Wednesday, November 25, 2009

भाषा का वर्गीय एवं औपनिवेशिक चरित्र

डॉ.शोभाराम शर्मा

भाषा का वर्गीय एवम् औपनिवेशिक चरित्र होता है। यह बात कुछ अटपटी लग सकती है, लेकिन सच्चाई यही है कि कोई भी समाज जिन परिस्थितियों से गुजरता है उनका प्रभाव सर्वग्रासी होता है। और तो और भाषा तक भी अछूती नहीं रह पाती। हर समाज आर्थिक, राजनीतिक, धर्मिक और सांस्कृतिक आदि कारणों से समस्तर नहीं होता। वह अनेक वर्गों और उपवर्गों में बंटा होता है। उन वर्गों-उपवर्गों की भाषा-बोलियां एक मूल की होने पर भी एक जैसी नहीं रह पाती। पढ़े-लिखे पंडितों और जन-साधरण की भाषा का अंतर इसका अकाटय प्रमाण है। भारतीय इतिहास पर नजर डालें तो भाषा के वर्गीय एवं औपनिवेशिक चरित्रा का तथ्य खुली किताब के रूप में सामने आ जाता है। आर्य भाषा-भाषी जन-गणों का यहां द्रविड़ भाषा-भाषियों से ही नहीं अपितु आग्नेय भाषा-भाषी संथाल, मुंडा और कोल-भीलों से भी जूझना पड़ा। संघर्ष में आर्य प्रबल सिद्ध हुए और आर्येतर भाषा-भाषियों को या तो दक्षिण-पूर्व की ओर हटना पड़ा या आर्य कबीलों के बीच उनके उपनिवेशों में ही अधीन होकर रहना पड़ा। इन उपनिवेशों के विस्तार और उनमें आर्येतर भाषा-भाषियों के संसर्ग से उनकी भाषा-बोलियों का प्रभावित होना स्वाभाविक था। भाषा वैज्ञानिकों का मत है कि संस्कृत में टवर्गीय ध्वनियाँ द्राविड़ी प्रभाव स्वरूप आई हैं। जहाँ तक शब्दों के आदान-प्रदान का सवाल है, आर्य और आर्येतर मूल की सभी भाषा-बोलियों में एक-दूसरे के शब्द सैकड़ों नहीं हजारों की संख्या में उपलब्ध् हैं और उनकी रूपात्मकता भी निश्चित रूप से प्रभावित हुई है।
प्राचीन आर्यावर्त या मध्य देश तथा उसके बाहर जहां तक आर्य भाषा-भाषी प्रबल सिद्ध हुए वहां पैशाची, खस, शौरसैनी, महाराष्ट्री, अर्द्धर्माग्धी और पाली आदि प्राकृत भाषाओं के और आगे विकास में आर्य और आर्येतर भाषा-भाषियों का संसर्ग ही मुख्य कारण था। इन प्राकृत भाषाओं का स्वरूप मोटे रूप में आर्य भाषा-भाषियों की बोल-चाल की भाषा ही थी लेकिन विभिन्न क्षेत्रों में उनमें जो अंतर पैदा हुए वे उन आर्येतर भाषा-भाषियों का प्रभाव था जो आर्य भाषा-भाषियों के बीच रहने पर बाध्य हो गए थे। इनमें से अधिकांश समाज के निचले स्तर के वे लोग थे जिन्हें शूद्र कहा गया। इन क्षेत्रों में कई आर्येतर भाषा-भाषी कबीले तो अपनी मूल भाषा तक त्यागने पर बाध्य हो गए। भील आदि जन-जातियों का यही इतिहास है। वे आज पूर्णत: आर्य भाषा-भाषी हो चुके हैं। मध्य पहाड़ी क्षेत्रा में जोहार-मुन्सार के भोटांतिक आज कुमाउफंनी के ही एक रूप का उपयोग करते हैं, जबकि उनकी मूल भाषा दारमा-चौदाँस और व्यास के भोटांतिकों की मुंडा प्रभावित तिब्बत-बर्मी बोलियों की सजातीय थी।
समाज के शीर्ष पर बैठे ब्राह्मण-पुरोहितों और शासकों को दलित शूद्रों के प्रभाव से अपनी देव-भाषा को बचा कर रखने की चिंता सताने लगी और इस तरह पाणिनि आदि के द्वारा संस्कृत का स्वरूप निर्धरण संभव हुआ। अपने धर्म और संस्कृति के प्रसार के लिए उन्हें पूर्व और दक्षिण के आर्येतर भाषा-भाषियों के बीच जाना पड़ा और उनसे वैवाहिक संबंध् भी स्थापित करने पड़े। आर्यावर्त या मध्य देश में अपनी अतिरिक्त कामेच्छा की पूर्ति के लिए भी वे दलित स्त्रियों को दासी या रखैलों के रूप में स्वीकार करने लगे थे। आर्येतर भाषा-भाषी पत्नियों या रखैलों, दास-दासियों से भी देव-भाषा के विकृत होने का खतरा था और इसीलिए शूद्र व नारी वर्ग को संस्कृत के पठन-पाठन आदि से वंचित कर दिया गया। संस्कृत के नाटक इस तथ्य के प्रमाण हैं कि उनमें ब्राह्मण, क्षत्रिाय आदि पात्रों के संभाषण संस्कृत में हैं लेकिन शूद्र या नारी पात्रा प्राकृत में ही अपनी बात कहते नजर आते हैं। इतना ही नहीं शूद्रों पर वेद मंत्रा सुनने या बोलने पर भी पाबंदी लगा दी गई। यहां तक कहा गया है कि वेद मंत्रा सुनने पर उनके कानों में खौलता हुआ सीसा उड़ेल देना चाहिए और अगर वह वेद मंत्रा जुबान पर लायें तो जुबान काट देनी चाहिए।
आपसी वार्तालाप, अभिवादन और कुशल-क्षेम पूछने तक में भी भाषा का वर्गीय स्वरूप नजर आता है। मनुस्मृति के अनुसार-
भवत्पूर्वं चरेभ्दैक्ष मुपनीतो द्विजोत्त्म।
भवन्मध्यं तु राजन्यो वैश्यस्तु भवदुत्तरम्।।

अर्थात् यज्ञोपवीतधरी ब्राह्मण को भिक्षा मांगने पर "भवत्" शब्द का उच्चारण पहले क्षत्रिय को मध्य में और वैश्य को अंत में करना चाहिए। ब्राह्मण कहे- "भवति भिक्षां देहि", क्षत्रिय कहे- "भिक्षां भवति देहि" और वैश्य कहे- "भिक्षां देहि भवति।" इस श्लोक में चौथे वर्ण शूद्र का जिक्र नहीं है क्योंकि उसे न तो यज्ञोपवीत धरण करने का अधिकार था न संस्कृत बोलने का। न्यायालय तक में यह भाषा-भेद बरता जाता था। मनुस्मृति के ही अनुसार-

ब्रृहीति ब्राह्मणं पृच्छेत्सत्यं ब्रूहीति पार्थिवम्।
गो बीज काञ्चनेर्वैश्यं शूद्रं सर्वेस्तु पातकै:।।

अर्थात् न्यायकर्ता ब्राह्मण से गवाही देने और क्षत्रिाय से सत्य बोलने को कहें। वैश्य से कहें कि अगर झूठ बोले तो उसे गौ, बीज और स्वर्ण चुराने का पाप लगेगा और शूद्र से कहें कि झूठ बोलने पर तुम्हें सारे पातकों का दोष लगेगा।
हिंदू वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत भाषा का यह वर्गीय चरित्रा आज भी समाप्त नहीं हो पाया है। खस प्राकृत से निकली गढ़वाली में एक दलित को ब्राह्मण आदि का अभिवादन "समन्या ठाकुरो या समन्या साब" (सेवा मानें ठाकुर या साहब) कहकर करना होता है। बदले में आर्शीवचन "जी रै" (जिंदा रह) कहा जाता है। उनके लिए "प्रणाम", "नमस्कार", "आयुष्मान" या "चिरंजीव" आदि शब्द वर्जित हैं। आर्य समाज के प्रभाव में कुछ पढ़े-लिखे दलितों ने अपने को आर्य लिखना आरंभ किया तथा अभिवादन के लिए "नमस्ते" का प्रयोग शुरू किया। लेकिन वर्ण व्यवस्था के समर्थकों की नजर में "आर्य" और "नमस्ते" दोनों ही अपना मूल्य खो बैठे और यही हाल गांध्ी जी के दिए गए नाम 'हरिजन" का भी हुआ। गढ़वाली में दलित वर्ग से संबंध्ति डूम (नीच/शूद्र), डुमण (शूद्र निवास) डुमिणु (नीच/शूद्र होना), डुमण्य (शूद्रता प्राप्त), डुम्याणु (शूद्र बना देना), डुमटाल (नीचता का पातक), डुमैण (नीच शूद्रा) जैसे शब्दों के पीछे निश्चित रूप से वर्गीय घृणा ही नजर आती है। उनसे संबंधित मुहावरों और कहावतों में भी उसी घृणा के दर्शन होते हैं और यही स्थिति इस देश की अन्य भाषा-बोलियों में भी मिलती है।
समाज में पेशों पर आधरित जो विभिन्न वर्ग बन जाते हैं उनकी बोल-चाल भी एक जैसी नहीं रह पाती। उदाहरणार्थ, जिन जातियों को आपराधिक प्रवृति का मान लिया गया है, उनकी भाषा बोली कुछ ऐसा रूप ले लेती है कि दूसरे उसे समझ पाने में अपने को असमर्थ पाते हैं। साँसी, बावरिया और भाँतू जिस छद्म भाषा का प्रयोग करते हैं उसे वे ही आपस में समझ पाते हैं। गुप्तचरों और सटोरियों की भाषा भी सामान्य जन की भाषा से अलग ही होती है। पढे-लिखे सुसंस्कृत वर्ग और दबे-कुचले दलित-शोषितों की भाषा-बोलियों में जो अंतर होता है, वह भाषा के वर्गीय चरित्र को ही स्पष्ट करता है।
आर्य भाषी जन-गण जब दक्षिण और पूरब के आर्येतर भाषा-भाषियों के बीच अपने उपनिवेश बसाने तथा सत्ता हथियाने में सपफल हो गए तो उनकी भाषा, ध्म और रहन-सहन को महत्व मिलना जरूरी था। आर्येतर भाषा-भाषी कुछ कबीले बीहड़ घने जंगलों की शरण लेने पर बाध्य हो गए थे लेकिन अध्सिंख्य आर्य भाषा-भाषियों के रंग में रंगते चले गए। उनके शासकों ने भी ब्राह्मणवाद के प्रभाव में आकर संस्कृत को ही धर्म, प्रशासन और साहित्य की भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की। यही कारण है कि संस्कृत साहित्य के विशाल भंडार का एक बहुत बड़ा हिस्सा दक्षिण भारत की देन है। द्रविड़ भाषा-बोलियों ने भी बहुत कुछ संस्कृत से ग्रहण किया लेकिन उनकी कीमत पर सत्ता और आश्रमों के गलियारों में संस्कृत की अभिवि्र्द्धि ही होती रही। उत्तर और दक्षिण दोनों जगह संस्कृत जन-सामान्य से दूर होती गई। पंडितों ने उसे ऐसे नियमों में जकड़ दिया कि सामान्य जन उनका पालन नहीं कर सके और संस्कृत पंडित, पुरोहित वर्ग तक सीमित रह गई। मध्य कालीन निर्गुणपंथी संत कबीर ने इसीलिए कहा- "संस्कीरत है कूप जन भाखा बहता नीर" कबीर से बहुत पहले ही संस्कृत के वर्चस्व के विरूद्ध विद्रोह का सूत्रापात हो चुका था। बौद्धों ने जन-भाषा पालि-प्राकृत को तो जैनियों ने अपभ्रंश को अपनाया। धुर दक्षिण में आलवार संतों ने भी अपनी बात वहां की जन-भाषा में ही कही।
मुसलमान शासकों की ध्म-भाषा तो अरबी थी लेकिन प्रशासनिक कार्य के लिए उन्होंने पफारसी का सहारा लिया। शायद इसलिए कि फारसी भी उसी मूल से निकली थी जिससे संस्कृत और उत्तर भारत की अन्य प्राकृत भाषा-बोलियां निकली थीं। पश्चिमोत्तर भारत ईरान के संपर्क में प्राचीन काल से ही रहा था। किंतु इध्र प्राचीन ईरानी से विकसित फारसी में इस्लाम की धर्म-भाषा अरबी की भारी घुसपैठ से फारसी भी भारतीय जन-मानस के लिए बहुत कुछ समझ से परे हो चुकी थी पिफर भी रोजी-रोटी का प्रश्न जुड़ा होने से एक छोटे से वर्ग ने उसे अपनाया और उसका असर जन-सामान्य की भाषा-बोलियों तक भी पहुंचता चला गया। शासक वर्ग में भी कुछ ऐसे संवेदनशील व्यक्ति थे जो समझते थे कि ऊपर से थोपी गई भाषा में प्रजा का एक छोटा-सा वर्ग पैठ बनाने में सपफल हो पाएगा। अधिसंख्यक लोगों को समझने-समझाने के लिए तो उन्हीं की जुबान का सहारा लेना होगा। फारसी के विद्वान अमीर खुसरो ने इसीलिए ब्रज और खड़ी बोली की ओर ध्यान दिया और इसी प्रक्रिया में आगे चलकर उर्दू जैसी एक नयी भाषा का प्रादुर्भाव संभव हुआ जिसमें इस्लाम की धर्म भाषा अरबी से ग्रस्त फारसी का खड़ी बोली हिंदी से घाल-मेल बखूबी हुआ है। दूसरी ओर धर्म संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में प्रादेशिक भाषाओं ने अपना वर्चस्व स्थापित करना आरंभ किया और इस तरह थोपी गई फारसी को प्रशासन के एक कोने तक सिमट कर रहने को बाध्य कर दिया।
थोपी गई भाषा का प्रतिरोध् एक विश्व व्यापी लक्षण है। उत्तर भारत में कबीर जैसे निर्गुणपंथियों ने जहाँ पंचमेल खिचड़ी भाषा का उपयोग किया, वहीं सगुणोपासकों ने ब्रज और अवधी का आश्रय लिया। और तो और प्रेम मार्गी सूफियों तक ने भी अरबी-पफारसी की जगह अवधी का दामन थाम लिया। अन्यत्रा भी मराठी, बांग्ला और गुजराती आदि ने भी उभरना आरंभ कर दिया। जहां तक दक्षिण का सवाल है, वहां भी तमिल, तेलुगू, मलयालम और कन्नड़ जैसी प्रादेशिक भाषाओं ने अपनी पकड़ और महत्व में उत्तरोत्तर व्रद्धि आरंभ कर दी। इसी समय देश पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। अंग्रेजों ने आरम्भ में फारसी से छेड़-छाड़ नहीं की लेकिन धीरे-धीरे एक सोची-समझी योजना के अंतर्गत उसकी जगह अपनी भाषा अंग्रेजी थोप दी। भारत ही नहीं दुनिया में जहां कहीं भी अंग्रेज अपने उपनिवेश स्थापित करने में सपफल हुए, वहां सर्वत्र अंग्रेजी भी अपना पैर जमाने में सपफल हो गई। उस समय दुनिया की एकमात्र बड़ी शक्ति होने के कारण दूसरे स्वतंत्र देशों को भी अंग्रेजी का महत्व स्वीकार करना पड़ा और इस तरह अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा होने का दर्जा प्राप्त करने में सपफल हो गई। र्‍ेंच, जर्मन और रूसी जैसी सशक्त भाषाएँ भी उसका मुकाबला नहीं कर सकीं। सोवियत व्यवस्था के अंतर्गत रूसी भाषा की चुनौती भी अंग्रेजी का कुछ नहीं बिगाड़ पाई। आज स्थिति यह है कि अंग्रेजी का वैश्वीकरण हो चुका है। सारे महा्द्वीपों में उसी की तूती बोल रही है। इसका एक बड़ा कारण तो यह भी है कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की मौलिक सामग्री का सबसे बड़ा भंडार उसी में है और सभी देशों को एक-दूसरे से संपर्क रखने के लिए उसी का सहारा लेना पड़ता है।
अंग्रेजी के इस अभ्युदय से दुनिया भर की दूसरी भाषाओं का विकास बाधित हुआ है। उपनिवेशीकरण का अभिशाप यह है कि हमें अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा की कीमत पर अंग्रेजी की ओर देखना पड़ता है। ब्रिटिश काल में स्थापित अंग्रेजी के वर्चस्व को तोड़ने के सारे प्रयास असफल सिद्ध हो रहे हैं। रोजी-रोटी के प्रश्न को लेकर यहां काले अंग्रेज नौकरशाहों का जो शक्तिशाली वर्ग पैदा हुआ उसका प्रभाव आज भी ज्यों-का-त्यों है। अंग्रेजी का ज्ञान सामाजिक स्तर पर श्रेष्ठता का मानदंड बन चुका है। आर्थिक स्थिति में कुछ सुधर आने पर आज मध्यम वर्ग भी अंग्रेजियत अपनाने को आतुर है। यहां तक कि भारतीय संस्कृति और संस्कृत की श्रेष्ठता का बखान करने वाले सा्धु-संत तक भी अंग्रेजी बोलने में अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। जनता और जन-भाषा की बातें करने वाले नेतागण भी अपनी औलाद को अंग्रेजी माध्यम से ही शिक्षा देने पर बाध्य हैं।
भाषा के प्रश्न पर उत्तर और दक्षिण के बीच जो खाई थी उसे और चौड़ा करने में अंग्रेजी समर्थक नौकरशाही वर्ग का हाथ होने से इन्कार नहीं किया जा सकता। भाषा का प्रश्न इतना उलझा दिया गया है कि उसे सुलझाने का कोई सीध रास्ता नजर नहीं आता। सोवियत व्यवस्था के अंतर्गत सुदूर टुंड्रा-टैगा और काकेशस की अल्पसंख्यक जन-जातियों तक की भाषा-बोलियों को जिस तरह विकास करने का अवसर प्रदान किया गया, यदि उसी तरह की कोई नीति यहां भी अपनाई जाए तो संभव है इस समस्या का कोई हल निकल सके। ऐसा करने से देश की दबी-कुचली जन-जातियों को आगे बढ़ने का अवसर मिलेगा और वे अपने वर्गीय हितों की रक्षा करने में अपने स्तर पर समर्थ हो सकेंगे।

5 comments:

अजेय said...

ज्ञानवर्द्धक और रोचक आलेख. जान कर रोमाँचित हुआ कि कुमाऊँ क्षेत्र मे भी उन भाषा परिवारो की बोलियाँ हैं, जिन से (ग्रियर्सन के अनुसार) लाहुल और किन्नौर की कुछ बोलियाँ सम्बन्धित हैं. गढ़्वाल की निती, माणा बोलियों के बारे तो जानता था.
टुन्द्रा , टैगा, काकेशस की बोलियों पर क्या सरकारी नीतियाँ थीं, और नत्तीजतन ये बोलियाँ कैसे और कितनी विकसित हुई हैं, यह जानने की इच्छा अधूरी रह गई. आगे किसी पोस्ट पर उम्मीद कर रहा हूँ.

Anonymous said...

The early years of the Communist era were characterized by an active promotion of the minority languages in the Soviet Union. It is difficult to separate benevolent from political motivations at this stage in Soviet history. Whereas Russian had been the official language in Tsarist times, in the new Soviet state, all of the peoples and languages were declared to be equal. There was no official language de jure and everyone was declared to have the right to education in his own language. Lenin wrote that "the workers support the equality of nations and languages... full equality includes the negation of any privileges for one of the languages" . Lenin spoke out vigorously against "Great Russian chauvinism", criticizing those who wished to make Russian the official language of the Soviet Union, although he undoubtedly held the language in high regard:
We know better than you do that the language of Turgenev, Tolstoy, Dobrulyubov and Chernyshevsky is a great and mighty one.... And we, of course, are in favour of every inhabitant of Russia having the opportunity to learn the great Russian language. What we do not want is the element of coercion... a compulsory official language involves coercion, the use of the cudgel
An obvious question to ask is why the Soviets were so eager and willing to promote national languages at the outset. Soviet language policy is inextricably linked with the Marxist-Leninist (and subsequently Stalinist) view of nations. The Soviet policy on nationalities is founded upon the "doctrine which traces the evolution of the human group from the clan to the nation, which is the ultimate outcome of the group"(Bennigsen and Quelquejay 1961:1).More specifically, Stalin defined a nation as "a stable and historically constituted human community founded on its community of language, territory, economic life, and spiritual makeup, the last contained in the idea of community of national culture"(cited in Bennigsen and Quelquejay 1961:2-3). Of these characteristics, "language is a nation's most obvious and important attribute. There is no such thing as a nation without a common linguistic basis"

अजेय said...

कुछ कुछ समझा. पर भईया आप को हिन्दी तो आती होगी. हिन्दी लेख पर टिप्पणी कर रहे हैं.

arvind shekhar said...

मुझे नहीं लगता कि भाषा का वर्गीय चरित्र होता है.
दरअसल भाषा तो समाज के सभी वर्गों के बीच संवाद का माध्यम है. हाँ, अपने देश में सरकारी कामकाज में अंग्रेजी के वर्चस्व को देखकर ऐसा महसूस जरूर होता है.लेकिन यह भी सोचने वाली बात है कि जब देश के शासको को जनता से संवाद करना होता है तो उन्हें भारतीय भाषाओं का ही सहारा लेना पड़ता है. उनमे से अधिकांश सोचते भी अपनी मातृभाषा में ही होंगे. बस खुद को जनता से विशिष्ट और श्रेष्ठ साबित करने के लिए वे अपने अंग्रेजी ज्ञान या शब्दों वाक्यों का प्रयोग करते हैं.जहाँ तक हमारे औपनिवेशिक अतीत के प्रभाव का प्रश्न है , एक जमाना था जब इंग्लॅण्ड और रूस में शासक फ्रेंच ही बोलते थे. लेकिन दरबार में, वहां आज किस भाषा का चलन है? अब रहा भाषाओं के ख़त्म होने के डर का सवाल, जब तक कोई समाज है तब तक भाषा का अस्तित्व बना रहेगा.संभव है भाषा मूल स्वरुप खो दे लेकिन व्याकरण तो पहले जैसा ही रहेगा शब्द भण्डार भले ही समाज के विकास के चरण के साथ बदल जाये. यहाँ संकट छोटे अविकसित सामाजिक समूहों के अस्तित्व पर है,जिन्हें उनके आस पास के बड़े सामाजिक समूह निगल रहे हैं

Anonymous said...

Early Soviet Policy was tolerant and promotive of linguistic differences, and Soviet citizenship was thus not contingent on a knowledge of Russian. Later, however, the old (pre-revolutionary, and post-revolutionary covert) russifying tendency reasserted itself, partly justified by the Marrist idea, partly just plain old russification under the paternalist Big Brother leadership of the Russian people, who were thus primus inter pares. It is no wonder this idea crashed and burned in 1991, and that the Soviet Union collapsed so easily, and that all the old hostilities and tensions between various national groups reemerged in all their old virulence. Soviet ideology about bourgeois nationalism and how it would wither away under socialism had totally masked and suppressed all the hostilities between various groups, rather than eliminate them. When the suppression was lifted, the old tensions reemerged.