अवधेश और हरजीत पर लिखते हुए इतनी चीजें याद आ रही हैं कि थोडा रूकना पडेगा. फिलहाल आप अवधेश के गीत की कुछ पंक्तियां पढें जो मेरी स्मृतियों में बसी हैं.अवधेश बहुत अच्छा गीतकार और गायक भी था यह बात वे लोग जानते हैं जो उसे सुन चुके है .एक बार देहरादून में राजेन्द्र यादव, गिरिराज किशोर और प्रियंवद का नितान्त अनौपचारिक आगमन हुआ . वहां अवधेश ने कुछ गीत सुनाये थे और ओमप्रकाश वाल्मीकि ने राजेन्द्र जी से किसी पत्राचार पर बहस की थी.यह तब की बात है जब ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी "बैल की खाल"को हंस में छपने के लिये अभी वक्त था. वह अनौपचारिक बैठक एक तरह से दलित - विमर्श में महत्वपूर्ण घटना सबित हुई.तो अवधेश के गीत हंस में छपे.वे शायद चार गीत थे.फिलहाल आप इस गीत की वे पंक्तियां पढिये जो मेरी स्मृति में बची हैं
है अंधेरा यहां और अंधेरा वहां
फिर भी ढूंढूंगा मैं रौशनी के निशां
है धुंए में शहर या शहर में धुंआ
आप कहते जिसे कहकशां-कहकशां
तू बयानों से अपने बचा भी तो क्या
साफ दिखते तेरी उंगलियों के निशां
3 comments:
अवधेश भाई की रचना देने के लिए धन्यवाद नवीन जी.
अवधेश भाई कवि थे, चित्रकार थे यह तो जनता था परन्तु वे गायक भी थे उनका यह रूप जीते जी नहीं जान पाया,... बेहद अफसोश है. अवधेश और हरजीत भाई से बहुत ज्यादा नजदीकी तो नहीं थी किन्तु काफी समय उनके साथ गुज़ारा है इतना कह सकता हूँ............. सच भी है कि किसी कि क़द्र हम जीते जी नहीं कर पाते, चले जाने के बाद उनकी याद सताती है. ..... अवधेश व हरजीत भाई को श्रृद्धांजलि.
यह गीत तो अद्भुत है भाई…इसे अलग से रख ले रह हूँ
मैं अशोक जी से सहमत हूं सचमुच बेहद सुंदर पंक्तियां हैं..अन्य गीत भी शेयर करें..
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