंग्रेजी के इस अभ्युदय से दुनिया भर की दूसरी भाषाओं का विकास बाधित हुआ है। उपनिवेशीकरण का अभिशाप यह है कि हमें अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा की कीमत पर अंग्रेजी की ओर देखना पड़ता है। ब्रिटिश काल में स्थापित अंग्रेजी के वर्चस्व को तोड़ने के सारे प्रयास असफल सिद्ध हो रहे हैं। रोजी-रोटी के प्रश्न को लेकर यहां काले अंग्रेज नौकरशाहों का जो शक्तिशाली वर्ग पैदा हुआ उसका प्रभाव आज भी ज्यों-का-त्यों है। अंग्रेजी का ज्ञान सामाजिक स्तर पर श्रेष्ठता का मानदंड बन चुका है। आर्थिक स्थिति में कुछ सुधर आने पर आज मध्यम वर्ग भी अंग्रेजियत अपनाने को आतुर है। यहां तक कि भारतीय संस्कृति और संस्कृत की श्रेष्ठता का बखान करने वाले सा्धु-संत तक भी अंग्रेजी बोलने में अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। जनता और जन-भाषा की बातें करने वाले नेतागण भी अपनी औलाद को अंग्रेजी माध्यम से ही शिक्षा देने पर बाध्य हैं।
भाषा के प्रश्न पर उत्तर और दक्षिण के बीच जो खाई थी उसे और चौड़ा करने में अंग्रेजी समर्थक नौकरशाही वर्ग का हाथ होने से इन्कार नहीं किया जा सकता। भाषा का प्रश्न इतना उलझा दिया गया है कि उसे सुलझाने का कोई सीध रास्ता नजर नहीं आता। सोवियत व्यवस्था के अंतर्गत सुदूर टुंड्रा-टैगा और काकेशस की अल्पसंख्यक जन-जातियों तक की भाषा-बोलियों को जिस तरह विकास करने का अवसर प्रदान किया गया, यदि उसी तरह की कोई नीति यहां भी अपनाई जाए तो संभव है इस समस्या का कोई हल निकल सके। ऐसा करने से देश की दबी-कुचली जन-जातियों को आगे बढ़ने का अवसर मिलेगा और वे अपने वर्गीय हितों की रक्षा करने में अपने स्तर पर समर्थ हो सकेंगे।

Monday, November 23, 2009

विलुप्त होती भाषा बोलियां


 विलुप्त होती भाषा बोलियों की चिन्ता जिस तरह से अनुवादक यादवेन्द्र जी को दुनिया भर के रचनात्मक साहित्य तक जाने को मजबूर करती है, पत्रकार अरविंदशेखर  की वैसी ही चिंताएं तथ्यात्मक आंकड़ों के रुप में दर्ज होते हुए हैं। प्रस्तुत है विलुप्त होती भाषा बोलियों पर अरविंद शेखर  की रिपोर्ट । 


वक्त की अंधी सुरंग में गुम हो जाएगी राजी बोली 

अरविंद शेखर, देहरादून
किसी भी भाषा बोली के बचे रहने की गारंटी क्या होती है, यह कि उसकी भावी पीढ़ी उसको बोले। मगर उत्तराखंड की सबसे अल्पसंख्यक राजी जनजाति की राजी बोली वक्त की अंधी सुरंग में गुम हो जान वाली है। वजह साफ है उसके 20 प्रतिशत बच्चे अपनी बोली में बातचीत करना ही पसंद नहीं करते क्योंकि वे समझते हैं कि अपने पूर्वजों की बोली की बजाय कुमाऊंनी बोलना ज्याद फायदेमंद है। 60 प्रतिशत लोग अपनी बोली के प्रति बेपरवाह हैं, जबकि केवल 20 प्रतिशत को अपनी बोली में बात करना भाता है। 2001 की जनगणना के मुताबिक भारत में राजी या वनरावतों की आबादी महज 517 है। यह छोटी-सी खानाबदोश जनजाति नेपाल की सीमा से सटे उत्तराखंड के पिथौरागढ़ और चंपावत जिलों में रहती है। इसके महज पांच फीसदी लोग ही साक्षर हैं। ऐसे में राजी बोली का केवल मौखिक रूप जीवित है। हाल में ही दून आईं लखनऊ विश्वविद्यालय की रीडर डा. कविता रस्तोगी का सर्वेक्षण इस बोली के अंधेरे भविष्य की ओर संकेत करता है। डा.रस्तोगी के सर्वे के अनुसार 90 प्रतिशत राजियों का मानना था कि राजी बोलने से कोई फायदा नहीं, जबकि 60 फीसदी को अपनी जबान से कोई मतलब ही नहीं था। 26 से 35 साल के 65 फीसदी तो 16 से 25 साल के 60 फीसदी युवाओं को अपनी भाषा में बोलना पसंद नहीं। 26 से 35 साल के 40 प्रतिशत लोगों को अपनी भाषा संस्कृति पर कोई गर्व नहीं तो, 16 से 35 साल के 80 फीसदी तो 36 से 45 साल के 70 फीसदी राजी नहींमानते कि राजी बोलना अच्छा है। डा. रस्तोगी के मुताबिक दरअसल राजी लोगों में धीरे-धीरे अपनी भाषा-संस्कृति के प्रति हीनताबोध घर कर रहा है। इसलिए वे धीरे-धीरे कुमाउंनी या हिंदी पर निर्भर होते जा रहे हैं। राजी लोग अपनी बोली का 84 फीसदी इस्तेमाल धार्मिक कर्मकांड के दौरान ही करते हैं। बोली का घरों में 75 फीसदी तो दूसरे स्थानों पर केवल 30 फीसदी ही इस्तेमाल होता है। राजी बोली पर देश में पहली पीएचडी करने वाले भाषा विज्ञानी डा. शोभाराम शर्मा का कहना है कि किसी भी भाषा बोली के जिंदा रहने के लिए उसके बोलने वाले समाज का उसके प्रति झुकाव और उसकी भौतिक परिस्थितियां जिम्मेदार हैं। उन्होंने बताया के पिछली कांग्रेस सरकार ने राजी जनजाति पर संकट भांपते हुए जनजाति के लोगों को ज्यादा संतान पैदा करने पर पुरस्कृत करने और सुविधाएं मुहैया कराने की घोषणा की थी लेकिन उसका क्या हुआ पता नहीं। जिन भाषाओं में जीविका का जुगाड़ नहीं होता वे मर जाती हैं। राजी बोली का खत्म होना देश ही नहीं दुनिया की अपूरणीय क्षति होगा। सरकार को चाहिए कि वह भाषाई विविधता की रक्षा के लिए राजी जनजाति और उनकी बोली के संरक्षण के लिए प्रयास करें।


Thursday, November 19, 2009

बचा हुआ मांड हम फेंकते नहीं

भाषाओँ की विलुप्ति पर चिंता व्यक्त करने वाली कवितायेँ यादवेन्द्र जी के हवाले से पहले भी पोस्ट की गईं हैं,इस बार उन्हीम के मार्फ़त स्कॉट्लैंड की कवियित्री ओलिविया मक्महोन की भाषा सम्बन्धी दिलचस्प कविता प्राप्त हुई है। अनुवादक यादवेन्द्र जी का मानना है कि  ओलिविया की कविता में एक ताजगी भरा खिलदंड़पन है । ओलिविया एक ऎसी कवियित्री हैं जिनके कई संकलन छप चुके हैं. इसके अलावा उनके उपन्यास और स्कूल में अंग्रेजी को विदेशी भाषा के तौर पर पढ़ाने  वाली कई पाठ्य पुस्तकें भी प्रकाशित हैं. आपने खाली समय में वे
 पहाड़ो पर सैर सपाटा करना,पियानो बजाना और अमनेस्टी इंटरनेशनल के लिए धन जुटाना पसंद करती हैं.विभिन्न भाषा भाषियों और राष्ट्रीयताओं के लोगो के बीच के अपने अनुभव इन कविताओं में उन्होंने व्यक्त किये हैं..



नयी भाषा सीखना

कोई नयी भाषा सीखना
भरमाने वाली पहेली सुलझाने जैसा होता है
जिसमे होते हैं लाखों आड़े तिरछे टुकड़े
जो बनाते रहते हैं नए नए चित्र हरदम
यह वैसा ही है जैसे
भटक
 जाये कोई इन्सान परदेसी किसी शहर में
और न हो उसके पास वहां
 का कोई नक्शा
जैसे
 खेलना शुरू कर दे कोई टेनिस
और
 न हो उसके पास गेंद कोई इस खेल की
जैसे टिड्डों के झुण्ड में
धकेल दिया जाये किसी को बना के चींटी
जैसे कलाबाजियां दिखाना शुरू कर दे कोई
और टांगें ही न हो सही सलामत
जैसे अभिनय की मजबूरी आन पड़े
और स्क्रिप्ट न हो हाथ में कोई
जैसे बढईगिरी करनी पड़ जाये
और आरी का आता पता न हो दूर दूर तक
जैसे बन तो जाये कोई किस्सागो
पर
 किस्से में न तो मध्यांतर हो और न ही अंत...

पर इसके बाद धीरे धीरे
लगने लगता है जैसे आप सैर को निकल पड़े हों
अल स सुबह
और कोहरे की चादर धीरे धीरे खींच कर उतारने लगे कोई
जैसे दरवाजे के
 उस पार से कौंध जाये कोई रौशनी
जैसे अचानक हाथ आ जाये वो दस्ताना
जिसके तलाश में मचा रखी थी धमा चौकड़ी
जैसे
 भौंचक्के से पहुँच जायें हम
उस ट्रेन तक जिसका छुटना अवश्यम्भावी था
जैसे छप्पर फाड़  कर दे जाये कोई अप्रत्यासित तोहफ़ा
मंद मंद मुस्कराहट बिखेरता

इस तरह चलते चलते एक दिन लगने लगता है
कि हम चढ़ बैठे हैं साइकिल पर
जो तेजी से उतरती जा रही एक ढलान पर औंधे मुंह....


भात

एक इन्दोनेसिई,एक थाई और एक बंगलादेशी
आ कर खड़े हो गए मेरी किचन के अन्दर..,
तुम्हारे यहाँ कैसे पकाते हैं भात???
पूछती हूँ मैं उनसे.

भात पकाने के बाद हम बचा हुआ मांड फेंकते नहीं
सब इस एक बात पर राजी हो जाते हैं.....
कच्चे चावल से थोडा ऊपर तक रखते हैं पानी..
-तर्जनी जितना ऊँचा
-नहीं,बीच वाली  ऊँगली की पहली गांठ तक
-नहीं,दूसरी गांठ जितना ऊँचा

उन्हें सही सही मालूम नहीं था
कितना ऊपर तक रखना होता है पानी
अब अपने अपने घर लिखेंगे वे चिठ्ठी:
प्यारी माँ,तुम्हारी बहुत याद आती है यहाँ..
ठीक से समझा कर लिख भेजो चिठ्ठी
कैसे पकाया जाता है भात..


शब्दों की अदलाबदली

हमें शालीनता  से पेश आना चाहिए
और उसे स्त्री(१) कह कर पुकारना चाहिए
या,बेहतर हो
कि अभी उसको एक लड़की ही कहें
बात को और खींच सकें हम तो--
क्यों न कहा जाये  उसको एक औरत(२)?
वजह साफ है,औरत आकारहीन होती है
बिलकुल वैसे ही जैसे होता है
इतवार को दोपहर बाद का वक्तहर
 लड़की की होती है एक गुंजायमान आहट
और कुछ न कुछ होने ही वाला होता है उनके साथ
कुछ भी...
बस,लड़की तो होती है एक खालिस मौजयदि
 आप उसे कहने लगें औरत
जैसे कि आदमी होता है आदमी-
तो होने लगेंगे हम बेवजह धीर गंभीर
नहीं,हमें तब तक तो थम कर
इंतजार करना ही चाहिए
जब तक वो दिखने न लगे
किसी अदद माँ जैसी-
तभी वो कही जा सकेगी औरत
या,शालीनता दिखाएँ तो..एक स्त्री(१)
हो सकता है तब भी गुंजाईश बची रहे
उसमे लड़की कहलाने की-
यही होना चाहिए दरअसल
बात को और खींच सकें हम ...तो

(१)lady
(२)woman

 अनुवाद- यादवेन्द्र