Sunday, January 22, 2012

वोट मांगने की विविध शैलियां

दिनेश चन्द्र जोशी
dcj_shi@rediffmail.com
09411382560 
जैसे गायकी की विविध शैलियां होती हैं,घराने होते हैं, वैसे ही वोट मांगने की भी विविध शैलियां और घराने होते हैं। चुनावी मौसम में इन शैलियों की अदायगी और प्रदर्शन का उत्सवनुमा माहौल होता है। यहां कलाकार नेता होते हें और दर्शक मतदाता, यानी मतदाता के लिए चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात। सो, जनता इस चार दिन की चांदनी के उत्सव में नेताओं की विभिन्न याचक मुद्राओं का दर्शन करती है, आनन्दित होती है और जूते,चप्पल,झापड़,टमाटर,अंडों से परहेज रख कर नेता का अपमान नहीं करती तथा उससे स्वयं का सम्मान करा कर धन्य धन्य हो जाती है।  आधुनिक दौर में जिसे देह भाषा ( बाडी लेंग्वेज)  कहते हैं, उसका प्रयोग भी 'मार्डन' किस्म के नेता  वोट मांगने हेतु करने लगे हैं। एक ऐसे ही युवा नेता ने तय कर रक्खा था, अगर मतदाता साठ साल से उपर का होगा तो, उसके पांव छू कर वोट मांगूगा, अगर प्रौढ़ होगा, चालीस से पचास के बीच का, तो उसके समक्ष हाथ जोड़ूंगा, अगर बीस से चालीस के बीच का होगा तो उसे 'सहारा प्रणाम' कहूंगा, बीस से नीचे का होगा तो 'फ्लाइंग किस' दूंगा।  और सचमुच उसकी इस अन्तिम अदा पर फिदा होकर ,फ्लाइंग किस' के कारण यंग इंडिया ने उसे जिता दिया।
वोट मांगने की देह भाषा (बाडी लेंग्वेज) के  प्रयोग व विश्लेषण हेतु प्रबन्धन संस्थानों ने स्पेशल पैकेज तैयार कर लिये हैं। उनके अनुसार अगर नेता जी की परम्परागत शैली वोट बटोरने में नाकाम साबित हो रही है तो उन्हें तत्काल आधुनिक बाडी लेंग्वेज का प्रदर्शन सीखना चाहिए। यानी 'कीप स्माइलिंग' 'बी पाजीटिव', 'लुक कान्फीडेन्ट' 'आई टू आई कांटेक्ट' 'फोल्डिंग हैंड्स नाट नेसेसरी'( हाथ जोड़ना जरूरी नहीं) आदि आदि।
महानगरों और शहरी क्षेत्रों में यह मार्डन शैली काफी लोकप्रिय हो रही है।
ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों में अलबा अभी वही पुरानी शैली से वोट मांगे जा रहे हैं। घिघियाते हुए, झुक कर हाथ जोड़ते हुए, बेशर्म शरारती मुस्कान के साथ थोड़ा लाचार, थोड़ा भिखारी विनम्रता ओढ़ी हुई अकिंचन शैली में।
इधर, मतदाता को भावुकता के चरम पर लाने हेतु नेताओं द्वारा रुदन क्रन्दन शैली का प्रयोग किया जाने लगा है।
भावुक मतदाता विवेकशून्य हो जाता है तथा दयाभाव की वर्षा कर वोट, क्रन्दन शैली के नेता के पक्ष में डाल देता है। इस चुनाव में यह शैली रिले रेस की तरह प्रयुक्त हो रही है। एक नेता का रुदन क्रन्दन इतना स्थाई भाव हो गया कि उसकी देखादेखी दूर दूर के कई अन्य नेताओं ने रो धो कर, आंसू टपका कर, दहाड़े मार कर,  बुक्का फाड़ कर उस शैली को आलम्बन भाव की तरह गले लगा लिया।
कुछ नेता अभी भी अपनी अकड़ शैली के लिए विख्यात होते हैं। इनमें भूतपूर्व राजा,उजड़े हुए नरेश किस्म के नेता होते हैं। ये अपनी अकड़ शैली के बावजूद भी चुनाव में बाजी मार ले जाते हैं। एक ऐसे ही राजा के वंशज
वोट मांगते वक्त जनता के समक्ष कभी भी हाथ नहीं जोड़ते थे। मतदाता को स्वयं ही इज्जतवश हाथ जोड़ने पड़ते थे। नबाबजादे ने हाथ जोड़ने के लिए दो कारिन्दे किराये पर ले रक्खे थे। वे, नबाबजादे की ओर से हाथ भी जोड़ते थे और पांव भी छूते थे। नबाबजादे, बीच बीच में अपनी मूछें ऐंठते रहते थे और आखों से ऐसी आग उगलते थे जैसे मतदाता को भस्म कर देंगे। लेकिन मतदाता नबाबजादे को उनके राजसी खानदान और क्षेत्र में की गई धन वर्षा के कारण हर बार जिता देते थे। एक बार कुछ मतदाताओं ने गल्ती से पूछ लिया, हजूर, आपने संसद में कभी क्षेत्र के विकास हेतु कोई मांग नहीं रक्खी।
वे बोले, 'राजा कभी किसी से कुछ मांगता नहीं है, देता है। आपको क्या चाहिये बोलिये प'
मतदाता बोले, 'सरकार, रेलवे लाइन चाहिए,रेलवे लाइन के आने से क्षेत्र का विकास होगा।'
नबाबजादे बोले, 'मेरी टांसपोर्ट कम्पनी की जीप टोयेटा,बुलेरो गाड़ियां दौड़ती रहती हैं उनमें यात्रा किया करें आप लोग, रियायती पास मुझसे ले जाया करें। मैं रेल मंत्री से रेलवे लाइन नहीं मांग सकता,, वरना राजा किस बात का! उनको अगर रेल कर इंजन चहिये तो खरीद कर दे दूंगा,उनसे मांग नहीं सकता।'
ऐसे अकड़ू नेताओं की शैली अकड़ शैली कहलाती है।
कुछ नेता आते हैं,, ध्यानावस्था में आंखें बन्द किये हुए जैसे जनता के दुख कष्टों के निवारण हेतु जप तप योग कर रहे हों। वे जनता के समक्ष हाथ नहीं जोड़ते उल्टा आशीर्वाद देते हैं, जनता उनके आशीर्वाद से अभिभूत हो कर उनके पैर छूने लगती है। ऐसे सन्त बाबा किस्म के नेताओं की वोट मांगने की द्रौली 'स्थितप्रज्ञ शैली' कहलाती है।
अब ये जनता का अपना अपना नसीब है कि उसके क्षेत्र के भूतपूर्व, अभूतपूर्व,भावी, प्रभावी निष्प्रभावी नेता वोट मांगने की किस शैली में सिद्धथस्त हैं।
 

Wednesday, January 4, 2012

साहेल घनबरी इरान की एक दस साल की छोटी बच्ची है जिसके पिता डा. अब्दोलरजा घनबरी अपनी सांस्कृतिक,राजनैतिक और यूनियन गतिविधियों के कारण दिसम्बर 2009 से जेल में बंद हैं और इरान की अदालत ने उन्हें खुदा की शान में गुस्ताखी करने के लिए मृत्यु दंड दिया है.इरान के पिछले राष्ट्रपति चुनाव में धांधली को लेकर वहाँ विशाल प्रदर्शन हुए थे और कहा जाता है कि जिस समय ये प्रदर्शन हो रहे थे उस समय अब्दोलरजा अपनी बेटी का हाथ थामे सड़क पर उपस्थित थे.42 वर्षीय अब्दोलरजा फारसी साहित्य में पी.एच.डी. हैं,सोलह सालों से अध्यापन करते रहे हैं और उनकी कई किताबें प्रकाशित हैं.जेल में अपने पिता से मिलने जाने पर साहेल को पिता ने ही मौत की सजा की बाबत जानकारी दी.साहेल की माँ का कहना है कि इस घटना के बाद से ही उसकी सेहत बिगडनी शुरू हुई और जब भी वो अपने पिता के बारे में कुछ सुनती है उसको भावनात्मक और बेहोशी के दौरे पड़ने लगते हैं. यहाँ प्रस्तुत है फरवरी 2011 में सालेह की अपने अब्बा को लिखी चिट्ठी:--
यादवेन्द्र
प्यारे अब्बा,

मुझे पूरी उम्मीद है कि आप सकुशल और सेहतमंद होंगे.कई सालों बाद आज ऐसा दिन है जब आप फादर्स डे के मौके पर मेरे पास नहीं हो. मैं जब भी आप को शिद्दत से याद करती हूँ तो या तो आपको चिट्ठी लिखती हूँ...या उस नीली घड़ी को चुपचाप निहारती हूँ जो अपने मुझे जन्मदिन पर तोहफे में दिया दिया था.उसको देख के मुझे समझ आता है कि मेरा वक्त आपकी ना मौजूदगी में कितनी जल्दी जल्दी बीत जाता है.हर रोज मैं थोड़ा थोड़ा बढ़ जाती हूँ...अब मैं पहले से लम्बी भी हो गयी हूँ. आज फादर्स डे है...आपके बगैर ही हमने इसको मनाया और आपके लिए तोहफे ख़रीदे...हमारे बीच से गए हुए आपको छह महीने से ज्यादा बीत गए.आप नहीं हो तो मैंने अपनी मेज पर आपकी एक फोटो लगा रखी है...उससे मैं अक्सर बातें करती हूँ...और अदम्य साहस दिखाने के लिए शाबाशी देती हूँ.मुझे पूरा यकीन है कि प्यारे फ़रिश्ते फादर्स डे की मेरी दुआएं आपतक जरुर पहुंचा देंगे. प्यारे अब्बा, आज जिस वक्त हम त्यौहार मना रहे थे तो अम्मी के आंसुओं से सारा माहौल गमगीन हो गया.टी वी पर आज के दिन ढेर सारे प्रोग्राम आते हैं पर मैं इन्हें देखने का हौसला नहीं जुटा पाई...इनमें सभी बच्चे आपने अब्बा को फूलों का गुलदस्ता तोहफे में देते हैं और उनकी लम्बी उम्र के लिए दुआ करते हैं...इन सब को इकठ्ठा हँसता बोलता देख कर बहुत अच्छा लगता है....मुझ जैसी अभागी बच्ची की किसी को फ़िक्र नहीं होती जिसके अब्बा उस से बहुत दूर हैं.यही सब सोच के मैं आज बहुत उदास हो गयी थी और इसी लिए मैंने बिना कोई प्रोग्राम देखे टी वी बंद भी कर दिया. मेरे प्यारे अब्बा,मेरी एक ही ख्वाहिश है...मुझे और कुछ नहीं चाहिए बस आप मेरे पास वापिस लौट आओ ...और हमेशा मेरे साथ बने रहो....मैं बेसब्री से आपका इंतज़ार कर रही हूँ ...आप जल्द से जल्द मेरे पास आ जाओ...


आपकी बच्ची
साहेल



Sunday, December 25, 2011

दलित साहित्य के पुरोहित


        हिन्दी दलित साहित्य में कुछ ऎसी बहस करते रहने की परम्परा विकसित की जा रही है जिसका कोई औचित्य नहीं रह गया है .ये बहसे मराठी दलित साहित्य में खत्म हो चुकी हैं.लेकिन हिन्दी में इसे फिर नये सिरे से उठाया जा रहा है .वह भी मराठी के उन दलित रचना कारों के सन्दर्भ से, जो मराठी में अप्रासंगिक हो चुके हैं.उनकी मान्यताओं को मराठी दलित साहित्य में स्वीकार नहीं किया गया ,उन्हें हिन्दी में उठाने की जद्दोजहद जारी है.मसलन दलित शब्द को लेकर , आत्मकथा को लेकर .मराठी के ज्यादातर चर्चित आत्मकथाकार,रचना कार दलित ,शब्द को आन्दोलन से उपजा क्रांति बोधक शब्द मानते हैं. बाबुराव बागूल. दया पवार,नामदेव ढसाल ,शरणकुमार लिम्बाले, लोकनाथ यशवंत, गंगाधर पानतावणे, वामनराव निम्बालकर, अर्जुन डांगले, राजा ढाले,आदि. इसी तरह आत्मकथा के लिए आत्मकथा शब्द की ही पैरवी करने वालों में वे सभी हैं जिनकी आत्मकथाओं ने साहित्य में एक स्थान निर्मित किया है.चाहे शरण कुमार लिम्बाले (अक्करमाशी),दयापवार (बलूत),बेबी काम्बले (आमच्या जीवन), लक्ष्मण माने ( उपरा), लक्ष्मण गायकवाड (उचल्या), शांताबाई काम्बले ( माझी जन्माची चित्रकथा),प्र.ई.सोनकाम्बले ( आठवणीचे पक्षी),ये वे आत्मकथायें हैं जिन्होंने दलित आन्दोलन को मजबूत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्मित की. इन आत्मकथाकारों को आत्मकथा शब्द से कोई दिक्कत नहीं है. लेखकों को कोई परेशानी नही हैं.यही स्थिति हिन्दी में भी है. लेकिन हिन्दी में अपेक्षा पत्रिका के  सम्पादक डा. तेज सिंह् को दलित शब्द और आत्मकथा दोनों शब्दों से एतराज है. उपरोक्त सम्पादक को दलित आत्मकथाओं में वर्णित प्रसंग भी काल्पनिक लगते हैं.कभी कभी तो लगता है कि ये सम्पादक महोदय दलित जीवन से परिचित हैं भी या नहीं ?क्योंकि दलित आत्मकथाओं में वर्णित दुख दर्द ,जीवन की विषमतायें,जातिगत दुराग्रह,उत्पीडन की पराकाष्टा,इन महाशय को कल्पनाजन्य लगती हैं..उनके सुर में सुर मिला कर  आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी  को भी आत्मकथाओं के मूल्यांकन में मुश्किलों का सामना करना पड रहा है.वे कहते हैं कि आत्मकथन क्योंकि आपबीती है,जिए हुए अनुभवों का पुनर्लेखन है,इसलिए उनकी प्रामाणिकता का सवाल प्राथमिक हो जाता है..क्या आत्मवृतों (आत्मकथाओं) की प्रमाणिकता जांची जा सकती है? क्या उन्हें जांचा जाना चाहिए? अगर हां तो क्या ये आत्मवृत (आत्मकथा) खुद को जांचे जाने को प्रस्तुत हैं? क्या अभी तक कोई आंतरिक मूल्यांकन प्रणाली विकसित हो पाई है? हम कैसे तय करें कि कोई अनुभव विशेष ,कोई जीवन प्रसंग कितना सच है और कितना अतिरंजित?   (अपेक्षा,जुलाई-दिसम्बर,2010,पृष्ठ-37)
      बजरंग बिहारी तिवारी    के ये सवाल कितने जायज हैं कितने नहीं ? इसे पहले तय कर लिया जाये तो ज्यादा बेहतर होगा. क्योंकि यह सिर्फ लेखक की अभिव्यक्ति पर ही आक्षेप नहीं है,बल्कि इस विधा को भी खारिज करने का षडयंत्र दिखाई दे रहा है.साथ ही यहां एक  ऎसा सवाल भी उठता है कि क्या एक आलोचक लेखक का नियंता हो सकता है? इस सवाल के सन्दर्भ में  कथाकार, सम्पादक  महीप सिंह का यह कथन प्रासंगिक लगता है.

        डा. महीप सिंह  का कहना है कि हिन्दी संसार के दो जातीय गुण हैं- जैसे ही कुछ सफलता और महत्ता प्राप्त करता है,वह एक मठ बनाने लगता है.कानपुर की भाषा में ऎसा  व्यक्ति गुरू कहलाता है.साहित्य क्षेत्र भी इसका अपवाद नहीं है.थोडी सी आलोचना शैली ,थोडा सा वक्तृत्व कौशल ,थोडा सा विदेशी साहित्य का अध्ययन ,थोडी सी अपने पद की आभा और थोडी सी चतुराई से इस गुरूता की ओर बढा जा सकता है.कुछ समय में ऎसा व्यक्ति फतवे जारी करने के योग्य हो जाता है.एक दिन वह किसी के अद्वितीय का निकाल कर और किसी के नाम के साथ जोड देता है. ( हिन्दी कहानी : दर्पण और मरीचिका ,हिन्दुस्तानी जबान,,अंक अप्रैल-जून,2011,पृष्ठ- 15)

      बजरंग बिहारी तिवारी के सन्दर्भ में यहां बात की जा रही है, वे सिर्फ इतने भर से ही नहीं रुकते वे और भी गम्भीर आरोप लगाने लगते हैं, .आरोपों की इस दौड में वे बेलागाम घोडे की तरह दौडते नजर आते हैं.वे कहते हैं –‘विमर्श को चटकीला बनाने का दबाव,अपनी वेदना को खास बनाने की इच्छा किन रूपों में प्रतिफलित  होंग़े?


     बजरंग बिहारी तिवारी अपनी अध्ययनशीलता और उद्दरण देने की कला का दबाव बनाते हुए लुडविंग विट्गेंस्टाईन का सन्दर्भ देते हुए अपने तर्क को मजबूत करने की कोशिश करते  हैं.अपने ही पूर्व लेखन और स्थापनाओं को खारिज करने का नाटक करते हैं.. दलित साहित्य की महत्त्वपूर्ण विधा को यह आलोचक एक झटके में धाराशायी करने का आखिरी दांव चलता है .  दलित आत्मकथाओं की बढती लोकप्रियता और सामाजिक प्रतिबद्धता को किस दबाव के तहत नकार ने  की यह् चाल है, यह जानना जरूरी लगने लगता है.वे अपनी गुरूता , जो बडी मेहनत और भाग दौड से हासिल की  है,से आखिर फतवा जारी करने की कोशिश करते हैं एक अर्थ में आत्मकथन अनुर्वर विधा है.वह रचनाकार को खालीपन का एहसास कराती है.अनुभव वस्तुत: रचनात्मकता के कच्चे माल के रूप में होते हैं.....आत्मकथन में रचनात्मक दृष्टि के ,विजन के निर्माण की न्यूनतम गुंजाईश होती है......एक विभ्रम की सृष्टि की आशंका भी इस विधा में मौजूद है. (अपेक्षा,जुलाई-दिसम्बर,2010,पृष्ठ-37)
         यहां बजरंग बिहारी तिवारी तथ्यों का सामान्यीकरण करने की कोशिश कर रहे हैं.दलित आत्मकथाओं ने समस्त भारतीय भाषाओं में अपनी रचनात्मकता से यह सिद्ध कर दिया है कि आत्मकथा अनुर्वर विधा नहीं है.न ही वह रचनाकार को खालीपन का एहसास ही कराती है .और इस बात को भी ये आत्मकथाएं सिरे से नकारती हैं कि इस विधा में रचनात्मक दृष्टि के विजन की न्यूनतम गुंजाईश है.
      आत्मकथाओं के सन्दर्भ में दया पवार कहते हैं,- वर्तमान समय में मराठी की आस्वाद की प्रक्रिया एक जैसी नहीं है .सांस्कृतिक भिन्नता के कारण आस्वाद प्रक्रिया भी भिन्न भिन्न हो रही है.यह दलित आत्मकथाओं का समय है; जिनकी काफी चर्चा रही है.परंतु इन आत्मकथाओं के मूल में जो सामाजिक विचार है ,उसे सदैव नजर अन्दाज किया जाता है. केवल व्यक्ति और व्यक्तिगत अनुभव इसी बिन्दु के चारों ओर इसकी चर्चा होती है.आगे वे कहते हैं,-दलितों का सफेदपोश पाठक अपने भूतकाल से बेचैन हो गया है.उसे खुद से शर्म महसूस होने लगी है.कचरे के ढेर में से कचरा ही निकलेगा? इस प्रकार के प्रश्न भी उन्होंने उपस्थित किये.वास्तविकता तो यह है कि यह केवल भूतकाल नहीं है.बल्कि आज भी दलितों का एक बडा समुदाय इसी प्रकार का जीवन जी रहा है.दलितों के सफेद पोश वर्ग को इसी की शर्म क्यों आ रही है?वास्तव में संस्कृति के सन्दर्भ में बडी-बडी बातें करने वाली व्यवस्था को इसकी शर्म आनी चाहिए........कुछ लोगों को ये आत्मकथाएं झूठी लगती हैं.सात समुन्दर पार किसी अजनबी देश की आत्मकथाएं,जिस जीवन को उन्होंने कभी देखा नहीं है,उनकी आत्मकथाएं इन्हें सच्ची लगती हैं.परंतु गांव की सीमाओं के बाहर का विश्व कभी दिखाई नहीं देता.इस दृष्टि भ्रम को क्या कहें.(दलितों के आन्दोअलन जब तीव्र होने लगते हैं,तब जन्म लेता है दलित साहित्य ,अस्मितादर्श लेखक-पाठक सम्मेलन सोलापुर,1983)
       अक्सर देखने में आता है कि हिंन्दी आलोचकों की यह कोशिश रहती है कि दलित साहित्य के सामाजिक सरोकारों से इतर मुद्दों  को ज्यादा रेखांकित किया जाये ताकि भटकाव की स्थिति उत्पन्न हो .यह भटकाव कभी अपरिपक्वता के रूप में आरोपित होता है ,तो कभी भाषा की अनगढता के रूप में,तो कभी वैचारिक विचलन के रूप में  आरोपित किया जाता है. कभी विधागत , तो कभी शैलीगत होता है.
       किसी भी आन्दोलन की विकास यात्रा में अनेक पडाव आते हैं.दलित साहित्य के ऎसे आलोचक दलित मुद्दों से हटकर वैश्विकता को ही दलित का सबसे बडा मुद्दा घोषित करने में लग जायें तो इसे क्या कहा जाये? क्या यह असली मुद्दों से बहकाने की साजिश नहीं होगी.क्योंकि ऎसे आलोचक इससे पूर्व भी यह काम बखूबी करने की कोशिश में लगे रहे हैं.लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली.कभी दलित साहित्य में रोमानी रचनाओं की कमी का रोना रोते हैं,तो कभी प्रेम का,तो कभी दलित साहित्य को स्त्री विरोधी कहने में भी पीछे नहीं रहे हैं.उनकी ये घोषणायें नये लेखकों को भरमाने की कोशिश ही कही जायेंगी.क्योंकि हजारों साल का उत्पीडन नये-नये मुखौटे पहन कर साहित्य को भरमाने का काम पहले भी करता रहा है.ये लुभावने और वाक चातुर्य से भरे हुए जरूर लगते हैं,लेकिन इनके दूरगामी परिणाम क्या होंगे इसे जानना जरूरी है.आन्दोलन की इस यात्रा में भी ये पडाव आये हैं.इस लिए यदि नयी पीढी अपनी अस्मिता और संघर्षशील चेतना के साथ दलित  चेतना का विस्तार करती है तो दलित साहित्य की एक नई और विशिष्ट निर्मिति होगी.
      यहां यह कहना भी आवश्यक हो जाता है कि   दलित साहित्य में आत्मकथाओं ने जिस वातावरण का निर्माण किया है.वह् अदभुत है.जिसे चाहे विद्वान आलोचक जो कहें, लेकिन दलित जीवन की विद्रुपताओं को जिस साहस और लेखकीय प्रतिबद्धता के साथ दलित आत्मकथाओं में  प्रस्तुत किया है,वह भारतीय साहित्य में अनोखा प्रयोग है.जिसे प्रारम्भ से ही आलोचक अनदेखा करने की कोशिश करते रहे हैं.क्योंकि आत्मकथाओं ने भारतीय समाज व्यवस्था और संस्कृति की महानता के सारे  दावे खोखले सिद्ध  कर दिये हैं.साथ ही साहित्य में स्थापित पुरोहितवाद,आचार्यवाद् और वर्णवाद की भी जडें खोखली की हैं.साहित्यिक ही नहीं भारतीय संस्कृति की महानता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाये हैं और जिस गुरू की महानता से हिन्दी साहित्य भरा पडा है उसे कटघरे में खडा करने का साहस सिर्फ दलित लेखकों ने किया है जिसे बजरंग बिहारी तिवारी जैसे आलोचक सिरे से नकार कर अपनी विद्वता का परचम लहराकर आचार्यत्व की ओर बढने की कोशिश कर रहे हैं. आत्मकथाओं की प्रमाणिकता पर भी आक्षेप करके पाठकों को दिग्भ्रमित करने का प्रयास कर रहे हैं.क्या उनकी साहित्यिक प्रतिबद्धता बदल गयी हैंया गुरूता भाव में लेखक का नियंता बनने की कोशिश की जा रही है?यह शंका जेहन में उभरती है.

       
              यहां मेरा बजरंग जी से सीधा सवाल है, दलित साहित्य स्त्री विरोधी नहीं है.यदि कोई लेखक इस तरह के विचार रखता है तो आप उसे किस बिना पर दलित साहित्य कह रहे हैं ? सिर्फ इस लिए कि वह जन्मना दलित है.मेरे विचार से दलित साहित्य की अंत:चेतना को पुन: देख लें. डा. अम्बेडकर की वैचारिकता में कहीं भी स्त्री विरोध नहीं है. और दलित साहित्य अम्बेडकर विचार से ऊर्जा ग्रहण करता है. जिसे सभी दलित  रचनाकारों ने, चाहे वे मराठी के हों या गुजराती ,कन्नड,तेलुगु या अन्य किसी भाषा के .यदि कोई जन्मना दलित स्त्री विरोधी है और जाति व्यवस्था में भी विश्वास रखता है,तो आप उसे एक दलित लेखक किस आधार पर कह रहे हैं? यह दलित साहित्य की समस्या नहीं है,यहा तो उस मानसिकता की समस्या है जो आप  जैसे आचार्य   विकसित  कर रहे .       
     समाज में स्थापित भेदभाव की जडें गहरी करने में साहित्य का बहुत बडा योगदान रहा है.जिसे अनदेखा करते रहने की हिन्दी आलोचकों की विवशता है.और उसे महिमा मण्डित करते जाने को अभिशप्त हैं.ऎसी स्थितियों में दलित आत्मकथाओं की प्रमाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाने की एक सोची समझी चाल है.बल्कि यह साहित्यिक आलोचना में स्थापित पुरोहितवाद है जो साहित्य में कुंडली मारकर बैठा है.हिन्दी साहित्य को यदि लोकतांत्रिक छवि निर्मित करनी है तो इस पुरोहितवाद और गुरूडम से बाहर निकलना ही होगा. यदि वह ऎसा नहीं करता है तो उस पर यह आरोप तो लगते ही रहेंगे कि हिन्दी साहित्य आज भी ब्राह्मणवादी मानसिकता से भरा हुआ है.अपने सामंती स्वरूप को स्थापित करते रहने का मोह पाले हुए है.
  
● ओम प्रकाश वाल्मीकि
 09412319034  

 

Wednesday, December 21, 2011

प्रतिनायक का चेहरा क्यों लगता है नायक सा


नायक का चेहरा ज्यादा स्पष्ट करने की कोशिशों में प्रतिनायकों के चेहरे इधर कुछ ज्यादा अस्पष्ट हुए हैं या उनको स्पष्ट चिहि्नत करने के लिए जो रोशनी चाहिए थी वह धुंधलाती गयी है। भ्रष्टाचार की राष्ट्रव्यापी मुहिम के दौरान की स्थितियां इस बात की प्रत्यक्ष गवाह रही हैं। भूमाफिया, दलाल, भ्रष्टता के सिरमौर-कितने ही राजनीजिज्ञ और शासक-प्रशासक, लिंग, जाति और क्षेत्रीय भेदों को स्थापित करने में जुटे ताकतवर एवं समाजविरोधी लोगों की एक जुटता में प्रतिनायकों की कितनी ही छवियां धुंधलायी हैं। मीडिया, कारपोरेट जगत और एन।जी।ओ की भ्रष्टता तो भ्रष्टतंत्र की स्थापना के लिए अपने ही नक्शे की जिद के साथ नायकत्व के रूप्ा में मौजूद रही है। स्पॉन्टेनिटी के किसी ऐसे आंदोलन के दौरान जिसमें जनता का एक बड़ा हिस्सा आंदोलनरत हो जाता है, अन्यत्र भी ऐसी स्थितियों को बार-बार देखा जा सकता है। स्थितयों की ऐसी जटिलता जिसमें सही और गलत को स्पष्ट तरह से चिहि्नत न कर पाना संभव हो रहा हो उसको समझने के लिए रचनात्मक दुनिया का सहारा लिया जाये तो बहुत कुछ ऐसा है जो साफ साफ दिखने लगता है। 
दैवीय शक्तियों से सुसज्जित हिन्दी फिल्मों के नायकों की बहुत शुरू से लगातार बनी रही उपस्थिति में पुनरावृत्ति की कितनी ही मिसालें हैं जिन्हें फिल्म दर फिल्म गिनाने की शायद जरूरत न पड़े। सवाल है कि क्या इसे कहानी का फिल्मांकन मात्र माना जाये या कथा के मूल में ही इसकी उपस्थिति के चिह्न मौजूद हैं, ऐसा ढूंढा जाये ? हिन्दी कथा साहित्य की दुनिया से गुजरते हुए समकालीन कहानियों के हवाले से बात की जाये तो प्रतिनायकों या खलनायकों को ही नायकत्व देने की प्रवृत्ति कुछ आम हुई है। यानी मूल कथा के एक सूक्ष्म से बिन्दु को ही कैमरा अपनी तकनीकी विशेषताओं से विस्तार देते हुये है। सनसनीखेज खबरों के उत्स भी कथा साहित्य की दुनिया से ही जन्म लेते हुये हैं। फिल्मों में या डिजिटल खबरों की दुनिया में नायक के पीछे लगातार दौड़ता एक कैमरा है जो खांसने, छींकने और हाजत फरागत के दृश्यों में ही नायक की तस्वीर को बार बार पकड़ ही नहीं रहा है अपितु चेहरे पर उठते भावों को रेशा दर रेशा कई गुना करते हुए संवेदनशीलता का ऐसा पाठ रच रहा है जिसमें लगातार असंवेदनशील हो जाने की कथा जन्म लेती हुई है। 
फिल्मों और हिन्दी की कुछ कहानियों के हवाले से ऊपर उठे प्रश्नों के जवाब खोजना चाहें तो इधर आयी ''थैंक्स मां" इरफ़ान कमाल की पहली फिल्म है। यूं मात्र 7 मिनट के शुरूआती दृश्य में ही फिल्म मुंम्बइया समाज के उस अंदरुनी हिस्से का बयान होकर आती है जिसमें झोपड़ पट्टी के बच्चों का जीवन दिखायी दे जाता है। जीवन के संघ्ार्ष से निर्मित आपसी छीना झपटी और मारकाट से भरा उनका संसार बेहद निराला है। अपनी मां, यानी अपने अतीत को तलाशता म्यूनैसपैलिटी (एक पात्र) का एक नवजात शिशु को लेकर इधर उधर भटकना त्रासद कथा है। लेकिन समग्र प्रभाव में फिल्म उस तरह से असरदार नहीं हो पाती कि दर्शक की चिन्ताओं का हिस्सा हो जाये। यहां जफर पनाही की इरानी फिल्म 'द मिरर" का याद आ जाना कतई अस्वाभाविक नहीं।
''यह मेरा बस स्टाप नहीं।""
गलत जगह पर पहुंची हुई 'द मिरर" की नायिका मीना कठिन परिस्थिति के बीच भी आत्म विश्वास के सजग बिन्दु से भरी है। लेकिन थैंक्स मां की कथा में कथ्य की भिन्नता भारतीय समाज की भिन्नता के साथ है। गुम हो गये अपने बच्चे की स्मृतियों में विक्षिप्त हो गई मां की कातरता बेहद विचलित करने वाली है,
''यह मेरा बच्चा नहीं है। मेरा बच्चा चार महीने का है।""
बच्चे को तलाशती थैंक्स मां की स्त्री और अपने घर को तलाशती 'द मिरर" की मीना की मानसिक बुनावट में ही कोई भिन्नता है या इसके इतर भी कोई कारण है ? जबकि स्थितियों की त्रासदी दोनों जगह कमोबेश एक है। इस अंतर का कारण क्या दो भिन्न समाजों की वजह है या दृश्य को संयोजित करती कैमरे के पीछे की आंख ?  
 'द मिरर" की कथा नायिका-बच्ची को अपना घर मिल जाता है पर थैंक्स मां के कृष को उसकी मां नहीं मिल पाती और न ही कृष को उठाये उठाये घूमने वाले म्यूनैसपैलिटी को उसकी मां मिल पाती है। कृष की मां को ढूंढने में यदि म्यूनैसपैलिटी कामयाब हो जाता तो उसे अपनी मां के भी मिल जाने जैसी खुशी होती। यह काव्यात्मकता थैंक्स मां को एक महत्वपूर्ण फिल्म बना देती है। लेकिन फिल्म का यह अंत नहीं। वह तो गैर सरकारी संस्थाओं का एजेण्डा है- भ्रूण हत्या जैसा ही कुछ। 
यूं "थैंक्स मां" को देखने का आनन्द बच्चों के आपसी रिश्तों के दृश्य में है। मसलन फिल्म का एक पात्र जिसका नाम सोडा है उस वक्त बेहद चालाकी भरा नजर आता है जब सबसे पैसे मांगता है और उन्हें दस गुना कर देने का लालच देता है। उन बच्चों के समूह में एक बच्ची भी है जो अपने साथियों के बीच बिना इस मानसिकता के कि दूसरों से लैंगिक रूप में भिन्न है, बहुत स्वाभाविक बनी रहती है। बच्चों की इस उपस्थिति को आकार देने में निर्देशक की भूमिका इसलिए गौण मानी जा सकती है कि जैसे ही कैमरे में रची गई कहानी के दृश्य और बहुत सजग किस्म के कलाकार नजर आते हैं तो मानवीय संबंधों की वह ऊष्मा जो तलछट का जीवन जीते बच्चों को कैमरे में कैद कर लेने पर दिखायी दी थी, गायब हो जाती है। जरूरत से ज्यादा लाऊड होते रघुवीर यादव एक स्वाभाविक कलाकार की स्थिति में भी नजर नहीं आते। जबकि गैर परम्परागत कलाकार बच्चे ज्यादा स्वाभाविक अभिनय करते हुए हैं। कलाकारों के अभिनय पर बहुत बात करने की जरूरत उस विचार बिन्दु को रखने के लिए ही है जिसमें समकालीन रचनाजगत के हवाले को तथ्यात्मक तरह से रखा जा सकता है। तथ्य बताते हैं कि न सिर्फ लेखन में बल्कि कला के अन्य क्षेत्रों में भी सक्रिय तमाम रचनाजगत ने प्रगतिशीलता के जो मानक गढ़े हुए हैं यूं तो उनके इर्द-गिर्द ही रचनात्मक दोलन की गति दिखायी देती है। पर गढ़ी गई प्रगतिशीलता के दायरे में दोलन की तरंग दैर्ध्य बढ़ जाने का वैसा अहसास संभव नहीं हो पाता जैसा प्रतिबद्धता के साथ संभव हो सकता है। प्रतिबद्धता के मायने जफर पनाही के मार्फत कहें तो "द मिरर" की नायिका मीना जिस गली को ढूंढ रही उसका नाम "विक्टरी एवेन्यू" अनायास नहीं। मीना उस चौक की पहचान बताने में बेशक असमर्थ है जहां से एक रास्ता विक्टरी एवेन्यू को जाता है लेकिन अनभिज्ञ नहीं। उस जगह पर पहुंचकर वह गाड़ी रुकवाती है, किराया चुकाती है और ड्राइवर को खुदा हाफिज कहते हुए दौड़ पड़ती है भीड़ भरे रास्ते को पार करती हुई। जफर पनाही का कैमरा बहुत लांग शॉट लेता हुआ होता है। पूरे तीन सौ साठ डिग्री में घूमता हुआ। कोई भी स्थिति उस लांग शॉट के भीतर किरदार नजर आती है और किरदार की उपस्थिति बेहद स्वाभाविक या, किरदार का किरदार होना नहीं बल्कि यथार्थ के बीच किसी का भी होना हो जाता है। दर्शक के लिए सहूलियत बनता हुआ कि वह खुद को भी उस स्थिति में देख सके। एक ऐसे ही अन्य दृश्य में मीना बस में है। पार्श्व में उभरती आवाजें हैं। कैमरा जब मीना को फोकस किये है आवाजें तब भी हैं और बेहद स्पष्ट। उन आवाजों का लब्बो लुआब है कि मीना मां के सहारे के असहसास के साथ है। आत्मीय सहारे की तलाश करती बूढ़ी स्त्री है और उम्र के कारण अकेले हो जाने का भय उसके भीतर व्याप्त है। दूसरी स्त्रियों की बातचीत में पति से संबंधों के विवरण हैं। समाज के भीतरी ढांचे को व्यक्त करने के लिए जफर पनाही किसी अलहदा चित्र का सहारा लेने के बजाय मूल कथा के विस्तार में ही बहुत चुपके से दाखिल होते हैं बावजूद इसके कि कैमरा अब भी ज्यादातर विक्टरी एवेन्यू को तलाश करती मीना पर ही फोकस रहता है।
इधर सचेत तरह से बनायी गयी इरानी फिल्मों की उल्लेखनीय विशेषता है कि मानवीय तकलीफों का ताना बाना उनमें बहुत साफ तरह से उभरा है। जीवन को दुर्लभ बनाते तंत्र को दर्शक उनमें बहुत अच्छे से पहचान सकता है। तकलीफों में जीते लोगों के भीतर हमेशा मौजूद रहने वाली आत्मियतायें उसे हिम्मत बंधाती हैं। रास्ता भटक गयी बच्ची को सही सलामत घर पहुंचा सकना उनकी सामूहिक चिन्ता का कारण है। खुद की परेशानियों के बावजूद मुसीबत जदा किरदार की परेशानियां उनकी प्राथमिताओं का हिस्सा हो जाती हैं। परेशानियों से घिरे होने के बावजूद खीझ, झल्लाहट या गुस्से के भाव उनके चेहरों पर कभी अपना अक्श नहीं बिखेरते। जफर की ही एक अन्य फिल्म "व्हाइट बेलून" में भी इसे देखा जा सकता है। मजीदी की "चिल्ड्रनस ऑफ हेवन", "पेराडाइज", हाना मखमलबाफ की "बुद्धा कोलेप्सड आउट ऑफ सेम" या अन्य बहुत सी फिल्में हैं जो इरानी अफगानी सिनेमा का एक बहुत आत्मीय और बेबाक संसार रच रही हैं। इनके बरक्स इधर हिन्दी सिनेमा की 'थैंक्स मां, "सल्मडॉग मिलेनियर", "थ्री इडियेट", नंदिता दास की "फिराक" या लोक प्रिय धारा की "ए वेडनस डे", "गुलाल" और दूसरी बहुत सी फिल्मों में देखते हैं कि यथार्थ की उपस्थिति आक्रामकता के पुन:सर्जन में बहुत प्रत्यक्ष होना चाहती है। यथार्थ के प्रत्यक्षीकरण में इन फिल्मों से जो कि ध्वनित हुआ है उसमें झूठे और अमानवीय तंत्र के प्रतिरोध की चेतना की बजाय पाठक हताशा और निराशा में घिर जाने को विवश है। हत्या, मारकाट और साजिशों का प्रत्यक्षीकरण इतना एकांगी है कि जीना ही मुश्किल लगने लगता है। समाजिक विद्रुपताओं के दुश्चक्र की बारम्बारता भयानक से भयानक दृश्य रचती है। एक क्षण को उनके प्रभाव इतने गहरे होते हैं कि वे दर्शक के भीतर बहुत स्थाई और संवेदना को ही पूरी तरह से कुंद कर देते हैं। जो कुछ परदे पर घट रहा होता है उसका घटना एक स्वाभाविक सी घटना हो जाता है। परिस्थितियां बेहद विकट होती हैं लेकिन विकटता के सर्जकों की कोई तस्वीर नहीं बन रही होती है और न ही उनसे बच निकलने की कोई आत्मीय गतिविधि नजर आती है। बेहद क्रूर तरह से बच्चों के अंग भंग के दृश्य और तमाम अमानवीय कार्यों को करवाने को मजबूर कर देने वाली निर्ममताओं के कितने ही दृश्य हैं जिन्हें ऊपर दर्ज फिल्मों में और इधर की अन्य फिल्मों में देखा जा सकता है। यहां अमानवीयता के दृश्य का एक चित्र हाना मखमलबाफ की फिल्म 'बुद्धा कोलेप्सड आउट ऑफ सेम" से याद किया जा सकता है। हाना की यह फिल्म तालीबानी आक्रमकता के बाद जीवन जीते अफगानी बच्चों के खेल के रूप में हैं। तालीबानी तालीबानी खेलते बच्चों के बीच बामियान की मूर्तियों को तोड़ने से लेकर स्त्रियों को दासत्व की स्थितियों तक पहुंचाती कथा के बीच 'मुक्तिदाता" अमेरिकी बम वर्षकों के दृश्य हैं। तालीबानी बने बच्चे अमेरिकी बम बारियों से बचते हुए अपने आक्रामक खेल को जारी रखना चाहते हैं। अमेरिकी सिपाहियों को अंधे कुओं में डूबो कर मार देने की साजिश रचते हैं। एक गढढा खोद कर बहुत गहरे तक उसमें पानी भर भूरभूरी मिटटी को ऊपर से डाल उसे दल दल बना देते हैं। कैद की हुई स्त्रियों का छुड़ाने आते अमेरिकी सिपाही को वे उस दल दल में धंस जाने को मजबूर कर देते हैं। दलदल से सना बच्चा, यह दृश्य बिल्कुल उस दृश्य की तरह जैसा स्लमडॉग मिलेनियर में संडास के गढढे में गिर गया बच्चा है और जिसे देखना बेहद उबाकई से  भर जाना है, बहुत ही मानवीय ओर बुद्ध नजर आने लगता है। दृश्य एक दम स्पष्ट हो जाता है कि मुक्ति के नाम पर विध्वंश का खेल रचती अमेरिकी चालाकियों से हाना न तो खुद इत्तफाक रख रही हैं और न अपने दर्शकों के बीच किसी भी तरह की गलतफहमी को पनपने देती है। यह सवाल हो सकता है कि मुक्ति का रास्ता तो बुद्ध की करूणा में भी पूरा पूरा नहीं दिखता लेकिन इससे यह बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि जो भी संभावित सकारात्मकता है उसको तो चुना ही जाना चाहिए। और उस रास्ते पर ही फिल्म बेहद प्रभावशाली ढंग से उस तालीबानी आक्रमकता का विरोध दर्ज करती है जो स्त्रियों को गुलामी की स्थिति तक पहुंचा देना चाहती है। हिंसा के खेल को बुद्ध की सहजता से पार पाने की युक्ति बेशक अतार्किक और अव्यवहारिक हो पर युवा फिल्मकार हाना मखमलबाफ़ जिस खूबसूरती से दृश्य रचती है उसमें खेल चरमोत्कर्स तार्किक परिणति तक पहुँचता है। खास तौर पर ऐसे में जब चारों ओर एक घनीभूत तटस्थता छायी है। चौराहे का सिपाही नियम के कायदे में बंधा बंधकों को छुड़ाने में अपनी असमर्थता जाहिर कर रहा है। बल्कि असमर्थता जाहिर करते वक्त भी उसके चेहरे पर जब कोई प्ाश्चाताप या ग्लानी जैसा भाव भी मौजूद नहीं हैं। बस एक काम-काजी किस्म का व्यवहार ही उसको संचालित किये है। मेहनतकश आवाम भी जब युद्धोन्मांद में फँसी लड़की की कातर पुकार पर तव्वजो देने की बजाय बहुत ही तटस्थता से बच्चों को दूसरी जगह जाकर खेलने को कह रहा हो। दूसरी जगह- यानी जहाँ जारी खेल बेशक खूनी आतंक की हदों को पार कर जाए पर उनके काम में प्रत्यक्ष रुकावट डालने वाला न हो। मध्य एशिया में जारी हमले के दौरान अमेरीकी प्रतिरोध की दुनिया का कदम इससे भिन्न नहीं रहा है। और उसके चलते ही कब्जे की लगातार आगे बढ़ती कार्रवाई जारी है, यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं।
हिन्दी फिल्मों का यह जो ताना बाना दिखायी देता है उसे विश्वपूंजी द्वारा स्थापित की जा रही 'नैतिकता और आदर्श" के साथ देखा जा सकता है। मुनाफे की संस्कृति को जन्म देती और संसाधनों पर लगातार कब्जा करने की मंशा से भरी विश्वपूंजी की कार्रवाइयां अपने छल छद्म को छुपाये रखने के जो रास्ते अख्तयार करती है, वे बहुत साफ दिख रहे हैं। सिविल सोसाइटीनुमा अवधारणा में उसका चेहरा लोक की छवियों के जरिये न सिर्फ अपने कलावादी रूझानों को स्थापित करना चाहता है बल्कि तथाकथित उजले जीवन के बाजार के लिए लोक की विविधता को विज्ञापनी दुनिया का हिस्सा बनाता चल रहा है। दूर पहाड़ी पर एक कांछा (स्थानीय पहाड़ी बच्चा) से वह मारूती का सर्विस सेन्टर पूछता है। आदिवासी जनजीवन का पहनावा उसके उत्पाद को कन्ट्रास्ट देता है। बेहद संकरी गलियों के दृश्य बेजरूरत चीजों के प्रति आवाम की ललक पैदा करने का जरिया हैं। यथार्थ के प्रत्यक्षीकरण को प्रस्तुत करते दृश्यों में एक आक्रामक हिंसकता की ही झलक उसका मूल स्वर है। बहुत कोमल और आत्मीय किस्म के माहौल के प्रति उसके सरोकार मुनाफाखौर विज्ञापनी चालाकी वाले है। एक धोखा है। जिसमें विविधता से भरे स्थानिक दृश्यों की उपयोगिता उसके लिए मात्र अपने उत्पाद को उपभोक्ता के हाथों तक पहुंचाने के अवसर के रूप में है।
बहुत सचेत होकर देखें तो इधर आयी समकालीन हिन्दी कहानियों का संसार भी बहुत अलहदा नहीं बना है। समाजिक प्रतिबद्धता के प्रति आवश्यकता से अधिक क्लेम करता रचनाकार रचनात्मक विवरणों में विश्वसनीयता की हदों के पार भी छलांग जाता है। उदय प्रकाश की कहानी "मोहनदास" में बहुत साफ तरह से इसको परखा जा सकता है। विद्रुपताओं में ही बदलाव के चिह्न रचने की प्रवृत्ति बहुत आम हुई है। सामाजिक प्रवृत्ति के तौर पर गैर जरूरी नितांत व्यक्तिगत किस्म के अनुभवों से भरे विवरणों की भरमार में शिल्प के अनूठेपन का संसार प्रचारात्मक अलोचना में बहुत स्वीकार्य हुआ है। कथ्य की विभिन्नता के नाम पर इन्दरनेटिय सूचनाओं (योगेन्द्र आहुजा की कहानी खाना, पांच मिनट )या कारपोरेटिय जगत के बहाने उचछृखल संबंधों (गीत चतुर्वेदी की कहानी पिंक स्लिप डेडी) को लहराते पेटीकोटों वाली भाषा (कहानियों की एक लम्बी श्रृंखला है) में देखा जा सकता है। कलावादी कहलाये जाने के आरोपों से बचाव के रास्ते सामाजिक राजनैतिक प्रतिबद्धता के प्रदर्शन में इस कदर बढ़े है कि कविता तीन तीन कालमों में लिखी जाने का चलन रचनात्मक श्रेष्ठता के दावे करता हुआ प्रस्तुत होता है। बहुत सी रचनाओं में भाषा के स्तर पर नक्सलवाद, माओवाद, आदिवासी जैसे कितने ही शब्द बेवजह ठूंसने का चलन बना है। कवि देवी प्रसाद मिश्र की कविताऐं जिनका फलक पहल से लेकर इधर जलसा के पहले अंक तक दिखता है, ऐसी प्रवृत्ति का प्रतयक्ष गवाह है। कलात्मक युक्तियों का लगातार अन्वेषण जारी है। एक ही समय में शतकीय आंकड़ों (51 कहानियां ) का नायब अंदाज देवी प्रसाद मिश्र के यहां जलसा के नये अंक में भी देखा जा सकता है। लेकिन वैचारिक धरातल पर अस्पष्टता के बावजूद क्रान्तिकारी दिखने की चाह में वे कला और कला, कला और कला के अन्वेषक होते चले जाते हैं। ''छठी मंजिल" इस बात को तथ्यात्मक रूप से ज्यादा स्पष्ट करती है। वे जिस छठी मंजिल की चकाचौंध में आत्ममुग्ध होते हुए दिख रहे हैं, वहां खिलता हुआ सा बाजार है, चुंधियाती रोशनियां है। और बहुत कुछ ऐसा ही। हर एक के जीवन को उसी बाजार के बीच खुशहाल देखने का झूठ फैलाना उसी विश्वपूंजी का खेल है जिसका प्रतिरोध शायद कहानीकार भी करना चाहता होगा, लेकिन वहां पहुंचना और उसके बीच हो जाना रचनाकार को ललचा रहा है। मनोज रूपड़ा की कहानी रद्दोबदल, अरूण कुमार असफल की कहानी "कुकुर का भुस्स" अन्य ऐसी ही कहानियां जिनमें बहुत कुछ अलग कह जाने का कलावादी रूझान और आवश्यकता से अधिक आत्मसजग विशिष्टताबोध बोध वाली प्रवृत्ति उजागर होती है।
पैकिंग और बाईंडिंग के नये नये से रूप वाला फूला-फूला अंदाज इस दौर के बाजार का ऐसा चरित्र है जिसमें ग्राहक के लिए उत्पाद की गणवत्ता को जांचना भी संभव नहीं  रह गया है। तैयार माल किस मैटेरियल का बना है, इसे छुपाने के लिए भी मैटेरियल पर कोटिंग की नयी से नयी तकनीक के इस्तेमाल से ऐसा संभव हो रहा है। स्क्रेप मैटेरियल से तैयार उत्पाद में दर्ज पैबंदों को भी चमचमाती पैकिंग में आकर्षक बनाकर पेश किया जा रहा है। योगेन्द्र आहुजा की पांच मिनट एक ऐसी कहानी है जिसकी रचना के लिए उस स्पेशिफाईड मैटेरियल को ढूंढा गया है जिससे सिलिकॉन चिप बनाया जाता है। एक ऐसा मैटेरियल जो अपने से निर्मित उत्पाद के जोड़ कहीं दिखने भी नहीं देता। फिर भी यदि कहीं दिखने लगते भी हैं, तो खुलते चाकू की खटाक होती आवाज के कारण सहम जाने वाला समय दुनिया की घड़ियों की सुईंयों को स्थिर करके उन्हें छुपा  देता है। घड़ी की टिक-टिक से बेदर्द और दहद्गत फैलाने वाले समय की यथास्थिति का एहसास पाठक हर क्षण करता रहता है। मक्खी मूछों वाली आक्रामक फौजी कार्यवाही का विरोध करते हुए वैश्विक एकता की मिसाल और राष्ट्रीय चेतना के प्रतीक सीकिंया बूढ़े का जिक्र करते हुए इतिहास की अनुगूंजों के साथ गुलामी के खिलाफ संघ्ार्ष को निर्णायक मोड़ तक पहुंचाने की अभिष्ट कामना कहानी के मूल में दिखायी देती है। गोपाल इस कहानी का ऐसा पात्र है जो मजदूर, चौकीदार, रिक्शे चलाने वाले, सब्जीफरोश, कबाड़िये और इसी तरह का छोटा-मोटा काम करते हुए जीवन के संघर्ष में जुटे तबके का प्रतिनिधित्व करता है।  
इस दृष्टिकोण से यदि कहानी को देखें तो न सिर्फ हाशिये पर रह रहे लोगों के प्रति लेखकीय पक्षधरता स्पष्ट होती है बल्कि पुरजोर तरह से इस बात को स्थापित करने की कोशिश साफ दिखती है कि कि आधुनिक तकनीक की विकासमान दुनिया को सम्भव बनाने में ऐसे ही लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण है। एक सामन्य, लेकिन हुनरमंद घड़ीसाज के लम्पट और उच्चके बेटे का होनहार बेटा जब अंतरिक्ष की घड़ियों को दुरस्त कर लेने की दक्षता हांसिल कर पा रहा है तो इससे एक हद तक जनतांत्रिक होती जा रही दुनिया का पक्ष भी प्रस्तुत होता है। लेकिन उस ठोस वस्तुगत यथार्थ की अनदेखी नहीं की जा सकती जिसमें ज्ञान-विज्ञान पर कब्जा करती बाजारू दुनिया का होना दिखायी देता है। जरूरी है कि वस्तुगत यथार्थ की सही समझदारी के साथ रचना का सत्य उस  चिन्तन पर केन्द्रित हो जिससे सचमुच की राष्ट्रीय चेतना और अन्तरराष्ट्रीय बिरादराना के तत्वों को पकड़ने में पाठक सहूलियत महसूस कर सके। व्यक्तिगत रुप से उपलब्धियों को हांसिल करने वाले किसी एक महान  व्यक्ति की सक्रियता के इंतजार में बदलावों के संघर्ष को स्थगित नहीं किया जा सकता है, योगेन्द्र शायद इससे अनभिज्ञ न हो और न ही कोई भी संघर्ष ऐसे एक व्यक्ति की उपस्थिति मात्र से अन्तिम निर्णय तक पहुंच सकता है, यह समझ बनना भी जरूरी ही है। 
पूंजीवादी लोकतंत्र के आभूषणों (राजनैतिक पार्टियां) की लोकप्रिय धाराओं की नीतियां कुछ दिखावटी विरोध के बावजूद अमेरिका को रोल मॉडल की तरह प्रस्तुत करते हुए उसके ही ईशारों पर जारी है। जिसके चलते पूरा परिदृद्गय इस कदर धुंधला हुआ है कि विरोध और समर्थन की,, उनकी अवसरवादी कार्यवाहियां, किसी भी जन पक्षधर मुद्दे को दरकिनार करने के लिए तुरुप का पत्ता साबित हो रही है। उसी पूंजीवादी अमेरिका के आर्थिक हितों के हिसाब से चालू आर्थिक और विदेश नीति ने ही एक खास भूभाग में निवास कर रहे अप्रवासियों के लिए दोहरी नागरिकता का दरवाजा खोला है। आंतक के देवता, विश्व पूंजी के स्रोत, हथियारों के सौदागर, अमेरिका की प्रशस्ति में सदी के सबसे बड़े विस्थापन को जन्म दिया जा रहा है। तीसरी दुनिया के आला दिमाग  यूंही नहीं विश्व पूंजी की चाकरी करने को उतावले हैं! ऐसी ही नीतियों के पैरोकार शासक जिस तरह से सीधे तौर पर डालर पूंजी की जरुरत पर बल देते हुए अंध राष्ट्रवाद की लहर पैदा कर रहे हैं उसके चलते ही आम मध्यवर्गीय युवा के भीतर उसकी स्वीकार्यता को भी बल मिल रहा है। गरीब और पिछड़े देश वासियों के सामने एक भ्रम खड़ा करने की यह निश्चित ही चालक कोशिश है कि रोजी रोटी के जुगाड़ में सात समुन्द्र पार की यात्रा पर निकले ऐसे नागरिक जब माल असबाब जमाकर वापिस लौटेगें तो देश एवं समाज की बेहतरी के लिए कार्य करेगें। यहां इस सवाल से आंख मूंद ली गयी है कि कितना तो बचा होगा उनके भीतर देद्गा और कितनी देद्गा सेवा। योगेन्द्र आहुजा की कहानी पांच मिनट भी ऐसे ही ब्रेन ड्रेन की कहानी है और इम कहानी में भी इसी मुगालते की स्थापना है।  अपनी कहानी के अंत में योगेन्द्र भी ऐसे ही युवका से उम्मीदों का ख्याल पालते हैं।
यूं युवा रचनात्मक गतिविधियों के समुचित मूल्यांकन के लिए हिन्दी कला साहित्य और फिल्म की दुनिया के यहां दर्ज तथ्य मेरी सीमा ही है। वरना बहुत सी दूसरी रचनाऐं हैं जिनके पाठ मुझे प्रभावित करते रहे हैं। या ज्यादा साफ करते हुए कहूं तो जिनसे बहुत असहमति नहीं उपजी है। महेशा दातानी की फिल्म "मार्निंग रागा", बेला नेगी की फिल्म "दांये या बांये" अमोल गुप्ते की "स्टनली का डब्बा" और हिन्दी कहानियों में कैलाश बनबासी की "बाजार में रामधन", अरूण कुमार असफल की "पांच का सिक्का", योगेन्द्र आहुजा की "मर्सिया", नवीन कुमार नैथानी की "पारस" आदि बहुत सी रचनाऐं हैं जिनको देखना-पढ़ना एक अनुभव से गुजरना हुआ है।
गम्भीर दुर्घटनाओं के परिणाम कई बार किसी व्यक्ति विशेष को जीवन पर्यन्त अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं और मानसिक अवसाद का गहरा कारण बन जाते हैं। बहुत नितांत तौर पर एक अकेले व्यक्ति की समस्या को सामाजिक दायरे के प्रश्न में देखने से ही रचना की प्रासंगिकता बनती है। महेश दातानी की फिल्म मार्निंग रागा ऐसे ही विषय के इर्द गिर्द एक ताना बाना रखती है और एक गम्भीर दुर्घटना में अपने प्रियों को खो देने के कारण अवसाद की गहरी छाया में डूबे पात्रों की मुक्ति का मार्ग संगीत की स्वर लहरियों में तलाश करती है। चूंकि बदलाव के किसी बहुत बड़े दावे की अनुगूंज फिल्म के पाठ में ही मौजूद नहीं इसलिए उन अर्थों को ढूंढने का कोई तुक नहीं जिनके आधार अन्य रचनाओं पर बात हो रही है। इस लिहाज से देखें तो बहुत ही साफ सुथरे कथ्य के साथ संवेदना के उन बिन्दु को जाग्रत करने में अहम रोल अदा करती है जिससे मानवीय तकलीफों के ज्यादा करीब पहुंचा जा सकता है। न ही किसी तरह की अलौकिकता ओर न ही इधर के दौर में बहुत उछृखंल प्रेम का प्रदर्शन बल्कि मानवीय अनुभूतियों की रागात्मकता का बहुत ही स्वाभाविक आख्यान पूरी फिल्म में जीवन्तता के साथ है। मार्निंग राग की बात करते हुए कथाकार योगेन्द्र आहुजा की कहानी मर्सिया का याद आ जाना स्वभाविक है। योगेन्द्र की कहानी का कथ्य यूं मार्निंग राग से जुदा है और उसके आशय भी, पर यह स्पष्ट है कि शास्त्रीय संगीत की रवायत के बरक्स पीपे, परात और तसलों के संगीत वाला बिम्ब ज्यादा प्रभावी और महत्वपूर्ण बिन्दु है जबकि महेश दातानी के यहां शास्त्रीय संगी का यह फ्यूजन बहुत सीमित होकर आता है। दांये या बांए बेला नेगी की पहली फिल्म है। हिन्दी फिल्म होते हुए भी उसमें एक खास किस्म की आंचलिकता बिखरी हुई है। उसे आंचलिक फिल्म कहना ही ज्यादा ठीक लग रहा है। महेश दातानी की फिल्म भी यूं भारीतय अंग्रेजी और कन्नड़ भाषा के साथ एक आंचलिकता को ही पकड़ रही है। बल्कि कहा जा सकता है कि दोनों ही फिल्मों में आंचलिकता का यह बिन्दु ठीक उसी तरह का है जैसे हिन्दी या किसी भी दूसरे साहित्य की रचनायें, जिनमें पात्रों की भाषा भौगोलिक पृष्ठभूमि की प्रमाणिकता वाली होती है। लेकिन बेला की फिल्म की विशेषता सिर्फ भाषायी ही नहीं अपितु विशिष्ट भूगोल के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से जूझते रचनाकार की प्रतिबद्धता का भी प्रश्न बनती है। यूं बेला नेगी की फिल्म बहुत खिलंदड़ भाषा में उत्तराखण्ड के भूगोल को पकड़ती है लेकिन उत्तराखण्ड के बौद्धिक जगत की उस सीमा को भी चिहि्नत कर दे रही जिसमें एन जी ओ किस्म की मानसिकता का विस्तार होता है और बेला भी उससे बच न पायी है। समय के हिसाब से सबसे निकट की रचना इसी वर्ष मई माह में आयी अमोल गुप्ते की पहली ही फिल्म स्टनली का डिब्बा है जो आत्मीयता और सामाजिक वंचनाओं के उन बिन्दुओं को आधार बना रही है जिनकी अनुपस्थिति में एक व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्माण की पूरी प्रक्रिया कैसे बाधित हो जाती है, इसको समझा जा सकता है। कथा पात्र बच्चे, स्टनली का प्रतिरूप स्कूल मास्टर वर्मा बार-बार बहुत खाऊ दिखता है। न सिर्फ साथी मास्टरों के खाने के डिब्बे उसे ललचाते हैं बल्कि बहुत छोटे छोटे स्कूली बच्चों के टिफिन पर भी उसकी ललचायी निगाहें हैं। उसके व्यक्तित्व के इस कमजोर पक्ष का खुलासा करने से बच जाने में निर्देशक ने बेहद सूझ बूझ का परिचय दिया है जिससे कहानी एक काव्यात्मक अंत की ओर आगे बढ़ जाती है। और आत्मीयता और व्यक्तित्व के विकास के अवसरों की अनुपस्थिति में जीवन जीते स्टनली के जीवन के बहुत अंधेरे कोनो में ले जाते हुए मास्टर वर्मा के बचपन से साक्षात्कार करा देती है।      

नोट: यह आलेख परिकथा के नये अंक में प्रकाशित है

Monday, December 19, 2011

इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में



यह कविता हमारे प्रिय मित्र और महत्वपूर्ण कथाकार योगेन्द्र आहूजा के मार्फत मेल से प्राप्त हुई। स्वाभाविक है कविता उन्हें पसंद होगी ही।  कविता को इस ब्लाग पर देते हुए रचनाकार श्योराज सिंह बेचैन का बहुत बहुत आभार। उनकी अनुमति के बिना ही कविता को ब्लाग पर दिया जा रहा है, उम्मीद है वे अन्यथा न लेंगे और इस बात को समझ पाएंगे कि सम्पर्क सूत्र न होने के कारण ही उन तक पहुंचना संभव नहीं हो रहा है।
वि.गौ.
 

अच्छी कविता

 श्योराज सिंह बेचैन




अच्छी कविता
अच्छा आदमी लिखता है
अच्छा आदमी कथित ऊंची जात में पैदा होता है
ऊंची जात का आदमी
ऊंचा सोचता है
हिमालय की एवरेस्ट चोटी की बर्फ के बारे में
या नासा की
चाँद पर हुई नयी खोजों के बारे में
अच्छी कविता
कोई समाधान नहीं देती
निचली दुनियादार जिन्दगी का
अच्छी कविता
पुरस्कृत होने के लिए पैदा होती है
कोई असहमति-बिंदु
नहीं रखती
निर्णायकों, आलोचकों और संपादकों के बीच
अच्छी कविता
कथा के क़र्ज़ को महसूस नहीं करती
अच्छी कविता
देश-धर्म, जाति
लिंग के भेदाभेदों के पचड़े में नहीं पड़ती
अवाम से बावस्ता नहीं और
निजाम से छेड़छाड़ नहीं करती
अच्छी कविता
बुरों को बुरा नहीं कहने देती
अच्छी कविता
अच्छा इंसान बनाने का जिम्मा नहीं लेती
अच्छे शब्दों से
अच्छे ख्यालों से
सजती है अच्छी कविता
अच्छी कविता
अनुभव और आत्मीय सबकी दरकार नहीं रखती
कवि के सचेतन
संकलन की परिणति होती है अच्छी कविता
अच्छी कविता
अच्छे सपने भी नहीं देती
अच्छे समय में साथ ज़रूर नहीं छोडती
अच्छी कविता की
अच्छाई पूर्वपरिभाषित होती है
अच्छी कविता
अच्छे दिनों में अच्छे जनों में
हमेशा मुस्तैदी और
मजबूती से उपस्थित रहती है
पर बुरे वक़्त में
किसी के काम नहीं आती
अच्छी कविता
उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में परसपुर के आटा ग्राम में २२ अक्टूबर, १९४७ को जन्मे अवामी शायर अदम गोंडवी ( मूल नाम- रामनाथ सिंह) ने आज दिनांक १८ नवम्बर ,२०११ , सुबह ५ बजे पी. जी. आई, लखनऊ में अंतिम साँसे लीं. पिछले कुछ समय से वे लीवर की बीमारी से जूझ रहे थे. अदम गोंडवी ने अपनी ग़ज़लों को जन-प्रतिरोध का माध्यम बनाया. उन्होंने इस मिथक को अपने कवि-कर्म से ध्वस्त किया कि यदि समाज में बड़े जन-आन्दोलन नही हो रहे तो कविता में प्रतिरोध की ऊर्जा नहीं आ सकती. सच तो यह है कि उनकी ग़ज़लों ने बेहद अँधेरे समय में तब भी बदलाव और प्रतिरोध की ललकार को अभिव्यक्त किया जब संगठित प्रतिरोध की पहलकदमी समाज में बहुत क्षीण रही. जब-जब राजनीति की मुख्यधारा ने जनता से दगा किया, अदम ने अपने साहित्य को राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल साबित किया.


अदम गोंडवी आजीविका के लिए मुख्यतः खेती-किसानी करते थे. उनकी शायरी को इंकलाबी तेवर निश्चय  ही वाम आन्दोलनों के साथ उनकी पक्षधरता से  प्राप्त हुआ था.  अदम ने समय   और समाज की भीषण    सच्चाइयों  से , उनकी स्थानीयता के पार्थिव अहसास के  साक्षात्कार  लायक  बनाया ग़ज़ल को. उनसे पहले 'चमारों की गली' में ग़ज़ल को कोइ न ले जा सका था.

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मैं चमारों की गली में ले  चलूँगा आपको' जैसी लम्बी कविता न केवल उस 'सरजूपार की मोनालिसा' के साथ बलात्कार, बल्कि प्रतिरोध के संभावना को सूंघकर ठाकुरों द्वारा पुलिस के साथ मिलकर दलित बस्ती पर हमले की भयानकता की कथा कहती है. ग़ज़ल की भूमि को सीधे-सीधे राजनीतिक आलोचना और प्रतिरोध के काबिल बनाना उनकी ख़ास दक्षता थी-

जुल्फ
- अंगडाई - तबस्सुम - चाँद - आईना -गुलाब
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब
पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी
इस अहद में किसको फुर्सत है पढ़े दिल की किताब
इस सदी की तिश्नगी का ज़ख्म होंठों पर लिए
बेयक़ीनी के सफ़र में ज़िंदगी है इक अजाब


भुखमरी, गरीबी, सामंती और पुलिसिया दमन के साथ-साथ उत्तर भारत में राजनीति के माफियाकरण पर  हाल के दौर में  सबसे मारक कवितायेँ उन्होंने लिखीं. उनकी अनेक पंक्तियाँ आम पढ़े-लिखे लोगों की ज़बान पर हैं-

काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में

उन्होंने साम्प्रदायिकता के उभार के अंधे और पागलपन भरे दौर में ग़ज़ल के ढाँचे में सवाल उठाने
, बहस करने और समाज की इस प्रश्न पर समझ और विवेक को विकसित करने की कोशिश की-

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये

छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये

इन सीधी अनुभवसिद्ध, ऐतिहासिक तर्क-प्रणाली में गुंथी पंक्तियों में आम जन को साम्प्रदायिकता से आगाह करने की ताकत बहुत से मोटे-मोटे उन ग्रंथों से ज़्यादा है जो सेक्युलर बुद्धिजीवियों ने रचे. अदम ने सेकुलरवाद किसी विश्विद्यालय में नहीं सीखा था, बल्कि ज़िंदगी की पाठशाला और गंगा-जमुनी तहजीब के सहज संस्कारों से पाया था.
आज जब अदम नहीं हैं तो बरबस याद आता है कि कैसे उनके कविता संग्रह बहुत बाद तक भी प्रतापगढ़ जैसे छोटे शहरों से ही
छपते रहे, कैसे उन्होंने अपनी मकबूलियत को कभी भुनाया नहीं और कैसे जीवन के आखिरी दिनों में भी उनके परिवार के पास इलाज लायक पैसे नहीं थे. उनका जाना उत्तर भारत की जनता की क्षति है, उन तमाम कार्यकर्ताओं की क्षति है जो उनकी गजलों को गाकर अपने कार्यक्रम शुरू करते थे और  एक अलग ही आवेग और भरोसा पाते थे, ज़ुल्म से टकराने का हौसला पाते थे, बदलाव के यकीन पुख्ता होता था. इस भीषण भूमंदलीकृत समय में जब वित्तीय पूंजी के नंगे नाच का नेतृत्व सत्ताधारी दलों के माफिया और गुंडे कर रहे हों, जब कारपोरेट लूट में सरकार का साझा हो, तब ऐसे में आम लोगों की ज़िंदगी की तकलीफों से उठने वाली प्रतिरोध की भरोसे की आवाज़ का खामोश होना बेहद दुखद है, अदम गोंडवी को जन संस्कृति मंच अपना सलाम पेश करता है.


जन संस्कृति मंच की ओर से महासचिव प्रणय कृष्ण द्वारा जारी