Thursday, May 6, 2010

ओरहान पामुक का उपन्यास-The Museum of Innocence




ओरहान पामुक का उपन्यास The Museum of Innocence प्रेम का अद्भुत आख्यान है. पामुक ने निसंदेह विश्व कथा-साहित्य में एक अनूठा प्रेमी रच दिया है.यह मारक्वेज़ के Love in the Time of Cholera के कथा नायक की तरह प्रेम के प्रति समर्पण , निष्ठा , धैर्य और प्र्तीक्षा की विलक्षण रासायनिक अभिक्रियाओं से निर्मित हुआ है. मारक्वेज़ के उपन्यास की तरह पामुक का यह उपन्यास भी उन्हें नोबल मिलने के बाद आया है. यहीं दोनों के बीच तुलना खत्म हो जाती है. मारक्वेज़ .के यहां कथा की असामान्यता का जादू है वहीं पामुक के पास शिल्प का अभिनव प्रयोग है.
य्ह उपन्यास एक संग्रहालय में संग्रहीत की गयी चीजों के माध्यम से 1593 शामों की यातना भरी गुप-चुप चलती देहातीत मार्मिक प्रेम कहानी को समय से उठाकर स्थान (space ) में रूपायित करने का उपक्रम है जहां पश्चिम और पूर्व की सन्धि-रेखा पर स्थित तुर्की का भद्र-लोक नयी वैश्विक बाजार व्यवस्था से रू-ब-रू हो रहा है और आम जन बदलती राजनैतिक परिस्थितियों के बीच आये दिन तख्ता-पलट और कर्फ्यू झेल रहा है.यहां नायक उच्च वर्ग से है और नायिका निम्न मध्य-वर्ग से. वर्जनाओं और मध्य-युगीन नैतिकता के द्वन्द्व में उलझी यह प्रेम-कथा नायक के जीवन के सुखदतम क्षण के वर्णन के साथ शुरू होती है. मंहगी वस्तुओं की शौकीन सवर्गीय-मंगेतर के लिये भेंट खरीदते हुए नायक इस " दूर की रिश्तेदार " सेल्स-गर्ल के संसर्ग में आता है और फिर गहन दैहिक अनुसंधान से शुरू होने वाली यह त्रासद कथा स्त्री होने की नियति को पुरूष-प्रधान समय में एक कारुणिक अन्त की तरफ धकेलती है.वह मंगेतर से विवाह करना चाहता है किन्तु प्रेम को छोड़ना नहीं चाहता. उच्च-वर्गीय समाज के पाखण्डों और जीवन शैली पर चोट करते हुए पामुक व्यंग्य की एक नयी युक्ति खोज लाये हैं. टूटे हुए विवाह और खोई हुई प्रेमिका को पाने की चाहत विश्व-कथा साहित्य में एक अनूठे किरदार के लिये नयी जमीन तैयार करती है. नायिका के नजदीक रहने और उसे निहारने का सुख पाने की शिद्दत नायक के भीतर एक नयी तरह की मनोग्रंथी के लिये जिम्मेदार है.वह चुपचाप उन चीजों को उठाता जाता है जिन्हें नायिका ने इस्तेमाल किया है. जरा कल्पना कीजिये- सिगरेट के 4213 टोटे नायक ने एकत्र किये हैं जिनमें से कुछ नायिका द्वारा बुरी तरह से कुचल दिये गये हैं, कुछ में उसकी लिपस्टिक लगी हुई है.इन छोडॆ हुए टुकडो के बीच वह नायिका की मनःस्तिथि का इतना सघन और विश्वसनीय चित्र खींचता है कि तय करना मुश्किल है कि यह किसी मनोग्रंथि का सूचक है या कोई चतुर मनो-विश्लेषक बात कर रहा है!यहीं पामुक ने व्यंग्य की वह युक्ति खोज निकाली है जो अब तक साहित्य में अन्जान थी!
मासूमियत का यह संग्रहालय सिर्फ गहन ऐन्द्रिक अनुभूतियों को व्यक्त करने वाली चीजों से ही नहीं बना है बल्कि उसमें एक पूरा समय और उसमें रहने वाले लोगों की जिन्दगियां दर्ज हैं. एक स्त्री की मासूम आत्महन्ता इच्छा से साक्षात्कार के बाद संग्रहालय के निर्माण की प्रक्रिया के दौरान प्रेम उदात्तता के जिन सोपानों तक उठता है वह पश्चिम में तो दुर्लभ है.निहायत वैयक्तिक अनुभव के सार्वजनिक प्रदर्शन की कामना नायक को दुनिया के तमाम संग्राहलयों के अनुसंधान की ओर ले जाती है.वह मामूली लोगों के जीवन और उनकी इच्छाओं को समझने लगता है.1950 के तुर्की की नोस्टेल्जिक स्मृतियों से जुडी इस कथा की घटनायें मुख्यतः 1976 से 1984 के बीच घटित होती हैं.
बडॆ उपन्यासों में जो चीज मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित करती है वह है- मृत्यु. मृत्यु से भी अधिक उसकी आकस्मिकता .इस आकस्मिकता के घटित होने का स्थान और समय! लगता है कि मत्यु की शाश्वतता में जीवन की नश्वरता के तमाम दार्शानिक उपाख्यान अन्ततः शरणागत हो जाते हैं.यहां अन्त से पहले नायिका अपने प्रेमी से कहती है- तुम्हारी वजह से मैं अपना जीवन नहीं जी सकी . मैं अभिनेत्री बनना चाहती थी.एक बेहद मासूम इच्छा के पूरी न हो पाने का दंश या इन इच्छाओं की पूर्ती के लिये पुरुष पर निर्भर रहने की मजबूरी ही इस उपन्यास में मृत्यु की पीठिका तैयार करती है.
यह उपन्यास मुझे एक और दृष्टि से भी महत्व्पूर्ण लगा. यहां प्रेम की सघनता में जितने शब्द लिखे गये हैं वे विस्मित करते हैं.अक्सर गद्य की विधायें इस मामले में कविता के आगे बौनी पड़ जाती रही हैं.पामुक का यह उपन्यास गद्य की ताकत से भी परिचित कराता है।
नवीन कुमार नैथानी

Thursday, April 29, 2010

हरजीत की गज़लें

पिछली पोस्ट में नवीन मैठाणी जी ने हरजीत सिंह का एक पोस्टर लगाया था। इस पोस्ट में मैं उनकी दो गज़लें लगा रही हँ।

1.

जो अपने खून में जारी नहीं है
अदाकारी अदाकारी नहीं है

सभी फूलों में जितना खौफ है अब
ख़िजाँ की इतनी तैयारी नहीं है

ख़ला में जो भी मेरे हमसफर हैं
कोई हल्का कोई भारी नहीं है

निकलकर घर की दीवारों से बाहर
कोई भी चारदीवारी नहीं है

सभी मेहनत से बचना चाहते हैं
वगरना इतनी बेकारी नहीं है

मैं उनके खेल में शामिल हूँ लेकिन
वो कहते हैं मेरी बारी नहीं है

2.

उसके लहजे में इम्तिहान भी था
और वो शख्स बदगुमान भी था

फिर मुझे दोस्त कह रहा था वो
पिछली बातों का उसको ध्यान भी था

सब अचानक नहीं हुआ यारों
ऐसा होने का कुछ गुमान भी था

देख सकते थे छू न सकते थे
काँच का पर्दा दरमियान भी था

रात भर उसके साथ रहना था
रतजगा भी था इम्तिहान भी था

आई चिड़ियाँ तो मैंने ये जाना
मेरे कमरे में आसमान भी था

हरजीत सिंह

Saturday, April 24, 2010

हरजीत की गज़ल और दीपक का पोस्टर


हरजीत को गये ग्यारह वर्ष हो गये.लेकिन उसका जिक्र यूं होता है जैसे वह यहीं कहीं हो.अभी झोला भूल आया है जिसमें दोस्तों का इन्तजाम भी है.
यहां हम हरजीत को याद करते हुए हरजीत के संगी कलाकार दीपक कुमार उर्फ़ दीपक देहरादूनिया का बनाया पोस्टर लगा रहे हैं. ( अब जयपुर वासी दीपक पर एक पोस्ट जल्द ही लगायी जायेगी)

Wednesday, April 14, 2010

माँ

बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी माँ,
याद आती है चौका बासन
चिमटा फुकनी जैसी माँ।

बान की खुर्री खाट के ऊपर
हर आहट पर कान धरे
आधी सोयी-आधी जागी
थकी दुपहरी जैसी माँ।

चिढ़ियों की चहकार में गूंजे
राधा-मोहन, अली-अली
मुर्गे की आवाज़ से खुलती
घर की कुण्डी जैसी माँ।

बीबी, बेटी, बहन, पड़ोसन
थोड़ी-थोड़ी सी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी जैसी माँ

बांट के अपना चेहरा माथ
आंखें जाने कहाँ गयी
फटे पुराने इक एलबम में
चंचल लड़की जैसी माँ

- निदा फाज़ली

Thursday, April 8, 2010

दिनेश चन्द्र जोशी की कविता


(दिनेश चन्द्र जोशी की कवितायें इस ब्लोग के पाठक पहले भी पढ़ चुके हैं कहानी-संग्रह राजयोग तीन वर्ष पूर्व प्रकशित हुआ था.उनकी कविताएं जीवन की सहज गति के बीच बह्ते हुए उन चीजों को उठाती हैं जो हर वक्त हमारे सामने रहती हैं लेकिन दृष्टि में नहीं आतीं.जीवन के सहज द्र्श्यों और कार्य व्यापारों को उनकी कविता संवेदना का अनिवार्य अंग बना डालती है. यहां हम उनकी ताजा कविता पाठकों के सामने सगर्व प्रस्तुत कर रहे हैं)
दरी

यह दरी विछी थी घर में
जिसमें बैठ कर बेटी की शादी के मौके पर
बन्नी गा रही थीं मुहल्ले की स्वाभाविक व
निपुण नृत्यांगनाएं
खिलखिला रही थीं हास परिहास करके


कई मौकों पर बिछाया गया , घर के फर्नीचर
सोफों कुर्सियों को हटाकर कमरे के चौरस
फ़र्श पर दरी को,
कितने सारे लोग अटा जाते हैं
कमरे में सामुहिक काम काज के मौके पर
’दरी बडी काम की चीज है’ पिता कहते थे बच्चों से


गोष्ठी, मीटिंग,कथा, कीर्तन, भजन के अनेक अवसरों पर
काम आयी दरी, इसे किन अनाम कारीगरों ने बनाया होगा
बनी होगी यह भदोही या चंदौली में या कि जौल्जेबी
गौचर चमोली में, जहां भी बनी हो , देश में ही बनी होगी
देशी किस्म के कामों के वास्ते

बिछती है दरी बडी बडी सभाओं में
गोष्ठियों .सेमिनारों .कार्यशालाओं में
कवि सम्मेलनों में भी बिछती थी दरी पहले सारी रात
अब न वैसे कवि रहे न श्रोता

दरी बिछती है घर मे शोक के अवसरों पर
पिता की मृत्यु के वक्त जिस पर बैठ कर दहाडें मारती है मां
सांत्वना व ढाढस देती हैं मां को दरी पर बैथी हुई स्त्रियां
दरी खुद भी हिम्मत बंधाती है मां की हथेलियों को
छूते हुए अपने अजीवित स्पर्श से