Friday, August 21, 2020

व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह की पुरज़ोर आवाज़: "अस्थिफूल"

 

2013 से 2019 तक का कोलकाता प्रवास जिन तीन बेहतरीन इंसानों की वजह से मेरे जीवन की अभिन्‍न स्‍मृति हुआ है, उनमें जीतेन्‍द्र जितांशु, नील कमल और गीता दूबे को भुला पाना नामुमकिन है। गीता के व्‍यवहार में बेबाकी प्रमुखता से पाई है। बहुत भरोसे की मित्र हैं गीता दूबे। खुददार हैं। गीता स्‍कॉटिश चर्च कॉलेज, कोलकाता में पढ़ाती हैं। कविताएं लिखती हैं। आलोचनात्‍मक टिप्‍पणियां लिखती हैं। साहित्यिकी संस्‍था में सक्रिय रहती हैं।

हिंदी की दुनिया के सामने यह खुलासा करने पर मुझे गर्व हो रहा है कि मेरे अभी तक के जीवन के अनुभव में इतनी अध्‍ययनशील महिला से यह मेरा पहला ही परिचय रहा। दोस्‍ताने के साथ में अनायास ही जब भी किसी पुस्‍तक की बात होती, मालूम चलता था कि गीता दूबे ने वह किताब पढ़ी हुई है। उनके निजी संग्रह की किताबों से मुझे भी पढ़ने के अवसर मिलते रहे। कथाकार अल्‍पना मिश्र के उपन्‍यास "अस्थिफूल" की यह समीक्षा गीता दूबे ने मेरे ऐसे आग्रह पर की है जबकि पुस्‍तक की हार्ड कॉपी भी मैं उपलब्‍ध न करा सका। उपन्‍यास का पीडीएफ ही उन्‍हें भेज पाया था। उसे उधार के खाते में डाला हुआ है। वह तो भिजवानी ही है।  

वि.गौ.

गीता दूबे

15 अगस्त 1947 को भार आजाद हुआ लेकिन यह आजादी विभाजन के कंधे पर चढ़कर आई। अपने नेताओं की बात को भारतवासियों ने स्वीकार कर लिया कि विभाजन के बिना शायद आजादी का सपना पूरा ही नहीं हो सकता और आजादी की खुशी के रंगों के बीच  विभाजन का बदनुमा दाग  हमेशा अखरता और कसकता रहा। 1947 में विभाजन का जो दुस्वप्न हमने देखा था, वह पहला भले ही था अंतिम बिल्कुल नहीं। उस दिन तो विभाजन की महज शुरुआत हुई थी, तब से देश में लगातार होनेवाले विभाजनों का सिलसिला अब भी जारी है, कभी भाषा, कभी प्रांत, तो अभी जाति के नाम पर। बड़े -बड़े राज्य दो टुकड़ों में बंटकर दो नामों से तो जाने गए लेकिन इससे वह कितना समृद्ध या अशक्त हुए यह एक बहस सापेक्ष प्रश्न है। कुछ बड़े राज्य जिस तरह दो खंडों में बंटे उसी तरह बिहार भी विभाजित हुआ और झारखंड अस्तित्व में आया। उत्साही कार्यकर्ताओं और आंदोलनकारियों ने "धुसका चना, खाएंगे झारखंड बनाएंगे" का जुझारू उद्घोष करते हुए लंबे आंदोलन के बाद झारखंड तो बना ही लिया, साथ ही गर्व से अपने ही बिछड़े भाइयों को चिढ़ाते हुए कहा भी-"रबड़ी मलाई खइलू , कइलू तन बुलंद/ अब खइहा शकरकंद, अलगा भइल झारखंड।" लेकिन खुशी की इस गर्वोक्ति के पीछे आवाज की जो अनुगूंज थी वह आम जनता की नहीं उन ऊंची- ऊंची कुर्सियों पर बैठे हुए नेताओं की थी जिन्हें झारखंड की वन संपदा का दोहन करके अपनी रोटियाँ ही नहीं सेंकनी थी बल्कि उनपर मलाई की गाढ़ी परत भी थोपनी थी जिससे उनके और उनके चहेतों के शरीर और संपत्ति का आयतन  बढ़ता जाए और जिस आम जनता के उत्थान के लिए नया प्रदेश बना था वह भूख भर भात को तरसती हुई तड़प -तड़प कर दम तोड़ दे। जिस वनसंपदा पर झारखंडियों का सहज अधिकार था उससे उन्हें बेदखल कर दिया गया। कभी देश और समाजविरोधी होने का आरोप लगाकर तो कभी कोई नई दफा लगाकर उन्हें जेलों में कैद कर दिया गया। भूख की यह आग इतनी भयंकर थी कि इसमें उनकी जमीन ही नहीं खाक हुई बल्कि उनकी अस्मिता भी भस्म हो गई। परिवार बिखर गया। खुले जंगल में कुलांचे भरनेवाली उनकी बेटियाँ दरबदर हो गईं। रोली की तरह बहुत से बच्चे कुपोषण के कारण असमय ही काल कवलित हो गए। बाहरी लुटेरों ने उन्हें इस तरह लूटा कि उनकी कथाएँ, गीत, सपने कुछ भी बाकी न रहे। घर की लाडली बेटियाँ जिनकी चहचहाटों से घर गूंजता ही नहीं संवरता भी था, जो छोटी सी उम्र में खुद को संभालने से ज्यादा परिवार की खुशियों के बारे में और छोटे भाई बहनों की भूख और उनके भविष्य के बारे में सोच- सोचकर अपने सपनों को बिसार देती थीं, कभी मांसलोभी नरपशुओं को बेच दी गईं तो कभी शहर में नौकरी करने के लिए जाकर शोषण के ऐसे अनवरत चक्र का हिस्सा बनीं कि उसे ही अपनी नियति मानकर उस दलदल से निकलने की बात भी भूल गईं। उन्हें और उनके परिवार वालों को भरपेट भात खिलाने का सपना दिखाकर इस कदर लूटा और चींथा गया कि वह अपने देह, मन और सपनों को ही भुला बैठीं।


1968 में महेश कौल निर्देशित और राजकपूर -हेमा मालिनी अभिनीत एक फिल्म आई थी "सपनों का सौदागरजिसमें फिल्म का नायक अन्य चरित्रों के निराशहताश जीवन और मन में सपनों की फसल बोते हुए उन्हें जिंदगी जीने का हौसला देता हैउनकी खोई हुई खुशियाँ उन्हें वापस लौटाने की कोशिश करता है। लेकिन फिल्मी सच्चाई दुनियावी सच्चाई से अलग होती है। शायद इसीलिए इस उपन्यास ही नहीं देश में भी सपनों के तमाम सौदागर नेताओं या समाज सुधारकों के वेश में घूमते हैं जो लोगों को जीने का हौसला देने के बजाय उनकी बची -खुची उम्मीदें भी उनसे छीन लेते हैं। देश की आम जनता को बार -बार सपनों की यह झूठी फसल बेची जाती है जो न तो उनकी भूख मिटा सकती है न ही उनका जीवन सुधार सकती है। यह झूठा छलावा उनकी जिंदगी को बदरंग करते हुए उनकी आंखों और मन का हर सपना उनसे छीन लेता है । इसके बावजूद जनता बार बार तथाकथित जनसेवकों पर भरोसा करती है और आंखों में उम्मीद का एक सपना सजोने की शर्त पर अपनी जिंदगीअपनी सांसों तक को गिरवी रख देती है। लेकिन धोखाधड़ी की यह साजिश धीरे -धीरे आम लोगों की समझ में आने लगती है और वे इन 'सपनबेचवालोगों को पहचानकर इनसे दूरी बनाने लगते हैं।

अपने ही देश, प्रांत और अपने सुख के लिए बने नये प्रदेश के अंदर निरंतर शोषित होते और वहाँ से बेदखल हो दर दर बिखरते इन तमाम पात्रों की दर्दभरी कहानियों के साथ पूरे देश की धमनियों में लाइलाज कैंसर की तरह पसरते   भ्रष्टाचार और उससे रिसते जहर के साथ उसके शिकार आमजनों की पीड़ा के दंश के तमाम उदाहरणों के साथ शोषण के चक्र के तमाम कोणों को सुविख्यात कथाकार अल्पना मिश्र ने अपने उपन्यास "अस्थिफूल" में बेहद तल्खी के साथ बयान किया है।

असल जिंदगी की परेशानियों और जिल्लतों को कथा के ताने बाने में कसकर, लेखिका देश की वर्तमान स्थिति पर गहरी और आलोचनात्मक दृष्टि डालती हैं। झारखंड, वहाँ का जन जीवन और चुनौतियां भले ही उपन्यास के केन्द्र में हैं लेकिन कथा को विस्तार देती हुई अल्पना में पूरे देश की स्थिति पर अपनी विहंगम दृष्टि डालते हुए उसके हर कोने की समस्याओं को समेटने की भरसक कोशिश करती हैं। इसी तरह स्त्री भी आलोच्य उपन्यास के केन्द्र में भले है लेकिन लेखिका सिर्फ उस स्त्री का ही नहीं बल्कि देश का भी शोषण करनेवाले सरकारी- गैरसरकारी संस्थाओं और कर्मचारियों पर अपनी कलम से प्रहार करते हुए उनके छद्मवेश को छिन्न भिन्न करते हुए उसके वास्तविक स्वरूप को जनता के सामने उजागार करती हैं।

1968 में महेश कौल निर्देशित और राजकपूर -हेमा मालिनी अभिनीत एक फिल्म आई थी "सपनों का सौदागर" जिसमें फिल्म का नायक अन्य चरित्रों के निराश- हताश जीवन और मन में सपनों की फसल बोते हुए उन्हें जिंदगी जीने का हौसला देता है, उनकी खोई हुई खुशियाँ उन्हें वापस लौटाने की कोशिश करता है। लेकिन फिल्मी सच्चाई दुनियावी सच्चाई से अलग होती है। शायद इसीलिए इस उपन्यास ही नहीं देश में भी सपनों के तमाम सौदागर नेताओं या समाज सुधारकों के वेश में घूमते हैं जो लोगों को जीने का हौसला देने के बजाय उनकी बची -खुची उम्मीदें भी उनसे छीन लेते हैं। देश की आम जनता को बार -बार सपनों की यह झूठी फसल बेची जाती है जो न तो उनकी भूख मिटा सकती है न ही उनका जीवन सुधार सकती है। यह झूठा छलावा उनकी जिंदगी को बदरंग करते हुए उनकी आंखों और मन का हर सपना उनसे छीन लेता है । इसके बावजूद जनता बार बार तथाकथित जनसेवकों पर भरोसा करती है और आंखों में उम्मीद का एक सपना सजोने की शर्त पर अपनी जिंदगी, अपनी सांसों तक को गिरवी रख देती है। लेकिन धोखाधड़ी की यह साजिश धीरे -धीरे आम लोगों की समझ में आने लगती है और वे इन 'सपनबेचवा' लोगों को पहचानकर इनसे दूरी बनाने लगते हैं। सुजन महतो, बिरजू, पलाश, इनारा, चंदा, दीपा आदि तमाम पात्रों की आंखों में सुबह के फूल की तरह उगा यह सपना धीरे -धीरे मुरझाता जाता है। हालांकि इन प्रकृतिप्रेमी झारखंडी लोगों के सपने कोई बहुत बड़े नहीं थे। पेट भर भात और अपनी जमीन और जंगल पर स्वतंत्रता से विचरने और वहाँ की प्राकृतिक संपदा का उपभोग करने के साथ ही उसका संरक्षण करने का सपना ही वह देखते थे। लेकिन आंदोलनकारियों ने झारखंड को अलग राज्य बनाने का सपना तो पूरा किया पर वहाँ के मूल निवासियों अर्थात झारखंडियों को अपनी ही जमीन से बेदखल होना पड़ा। जिस किसी ने इसका विरोध किया उन्हें इस तरह बेदर्दी से कुचल दिया गया कि उनके सहज स्वाभाविक जीवन की लय बाधित होकर बिखर गई। बीजू जैसे तमाम बच्चों का परिवार तिनका तिनका ऐसे  बिखरा कि भाई और पिता जब अपनी बिखरी- बिछड़ी, बहन- बेटियों को खोजने निकले तो उनका रास्ता रोकने के लिए तमाम कानूनी अड़चनें खड़ी हो गईं। बहन द्वारा भाई और बेटी द्वारा पिता को पहचान लेना ही काफी नहीं था ,उस पहचान का कानूनी कागज पेश करना भी जरूरी था और भारत जैसे विकासशील देश में साधारण आदमी के लिए ये कानूनी कवायदें कितनी मुश्किल होती हैं यह तो भुक्तभोगी ही जानता है।

उपन्यास झारखंड की वन संस्कृति, आदिवासी संस्कारों और लोककथाओं का वर्णन करता हुआ वहाँ ढोंगी दिकुओं के कब्जे की कहानी भी कहता है। सीधे -सादे वनवासियों के दिलों दिमाग को विकास का सपना दिखाकर तथाकथित उद्धारकर्ता किस तरह फुसलाकर कब्जा लेते हैं यह लेखिका संकेतों और छोटी -छोटी लोककथाओं के माध्यम से बड़ी कुशलता से बयान करती हैं लेकिन लोककथाओं का सहज स्वाभाविक और तयशुदा सुखद अंत वास्तविकता की जमीन पर आकर अपना रूप बदल लेता है। कथा की सोनचंपा न केवल अपने साहस और शक्ति से जंगलवासियों को अभय देती है बल्कि शापग्रस्त राजकुमार की नियति को भी बदल देती है लेकिन वास्तविक कहानियों की वनकन्याओं की नियति बिल्कुल अलग होती है। वह अपनी गरीबी और भुखमरी के शाप से मुक्ति पाने की कोशिश में एक ऐसे यंत्रणा की सुरंग में कैद हो जाती हैं जहाँ से निकलने के सारे रास्ते बंद कर दिए जाते हैं। दुख की नीली नदी में तैरते- तैरते अंततः वह किनारे पर पहुंचने का हौसला भी खो देती हैं। पथराए हुए तन मन के साथ वह अपनी जिंदगी की टूटी फूटी नाव को हवा की मनमर्जी के हवाले कर देती हैं। पलाश और इनारा या फिर रानी सुंदरी जैसी तमाम किशोरियों का जीवन झारखण्ड की बेबस लड़कियों की जिंदगी की सच्ची तस्वीर पेश करता है। आलोच्य उपन्यास मेँ सिर्फ झारखंड नहीं बल्कि संवासिनी गृह में रहने को बाध्य देश के हर हिस्से की लड़कियों की तकरीबन एक समान नियति को दर्शाया गया है। उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से में वह सम्मान रक्षा के नाम पर खाप पंचायत के निर्दय फैसले का शिकार होती हैं। संतोष की सहेली को मारकर पेड़ पर लटका दिया जाता है। संतोष जैसी स्त्रियों को परिवार की कृपा से अगर शिक्षा की थोड़ी रोशनी मुहैय्या होती भी है तो उसके पीछे परिवार का स्वार्थ छिपा होता है। यह रोशनी भी उतनी ही मिलती है जिसमें वह किताब बांचकर, डिग्री हासिल करके पैसे कमाने और परिवार को आर्थिक समृद्धि के रास्ते पर बढ़ाने में सक्षम हों। जैसे ही वह किताब बांचने से आगे बढ़ते हुए किताब लिखने या इतिहास बदलने के साथ अपनी इच्छानुसार फैसले लेने के रास्ते पर आगे बढ़ने का हौसला सहेजती हैं वैसे ही उनके पांव के नीचे से जमीन खींच ली जाती है, उनके पर कतर दिए जाते हैं। लेकिन इसके बावजूद ये औरतें अपने हौसले को टूटने नहीं देतीं। संतोष को अपनी उस सहेली की चीखें चैन से सोने नहीं देतीं जिसकी मदद के लिए वह समय पर नहीं पहुंच पाई थी। इसी कारण वह अपने पास और दूर की हर बेबस और शोषित औरत के साथ बहनापे का तार जोड़ लेती है और भरसक उनकी मदद करने की कोशिश करती है। जब तक उसकी यह परोपकारी सामाजिक छवि परिवार के तथाकथित रूतबे को ऊंचाई तक ले जाती है, परिवार उसकी राह नहीं रोकता। लेकिन जैसे ही वह  समाज की तथाकथित मर्यादित छवि को चुनौती देती है, परिवार उसके परों को कतरकर उसकी उड़ान को बाधित कर देता है। स्त्री "मोलकी" हो या "ब्याही" उसकी नियति में कोई विशेष अंतर नहीं होता। दोनों का दोहन और इस्तेमाल परिवार अपनी इच्छानुसार करता है। औरतें इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार भी करती हैं और सामंजस्य और बर्दाश्त की हदों तक जाकर परिवार की तथाकथित मर्यादा और झूठे सुख और सम्मान को बचाए रखने की भरसक कोशिश भी करती हैं। लेकिन जब हिम्मत जवाब दे जाती है तो संतोष की तरह बगावत का झंडा हाथ में उठाकर निकल पड़ती हैं, सिर्फ अपनी ही नहीं तमाम औरतों की नियति को बदल देने के लिए। इसी तरह तमाम सताई हुई संवासिनी गृह की औरतें अपने मानस को पाषाण सा मजबूत कर अपने मांस को जला तपा नष्ट कर अपनी हड्डियों को हथियार बना लेती हैं ताकि समाज के अत्याचार का सामना कर पाएं। उनकी अस्थियों को मुर्झाए बासी फूलों की तरह  नदी में बहा दिया जाए इसके पहले ही वह अपनी तमाम शक्ति को समेटकर समवेत ढंग से समाज की मान्यताओं और उसके शोषण का मुकाबला करने का संकल्प लेती हैं। लेखिका इन तमाम ब्योरों के माध्यम से समाज की तमाम महिलाओं को यह संदेश देती हैं कि अगर उन्हें अपनी उन्नति का रास्ता प्रशस्त करना है तो अपनी एकजुटता को बनाए रखना है। पुरुषतांत्रिक समाज औरत को औरत की दुश्मन बनाकर उन्हें एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करके , लड़ाते हुए बंदर की तरह उनके झगड़ों का फैसला करता है और औरतें उसके फैसले को नतमस्तक होकर स्वीकारती हुई अपनी अस्मिता के सवाल को भूल जाती हैं। जब तक स्त्रियां इन हथकंडों को पहचानकर सतर्क नहीं होंगी उनकी स्थिति और नियति में बदलाव नहीं आएगा। अल्पना अपने उपन्यास की स्त्री पात्रों को एकजुटता का महत्व समझाती हुई संगठित होकर लड़ने और जूझने का मंत्र देती हैं।

आलोच्य उपन्यास में झारखंडी संस्कृति और उसकी विशेषताओं को पूरी समग्रता से उभारा गया है और वह सांस्कृतिक पहचान किस तरह तथापि आधुनिकीकरण और छद्म विकास के नाम पर योजनाबद्ध ढंग से धीरे धीरे धूमिल कर दी गई इसे लेखिका ने सूक्ष्मता से अंकित किया है। जिस आदिवासी संस्कृति को सम्मानपूर्वक जीवित रखने के लिए सिधू कानू जैसे लोकनायकों ने अपनी जान की बाजी लगा दी थी वही भूमि अपने सौंदर्य और स्वातंत्र्य को  खोकर किस तरह दोहन का शिकार होती है उसके संकेत भी स्थान -स्थान पर मिलते हैं। बाद की पीढ़ी के बहुत से आंदोलनकारी जो अपनी जमीन और अस्मिता की लड़ाई में अपने प्राणों तक की परवाह न करते हुए दर -दर भटकने को मजबूर हुए उन्होंने अपनी आंखों के आगे अपने आंदोलन को लक्ष्यभ्रष्ट होते और जमीन से जुड़े लोगों को बर्बाद होते हुए भी देखा। बीजू जैसे स्थानीय लोगों के सवालों का कोई जवाब इन जननेताओं के पास नहीं था क्योंकि उनके आंदोलन को बड़ी चालकी से 'हाईजैक' कर लिया गया था। स्थानीय लोगों को उनकी ही जमीन और प्राकृतिक संसाधनों से इस तरह बेदखल कर दिया गया था कि कभी आत्मसम्मान की लड़ाई लड़नेवाले अपने घर का सम्मान तक बचाने में असमर्थ हो गये थे। जिस तरह आदिवासी लोककथा का पिता हल के फाल के लिए बाघ के साथ अपनी बेटी के मांस का सौदा कर लेता है उसी तरह झारखण्ड जैसे हरे भरे प्राकृतिक परिवेश में रहनेवाले बेबस पिता अपने पेट की भूख के लिए अपनी बेटियों का सौदा झूठे ब्याह के नाम पर करके, यह सोचकर अपने मन को तसल्ली दे लेते थे कि बेटी जहाँ भी रहेगी सुख से रहेगी और कम से कम भूखे पेट तो नहीं सोएगी। भले ही वह बेटी वहाँ तिल तिलकर मरने को अभिशप्त हो। जिसे सिर्फ शारीरिक भूख मिटाने और अपने सम्मान को बढ़ाने का माध्यम मात्र माना जाए। खरीदने में जितना अधिक धन व्यय हुआ खरीददारों का अहम उतना ही ऊंचा हुआ। और इन बहुओं को पुकारने का तरीका भी कितना अमानवीय था, "मोलकी" अर्थात मोल ली गई, खरीदकर लाई गई। और एक "मोलकी" परिवार के तमाम पुरुषों की भूख शांत करने को मजबूर। उसपर तुर्रा यह कि भले ही अपने प्रांत में लड़कियों का अकाल हो, लेकिन अपने घर में बेटी नहीं पैदा होनी चाहिये। सिर्फ बेटे को ही जन्म लेने का अधिकार है भले ही उसके इंतज़ार में असंख्य बेटियों का गला कोख में ही घोंट दिया जाए। इनारा जैसी औरतें गर्भपात कराते कराते मरणासन्न हो जाती है, साथ ही देश के कई हिस्सों में स्त्री- पुरुष के बीच का आंकड़ा लगातार विषम होता जाता है।

इस उपन्यास की एक बड़ी खासियत है कि इसमें सिर्फ झारखंड , वहाँ के बिखरते परिवार, रोजगार विहीन पुरुष और शोषित प्रताड़ित स्त्रियों की कथा ही नहीं है बल्कि देश के वर्तमान परिदृश्य की अस्थिरता, राजनीतिक भटकाव और भारतीय राजनीति की मूल्यहीनता के साथ प्रशासन में अंदर तक पैवस्त भ्रष्टाचार , अमानवीयता और मूल्यहीनता को गहराई से उकेरा गया है। ऐसा नहीं कि सारे लोग बुरे हैं , कुछ लोग इस सिस्टम की सफाई करने की कोशिश भी करते हैं लेकिन या तो उनका स्थानांतरण कर दिया जाता है या फिर हत्या। आंदोलनकारियों को नक्सली बताकर जेल में ठूंस देने से लेकर उनपर अवर्णनीय अत्याचार करने और अंततः उनकी हत्या या एनकाउंटर कर देने की घटनाएं सिर्फ इतिहास में ही नहीं घटती थीं, आज भी घटती हैं और आनेवाले समय में इनमें और बढ़ोत्तरी होगी, इसके संकेत हमें उपन्यास में मिलते हैं। सोनी सोरी की याद दिलाती मणिमाला सोरी या बहनजी का दर्दनाक हश्र स्थानीय निवासियों को ही नहीं पाठकों को भी हतप्रभ कर देता है। पुलिसकर्मियों की दरिंदगी भी सिर्फ चौंकाती नहीं मानस को क्षत विक्षत कर देती है जो रक्षक की पोशाक में भक्षक बनकर रिश्तों और कर्तव्य की भी हत्या करते दिखाई देते हैं। जिन स्कूली बच्चियों ने उनकी कलाई पर बड़े स्नेह और भरोसे से राखी बांधी थी उन्हीं की अस्मिता को तार -तार करते हुए इन नरभक्षकों को जरा भी अपराध बोध नहीं होता। ऐसी घटनाएं असली जिंदगी में भी देखने/ सुनने में आती  हैं। शायद यही कारण है कि तमाम कानून बनने के बावजूद अपराध कम होने का नाम ही नहीं लेते।

  देश की वर्तमान स्थिति को विश्वसनीयता से पाठकों के सामने उकेरती हुई अल्पना विकास की राह पर तेजी से बढ़ते देश के चमचमाते गौरव चिह्नों के ठीक नीचे पसरते नारकीय बाजार की भयावहता को भी  रेखांकित करती हैं जहाँ कुछ लोग खरीददार थे तो कुछ बिचौलिए जिनके बलबूते बाजार लगातार जमता और चमकता जाता है तो कुछ लोगों की नियति महज बिकने को मजबूर सामानों की है। इस बाजार में सब कुछ बिकता है, ईमान भी। भले ही आजाद भारत में गुलामी की प्रथा का अंत हो गया हो और गुलामों की खरीद फरोख्त भी लेकिन भारत की छोटी बड़ी मंडियों में यह सिलसिला खुलेआम जारी है, इसकी झलक आलोच्य उपन्यास में भी मिलती है-

"कितनी टोकरियों में मनुष्य के अंग बिक रहे हैं....

एकदम ताजा किडनी

ताजा लीवर

धड़ धड़ धड़कता दिल

टक टक ताकती आंखें...

टटका दिमाग....

टह टह ताजे सपने

टोकरियों में सपने बिक रहे हैं....!

ताजे फूल - !

शवयात्राओं से उठा कर लाए गए फूल...

लोग उसे सजा रहे हैं

अपने घरों में !!!"

 

 अल्पना अगर इन भयावह स्थितियों का जीवंत वर्णन करती  हैं उनसे मुक्ति या स्थितियों के बदलाव की ओर भी संजीदगी से संकेत करती हैं। एक ओर जुझारू वकील और स्त्री अधिकारों के लिए लड़नेवाली संध्या और उसकी दीदी पद्मजा स्थितियों को बदलने की कोशिश में लगी हुई हैं। उनपर हमले होते हैं, शरीर घायल और अपंग हो जाता है लेकिन हिम्मत बनी रहती है और संघर्ष जारी रहता है। दूसरी ओर शोषित स्त्रियों को संगठित होकर अपनी लड़ाई खुद लड़ने का हौसला भी दिया गया है। अस्सी के दशक में स्त्री आंदोलनकारियों के बीच एक नारा बहुत जोर -शोर से गूंजा था-  "हम भारत की नारी हैं फूल नहीं चिंगारी हैं।"

ठीक इसी तरह उपन्यास की शोषित और मजलूम औरतें स्थितियों को बदल डालने का संकल्प लेती हैं और अपनी कमजोरी से मुक्ति पाकर शोषण के अनवरत चक्र को समाप्त करने के लिए विद्रोह की मशाल जलाने का साहस करती हैं। वह ठान लेती हैं कि असहाय स्त्रियों को बेचने -खरीदने के सिलसिले को हर हाल में बंद करके रहेंगी और अपनी गुलामी से अपने दम पर मुक्ति पाएंगी-

" टोकरी में बिकने को बैठी पलाश इनारा पिंकी गनेशी...गोल भवन की सीढ़ियों पर अपने जिस्म की खाल को नोंच नोंच कर अलग कर रही हैं... मांस को खुरच खुरच कर फेंक रही हैं। अपनी हड्डियों को नुकीला कर रही हैं....वहाँ बहुत से गिद्ध जो इनके जिस्म को नोंच नोंच कर खाने को आतुर थे, अब वे भयभीत हैं। उनकी आंखों में वासना की लहरें नहीं, बल्कि लड़कियों के अपनी हड्डियों से हथियार बना लेने के इरादे से खौफ छा गया है।

लड़कियों ने अपने जिस्म से खाल और मांस नोंचकर हड्डियों से हथियार बना लिया है । वे इन हथियारों की बदौलत अपने सपनखोरों के साथ जंग को तैयार हैं।।"

रोते हुए शिशुओं और संसद के बीच पल पल दूरी कम होती जा रही है।"

देवासुर संग्राम में ऋषि दधीचि की हड्डियों से बने वज्र से देवराज इन्द्र ने वृत्रासुर नामक राक्षस का वध किया था लेकिन व्यवस्था के खिलाफ एकजुट इन स्त्रियों को किसी देवराज की आवश्यकता नहीं है। अपने हथियारों के साथ वह उस हर तथाकथित देवता, इंसान या राक्षस पर धावा बोलने को तैयार हैं जिसने उनसे और उनके बच्चों से सम्मान सहित जीने का हक छीन लिया है। हर व्यक्ति को अपने अधिकारों की लड़ाई खुद लड़नी पड़ती है और आलोच्य उपन्यास की शोषित और संतप्त औरतें भी अपने बच्चों को उनका प्राप्य दिलाने के लिए, उनके रुदन को मुस्कान में बदलने के लिए उनका हाथ थामकर लंबी पर निर्णायक लड़ाई के लिए सनद्ध हो जाती हैं।

Sunday, August 2, 2020

अपने शब्दों में सेरेना विलियम्स

यह हमारे लिए गर्व की बात है कि वर्ष 2008 के आस-पास इंटरनेट की दुनिया में अपने लिखे हुए के प्रकाशन के लिए यादवेन्द्र जी ने सर्वप्रथम इस ब्लाग को ही चुना। दूसरी भाषओं के अनुवाद ही नहीं, यादवेन्द्र जी की रचनाएं भी इस ब्लाग को तब से ही समृद्ध करती रही हैं।

इस दौरान अनुवादों पर आधारित उनकी दो किताबें प्रकाशित हुई हैं।

हिंदी की दुनिया यादवेन्द्र जी को उनके अनुवादों की वजह से ही नहीं, उनके विषय चयन से भी पहचानती है। टेनिस खिलाड़ी सेरेना विलियम्स के जीवन संघर्ष का ब्योरा प्रस्तुत करने की कोशिश उनकी अगली पुस्तक का विषय है।

प्रस्तुत है संभावना प्रकाशन,हापुड़ से इस साल के अंत तक प्रकाशित होने वाली उनकी किताब का एक अंश।

यादवेन्द्र

 

हालाँकि सेरेना अपने बारे में व्यक्तिगत विवरणों का ज्यादा खुलासा करने की अभ्यस्त नहीं हैं फिर भी मीडिया में उपलब्ध उनके कुछ इंटरव्यू से लिए गए उद्धरणों के आधार पर उनकी शख्सियत को समझना कुछ कुछ संभव है : 

 

वैसे मैं बहुत साफ तौर पर तो नहीं जानती लेकिन मुझे लगता है कि मैंने जब से होश संभाला तब से मुझे मालूम है कि मैं काली हूं। जिस दिन से मैं टेनिस की दुनिया  में आई हूँ  उस दिन से मुझे ऐसा ही लगता है। जब हम छोटे थे उस समय के बारे में बताती हूँ : हम घर से बाहर निकल कर पास के पार्क में जाते थे जहाँ  हम खेलने की प्रैक्टिस करते थे। उन पार्कों में हमें हमेशा गोरे लोग दिखाई देते थे , शायद ही कोई काला इंसान दिखाई देता था...वे वहाँ  टेनिस खेला करते थे। जहाँ  तक मेरी स्मृति जाती है, मुझे लगता है कि शुरू से मुझे मालूम था : मैं काली हूँ । मुझे यह भी मालूम था कि मैं औरों से थोड़ी अलग हूँ , जो मैं कर रही हूँ वह औरों से कुछ अलग है। हमारे साथ हमारा परिवार होता था, वीनस होती थी हमारी अन्य बहनें भी होती थीं।एक बार की बात याद आती है जब मैं और वीनस प्रैक्टिस कर रहे थे, आसपास के तमाम गोरे लड़के हमारे पास आये और हमें घेर कर खड़े हो गए -वे ब्लैकी ब्लैकी कह कर हमें चिढ़ाने लगे।तब मेरी उम्र सात साल के करीब रही होगी... मुझे अच्छी तरह याद है,उनका चिढाना सुन कर मेरे मन में निश्चय आया : मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता,तुम्हें जो कहना हो कहते रहो। अब सोचती हूँ तो लगता है कि उस उम्र में ऐसी बातें सोचना बहुत सामान्य नहीं था, उसके लिए बहुत हिम्मत चाहिए.... वह हिम्मत मुझ में शुरू से ही थी।

 

मेरे माता पिता शुरू से यह चाहते थे और हमें सिखाते थे कि हम जो हैं जैसे हैं,उसके लिए हमारे मनों में किसी तरह की शर्मिंदगी नहीं बल्कि गर्व का भाव होना चाहिए।      अफ़सोस यह कि अपने आसपास हम देखते हैं बहुत सारे काले लोगों -खास तौर पर युवाओं  को -हर पल यह कह कर निरुत्साहित किया जाता रहता है कि तुम बदसूरत हो...तुम्हारे केश भद्दे लगते हैं...तुम्हारी त्वचा कितनी काली है। हमें शुरू से खुद को प्यार करना, खुद को सम्मान देना सिखाया गया। मेरे डैड हमेशा कहते कि तुम्हें अपना इतिहास अपनी विरासत जाननी चाहिए - जो अपनी विरासत  अपना इतिहास जानता है वही अपने भविष्य को महान ऊँचाइयों तक ले जा सकता है। हम लोगों को शुरू से टीवी पर अपने इतिहास, अपने संघर्षों, अपने विरासत के प्रोग्राम देखने को कहा जाता था .......एलेक्स हेली के आत्मकथात्मक उपन्यास पर आधारित रूट्स जैसे प्रोग्राम - इस तरह के कार्यक्रम हम जरूर देखते थे और ढूंढ ढूंढ कर देखते थे जिससे हम अपने इतिहास से रू ब रू हो सकें। जब आप अपने पुरखों को इस तरह के संघर्षों से जूझते हुए विजयी होकर निकलते हुए देखते हैं तब आपका मन गर्व से भर जाता है और भविष्य के लिए रास्ते खुलते हैं। माया एंजेलू ने भी तो अपनी कविता में कहा है: हम गुलामों की उम्मीदें हैं, हम गुलामों के सपने हैं। यह पता चलने के बाद कि अपने पुरखों के ऐसे कठिन संघर्षों की बदौलत आज हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं और ढ़ंग की जिंदगी जी रहे हैं , मैं काले रंग के अलावा किसी और रंग में जन्म नहीं लेना चाहती। किसी और कुल वंश (रेस) का  सैकड़ों सैकड़ों सालों का ऐसा कठिन संघर्ष का इतिहास नहीं रहा है और यह तो जगजाहिर है कि मजबूत इंसान ही काल के थपेड़ों को झेल कर जिंदा बच पाते हैं,पनप पाते हैं - कोई शक नहीं कि हम काले लोग शरीर और मन दोनों से सबसे मजबूत लोग हैं।अपने जीवन के पल पल मैं अपना काला रंग धारण कर के गौरवान्वित महसूस करती हूं।

 

वीनस ने और  मैंने टेनिस की दुनिया में जब से कदम रखा है सफलता हमारे पक्ष में रही है और हम दोनों एक के बाद एक अगली  सीढ़ी पर चढ़ते गए हैं। हम दोनों में एक और बात समान थी कि हम अपने किए को लेकर कभी किसी तरह की शर्मिंदगी नहीं महसूस करते थे।हम अपने केशों में जिस तरह की लड़ियाँ  बनाते थे उसको लेकर हमें कभी यह नहीं लगा कि घर से बाहर निकलेंगे तो कैसा लगेगा। गोरों की दुनिया का खेल है टेनिस और हम काले थे लेकिन हमें कभी उनके बीच रहकर खेलते हुए डर नहीं लगता...यह कोई सहज सामान्य बात नहीं थी पर हममें थी।

 

हमारी माँ ने हमें बचपन से भावनात्मक रूप से मजबूत बनाया जिससे जब दर्शक हमारे काले होने या स्त्री होने को लेकर फब्तियाँ  कसें या हमें निशाना बनाएँ तो मालूम हो हमें उससे कैसे निबटना है। उन्होंने हमें यह पाठ पढ़ाया कि हम जैसे हैं  उस पर किसी तरह की शर्मिंदगी न महसूस करें - खास तौर पर अपने केश और शारीरिक बनावट को लेकर , अपनी विरासत, अपने पुरखों के संघर्ष को लेकर मन में निरंतर गर्व का भाव महसूस करें। मुझे उनकी परवरिश का यह पक्ष सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है। मैं अपनी बेटी को इन्हीं मूल्यों के साथ बड़ा कर रही हूँ ।

 

 जब मैं किसी काम को हाथ लगाती हूँ  तो उतना फोकस अपने काम में लाती हूँ  जिससे मैं दुनिया में सर्वश्रेष्ठ बन जाऊँ - और ऐसा नहीं कि मैं इतने से संतुष्ट हो जाती हूँ   बल्कि निरंतर और बेहतर काम करने की कोशिश करती हूँ । काफी कम उम्र में - जहाँ  तक मुझे याद आता है 17 साल की उम्र में - मैंने अपने बारे में अखबारों में छपा कोई समाचार पढ़ना छोड़ दिया था।मुझे लगता है कि इस आत्मसंयम के कारण मुझे बहुत लाभ हुआ, मैं अपने खेल पर ज्यादा फोकस कर पाई। मैं उन दिनों को याद करती हूँ तो मुझे लगता है  मेरे खेल की ज्यादा नुक्ताचीनी इस लिए की जाती थी क्योंकि मैं मुझमें आत्मविश्वास कूट कूट कर भरा हुआ था - लोगों को ताज्जुब होता था मैं गोरी नहीं बल्कि काली हूँ , गोरों का खेल टेनिस खेलती हूँ  और आत्मविश्वास से इतनी लबरेज हूँ , ऐसा कैसे हो सकता है?

 

मैं अपने आप को हमेशा यह कहती थी कि मैं एक दिन दुनिया की नंबर एक टेनिस खिलाड़ी बनूँगी, मुझ में वह काबिलियत है। और हाँ मैं क्यों न सोचूँ  ऐसा - जब मैं दुनिया के शिखर पर होने के बारे में सोचूँगी ही नहीं तो मैं उस श्रेणी का खेल खेल भला कैसे सकती हूँ ?

 

एक समय ऐसा था जब अपने शरीर को लेकर मैं खुद भी असहज रहती थी, मुझे लगता था कि मैं बहुत बलवान और हृष्ट पुष्ट हूँ । फिर एक सेकंड को सोचती: कौन कहता है कि मैं इतनी बलवान और तगड़ी हूँ ? इसी शरीर ने तो मुझे दुनिया का महानतम खिलाड़ी बनाया, मैं उसके बारे में ऐसी ऊल जलूल बातें भला क्यों सोचने लगी।और आज मेरा यही शरीर एक स्टाइल बन गया है, मुझे इसके बारे में सोच सोच कर बहुत अच्छा लगता है। अब वह समय आ गया है जब मेरा यही शरीर दुनिया भर में एक स्टाइल बन कर धूम मचा रहा है। यहाँ  तक पहुँचने में वक्त लगा - जब मैं पीछे मुड़ के देखती हूँ  तो अपने अपनी मॉम और डैड का शुक्रिया अदा करना कभी नहीं भूलती जिन्होंने बचपन से मुझ में विश्वास कूट कूट कर भरा।

ऐसा भी तो हो सकता था कि वे  रंग,केश और शरीर को लेकर मुझे औरों की तरह हतोत्साहित करते... तब तो मैं आज जिस सीढ़ी पर हूँ  वहाँ  तक पहुँचने का कोई सवाल ही नहीं होता। तब मैं अलग तरह से अपना जीवन जीती,अलग ढंग की एक्सरसाइज करती, कोई और अलग ही काम कर सकती थी। आज यहाँ खड़े होकर मैं जो कुछ भी हूँ , जैसी भी हूँ  उसको लेकर  बेहद खुश हूँ ,जिन लोगों ने मुझे इस मुकाम तक पहुँचने में मदद की उनकी  शुक्रगुजार हूँ । मुझे इस रूप में ऐसा होना बहुत रास आ रहा है, यहाँ खड़ी होकर मैं बेहतर और शक्ति संपन्न महसूस कर रही हूँ।"

 

अपनी आत्मकथा "क्वीन ऑफ़ द कोर्ट : ऐन ऑटोबायोग्राफ़ी" में सेरेना विलियम्स बचपन का उदहारण देती हैं कि अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने की धुन मेरे  ऊपर इस कदर सवार थी कि प्रेरक उद्धरणों को कागज़ पर लिख कर मैं  अक्सर अपने रैकेट बैग के ऊपर उन्हें चिपका देती स्व मार्टिन लूथर किंग जूनियर का यह उद्धरण मुझे  बेहद प्रिय था :" अपने भावों को चेहरे पर मत आने दो तुम काले हो और तुममें कुछ भी झेल लेने की कूबत है ....डटे रहो डिगो नहीं ,झेल लो जो भी सामने आये .... बस तन कर खड़े रहो। " और "शक्तिशाली बनो काले हो तो क्या हुआ अब तुम्हारे चमकने निखरने का वक्त आ गया है अपनी श्रेष्ठता पर भरोसा रखो। लोग तुम्हें क्रोधित देखना चाहते हैं .... क्रोध करो,पर ऐसे करो कि लोगों को यह आग दिखायी न दे।" 

जाहिर है उन्हें अपनी ऐतिहासिक भूमिका और जिम्मेदारी का भरपूर एहसास है तभी तो वे कहती हैं :"मैं खुद के लिए खेलती हूँ पर साथ साथ उनके लिए भी खेलती हूँ जिनकी हैसियत मुझसे ज्यादा बड़ी है - मैं उनका प्रतिनिधित्व भी करती हूँ। मैं अपने बाद आने वाली पीढ़ी के लिए भी दरवाज़े खोलती हूँ।"

 

(सेरेना की तस्‍वीरें इंटरनेट से साभार ली जा रही हैं)


Friday, July 17, 2020

थके न जो, डिगे न जो


 राधाकृष्ण कुकरेती-स्मृति दिवस 
15 सितंबर 1935 -17 जुलाई 2015

अरविंद शेखर


किसी भी व्यक्ति के निर्माण में उसके जीवन में घटी घटनाओं और अनुभव का योगदान होता है। गौतम बुद्ध ने बूढ़े बीमार और मृत व्यक्तियों को देखने के बाद अनुभव किया था कि जीवन का सुख भौतिक पदार्थों के उपभोग में नहीं है। मानव जीवन को दुखों से मुक्त करने के लिए वे संन्यासी हो गए। राधा कृष्ण कुकरेती ने भी बचपन में और किशोरावस्था में साहूकार के कर्ज तले रिरियाते गरीब किसानों को देखा। लेकिन उनमें वैराग्य नहीं पैदा हुआ बल्कि उन्होंने उस विचार को अपनाया जो केवल यही व्याख्या नहीं करता था कि दुनिया ऐसी क्यों है बल्कि यह राह भी सुझाता था कि दुनिया कैसे बदल सकती है। संभवत: समाजवाद या यूं कहें कि मार्क्सवाद ही ऐसा विचार था जिसने कि पहाड़ के एक सीधे-साधे युवक को उसने अपने साहूकार पिता के देहांत के बाद तमाम कर्ज के पट्टे स्टांप पेपर और बही खाते आग में झोंक कर स्वाहा करने के लिए प्रेरित कियाताकि उनके कर्ज में डूबे किसान कर्ज के बोझ से आजाद हो सकें।
15 सितंबर 1935 को पौड़ी जिले की उदयपुर पट्टी के नौगांव में जन्मे राधा कृष्ण कुकरेती के पिता महानंद कुकरेती इलाके के साहूकार थे । माता गौरा देवी सामान्य पहाड़ी गृहणी। पिता उन्हें उनका पुश्तैनी धंधा सिखाने के लिए लोगों से वसूली को भेजते। मगर कर्ज लेकर गरीबी के कारण उसे न चुका सकने की हालत वाले किसानों के कष्टप्रद हालात उनसे देखे न जाते। सोचते इन लोगों को उनके दुखों से निजात कैसे मिलेगी। गरीबों के प्रति करुणा से भरे राधा कृष्ण बिना वसूली ही घर लौट आते। पिता का यह व्यवसाय उन्हें रास न आया। समय भी देश— दुनिया में समाजवादी विचारधारा के उदय और उत्कर्ष का था। 1917 की रूस की बोल्शेविक क्रांति को हुए कुछ ही दशक बीते थे। नई प्रगतिशील सामाजिक चेतना अंगड़ाई ले रही थी। छात्र जीवन में ही राधा कृष्ण कुकरेती को भी दुनियां के हालात बदल देने की उम्मीद जगाने वाला भौतिकवादी दर्शन मार्क्सवाद पसंद आया जिसे उन्होंने जीवन पर्यंत अपनाए रखा। विचार के रूप में भी और व्यवहार के रूप में भी। 
15 अगस्त 1981 को नया जमाना के रजत जयंती विशेषांक के संपादकीय में उन्होंने लिखा भी— “ मैं अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह समझता हूं कि छात्र जीवन से ही साम्यवादी दर्शन से जुड़ा तो फिर जुड़ा ही रह गया। नि: संकोच कहता हूं कि उसी दर्शन ने प्रतिबद्धता के साथ शोषितपीडि़त इंसान के संघर्षों में खड़े रहने की शक्ति दी और नया जमाना के माध्यम से भी जूझने को प्रेरित कियाहताशा की स्थिति में कभी टूटने नहीं दिया।
पत्रकारवामपंथी कार्यकर्ता विचारक और साहित्यकार राधा कृष्ण कुकरेती ने कक्षा दो तक की पढ़ाई अपने गांव के पास के स्कूल में ही की थी। उसके बाद दर्जा चार तक की पढ़ाई उन्होंने अपने ननिहाल अमला में की। पिता साहूकार थे मगर खुद्दार राधा कृष्ण ने ऋषिकेश में ट्यूशन पढ़ा कर आठवें दर्जे तक पढ़ाई की और हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए देहरादून के तब के इस्लामिया हाईस्कूल देहरादून में दाखिला ले लिया। इस्लामिया स्कूल को आज गांधी इंटर कॉलेज के नाम से जाना जाता है। इसके बाद आगे की यानी इंटर की पढ़ाई के लिए उन्होंने काशीपुर का रुख किया। इंटर के दौरान ही उन्होंने जनजागृति नामक अखबार शुरू किया। इंटरमीडिएट पास करने बाद वे देहरादून आ गये।
छात्र जीवन के समय से ही वह कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ गए थे। देश की आजादी के बाद 1942 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से पाबंदी हटी तो वह उसके सदस्य बन गए। इसी आंदोलन की प्रेरणा से पहाड़ की पहाड़ सी समस्याओं से उद्वेलित राधा कृष्ण कुकरेती ने पहले साप्ताहिक कर्मभूमि और पर्वतीय में पहाड़ की समस्याओं को उठाना शुरू कर दिया। लेकिनबाद में खुद का अखबार निकालने का निश्चय किया। उन्होंने छात्र जीवन में ही काशीपुर से हरीश ढौंढियाल के साथ मिलकर जन जागृति’ नाम के अखबार प्रकाशित किया। अखबार के प्रकाशक थे नैनीताल भाकपा के जिला सचिव हरदासी लाल मेहरोत्रा। इस अखबार को वह एक साल यानी ( 1954 से 1955) ही चला पाए। मगर लगन के पक्के राधा कृष्ण कुकरेती 1956 में एक झोला और एक छोटी सी अटैची बगल में दबाए हुए कॉमरेड बृजेंद्र गुप्ता के घर पहुंचे और देहरादून से साप्ताहिक समाचार पत्र निकालने का इरादा जाहिर किया। तब के पार्टी नेता व बाद में विधायक चुने गए गोविंद सिंह नेगी को उनका इरादा हास्यास्पद सा लगा कि आखिर एक व्यक्ति जिसके पास पूंजी के नाम पर महज एक फटीचर अटैची और झोला हो वह अखबार कैसे निकाल पाएगा। मगर युवक का उत्साह वह कम नहीं करना चाहते थे नतीजतन कुछ नहीं कहा और सोचा कि कुछ दिन चक्कर काटेगा तो थक हारकर अखबार निकालने का नशा रफूचक्कर हो जाएगा।  लेकिन जिद के पक्के राधा कृष्ण कुकरेती ने 15 अगस्त 1956 से नया जमाना साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू कर दिया। नया जमाना नाम शायद उस वक्त भाकपा के मुख्यालय बंबई से निकलने वाले अखबार न्यू एज से प्रेरित था। बहरहालनया जमाना का यह पहला अंक युगवाणी प्रेस में छपा। इसके बाद एक दो अंक भास्कर प्रेस से छपे लेकिन दूसरे प्रेस से प्रकाशन की दिक्कतों को समझ उन्होंने अपनी प्रेस लगाने की ठानी और तीन महीने के बाद नया जमाना अपनी खुद की प्रेस से छपना शुरू हो गया। नया जमाना’ का प्रकाशनसम्पादन करने के साथ ही उन्होंने डीएवी कॉलेज में पढ़ाई भी जारी रखी और समाजशा स्त्र में एमए की डिग्री हासिल की। 1956 से शुरू हुआ शोषित समाज और उत्तराखंड के सरोकारों को आवाज देने की मिशनरी पत्रकारिता का यह सफर राजनीतिक उथलपुथलोंमुकदमेबाजी के तमाम संकटों के बावजूद निरंतर जारी रहा। अपने सफर में नया जमाना ने कभी विचारधारा की टेक नहीं छोड़ी। यह राधा कृष्ण कुकरेती की ही झंझावातों से टकराने की जिजीविषा थी कि नया जमाना ने अन्याय और शोषण के विरुद्ध कोई भी लड़ाई अधूरी नहीं छोड़ी। इस लड़ाई में नया जमाना को कई बार सत्ता का कोपभाजन बनना पड़ा। भ्रष्टाचार के मामलों के खुलासे पर कभी विज्ञापन बंद कर दिए गएप्रलोभन दिए गए। प्रेस में चोरियां तक हुईं। सारा का सारा टाइप चुरवा दिया गया। कई बार लगा कि नया जमाना डिग जाएगाकुकरेती टूट जाएंगे लेकिन व सच की लड़ाई की मशाल थामे रहे। 1957 में उप्र के वन उपमंत्री जगमोहन सिंह नेगी के लाखों के प्लॉट घोटाले को उजागर करने पर उनके अखबार पर छापा तक पड़ा। कुकरेती को संपादक प्रकाशक व मुद्रक की हैसियत से जिला अदालतों से लेकर उच्च न्यायालय तक के चक्कर काटने पड़े। करीब एक साल तक नया जमाना के विज्ञापन बंद कर दिए गए। उस वक्त एक ओर नया जमाना चीनी हमले का विरोध कर रहा था उधर उप्र सरकार ने नया जमाना को ब्लैक लिस्ट कर दिया। इस दौर में लगातार संघर्षों के थपेड़ों से उनकी हिम्मत चूकने लगी। 1959-60 के करीब रमेश सिन्हा व राजीव सक्सेना के संपादकत्व में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने लखनऊ से मासिक पत्रिका नया पथ का प्रकाशन शुरू किया था। इस वक्त राधा कृष्ण कुकरेती नया जमाना के साथ ही देश के तमाम पत्र-पत्रिकाआ में छप रहे थे। राजीव सक्सेना की निगाह उन पर पड़ी तो उन्होंने साथ काम करने का न्यौता दिया। तब महापंडित राहुल सांकृत्यायन नया पथ के सलाहकार संपादकों में थे। राधा कृष्ण कुकरेती को लगा कि नया पथ में काम किया जा सकता है वह दौड़े-दौड़े राहुल से सलाह लेने मसूरी चले गए। राहुल ने उनकी बात सुनी मगर कहा कि अगर वह पलायन कर लखनऊ चले गए तो नया जमाना के जरिए पर्वतीय क्षेत्र की जनता की आवाज कौन उठाएगा। कुछ अरसे बाद नया पथ बंद हो गया और राधा कृष्ण कुकरेती नया जमाना में मशगूल।
उत्तरकाशी का तिलोथ कांड को या बयाली का वन मजदूरों का आंदोलनटिहरी बांध के विस्थापितों की समस्याएं हों या तराई के भूमिहीनों का आंदोलन इन सभी संघर्षों को राधाकृष्ण कुकरेती नया जमाना के जरिए धार देते रहे। स्वामी रामदंडी का परदाफाश नया जमाना की पत्रकारिता की मिसाल है। इमरजेंसी के जमाने में जब सारे पत्र पत्रिकाएं सत्ता की ताकत के आगे अपने घुटने टेक रहे थे तो भी नया जमाना ने अपना आत्मसम्मान कायम रखा और लगातार जनता के पक्ष में लिखता रहा। 1966 में देहरादून के बीबीवाला और गुमानीवाला के सात किसानों के शोषण के खिलाफ नया जमाना ने आवाज उठाई तो ऋषिकेश के जयराम अन्न क्षेत्र के संचालक मानद मजिस्ट्रेट व एक बड़े फार्म के मालिक महंत देवेंद्र स्वरूप ब्रह्मचारी ने दफा 500 के तहत मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया। लेकिन तबके अतिरिक्त जिलाधीश ज्युडिशियल एसएस फैंथम ने नया जमाना की मुहिम को सराहा और साफ किया कि अभियोगी ऑनरेरी मजिस्ट्रेट है। .. निसंदेह यह जनहित में है कि एसे व्यक्ति का असली चरित्र और कारनामे जनता के सामने लाए जाएं। फैसला नया जमाना के हक में हुआ। मुकदमे के बाद सभी किसान नया जमाना के जरिए कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ गए। 1968 में उत्तरकाशी के कुछ कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने लाइसेंस परमिट चोरी का भंडाफोड़ किया तो प्रशासन ने उन्हें नजरबंद कर दिया। उनके साथ अन्यायपूर्ण सलूक को नया जमाना ने खुलकर छापा। अब यह लड़ाई सीधे जनता और भ्रष्ट प्रशासन के बीच का लड़ाई बन गई। नतीजा यह हुआ कि नया जमाना के संपादक राधा कृष्ण कुकरेती व दूसरे कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं पर एसडीएम कोर्ट की मानहानि का आरोप लगाते हुए हाईकोर्ट में मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया गया। लेकिन प्रशासन की हार हुई। इलाहाबाद हाई कोर्ट जस्टिस ब्रह्मानंद काटजू ने जो फैसला दिया वह प्रशासन के लिए कड़ा सबक था। रिश्ते नातों और पहचान को उन्होंने कभी पत्रकारिता पर हावी नहीं होने दिया। उस जमाने में महंत इेंश चरण दास कुकरेती देहरादून के बड़े कांग्रेस नेता और बहुत प्रभावशाली व्यक्ति हुआ करते थे। जब देश के तत्कालीन गृह मंत्री व उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री पं. गोविंद बल्लभ पंत का निधन हुआ तो पूरे देश में राजकीय शोक घोषित हुआ था। उसी दिन श्री गुरु राम राय दरबार साहिब में झंडा चढ़ाया जा रहा था। इस पर राधा कृष्णकुकरेती ने नया जमाना में तल्ख शीर्षक के साथ टिप्पणी की। जहां सारे देश में राष्ट्रीय झंडा  झुकाया जा रहा था वहीं दरबार साहिब में झंडा चढ़ाया जा रहा था। यह उन्होंने तब लिखा जब महंत इेंश चरण दास से उनके बहुत अच्छे निजी संबंध थे।
राधा कृष्ण कुकरेती ने जब नया जमाना शुरू किया तब उसमें बंशीलाल पुंडीर और राधा कृष्ण कुकरेती के अध्यापक और मार्गदर्शक आचार्य दामोदर प्रसाद थपलियाल की बड़ी अहम भूमिका रही। ये दोनो बरसों तक नया जमाना के संपादक मंडल में रहे। आचार्य दामोदर प्रसाद थपलियाल लोकायन नाम से तो बंशीलाल पुंडीर अपने ही नाम के साथ। हालांकि नया जमाना को बहुत से लोग अपने लेखखबरें और रचनाएंभेजते थे मगर राधा कृष्ण कुकरेती यानी एकोहम बहुष्यामि। वह ऐसे संपादक थे जो खुद ही अपने अखबार के लिए रिपोर्टिंग भी करतेविज्ञापन भी जुटातेसंपादन भी करतेकंपोजिंग भी करते और अखबार डिस्पैच भी खुद करते थे। इतना ही नहीं अखबार का प्रसार बढ़ाने के लिए पाठक भी जुटातेखुद ही चंदे की रसीद काटते। जब तक राधा कृष्ण कुकरेती जीवित और वह खुद अपने अखबार का काम देखते रहे देहरादून की कचहरी रोड स्थित उनके अखबार का दफ्तर यानी नया जमाना प्रेस’ में उत्तराखंड के प्रगतिशील बुद्धिजीवी रचनाकार एक बार उनसे मिलने जरूर जाते थे।
राधा कृष्ण  कुकरेती जब 14 क्रॉस रोड में एक फौजी अफसर के घर रहते थे तब वीर चंद्र सिंह गढ़वाली का डेरा उन्हीं के घर में लगता था। जब महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की जीवनी लिखी तो गढ़वाली उन दिनों राधा कृष्ण कुकरेती के साथ ही रहा करते थे। 1953—54 से ही वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पहले महासचिव कामरेड पीसी जोशी के संपर्क में थे। कामरेड पीसी जोशी ने ही सबसे पहले अलग पर्वतीय राज्य का नारा दिया। तब कुकरेती के घर हिंदी के जाने माने कथाकार रमा प्रसाद घिल्डियाल पहाड़ी और एनडी सुंदरियाल आदि न जाने कितने लोग डेरा जमाते। यहां और नया जमाना के दफ्तर में लगातार सिगरेट के कश लेते हुए राधा कृष्ण कुकरेतीमिलने आने वालों से घंटों बतियाते।

महज पत्रकार नहीं प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट संगठनकर्ता भी
राधा कृष्ण कुकरेती महज पत्रकार नहीं थे वह प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट संगठनकर्ता भी थे। उनमें संगठन की क्षमता भी गजब की थी। साम्यवादी विचारधारा ने उन्हें छात्रोंखेतिहर मजदूरोंपत्रकारों तक को संगठित करने की प्रेरणा दी। उन्होंने हिल स्टूडेंट यूनियन के गठन में भी अहम भूमिका निभाई थी। 14 अक्टूबर 1969 की बात है। मसूरी के सेवाय होटल में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्र भानु गुप्त की अध्यक्षता में पर्वतीय परिषद की बैठक चल रही थी। वहां पेशावर विद्रोह के महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली दूधातोली में उत्तराखंड विश्वविद्यालय की मांग उठाने के लिए पहुंचे थे। अकेले गढ़वाली को मानव दीवार बना कर पुलिस व प्रशासन ने मुख्यमंत्री से मिलने न दिया। चंद्र सिंह गढ़वाली ने अपना भोंपू निकाला और उसके जरिए अपनी आवाज मुख्यमंत्री तक पहुंचाने लगे। तभी देहरादून से राधा कृष्ण कुकरेती के नेतृत्व में करीब डेढ़ दर्जन छात्र व युवा वहां पहुंच गए। वीर चंद्र सिंह गढ़वाली व उत्तराखंड विश्वविद्यालय जिंदाबाद के नारे लगाने लगे। मुख्यमंत्री का शाम का कार्यक्रम शरदोत्सव के उद्घाटन का था। इस बीच राधा कृष्ण कुकरेती ने स्थानीय ट्रेड यूनियनों से संपर्क किया और नयी रणनीति बनाई। शाम को जब चंद्र भानु गुप्त पैदल शरदोत्सव के उद्घाटन को निकले तो कुलड़ी की ओर से वीर चंद्र सिंह गढ़वाली घोड़े में सवार आ रहे थे साथ ही उनके साथी वीर चंद्र सिंह गढ़वाली व उत्तराखंड विश्वविद्यालय जिंदाबाद के नारे लग रहे थे। इसका असर यह हुआ कि जो भीड़ सीएम के साथ दिख रही थी, वह चंद्र सिंह गढ़वाली के साथ हो ली। उसके बाद एक कामयाब सभा भी हुई। सामाजिक राजनैतिक मूल्यों के प्रति राधा कृष्ण कुकरेती का समर्पण किस कदर था उसकी मिसाल है कोटद्वार में पृथक उत्तराखंड को लेकर हुआ सम्मेलन। इस सम्मेलन में टिहरी रियासत के भूतपूर्व नरेश मानवेंद्र शाह भी आमंत्रित थे। जब गढ़वाल के वरिष्ठ पत्रकार ने मानवेंद्र शाह को राजा कह कर संबोधित किया तो राधा कृष्ण कुकरेती ने तत्काल सख्त ऐतराज जताया और कहा कि अब मानवेंद्र शाह राजा नहीं रहे उन्हें राजा की उपाधि के साथ संबोधित नहीं किया जाना चाहिए। इस तरह उन्होंने बिना किसी हिचक लिहाज के सामंतवाद विरोधी विचार को व्यक्त किया। राधाकृष्ण कुकरेती ने सन 1952 भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली थी। बाद में सन् 1964 में जब भाकपा में टूट के बाद और एक नई भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) बनी तो वह मूल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ ही बने रहे। इस दौरान उन्होंने भारतसोवियत कल्चरल सोसाइटी के जिला सचिव के तौर पर उन्होंने सोवियत संघ की यात्रा भी की। बाद में भाकपा से कुछ मतभेदों के कारण वे श्रीपाद अमृतपाद डांगे की कम्युनिस्ट पार्टी में चले गये। लेकिन डांगे की मृत्यु के बाद भाकपा नेता समर भंडारी उन्हें फिर से उनकी मूल पार्टी भाकपा में लौटा लाए। 80 के दशक में राधा कृष्ण कुकरेती ने भाकपा के टिकट पर उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिये देहरादून शहर सीट से चुनाव भी लड़ा ।
सांगठनिक क्षमता के धनी राधा कृष्ण कुकरेती उत्तराखंड में श्रमजीवी पत्रकार संघ के संस्थापकों में से एक थे। तब या तो परिपूर्णानंद पैन्यूली या आचार्य गोपेश्वर कोठियाल यूनियन के जिला अध्यक्ष होते। यूनियन के प्रति राधा कृष्ण कुकरेती की प्रतिबद्धता और ट्रेड यूनियनों के उनके अनुभव के चलते उन्हें हर बार यूनियन का महामंत्री बनाया जाता। यूनियन की बैठकें हमेशा आचार्य गोपेश्वर कोठियाल की युगवाणी प्रेस में हुआ करती थीं। यही नहींकुकरेती विश्वंभर दत्त चंदोला शोध संस्थान के संस्थापकों में से भी एक थे। उन्होंने छोटे अखबारों को संगठित करने के लिये उत्तर प्रदेश स्मॉल न्यूजपेपर एसोसिएशन का गठन भी किया। बिना इस्तरी किए खादी का कुर्ता व पायजामा पहने रहने वाले राधा कृष्ण को शायद उनकी विचार धारा ने ही उन्हें सहजमिलनसारमददगार मानवीय और दूसरों के लिए लडऩे वाला बनाया था। माकपा के एक अविवाहित कॉमरेड थे मेला राम। पहले वह भी भाकपा में थे लेकिन 1964 में माकपा में चले गए। वह हमेशा माकपा के काम में जुटे रहते। मगर उनके रहने का कोई ठिकाना न था। उस जमाने में भाकपा व माकपा में काफी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता था। वह बहुत बीमार रहने लगे ऐसे में राजनीतिक वैचारिक मतभेद की परवाह किए बगैर राधा कृष्ण कुकरेती ने उनके लिए भाकपा के पल्टन बाजार स्थित दफ्तर में जगह बनाई। मेलाराम अधिक बीमार पड़े तो उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। उनकी  देखभाल करने वाला कोई परिजन न था। उनकी तीमारदारी में राधा कृष्ण कुकरेती ने कोई कोर कसर न छोड़ी। रोज दून अस्पताल जाते और घंटों समय बिताते। मेलाराम बाद में फिर भाकपा में शामिल हो गए थे। कॉमरेड मेलाराम के देहांत पर उन्होंने एक आम आदमी की मौत शीर्षक से लंबा अविस्मरणीय संस्मरण लिखा। साम्यवादी सिद्धांत के प्रति उनकी आस्था इतनी गहरी थी कि अपने जीवन में ही उन्होंने सोवियत संघ को विश्वशक्ति बनते देखाचीनकोरियाक्यूबावियतनाम में क्रांतियां प्रतिक्रांतियां होती देखीं सोवियत संघ को बिखरते देखावाम आंदोलन का प्रभाव कम होते देखा और दक्षिणपंथ का उभार भीमगर उनका विचारधारा से विश्वास नहीं डिगा।

एक कथाकार जिसका सही मूल्यांकन होना अभी शेष है
राधाकृष्ण कुकरेती उत्तराखंड के उन गिने चुने संपादकों में से थेजिन्होंने सिर्फ पत्रकारिता नहीं की बल्कि कहानियों के जरिए भी अपनी बात रखी। उनकी कहानियां एक दौर में सारिका जैसी नया पथ जैसी जानी मानी साहित्यिक पत्रिकाआें में प्रकाशित होती थीं। यह बात और है कि  उनके कथाकार को हिंदी साहित्य में वैसी पहचान नहीं मिल पाई जैसी कि मिलनी चाहिए थी। उनके पत्रकार और वामपंथी राजनैतिक सामाजिक  कार्यकर्ता और विचारक के व्यक्तित्व की छाया में उनके साहित्य का अब तक सही मूल्यांकन नहीं हुआ है। उनके साहित्यिक अवदान का मू्ल्यांकन होना अभी शेष हैजबकि वह पचास के दशक से ही लगातार कहानियां लिख रहे थे। हालांकि बाद के दौर में उनके कथा लेखन की रफ्तार कम हो गई। आंचलिकता से भरपूर उनकी कहानियों में उपेक्षित व वंचित पहाड़ की जिंदगी आकार लेती है । उनकी कहानियों में कहीं जाड हैं तो कहीं वनगूजर या जौनसारबावर की जिंदगी। संभवत: हिमालयी सरोकारों के पत्रकार होने के कारण ही ये सब उनके विषय बने। इंसाफ के मालिक राधा कृष्ण कुकरेती का पहला कथा संग्रह था। उसके बाद उनका घाटी की आवाजक्वांरी तोंगी व सरग दद्दा पाणिपाणि कथा संग्रह आए। उन्होंने सोवियत संघ की यात्रा के संस्मरण भी लिखे थे जो अब तक अप्रकाशित हैं। उनका जौनसार-बावर की पृष्ठभूमि पर लिखा एक एक पूरा उपन्यास किन्नर कन्या आज भी अप्रकाशित है। घाटी की आवाजें कथा संग्रह में राधा कृष्ण कुकरेती की 11 कहानियां शामिल हैं। इनमें किच्छ न जाणीमांस का पिंड-पाप का बोझगूजर की बेटी और पांच दिनराख का ढेरमसूरी की शामघाटी की आवाजेंएल्बमग्रेट इंडिया होटलशरारती स्मृतियांमोह की नाग फांस और पड़ोसवाली लडक़ी शामिल हैं। 1966 में प्रकाशित क्वांरी तोंगी संग्रह में 12 कहानियांखुबानी का पेड़मालापतिभूखा पेट-प्यासी चाहवह मेरी मंगेतर थीहब्शी का रोमांसक्वांरी तोंगीसवा रुपये का दस्तूर, ...और फिर मैं लौट आया, , मेरी बेटी जवान हैएक तंगसी कोठड़ी: एक बड़ा सा काटेजगृह उद्योग और ताला हैं। सरग दद्दा पाणि पाणि संग्रह में आठ कहानियां डडवार और गीत का टेरबदला हुआ चेहरासरग दद्दा पाणिपाणिलकड़ी का धर्मभोर का ताराअहा रणसूरा बाजा बजि गैनधरती का प्यार-भरती का मोहपांच बिस्वा जमीन कहानियां शामिल हैं। 
उनकी कहानियों और कथा शिल्प का महत्व इसी बात से समझा जा सकता है कि महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने लिखा—“ राधाकृष्ण कुकरेती जी की कहानियों में दिलचस्पी के साथ एक ताजगी मिलती है। इसका एक कारण तो यह भी है कि उनमें स्थानीय रंग बड़ी सुंदरता के साथ इस्तेमाल किया होता है। हिमालय ने हमें यशस्वी कवि और कथाकार दिए हैं। लेकिन वह स्थानीय रंग को भरने में संकोच करते हैं। तरुण कहानीकार कुकरेती इस बारे में उनसे भिन्नता रखते हैं।
मशहूर अफसानानिगार कृश्न चंदर ने भी राधा कृष्ण कुकरेती की भाषा शैली की खूब प्रशंसा की थी। उन्होंने लिखा कि राधाकृष्ण कुकरेती बात लिखने का ढंग खूब जानते हैं। सरल होते हुए भी उनकी शैली बहुत रोचक और मन को आकर्षित करने वाली है। किसी भी लेखक के लिए यह फख्र की बात है। ग्रेट इंडिया होटल कहानी के बारे में उन्होंने टिप्पणी की कि उसे पढक़र उन्हें जोला व मोपासां की याद आ गई।
जाने माने साहित्यकार इला चंद्र जोशी ने लिखा—“ निसंदेह लेखक में अच्छे कहानीकार बन सकने के बीज वर्तमान में है और उनकी व्यंग्यात्मक शैली चुभती हुई है। वह अधिक परिपक्व होगी तो उसमें और निखार आएगा। उनकी कहानियों में रोमांटिक पुट काफी रहने पर भी सहृदयतारोचकता और ताजगी की कोई कमी नहीं दिखाई देती।
प्रसिद्ध कथाकार रमा प्रसाद घिल्डियाल पहाड़ी ने भी लिखा –स्वतंत्रता के बाद सभी भाषाओं के मौलिक लेखकों में उत्साह आयाशासकों के शोषण के कारण बोलियों का साहित्य दबा हुआ थाउसने भी करवट ली। सभी देश प्रेमी साहित्यकारों के आगे राष्ट्रीय साहित्य के निर्माण का प्रश्न भी उठा। गढ़वाली जाति की अपनी संस्कृतिपरंपरा और इतिहास है। वहां के लेखक क्षेत्रीय साहित्य की उपज से हिंदी का भंडार भरने को उत्सुक हैं। श्री कुकरेती ने भी यह व्रत लिया है। घाटी की आवाजें हमारे जातीय साहित्य की परंपरा की सबल लड़ी है।

अंतिम सांस तक भी पहाड़ की पीड़ा
बाद के दिनों में राधा कृष्ण कुकरेती ने देहरादून में अजबपुर (मोथरोवाला रोड)में एक मकान खरीद लिया था। पुत्र पंकज के विवाह न करने से भी शायद वह अंदर ही अंदर घुलते थे। हालांकि अब पंकज ही नया जमाना संभाल रहे हैं। ढलती उम्र के साथ देह ने राधा कृष्ण कुकरेती का साथ देना बंद कर दियापारकिंसन की बीमारी हो गई । आंखों से दिखना कम हो गया तो सामाजिक गतिविधियां भी कम हो गईं। अंतिम सांस तक भी पहाड़ की पीड़ा रह रहकर उनकी जुबान पर आ जाती। पर्वतीय क्षेत्रों तक सुविधाएं कैसे पहुंचेगीपलायन से खाली होते पहाड़पहाड़ के विकास को लेकर अफसरशाही और राजनीतिज्ञों का उपेक्षापूर्ण व्यवहारविकराल होता जाता भ्रष्टाचारसांप्रदायिकता जैसे मुद्दे उन्हें सालते रहते। आखिरकार लंबी बीमारी के बाद 17 जुलाई 2015 को उन्होंने अंतिम सांस ली। राधा कृष्ण कुकरेती के हर सुखदुख में साथ देने वाली वृद्ध पत्नी इंदिरा कुकरेती आज अपने बेटी दामाद के साथ देहरादून में बंजारावाला में रहती हैं। वह उनका संबल भी थीं। राधा कृष्ण कुकरेती की इच्छा थी कि उनका अंतिम संस्कार लाल झंडे में लपेटकर बिना किसी कर्मकांड के हो मगर मृत्यु के बाद देह पर किसका बस होता है। नाते रिश्तेदारों की इच्छा के मुताबिक हरिद्वार में धार्मिक रीति रिवाजों से ही उनका दाह संस्कार हुआ।

पहाड़(20-21) स्मृति अंकः एक से साभार