यह हमारे लिए गर्व की बात है कि वर्ष 2008 के आस-पास इंटरनेट की दुनिया में अपने लिखे हुए के प्रकाशन के लिए यादवेन्द्र जी ने सर्वप्रथम इस ब्लाग को ही चुना। दूसरी भाषओं के अनुवाद ही नहीं, यादवेन्द्र जी की रचनाएं भी इस ब्लाग को तब से ही समृद्ध करती रही हैं। इस दौरान अनुवादों पर आधारित उनकी दो किताबें प्रकाशित हुई हैं। हिंदी की दुनिया यादवेन्द्र जी को उनके अनुवादों की वजह से ही नहीं, उनके विषय चयन से भी पहचानती है। टेनिस खिलाड़ी सेरेना विलियम्स के जीवन संघर्ष का ब्योरा प्रस्तुत करने की कोशिश उनकी अगली पुस्तक का विषय है। प्रस्तुत है संभावना प्रकाशन,हापुड़ से इस साल के अंत तक प्रकाशित होने वाली उनकी किताब का एक अंश। |
यादवेन्द्र
हालाँकि सेरेना अपने बारे में व्यक्तिगत विवरणों का ज्यादा
खुलासा करने की अभ्यस्त नहीं हैं फिर भी मीडिया में उपलब्ध उनके कुछ इंटरव्यू से
लिए गए उद्धरणों के आधार पर उनकी शख्सियत को समझना कुछ कुछ संभव है :
“वैसे मैं बहुत साफ तौर पर तो नहीं जानती लेकिन मुझे लगता
है कि मैंने जब से होश संभाला तब से मुझे मालूम है कि मैं काली हूं। जिस दिन से
मैं टेनिस की दुनिया में आई
हूँ उस दिन
से मुझे ऐसा ही लगता है। जब हम छोटे थे उस समय के बारे में बताती हूँ : हम घर से
बाहर निकल कर पास के पार्क में जाते थे जहाँ हम खेलने की प्रैक्टिस करते थे। उन पार्कों में हमें
हमेशा गोरे लोग दिखाई देते थे , शायद ही कोई काला इंसान दिखाई देता था...वे वहाँ
टेनिस खेला करते थे। जहाँ
तक मेरी स्मृति जाती है, मुझे लगता है कि शुरू से मुझे मालूम था : मैं काली
हूँ । मुझे यह भी मालूम था कि मैं औरों से थोड़ी अलग हूँ , जो मैं कर रही हूँ वह औरों से कुछ अलग है। हमारे साथ
हमारा परिवार होता था, वीनस
होती थी हमारी अन्य बहनें भी होती थीं।एक बार की बात याद आती है जब मैं और वीनस
प्रैक्टिस कर रहे थे, आसपास
के तमाम गोरे लड़के हमारे पास आये और हमें घेर कर खड़े हो गए -वे ब्लैकी ब्लैकी कह
कर हमें चिढ़ाने लगे।तब मेरी उम्र सात साल के करीब रही होगी... मुझे अच्छी तरह याद
है,उनका
चिढाना सुन कर मेरे मन में निश्चय आया : मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता,तुम्हें जो कहना हो कहते रहो। अब सोचती हूँ तो लगता
है कि उस उम्र में ऐसी बातें सोचना बहुत सामान्य नहीं था, उसके लिए बहुत हिम्मत चाहिए.... वह हिम्मत मुझ में
शुरू से ही थी।
मेरे माता पिता शुरू से यह चाहते थे और हमें सिखाते थे कि
हम जो हैं जैसे हैं,उसके
लिए हमारे मनों में किसी तरह की शर्मिंदगी नहीं बल्कि गर्व का भाव होना चाहिए।
अफ़सोस
यह कि अपने आसपास हम देखते हैं बहुत सारे काले लोगों -खास तौर पर युवाओं
को -हर पल यह कह कर निरुत्साहित
किया जाता रहता है कि तुम बदसूरत हो...तुम्हारे केश भद्दे लगते हैं...तुम्हारी
त्वचा कितनी काली है। हमें शुरू से खुद को प्यार करना, खुद को सम्मान देना सिखाया गया। मेरे डैड हमेशा कहते
कि तुम्हें अपना इतिहास अपनी विरासत जाननी चाहिए - जो अपनी विरासत
अपना इतिहास जानता है वही अपने
भविष्य को महान ऊँचाइयों तक ले जा सकता है। हम लोगों को शुरू से टीवी पर अपने
इतिहास, अपने
संघर्षों, अपने
विरासत के प्रोग्राम देखने को कहा जाता था .......एलेक्स हेली के आत्मकथात्मक
उपन्यास पर आधारित रूट्स जैसे प्रोग्राम - इस तरह के कार्यक्रम हम जरूर देखते थे
और ढूंढ ढूंढ कर देखते थे जिससे हम अपने इतिहास से रू ब रू हो सकें। जब आप अपने
पुरखों को इस तरह के संघर्षों से जूझते हुए विजयी होकर निकलते हुए देखते हैं तब
आपका मन गर्व से भर जाता है और भविष्य के लिए रास्ते खुलते हैं। माया एंजेलू ने भी
तो अपनी कविता में कहा है: हम गुलामों की उम्मीदें हैं, हम गुलामों के सपने हैं। यह पता चलने के बाद कि अपने
पुरखों के ऐसे कठिन संघर्षों की बदौलत आज हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं और ढ़ंग
की जिंदगी जी रहे हैं , मैं
काले रंग के अलावा किसी और रंग में जन्म नहीं लेना चाहती। किसी और कुल वंश (रेस)
का सैकड़ों
सैकड़ों सालों का ऐसा कठिन संघर्ष का इतिहास नहीं रहा है और यह तो जगजाहिर है कि
मजबूत इंसान ही काल के थपेड़ों को झेल कर जिंदा बच पाते हैं,पनप पाते हैं - कोई शक नहीं कि हम काले लोग शरीर और
मन दोनों से सबसे मजबूत लोग हैं।अपने जीवन के पल पल मैं अपना काला रंग धारण कर के
गौरवान्वित महसूस करती हूं।
वीनस ने और मैंने टेनिस की दुनिया में जब से कदम रखा है सफलता
हमारे पक्ष में रही है और हम दोनों एक के बाद एक अगली
सीढ़ी पर चढ़ते गए हैं। हम
दोनों में एक और बात समान थी कि हम अपने किए को लेकर कभी किसी तरह की शर्मिंदगी
नहीं महसूस करते थे।हम अपने केशों में जिस तरह की लड़ियाँ
बनाते थे उसको लेकर हमें कभी यह
नहीं लगा कि घर से बाहर निकलेंगे तो कैसा लगेगा। गोरों की दुनिया का खेल है टेनिस
और हम काले थे लेकिन हमें कभी उनके बीच रहकर खेलते हुए डर नहीं लगता...यह कोई सहज
सामान्य बात नहीं थी पर हममें थी।
हमारी माँ ने हमें बचपन से भावनात्मक रूप से मजबूत बनाया
जिससे जब दर्शक हमारे काले होने या स्त्री होने को लेकर फब्तियाँ
कसें या हमें निशाना बनाएँ तो
मालूम हो हमें उससे कैसे निबटना है। उन्होंने हमें यह पाठ पढ़ाया कि हम जैसे हैं
उस पर किसी तरह की शर्मिंदगी न
महसूस करें - खास तौर पर अपने केश और शारीरिक बनावट को लेकर , अपनी विरासत, अपने पुरखों के संघर्ष को लेकर मन में निरंतर गर्व का
भाव महसूस करें। मुझे उनकी परवरिश का यह पक्ष सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है। मैं
अपनी बेटी को इन्हीं मूल्यों के साथ बड़ा कर रही हूँ ।
जब मैं किसी काम को हाथ लगाती हूँ
तो उतना फोकस अपने काम में लाती
हूँ जिससे मैं
दुनिया में सर्वश्रेष्ठ बन जाऊँ - और ऐसा नहीं कि मैं इतने से संतुष्ट हो जाती हूँ
बल्कि
निरंतर और बेहतर काम करने की कोशिश करती हूँ । काफी कम उम्र में - जहाँ
तक मुझे याद आता है 17 साल की उम्र में - मैंने अपने बारे में अखबारों में
छपा कोई समाचार पढ़ना छोड़ दिया था।मुझे लगता है कि इस आत्मसंयम के कारण मुझे बहुत
लाभ हुआ, मैं
अपने खेल पर ज्यादा फोकस कर पाई। मैं उन दिनों को याद करती हूँ तो मुझे लगता है
मेरे खेल की ज्यादा नुक्ताचीनी
इस लिए की जाती थी क्योंकि मैं मुझमें आत्मविश्वास कूट कूट कर भरा हुआ था - लोगों
को ताज्जुब होता था मैं गोरी नहीं बल्कि काली हूँ , गोरों का खेल टेनिस खेलती हूँ
और आत्मविश्वास से इतनी लबरेज
हूँ , ऐसा
कैसे हो सकता है?
मैं अपने आप को हमेशा यह कहती थी कि मैं एक दिन दुनिया की
नंबर एक टेनिस खिलाड़ी बनूँगी, मुझ में वह काबिलियत है। और हाँ मैं क्यों न सोचूँ
ऐसा - जब मैं दुनिया के शिखर पर
होने के बारे में सोचूँगी ही नहीं तो मैं उस श्रेणी का खेल खेल भला कैसे सकती हूँ ?
एक समय ऐसा था जब अपने शरीर को लेकर मैं खुद भी असहज रहती
थी, मुझे
लगता था कि मैं बहुत बलवान और हृष्ट पुष्ट हूँ । फिर एक सेकंड को सोचती: कौन कहता
है कि मैं इतनी बलवान और तगड़ी हूँ ? इसी शरीर ने तो मुझे दुनिया का महानतम खिलाड़ी बनाया, मैं उसके बारे में ऐसी ऊल जलूल बातें भला क्यों सोचने
लगी।और आज मेरा यही शरीर एक स्टाइल बन गया है, मुझे इसके बारे में सोच सोच कर बहुत अच्छा लगता है।
अब वह समय आ गया है जब मेरा यही शरीर दुनिया भर में एक स्टाइल बन कर धूम मचा रहा
है। यहाँ तक
पहुँचने में वक्त लगा - जब मैं पीछे मुड़ के देखती हूँ
तो अपने अपनी मॉम और डैड का
शुक्रिया अदा करना कभी नहीं भूलती जिन्होंने बचपन से मुझ में विश्वास कूट कूट कर
भरा।
ऐसा भी तो हो सकता था कि वे रंग,केश और शरीर को लेकर मुझे औरों की तरह हतोत्साहित करते... तब तो मैं आज जिस
सीढ़ी पर हूँ वहाँ
तक पहुँचने का कोई सवाल ही नहीं
होता। तब मैं अलग तरह से अपना जीवन जीती,अलग ढंग की एक्सरसाइज करती, कोई और अलग ही काम कर सकती थी। आज यहाँ खड़े होकर मैं
जो कुछ भी हूँ , जैसी
भी हूँ उसको
लेकर बेहद
खुश हूँ ,जिन
लोगों ने मुझे इस मुकाम तक पहुँचने में मदद की उनकी शुक्रगुजार हूँ । मुझे इस रूप में ऐसा होना बहुत रास
आ रहा है, यहाँ
खड़ी होकर मैं बेहतर और शक्ति संपन्न महसूस कर रही हूँ।"
अपनी आत्मकथा "क्वीन ऑफ़ द कोर्ट : ऐन ऑटोबायोग्राफ़ी" में सेरेना विलियम्स बचपन का उदहारण देती हैं कि अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने की धुन मेरे ऊपर इस कदर सवार थी कि प्रेरक उद्धरणों को कागज़ पर लिख कर मैं अक्सर अपने रैकेट बैग के ऊपर उन्हें चिपका देती …स्व मार्टिन लूथर किंग जूनियर का यह उद्धरण मुझे बेहद प्रिय था :" अपने भावों को चेहरे पर मत आने दो … तुम काले हो और तुममें कुछ भी झेल लेने की कूबत है ....डटे रहो डिगो नहीं ,झेल लो जो भी सामने आये .... बस तन कर खड़े रहो। " और "शक्तिशाली बनो … काले हो तो क्या हुआ … अब तुम्हारे चमकने निखरने का वक्त आ गया है …अपनी श्रेष्ठता पर भरोसा रखो। लोग तुम्हें क्रोधित देखना चाहते हैं .... क्रोध करो,पर ऐसे करो कि लोगों को यह आग दिखायी न दे।"
जाहिर है उन्हें अपनी ऐतिहासिक भूमिका और जिम्मेदारी का
भरपूर एहसास है तभी तो वे कहती हैं :"मैं खुद के लिए खेलती हूँ पर साथ साथ
उनके लिए भी खेलती हूँ जिनकी हैसियत मुझसे ज्यादा बड़ी है - मैं उनका प्रतिनिधित्व
भी करती हूँ। मैं अपने बाद आने वाली पीढ़ी के लिए भी दरवाज़े खोलती हूँ।"
(सेरेना
की तस्वीरें इंटरनेट से साभार ली जा रही हैं)
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