Tuesday, December 7, 2010

सूर्ख-गुलाब से गटर तक-उर्फ़ किस्सा-ए-दर्द भोगपुरी(अवधेश और हरजीत ६)

टंटा-शब्द के उस नामकरण के पीछे कई दिमाग लगे थे. सुनील कैन्थोला की असंदिग्ध मौलिक प्रतिभा का सहयोग तो था ही, टंटों की सामूहिक चेतना ने इसे और ऊंचाई दी. होने यह लगा कि शहर के तमाम साहित्यिक , सांस्कृतिक कार्य-क्रमों में बाकायदा टंटा-समिति के नाम निमन्त्रण पत्र आने लगे.व्यक्तिगत-स्तर पर हर टिप-टापिया अपने को टंटा समझता था किंतु टंटा-पन को लेकर सार्वजनिक खिंचाई में चूकता भी नहीं था.शायद सर्वजनिक धिक्कार की भर्त्सना करना भी टंटों के पुनीत कर्तव्यों में से एक रहा है.अवधेश की एक कविता है- माचिस जिसकी शुरुआती पंक्तियां यूं हैं
माचिस एक आग का घर है
जिसमें बावन सिपाही रह्ते हैं
जिनके सिरों पर बारूद भरा है
इस कविता की पैरोडी बनायी गयी जो दुर्भाग्य से अब मुझे याद नहीं है. यह पैरोडी उस जगह चस्पा कर दी गयी जिसे अमूमन दुकानदार लम्बे इन्तजार और कई तकादों की अप्रिय प्रक्रिया के बाद थक कर उन देनदारों का नाम सार्वजनिक करने के लिये चुनते हैं जिनकी देनदारी की रकम बर्दाश्त ली सीमा ले बाहर जाती नजर आने लगती है.टिप-टाप में ऐसे देनदार बहुत थे-लगता था जैसे उस सांस्कृतिक हलचलों से भरपूर समय में उधार न चुका कर प्रदीप गुप्ता पर बडा अहसान कर रहे हैं.कुछ के पास पैसे ही नहीं होते थे!
बहरहाल अवधेश ने पैरोडी पढी-उसकी प्रशंसा की और पैरोडीकारों की त्रुटियों को बाकायदाअपने हाथ से दुरूस्त कर चिपका दिया!अब टंटा गतिविधि में यह क्रिया भी शामिल हो गयी-पैरोडी.कुछ टंटे तो यह तक मानने लगे कि यह जीवन अगर सृष्टिकर्ता की रचना है तो इस जीवन को जीने वाला उसका पैरोडीकार!उन्ही दिनों टंटों के बीच दर्द भोगपुरी का आगमन हुआ.ये साहब शायरी सीखना चाहते थे और शायराना तबियत के मालिक थे - यह बात दीगर है कि शायराना तबियत के बारे में उनके विचार हमेशा बदलते रहते थे. तो दर्द भोगपुरी ने हरजीत से इस्लाह लेने का इरादा किया और कुछ पंक्तियां सुनाकर जानना चाहा कि इनमें शायरी है भी या नही.और अगर शायरी नहीं है तो इनमें पैदा कर दे! हरजीत ने सुना बहुत देर तक सोचा .आहिस्ता -आहिस्ता अपना चश्मा दुरूस्त किया और बोला,"दर्द साहब!यूं ही कहते जाईये . सही समय पर खुद समझ जायेंगे कि शायरी है या नहीं.और रही बात दुरूस्त करने की तो जब उसका भी वक्त आयेगा तो खुद ब खुद शे’र हो जायेगा."
दर्द साहब ने कुछ लोगों से सुना था कि कि हरजीत कभी उर्दू की नशिश्तों मे जाया करता था और राजेश पुरी तूफ़ान का शागिर्द रहा.प्रसंगवश तूफ़ान साहब से एक मुलाकात मुझे भी याद है-अतुल शर्मा के साथ.गांधी पार्क की बगल में एक नये खुले टी हाउस में ( वह ज्यादा नहीं चल सका).वहां उन्होंने एक पते की बात बतायी थी-अच्छा शे’र वह होता है जो गद्य और पद्य में एक सा रहे यानि उसका अन्वय न करना पडे- उदाहरण के रूप में उन्होंने मीर के बहुत से शे’र उद्धृत किये थे.एक मुझे याद आ रहा है
नाजुकी उन लबों की क्या कहिये
पंखुडी कोई गुलाब की सी है
खैर एक रोज दर्द साह्ब के साथ अजब वाकया पेश आया. वे टिप-टाप मे बैठे थे कि दो महिलायें एक सूर्ख गुलाब लिये दर्द साहब को पूछती चली आयीं.थोडा सकुचाते ,कुछ हिचकिचाते हुए उन्होंने वह गुलाब कुबूल किया - मेज के किनारे रखा और प्रदीप गुप्ता को उधार की चाय का आर्डर दिया.दर्द साहब सूर्ख गुलाब का सबब समझ नहीं पा रहे थे .तभी वहां हरजीत का आगमन हुआ.उसने मंजर देखा , प्रदीप गुप्ता से कुछ बात की और फिर उस सार्वजनिक पोस्टर -स्थल से अवधेश की पैरोडी हटाकर एक नया शे’र चस्पां कर दिया
शराबो- जाम के इस दर्जः वो करीब हुए
जो दर्द भोगपुरी थे गटर-नसीब हुए
इसे पढ़्कर दर्द भोगपुरी ने ,जाहिर है, राहत की सांस ली

Friday, November 26, 2010

अवधेश का गीत:(अवधेश और हरजीत -५)

अवधेश और हरजीत पर लिखते हुए इतनी चीजें याद आ रही हैं कि थोडा रूकना पडेगा. फिलहाल आप अवधेश के गीत की कुछ पंक्तियां पढें जो मेरी स्मृतियों में बसी हैं.अवधेश बहुत अच्छा गीतकार और गायक भी था यह बात वे लोग जानते हैं जो उसे सुन चुके है .एक बार देहरादून में राजेन्द्र यादव, गिरिराज किशोर और प्रियंवद का नितान्त अनौपचारिक आगमन हुआ . वहां अवधेश ने कुछ गीत सुनाये थे और ओमप्रकाश वाल्मीकि ने राजेन्द्र जी से किसी पत्राचार पर बहस की थी.यह तब की बात है जब ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी "बैल की खाल"को हंस में छपने के लिये अभी वक्त था. वह अनौपचारिक बैठक एक तरह से दलित - विमर्श में महत्वपूर्ण घटना सबित हुई.तो अवधेश के गीत हंस में छपे.वे शायद चार गीत थे.फिलहाल आप इस गीत की वे पंक्तियां पढिये जो मेरी स्मृति में बची हैं
है अंधेरा यहां और अंधेरा वहां
फिर
भी ढूंढूंगा मैं रौशनी के निशां

है
धुंए में शहर या शहर में धुंआ
आप
कहते जिसे कहकशां-कहकशां

तू
बयानों से अपने बचा भी तो क्या
साफ
दिखते तेरी उंगलियों के निशां

Friday, November 19, 2010

टंटा प्रसंग उर्फ टिप-टाप(अवधेश और हरजीत -४)

देहरादून का कोई भी साहित्यिक - सांस्कृतिक उल्लेख डिलाइट और टिप-टाप के जिक्र से बचकर संभव नहीं.डिलाइट का इतिहास बहुत पुराना है और आज भी वह अपनी उसी त्वरा के साथ गतिशील है- एक साथ कई पीढियों के बीच जीवन्त बहसों , अफवाहों , सूचनाओं और निखालिस गप्पबाजी का ठेठ अनौपचारिक ठिया!आज की बढ़ती समृद्धि और और घटती संवेदनशीलता के इस बेहद तेज समय में शहर के बीचो-बीच अपनी सादगी भरी धज में डटा डिलाइट प्रतिरोध का सौन्दर्यशास्त्र रचता दिखायी पडता है.डिलाइट के इतिहास और प्रतिष्ठा पर इस ब्लाग में पहले भी लिखा जा चुका है-खास तौर पर सुरेश उनियाल और विजय गौड़ द्वारा.यहां मैं टिप-टाप का जिक्र कर रहा हूं जो अस्सी के उत्तरार्ध और नब्बे के पूरे दशक भर अपने उफान पर रहा और अब बस नाम भर बचा हुआ है-चकराता रोड की भीड़ भरी भागम - भाग के बीचो-बीच एक साइन बोर्ड!इस शहर में भीड़ का ये आलम है
घर से गेंद भी निकले तो गली के पार न हो
हरजीत ने शायद कुछ ऐसा टिप-टाप मे बैठकर ही कहा था.उन दिनों टिप-टाप पूर्णतः साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र बन चुका था.टिप-टाप का इतिहास कुछ यूं रहा कि डिलाइट के किंचित अगंभीर से दिखलायी पडते माहौल से हटने के लिये एक वैकल्पिक स्थल के रूप में पहले यहां पत्रकारों ने अड्डा जमाया -फिर रंगकर्मी काबिज हुए और अन्ततः साहित्यिकों की विशिष्ट मुफलिसी को टिप-टाप मालिक प्रदीप गुप्ता के दिल की रईसी और काव्य-प्रेम इस कदर रास आये कि टिप-टाप, २० चकराता रोड शहर के साहित्यिकों का पता ही बन गया.जब कथाकार योगेंद्र आहुजा नौकरी के सिलसिले में स्थानान्तरित होकर देहरादून आये तो उन्हें दिल्ली में बताया गया कि देहरादून में किसी साहित्यकार का पता पूछने की जरूरत नहीं -सीधे टिप-टाप चले जाइये! तो टिप-टाप में ही मेरी योगेन्द्र आहूजा से पहली मुलाकात हुई-वह शायद शाम का वक्त था-लगभग साढे सात बज चुके थे. वे अपनी पत्नी के साथ आये थे-टिप- टाप के माहौल में किसी का सपरिवार आगमन आश्चर्य ही हुआ करता था.
"अच्छा! सिनेमा-सिनेमा वाले योगेन्द्र आहूजा!"लगभग यही प्रतिक्रिया थी. बाद में योगेन्द्र ने गलत ,अंधेरे में हंसी और मर्सिया जैसी कहानियां दीं.
खैर, यह एक अलग और विस्तृत कथा है, फिलहाल बात टंटा शब्द पर की जाये जो एक तरह से टिप-टापियों का सामूहिक नामकरण हो गया.इस शब्द के साथ थोडा सा विरोध, हलका सा प्रतिरोध और दुनिया के प्रति किंचित उपहास को मिलाकर एक खिलन्दडाना बिम्ब कालान्तर में जुड गया जिससे संबद्ध हर शख्स को टंटा कहा जाने लगा. बहुवचन टंटे और सामुहिकता के लिये टंटा समिति का संबोधन चल निकला.यहां बेहद गंभीर मुद्दों को गैर जिम्मेदारी की हद तक पहुंचने की दुस्साहसिक चेष्टाओं के सामुहिक आयोजन में कई गैर-टंटों ने निहायत अगंभीर (non-serious) वार्तालाप की शक्ल में बदलते देखने के बाद टंटा समिति को वक्त-बर्बादी का जरिया माना और घोषणा की कि यह दो चार दिनों का शगूफा है.मज्रे की बात यह कि टंटों ने इस बारे में कुछ सोचा ही नहीं-गम्भीरता का उपहास वैसे भी टंटेपन का मूल भाव है!लेकिन टंटा समिति चल निकली और खूब चली.
इस टंटा शब्द की भी एक कहानी है.एक शाम शहर में घूमते हुए कवि वीरेन डंगवाल टिप टाप में आ पहुंचे .शायद राजेश सकलानी के साथ.चूंकि अवधेश और हरजीत के लिये शाम होने के बाद सूरज ढलने का इन्तजार वक्त-बर्बादी के सिवा और कुछ नहीं था, सो वे चाहते थे कि वीरेनजी जरा जल्द ही टिप-टाप से निकल कर कहीं और चलें जहां हरजीत अपना ताजा शे’र पढ़ सके
ये शामे-मैकशी भी शामों में शाम है इक
नासेह, शेख ,वाहिद, जाहिद हैं हमप्याला
लेकिन वीरेनजी को शायद ६.३० की ट्रेन पकडनी थी.तो शाम कुछ फीकी से हुई जा रही थी-तो हरजीत ने कहा
"चलो ! टंटा खत्म!"फिर अगला ही जुमला कस दिया,"स्वागत एवं टंटा समिति का काम खत्म"
अगले दिन इस बात का इतनी बार मजाक बनाया गया कि टंटा शब्द सबकी जुबान में चढ गया.कालान्तर में इसमे साथ कुछ अर्थ जोडने की कोशिशें हुईं . एक प्रसिद्ध नामकरण यूं रहा
Total Awareness of Neo Toxic Adventures
इस पर अगली पोस्ट में

Sunday, November 14, 2010

उसके कैमरे की शटर-स्पीड

वरिष्ठ कथाकार मदन शर्मा अपने नजदीकी मित्रों को (बहुत अनजान किस्म के लोगों को भी)  याद करते हुए  लगातार संस्मरण लिख रहे हैं। उनके संस्मरणों में देहरादून शहर की तस्वीर को ढलते हुए देखा जा सकता है। वी. के. अरोड़ा यूं वैसे कोई अनजाना नाम नहीं होना चाहिए पर यह सच्चाई है कि वह सचमुच अनजाना-सा ही नाम है। 
देहरादून थियेटर के बिल्कुल शुरूआती दौर को, बिना फ्लैशगन को इस्तेमाल किए, सिर्फ मंच के प्रकाश के सहारे ही श्वेत-श्याम तस्वीरें खींचने वाला जुनूनी शायद ही कभी देहरादून के रंगकर्मियों की जुबा पर अपने नाम को छोड़ पाया हो। हां, जिक्र छिड़ने पर ऐसे एक फोटोग्राफर की यादें तो किसी के भी भीतर जिन्दा हो सकती है पर उसका नाम उनके लिए अनजान ही रहा। अपने ही तरह का, मनमौजी, यह शख्स किसी के मुंह से अपनी तारीफ सुनना भी चाहता रहा, मुझे तो ऐसा कभी नहीं लगा।  
-वि.गौ.   



   मदन शर्मा
       बिछुड़े मित्रों में, वी0 के0 अरोड़ा की कभी-कभी बहुत याद आती है। पूरा नाम वीरेन्द्र कुमार अरोड़ा, दुबला-पतला, कांगड़ी सा शरीर, रंग गेहवां, नक्श तीखे और आवाज़ थोड़ी तीखी। ऐनक के शीशों को चीरती शरारती नज़रें। स्वयं कम हंसता, मगर दूसरों को हंसा-हंसा कर रूला डालता।
    मुझे यह काफी बाद में पता चला, कि वह उसी सरकारी संस्थान में सुपरवाइज़र है, जहां मैं काम करता था। उससे मेरी पहली भेंट मसूरी में हुई। एडवोकेट अविनन्दा, अपनी सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्था 'जागृति" की पूरी टीम लेकर, मसूरी के हॉकमनस होटल में 'शो" देने जाने लगे, तो अपना 'तमाशा" दिखाने के लिये, मुझे भी साथ ले गये।
    हम लोग, मसूरी के 'टाउनहाल" में ठहरे हुए थे। कार्यक्रम शाम सात बजे आरम्भ होना था। सभी कलाकारों को कार्यक्रम स्थल पर पांच बजे तक पहुंच जाना ज़रूरी था। नन्दा जी ने मुझे कुछ नोट थमाते हुए कहा, "शर्मा जी, आप कुलरी के किसी रेस्टरेंट में इन सभी के लिये नाश्ते की व्यवस्था कर दें। मगर एक बात का ध्यान रहे, कोई भी आदमी प्रोग्राम के लिये, देर से न पहुंचे।''
    मैंने चेतावनी दे दी, कि सभी लोग चार बजे तक, 'नीलम रेस्टरेंट पहुंच जायें। वहां चार पच्चीस के बाद पहुंचने वालों को अपने चाय नाश्ते का स्वयं बंदोबस्त करना होगा।
    जैसा अपेक्षित था, निर्धारित समय पर, केवल एक चौथाई सदस्य ही नाश्ता कर पाये। शेष  आदमी टाउनहाल में कंघियों से अपने बालों के स्टाइल बनाते रहे और लड़कियां अपने लिये साड़ियों का चुनाव करती रह गईं
    मेरी इस हरकत पर एक व्यक्ति, न जाने कब से नज़र जमाये था।
    वह मेरे नज़दीक आकर बोला, ""आप शायद मुझे नहीं पहचानते। मैं भी ऑर्डनैंस फैक्टरी में ही काम करता हूं। मैं आपके वक्त की पाबंदी से काफ़ी प्रभावित हुआ हूं।''
    समझ में न आया, उसकी बात का क्या उत्तर दूं। तभी वह बोल पड़ा, ""सुना है, इन्हीं दिनों आपने कोई अश्लील उपन्यास लिखा है।'' मैंने कहा, 'उपन्यास छप चुका है", तो वह हंस कर बोला, ""छपने के बाद ही, लोगों ने पढ़ा होगा। मैं भी उस किताब को पढ़ना चाहूंगा।'' मैंने कहा, ""देहरादून पहुंचने पर मैं आप को उपन्यास की प्रति दे दूंगा।''
    मैंने उपन्यास की प्रति उसे दी, तो उसने तुरंत ज़ेब से पर्स निकाल, किताब की कीमत मेरे हाथ पर रख दी।
""यह आप क्या कर रहे हैं?'' मैंने चकित होकर पूछा।
""मुआफ़ कीजिये, मुझे मुफ्त किताबें पढ़ने का बिल्कुल शौक नहीं।''
    एक सप्ताह बाद वह मिला और कहने लगा, ""आपकी किताब पढ़कर मुझे काफी निरा्शा हुई है। उसमें मुझे अश्लीलता तो नज़र ही नहीं आईं।''
    ""काफी बोर हुए होंगे?'' मैंने पूछा।
    ""नहीं, बोर तो बिल्कुल नहीं हुआ। कहानी में आपने काफी चटपटे मसाले भर रखे हैं। मगर छपाई की इतनी गलतियां हैं कि बस--- वैसे आपने यह किताब किस गधे से छपवाई?'' मैंने भास्कर प्रेस और उसके मालिक सुमेध कुमार गुप्ता का नाम बता दिया। वह बोला, ""किसी दिन जाकर उसका फोटो ज़रूर उतारूंगा।''
    वह फैक्टरी के एयर कंडीशनिंग प्लांट का सुपरवाइज़र था। अपने इस ट्रेड में वह जितना दक्ष था, उससे कहीं बढ़कर वह अपनी हॉबी, अर्थात फ़ोटोग्राफ़ी में निपुण था। फोटोग्राफी  में लोग उसे कलाकार मानते थे। वह उस कलाकारी में, कभी कभी दीवानगी की सीमाएं भी पार कर जाया करता था। 'जागृति" के ही एक अन्य कार्यक्रम में वह हमारे साथ ऋषिकेश गया। वहां भी एक सांस्कृतिक कार्यक्रम था। खाली वक्त में वह अपना कैमरा उठा कर जंगल की ओर चल दिया। वहां से काफी देर बाद लौटा तो चेहरा लहूलुहान और पूरे द्रारीर पर खरोंचें।
""यह क्या हुआ?'' मैंने हैरान होकर पूछा।
वह हंस कर बोला, ""ऐसा हुआ, कि मुझे उधर एक बड़ा ही खूबसूरत हिरन दिखाई पड़ा। मेरा जी ललचा गया। सोचा, एक स्नैप ले लूं। मैंने तब यह ध्यान ही नहीं दिया था, कि उस हिरन के बड़े बड़े सींग भी हैं। कैमरा देखते ही, पता नहीं क्यों, उसका मूड़ ही खराब हो गया और एक दीवार पर चढ़ गया। वरना वह तो मुझे मार ही डालता।''
""उस फोटो का क्या रहा?'' मैंने पूछा, तो बोला,
""फोटो तो मैं लेकर ही रहा, मैं इसका प्रिंट आपको दूंगा।''
    उसका छायांकन सुन्दर ही होता था। मगर वह एक नम्बर का मूड़ी था। अपनी मर्जी से आपके दस फ़ोटों खींच मारेगा, किंतु दूसरे के कहने पर, टस से मस नहीं। कोई पकड़कर ज़ब्रदस्ती ले भी जाता, तो पछताता।
    एक मित्र धर्मप्रकाश वर्मा, अपने सम्बंधों और प्यार का वास्ता देकर, उसे अपनी शादी के मौके पर ले गये और फ़ोटो-ग्राफी के लिये पुरज़ोर अपील की। अरोड़ा तैयार हो गया।
    वर्मा जी का शुभ विवाह धूमधाम से संपन्न हो गया। एटहोम और हनीमून निपट गये। एक वर्ष के बाद घर में शिशु ने भी जन्म ले लिया, मगर अरोड़ा से शादी वाले वे फ़ोटो न मिले। वर्मा जी ने कई बार याद दिलाया। मगर।।। वर्मा जी ने एक दिन फिर तकाज़ा किया, तो अरोड़ा ने पूछा,
""यार तुम किस फ़ोटो की बात करते रहते हो?''
""मेरी शादी के फोटो।''
""तुम्हारी शादी के फ़ोटो?--- अरे, वो तुम्हारी शादी के फ़ोटो थे? वो तो बहुत दिन तक मेरी मेज़ पर पड़े रहे। मुझे समझ में नहीं आ रहा था, किस के हैं।''
""मेरे हैं, तुम लाकर दे दो।''
""दे दो? वो तो सभी मैंने फाड़ ड़ाले। समझ में ही नहीं आ रहा था, किस बेवकूफ़ के फ़ोटो इतने दिन से पड़े सड़ रहे हैं।''
    एक दिन वह किसी शरीफ़ आदमी का फ़ोटो लेने लगा। वह आदमी, पुराने ज़माने की तरह, बहुत ही गम्भीर मुद्रा में और सांस रोककर कैमरे के सामने खड़ा हो गया। अरोड़ा ने कैमरे से नज़र हटाकर उस आदमी से कहा, ""हज़ूर आप इस तरह अकड़ कर क्यों खड़े हो गये? मैं आपका फ़ोटो ही तो ले रहा हूं। कोई गोली तो नहीं मार रहा!'' मैंने उसे टोका और कहा, ""प्रथम श्रेणी के एक राजपत्रित अधिकारी से यह कैसी बात कह दी!''
वह हंसकर कहने लगा, ""मैं कौन सा राजपत्रित अधिकारी को सचमुच ही गोली मारने लगा था!''
    मेरे मित्र डा0 आर0 के0 वर्मा को 26 जनवरी के दिन, अपने साप्ताहिक पत्र '1970" का जन्म दिन मनाना था। उस भव्य आयोजन में ज़िलाधीश, पुलिस अधीक्षक के अतिरिक्त, नगर की सभी बड़ी हस्तियां मौजूद थीं। मेरे मना करने पर भी, डाक्टर साहब ने अरोड़ा को फ़ोटोग्राफी के लिये बुला लिया। प्रोग्राम शानदार रहा। कई लोगों ने, बड़े  लोगों के साथ पोज़ बनाबना कर फोटो उतरवाये।
    ये फोटो, विशेषांक में छापे जाने थे। विशेषांक के बाद भी अखबार के कई अंक प्रकाशित हो गये। मगर अरोड़ा से वे फोटो न मिल पाये। पता चला, उसके कैमरे में डाली गई रील खराब थी, या कैमरे में रील थी ही नहीं और वह खाली फ्लैश ही मारता हो!
    मगर वह जब मूड में होता तो, कमाल ही कर देता। आधी रात के समय, देहरादून से मसूरी का फ़ोटो लेने के लिये, वह महीना भर रायपुर रोड और तपोवन के जंगलों में घूमता रहा। मगर फ़ोटो अपने हिसाब से 'ठीक" लेकर ही टला। एक बार किसी टयूर से लौटते हुए, बस से उतर कर उसने आधे मिनट में, एक दृश्य को कैमरे में कैद कर लिया। यह छायाचित्र उसका 'मास्टरपीस" कहा जा सकता है।
    वह जब कोई कलात्मक फ़ोटो तैयार करता, उसका एक प्रिंट मुझे अवश्य भेंट करता। मैं पैसे देने लगता, तो हंसकर हाथ जोड़ देता।
    मैंने एक बार पूछ ही लिया, ""फिर किताब के पैसे क्यों दिये थे?''
बोला, ""तब बात और थी। अब तो, आप मेरे बड़े भाई हैं। बड़े भाई से जूते खाये जा सकते हैं, पैसे नहीं लिये जा सकते ।''
    वह स्कूटर बहुत तेज़ चलाता था। मैंने इसके लिये कई बार टोका। मगर वह कब किसी की सुनने वाला था। एक दिन एक्सीडेंट कर ही बैठा। सिर फट गया और उसे अस्पताल में भरती कराना पड़ा। दो तीन दिन बाद वह ज़रा बात करने काबल हुआ, तो मैंने कहा, ""शुक्र है भगवान का, जान बच गई!''
    वह हंस कर बोला, ""भगवान साले ने तो मुझे मार ही डाला था। यह तो डाक्टर भट्टाचार्य का कमाल है, जिसने बचा लिया।
    अपनी शादी के कार्ड छपवा कर, वह स्वयं ही बांटने निकल पड़ा। हमारे दफ़तर के दरवाजे की चौखट पर खड़े खड़े ही वह कई मेज़ों पर कार्ड फेंकते हुए बोला, ""भाई लोगों यह मेरे शुभ विवाह का कार्ड है। आपके पास फ़ाल्तू वक्त हो, तो अवश्य दर्शन दें। वैसे कोई ज़ब्रदस्ती वाली बात नहीं है, क्योंकि शादी तो सिर्फ मेरी है। मेरा वहां उपस्थित होना ज़रूरी है। आपको तो सिर्फ तमाशा देखना है। या प्लेटें चाटनी हैं।''
    इसके बावजूद, हम सभी उसकी शादी में शामिल हुए।
    वहां वह पूरे समय गम्भीर बना रहा। हालांकि मैं डरा हुआ था, कि फेरों के समय, वह कोई उल्टी सीधी हरकत न कर दे।
    शादी के बाद, वह काफी सुधर गया लगता था। कई बार ऊषा जी को लेकर हमारे घर आया और कई बार हम उनके घर गये।
    एक बार पता चला, ऊषा जी की तबीयत कुछ खराब है। मैं सरोज के साथ, पता लेने उनके क्वार्टर पर पहुंचा। पूछा, ""अब क्या हाल है?''
    वह बोल पड़ा, ""आपने यह तो पूछा नहीं इसे क्या बीमारी है।।। दरअसल इसे कोई बीमारी नहीं। इसके सिर्फ़ सिर में दर्द है और दर्द तब होने लगता है, जब कोई मेहमान घर में आ जाये और इसे चाय- वाय बनानी पड़ जाये।''
    ऊषा जी नाराज़ हो गई। मुझ से शिकायत की, ""देख लीजिये भाई साहब, यह मुझे तकलीफ़ में देख कर भी कभी सीरियस नहीं होते और मज़ाक उड़ाते रहते हैं। आप तो अपने ही हैं, कोई बात नहीं। मगर ये तो बाहर वालों के सामने भी मेरा अपमान करने से नहीं चूकते।''
    एक सुबह, वह अपने एयरकंडीशनिंग प्लांट वाले रूम में अपने रोज़मर्रा के कार्य में व्यस्त था। एक मित्र अपना टिफ़िन कैरियर उठाये वहीं आ पहुंचा। अरोड़ा ने कहा, ""आ भई सरदारा, बैठ जा। मगर तू सुबह सुबह यह क्या उठा लाया? मैं तो यार, घर से नाश्ता करके आया हूं।''
    वह बोला, ""तेरे लिये नहीं, यह मेरा दोपहर का खाना है। यहां रख ले, दोपहर को उठा लूंगा।''
    ""यहां कहां रखूं?''
    ""कहीं भी रख दे।''
    फैक्टरी में लंच टाइम का हूटर हुआ, तो सरदार जसवीर सिंह खाने का डिब्बा लेने आ पहुंचा।
    ""कहां है भई मेरा टिफिन कैरियर?''
    ""वो पड़ा है चैम्बर में। अपने आप निकाल ले।''
    जसवीर सिंह ने चैम्बर खोला, तो अपना सिर पीट लिया। बहुत कम तापमान में, टिफ़िन कैरिया, भोजन सहित, चिपक कर रह गया था।
    ""अरोड़ा, यह तूने क्या किया।''
    अरोड़ा ने हंस कर कहा, ""तुम्हीं ने तो कहा था, कहीं भी रख दे। ---यार अब तू रो मत, आज खाना मेरे साथ खा।''
    मेरा उपन्यास 'वायलिन" साप्ताहिक 'जंजीर" में धारावाहिक छापने के लिये, सम्पादक चन्द्रप्रकाश को, वॉयलिन बजाती किसी खूबसूरत लड़की की तस्वीर चाहिये थी। मैंने इसका ज़िक्र अरोड़ा से किया, तो वह बोला, ""मामूली बात है, दो तीन दिन में ऐसा फोटो आपको मिल जायेगा।''   
    वह दो दिन बाद ही वायॅलिन बजाती हुई लड़की का फ़ोटो ले आया। ब्लाक तैयार हो गया और उपन्यास की पहली किस्त भी छप गई।
    किस्त छपने के अगले ही दिन, मुझे फोन कर सेक्योरिटी-इंचार्ज के कमरे में बुला लिया गया।
सेक्योरिटी इंचार्ज का मूड़ काफी खराब था, बोला, ""कम से कम, मुझे आप जैसे द्रारीफ़ आदमी से ऐसी उम्मीद नहीं थी।''
""मगर हुआ क्या?'' मैंने हैरान होकर पूछा।
""यह देखिये।।। यह आप ही की कोई कहानी छपी है और यह फोटो मेरी बेटी का है, जिसकी अगले महीने शादी है।'' मैंने कहा, ""मुझे वाकई बहुत अफ़सोस है। यदि मुझे मालूम होता तो कभी।।।''
वह बोला, ""मैं जानता हूं, यह सिर्फ़ अरोड़ा की शरारत है। मगर आप को भी थोड़ा विचार करना चाहिये।''
मैंने कहा, ""आप निश्चिंत रहे। आगे किसी भी अंक में यह फोटो नहीं छपेगा।''
    उपन्यास की अगली किस्तों के लिये नया ब्लाक तैयार करना पड़ा।
    वह लाडपुर ग्राम में अपना मकान तामीर करा रहा था। मिस्त्री लोगों के साथ, वह स्वयं भी काम में पिला रहता। हर काम उन्हें अपने हिसाब से कराता। पलम्बर पाइप पर चूड़ियां काटने लगा, तो उसे रोक, स्वयं चूड़ियां काटने लग पड़ा। पलम्बर मुंह बनाने लगा तो बोला, "तुझे मज़दूरी पूरी मिलेगी। बात सिर्फ इतनी है, कि तुम चूड़ी काटोगे, तो लीकेज रोकने के लिये धागे बांधने पड़ेंगे। मैं चूड़ी काटूंगा, तो बिना धागा बांधे भी कभी पानी लीक नहीं करेगा।''
    मैंने एक दिन पूछा, "बाल बच्चेदार हो गये हो। अब तो स्कूटर ज्यादा तेज़ नहीं चलाया करते?''
    वह लापरवाही से बोला, "अब कहां तेज़ चलाता हूं, अस्सी नब्बे से ऊपर, कभी स्पीड नहीं जाने देता।''
    कुछ ही दिन बाद की बात है, वह अपनी बेटी को, स्कूटर पर मसूरी छोड़ने जा रहा था। मालूम नहीं, तब स्पीड क्या रही थी, क्योंकि टर सामने आते वाहन ने दे मारी थी। बिटिया को तो मामूली चोंटे आईं। मगर वह स्वय---इस बार उसे न तो भगवान बचा सका और न ही कोई डाक्टर!
                           

Tuesday, November 9, 2010

हरजीत का एक अप्रकाशित शे'र

(यह स्मृति में बसा हुआ है .हरजीत की किसी संग्रह में शायद नहीं है .उसकी किसी ग़ज़ल का हिस्सा भी नहीं है ।
देहरादून को याद करते हुए यह याद आ गया .आज सिर्फ यह शे'र )

मुझसे फिर मिल कि मेरी आँखों में
धान तैयार है कटने के की
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