Sunday, August 20, 2023

नवीन कुमार नैथानी को दिनांक 19.08.2023 को इलाहाबाद में चतुर्थ ‘श्रीमती भारती देवी एवं श्री ओमप्रकाश मालवीय स्मृति’ प्रदान किये जाने के अवसर पर कथाकार योगेंद्र आहूजा का वक्तव्य



हिंदी के अनूठे, अपनी तरह के अकेले और हम सबके प्रिय कथाकार, नवीन कुमार नैथानी को चतुर्थ ‘श्रीमती भारती देवी एवं श्री ओमप्रकाश मालवीय स्मृति’ पुरस्कार से सम्मानित किये जाने के अवसर पर उन्हें बहुत-बहुत बधाई । नवीन जी साहित्य के शक्ति-केन्द्रों या ग्लैमरस मंचों से दूर, बल्कि उनसे बेनियाज़ और बेपरवाह ... ‘अपनी ही धुन में मगन’ ... ‘उत्तराखंड’ में अपने गाँव भोगपुर और फिर डाक-पत्थर, तलवाड़ी और देहरादून जैसी जगहों पर रहते हुए, अपनी मौलिक, अन्तर्दर्शी निगाह से देश-दुनिया के लगातार बदलते हालात और हलचलों का मुतालया करते हुए, लगातार कहानियां लिखते रहे हैं । ‘सौरी’ नाम की एक विस्मयकारी जगह है, जो स्मृतियों-लोकाख्यानों-किंवदंतियों-जनश्रुतियों से बनी या उनमें फैली है, जहाँ किस्से और इतिहास आपस में उलझते रहते हैं - वे वहीं के बाशिंदे हैं । यह ‘सौरी’ जो उनकी कहानियों में बार-बार आती है - सिर्फ एक किस्सा या कोई ख्याली, अपार्थिव, या लापता या लुप्त जगह नहीं, उसका एक भूगोल भी है । वह उनकी ‘मनस-सृष्टि’ है, लेकिन वे स्वयं इसी ‘सौरी’ की उपज हैं । मैंने उन्हें ‘अपनी ही धुन में मगन’ कहा है लेकिन इससे यह न समझें कि वे दुनिया से गाफिल, गोशानशीनी के आदी, अपने-आप में बंद कोई ‘स्व-केन्द्रित’ या ‘आत्म-मुखी’ शख्स हैं, नहीं, वे तो जिंदगी से भरपूर एक आत्मीय, दोस्त-नवाज़ शख्स हैं और दोस्तों की महफ़िलों में सबसे ऊंचे ठहाके उन्हीं के होते हैं । वे अपनी किसी प्राइवेट दुनिया में नहीं, इसी संसार में रहते हैं अपनी बेचैनियोँ, चाहतों और सपनों - और ‘लिखने’ को लेकर अपनी अटूट प्रतिबद्धता के साथ । नियमित अंतराल से उनकी कहानियां पाठकों के सामने आती रही हैं जिनमें वे पहाड़ और पहाड़ी जीवन की छवियों के ज़रिये अपने समय को अपनी तरह से परिभाषित करने की कोशिश करते रहे हैं । उनकी कहानियों का लोकेल या परिवेश अधिकतर पहाड़ होता है - लेकिन उनके पाठक जानते हैं कि वह सिर्फ ‘लोकेल’ होता है, उनकी हदबंदी नहीं । पहाड़ उनकी कहानियों की बाहरी ‘हद’ है - लेकिन इस हद के भीतर उनकी कहानियां ‘बे-हद’ हैं । कहानियों की ‘अर्थ-व्यंजना’, या कहें, उनका ‘सत्य’ या ‘सार-तत्व’, वह इस हद में नहीं समाता । वह तो उसे तोड़ते हुए, अतिक्रमित करते हुए जिंदगी के किन्हीं बुनियादी, आधारभूत आशयों या मायनों की ओर चला जाता या चला जाना चाहता है । ‘पुल’, ‘चढ़ाई’, ‘पारस’, ‘चाँद-पत्थर’, ‘चोर-घटड़ा’, ‘हतवाक्’ और ‘लैंड-स्लाइड’ जैसी कितनी ही कहानियां इस बात की गवाह हैं । उनका एक संग्रह ‘सौरी की कहानियां’ प्रकाशित है और दूसरा जल्दी ही प्रकाशित होना संभावित है ।


नवीन जी के बारे में यह सब वह है जो आप शायद पहले से जानते हैं । मैं इसमें जोड़ सकता हूँ कि वे लेखक होने के साथ एक ‘विज्ञानविद’, विज्ञान के व्याख्याकार हैं । वे फिज़िक्स पढ़ाते हैं और साथ ही उस उत्तेजक, रोमांचक, विस्मयकारी ज्ञान-अनुशासन के भी बेहतरीन जानकार हैं – जिसे ‘विज्ञान का दर्शन” या “Philosophy of Science”  कहा जाता है । आधुनिक भौतिकी और खगोलविज्ञान ने हमें प्रकृति के बारे में, परमाणु के भीतर के उप-परमाणविक कणों से लेकर अनगिनत आकाशगंगाओं और सितारों और समूचे यूनिवर्स की संरचना और विस्तार, स्पेस, टाइम, ग्रेविटी, एनर्जी, पार्टिकल्स और एंटी-पार्टिकल्स, सितारों के जन्म और मृत्यु और ब्लैक-होल्स आदि के बारे में बेशुमार और हैरतअंगेज़ जानकारियाँ दी हैं । यूनिवर्स के बारे में इतनी नयी जानकारियाँ जो दरअसल जानकारियों का एक नया यूनिवर्स है । इन सबके बारे में इनकी समझ और जानकारियाँ बेजोड़ हैं, जिनसे मैं बीच-बीच में लाभान्वित होता रहता हूँ । अगर आपके मन में भी ऐसे सवाल आते हैं कि ... मसलन, सितारे कैसे वजूद में आते हैं और किस तरह सिकुड़ते हुए आखिर में एक बहुत बड़े धमाके के साथ ब्लैक-होल में तब्दील हो जाते हैं – या दिक् और काल में मरोड़ें कैसे पड़ती हैं, ‘बिग-बैंग’ क्या है, ‘फोटोन’ क्या है, ‘क्वार्क’ क्या है और ‘गॉड पार्टिकल’ क्या है – अगर ये जिज्ञासाएं आपकी भी हैं – तो आप इनका मोबाइल नंबर ले सकते हैं । इसके अलावा ... वे विश्व-साहित्य के, इस सदी और पिछली सदी और उससे पिछली सदी के क्लासिक लेखकों और कृतियों के भी एक अनन्य जानकार हैं । वे चेखव, पुश्किन, दोस्तोयेव्स्की, टॉलस्टॉय, हेमिंग्वे, मार्खेज, बोर्गेस, आइन्स्टीन, मैक्स प्लैंक, स्टीफेन हाकिंग, और प्रो. यशपाल जैसे उस्ताद लेखकों, वैज्ञानिकों और विज्ञान-चिंतकों की संगत में रहते हैं । लेकिन क्या इतने में इनका परिचय पूरा हो जाता है ?

.....

इस मौके पर मेरी इच्छा वह कुछ कहने की है जो आप नहीं जानते, शायद नवीन जी खुद भी नहीं जानते । और अगर जानते हैं तो यह तो नहीं ही जानते कि उनके बारे में यह मैं भी जानता हूँ पिछले तीन-चार दशकों से मुझे उनकी दोस्ती का फख्र हासिल है, इसलिए मैं कुछ पर्सनल हो रहा हूँ – लेकिन जो कहना चाहता हूँ वह मित्रता निभाने के लिए नहीं । मैं कहना चाहता हूँ कि इनकी कहानियां – एक खास तरह की उदास करुणा लिए इनकी कहानियाँ - विषयवस्तु और कहन और गठन के स्तरों पर अजीम हैं – लेकिन यह शख्स खुद अपनी कहानियों और किताबों से कहीं अजीमतर है । नवीन जी मेरे लिए सिर्फ कहानियों के या एक किताब के लेखक नहीं हैं । मेरे लिए वे खुद एक किताब हैं, एक चलती-फिरती किताब । मैं बीच-बीच में इस किताब के पन्ने खोलकर पढ़ा करता हूँ । इसका अर्थ यह न समझें कि वे कोई बंद किताब हैं, नहीं - वे तो मेरे ही नहीं, सबके लिए और हर वक्त एक खुली किताब हैं । कैसी किताब ... इसके जवाब में प्रिय कवि नवारुण भट्टाचार्य की एक कविता का सहारा लेकर कहना चाहूँगा - एक कीमती हार्ड-बाउंड किताब नहीं, जो शेल्फ के ऊपरी खाने में धूल और कीड़ों के संग रखी रहती है और कभी भूले-भटके खोली जाती है । वे एक ‘पेपरबैक’ किताब हैं जो मित्रों के बीच बांटकर पढ़ी जाती है और उसके पन्ने खुल-खुल जाते हैं । मैं समझता हूँ कि कोई भी लेखक, अगर दोनों में से एक ही चुनना संभव हो तो, वही किताब होना चाहेगा । लेकिन एक खुली किताब में भी किसी एक समय जो पन्ना खुला होता है, उसके अलावा पढ़ने के लिए कुछ पन्ने पलटने होते हैं । मैं चुपके-चुपके उन्हें पलट लेता हूँ । इस किताब को पूरी तरह, अंत तक पढ़ सका हूँ, यह नहीं कह सकता । कोई भी कैसे कह सकता है ? जीवन नाम की किताब को पढ़ने के लिए भी तो एक पूरा जीवन चाहिए होता है ।

यह किताब किस बारे में है ? यह है लिखित शब्द की प्रकृति और गरिमा - और उनसे हमारे यानी लेखक के रिश्ते के, लेखकीय आचार-संहिता और नैतिकता के, साहित्य के कुछ आधारभूत मूल्यों के बारे में । ये नए सवाल नहीं हैं, लेकिन आज लेखकों के लिए नए सिरे से जिन्दा हो गए हैं । यह सोशल मीडिया का वक्त है जिसमें, हमारी बौद्धिक-साहित्यिक दुनिया में, एक छोर पर ‘सर्वानुमति’ है और दूसरे पर trolling और सर्वनिषेधवाद । एक छोर पर सब कुछ की वाह-वाह, दूसरे पर सब कुछ पर कालिख पोतने की कोशिश । एक ओर बेशुमार लोकप्रियता, फॉलोअर्स, फैन्स, लाइक्स और तालियाँ और दूसरी ओर उतनी ही मात्रा में हिंसा, नफरत, एरोगेन्स और रक्तपात नवीन जी ऐसे माहौल में अपने को सप्रयत्न सस्ती तारीफों या तालियों के ज़हर से, ज़रूरत से ज्यादा दृश्यवान होने से बचाते हैं । वे अपना अकेलापन और एकांत बचाते हैं । इसका यह अर्थ नहीं कि वे मानते हैं कि ‘लिखना’ एक निजी कर्म है या सन्नाटे में की जाने वाली कोई निजी कार्रवाई है, नहीं, वे जानते और मानते हैं कि लिखना एक साथ निजी और सामाजिक होता है वह सिर्फ अपने से नहीं, अपने से परे जाकरअन्य’ से संवाद है – एक साथ ‘अन्य’ से और ‘अपने’ से संवाद है नवीन जी इस बात को बखूबी जानते हैं - लेकिन यह जानने और हर मंच पर चमकने-दमकने या हर जगह दृष्टिगोचर होने में जो फर्क है, वह उसे भी जानते हैं ।

नवीन जी एक चुप्पा लेखक हैं और उनके पाठक भी उन्हीं की तरह चुप्पा हैं । ये चुपके-चुपके लिखते हैं और चुपके-चुपके ही पढ़े जाते हैं । उनके पाठकों, प्रशंसकों का एक तवील दायरा है, फिर भी उनकी कहानियों के बारे में एक चुप्पी बरकरार रही है । इसे मैं कोई साजिश नहीं कहना चाहूँगा - लेकिन एक ट्रेजेडी या दुर्भाग्य ज़रूर कहूँगा । दुर्भाग्य नवीन जी का नहीं, हमारी भाषा का, हिंदी आलोचना का । हमारी भाषा में प्रचलित आलोचना - हमेशा नहीं लेकिन अधिकतर -  ऐसी है जो कृति की कथ्यगत विशिष्टता या मौलिक बुनावट की अवहेलना कर, किन्हीं तयशुदा मानदंडों या धारणाओं को यांत्रिक तरीके से रचनाओं पर लागू करना चाहती है । जो उन मानदंडों पर पर खरी न उतरें उन्हें वह छोड़ देती है । वह रचना की अनन्यता को नकार कर, उनसे कुछ छीनकर, कुछ असंगत जोड़कर, उनमें जो कुछ कोमल, सुन्दर या त्रासद-दर्दीला हो, उसकी उपेक्षा कर उन्हें किन्हीं वांछित अर्थों की दिशा में धकेलना चाहती है । बहुत सी ‘आलोचना’ ऐसी भी है जो आलोचना कम, लेखकों को ‘निर्देशित’ करने या नकेल कसने की कोशिश अधिक होती है । शायद इसीलिए चेखव और रिल्के जैसे लेखक-कवि आलोचना को संदेह से देखते थे । ... बहरहाल, यह कोई नयी बात नहीं है । अनेक लेखक हैं जिनके बारे में जानबूझकर या अनजाने ऐसी चुप्पी बरती गयी है, बरती जाती है । लेकिन फिर वे लेखक क्या करते हैं ? वे आग, खीझ और गुस्से से भरकर – या फिर एक स्थायी उदासी के हवाले होकर - दुनिया से एक दुश्मनी का, अदावत का रिश्ता बना लेते हैं । वे दुनिया के खिलाफ एक चार्ज-शीट जेब में रखकर चलते हैं, जो हर रोज और लम्बी हो जाती है । वे अमर्ष से भर जाते हैं या उदास, अनमने या कटु और कटखने हो जाते हैं । इसके बर-अक्स नवीन जी क्या करते हैं ? ... वे तो खुद उस चुप्पी में शामिल हो जाते हैं, उस चुप्पी से ही पोषण लेने लगते हैं । वे इससे असम्पृक्त, अप्रभावित, अविचलित रहकर चुपचाप अपने कामों को अंजाम देते रहते हैं - पहले की ही तरह अपने मौलिक, उर्जावान तरीके से । एक ऐसे शख्स के रूप में, जो रचनात्मकता के सार और उसके चिरस्थायी तत्वों को जान चुका है, वे जानते हैं कि बेशक आलोचना, एक सुचिंतित, विवेकवान आलोचना ज़रूरी होती है, वह लेखक को ताकत और लिखित को एक शनाख्त देती है - लेकिन जैसे ... एक छलपूर्ण चुप्पी होती है, वैसे ही छलपूर्ण तारीफें भी होती हैं । सहज और विनीत दिखने वाली लेकिन बिना समझ या सौन्दर्यबोध के, लेखक को छलने वाली सस्ती तारीफें । ऐसी तारीफें, उनका अतिरेक लेखक को नष्ट करता है - उपेक्षा से भी अधिक । ग़ालिब ने एक शेर में अपने बारे में कहा है कि वे वह पौधा हैं जो ज़हर के पानी में, उसी से पोषण लेकर उगता है । “हूँ मैं वह सब्ज़ा कि ज़हराब उगाता है मुझे”  यह उनकी सुपरिचित लाइन है । लेकिन यह मुझे कहीं अधूरी जान पड़ती है । असाधारण और चमत्कारी तो यह होगा कि पौधा ‘ज़हराब’ से पोषण ले, लेकिन खुद एक ज़हरीला या जानलेवा पौधा न बने । उसके ज़हर का एक कतरा भी अपने भीतर न आने दे । ऐसा कोई पौधा प्रकृति में होता है या नहीं, मैं नहीं जानता । लेकिन इंसानों में ज़रूर होता है ।

एक कहानी लिखने और छपने के बाद, मुझे यह याद नहीं कि नवीन जी उस पर अलग से कुछ कहते हुए या कोई दावा करते दिखे हों । वे मानते हैं कि लेखक को जो कहना है वह उसे रचना में ही कहना चाहिए । अगर रचना वह नहीं कह पा रही तो लेखक के अलग से कहने का क्या अर्थ है ? इस समय जबकि आत्मप्रचार, आत्म-अभिनंदन या कहें, अपना ‘भोंपू आप बजाना’ एक आम चलन है – नवीन जी अपनी इसी आचार-संहिता पर टिके रहते हुए - पाठकों के, अपने चुप्पा पाठकों के विवेक पर भरोसा करते हैं । वे जानते हैं कि एक सशक्त रचना को ऐसी बैसाखियों की ज़रूरत नहीं - और अगर अल्पप्राण है तो उसे ऐसी तरकीबों से दीर्घजीवी बनाने की कोई भी कोशिश फिजूल होगी ।

जर्मन कवि रिल्के ने एक सदी पहले एक युवा कवि फ्रांज जेवियर काप्पुस को एक पत्र में यह लिखा था - अपने भीतर जाइए और उस कारण को, उस आवेग को ढूंढिए जो आपको लिखने पर विवश कर रहा है - और यह भी – एक रचनात्मक कलाकार को सब कुछ अपने अन्दर ही प्राप्त होना चाहिए यानी उस प्रकृति में जिसे उसने अपना जीवनसाथी बना लिया है । मुझे लगता है कि इस सूत्र को नवीन जी ने अपनी नसों में उतार लिया है एक लेखक को अगर भीतर से कुछ प्राप्त नहीं होता तो बाहर से कुछ प्राप्त हो तो उसका मूल्य ही क्या है ? और वह भीतर से ही कला की विशाल सम्पदा का एक छोटा सा हिस्सा, या उसकी झलक ही पा लेता है तो ... बाहर से कुछ प्राप्त होता है या नहीं, इसका महत्त्व ही क्या है ? नवीन जी की कहानियां मुझे उसी अंदरूनी इलाके, उसी अंतर्तम से, भीतरी अनिवार्यता से जन्मी लगती हैं । यह ‘कलावाद’ या ‘अभिजनवाद’ या सामाजिक जिम्मेदारी से विमुख होकर कला के एकांत रास्ते का वरण नहीं है, न ही यह किसी ऐसे दर्शन की शरण में जाना है जिसके अनुसार संसार असार है या बाहर की दुनिया ‘मिथ्या’ या ‘माया’ है, और ‘सत्य’ तो हमारे भीतर पहले ही मौजूद है । इसके उलट, यही तो सृजनकर्म का प्राथमिक, बुनियादी नियम है । जो कुछ ‘बाहर’ है, ‘अन्य’ है, लिखे जाने से पहले उसे लेखक का आभ्यंतर, उसके ही ‘आत्म’ का अंश बनना होता है । एक मायने में लेखक किसी ‘अन्य’ के नहीं, अपने ही दर्द, अपनी ही व्यथा, वेदना या तड़प के बारे में लिखता है - इसलिए कि एक सच्चे लेखक के लिए कोई ‘अन्य’ नहीं होता, हो नहीं सकता । अपने और दुनिया के बीच की दीवार गिराकर, ‘अन्यत्व’ को मिटाकर, यानी ‘अन्य’ के दर्द को अपना बनाकर, उसे अपनी त्वचा पर अपने ही दर्द की तरह महसूस कर ही कुछ ऐसा लिखा जा सकता है, जिसका सचमुच मूल्य हो । ये तमाम ख्याल मुझे नवीन जी की कहानियां पढ़ते हुए ही आते हैं । लेकिन कहानियों की सविस्तार विवेचना से मैं अपने को रोकना चाहता हूँ ।      

हममें से अनेक आज यह देखकर हताश होते हैं कि दुनिया अधिकाधिक खून और कीचड़ में लिथडती जा रही है । इस खून और कीचड़ के छींटे शब्दों की दुनिया में भी आते हैं, क्योकि शब्दों की दुनिया भी इसी दुनिया में स्थित है, इसके बाहर नहीं । ऐसे पल अक्सर आते हैं जब इस दुनिया में और शब्दों की दुनिया में आस्था टूटने लगती है । यकीन डूबता सा लगता है । ऐसे पलों में मैं जिन चंद लोगों की ओर देखता हूँ, उनमें नवीन जी खास हैं । इन्हें देखकर महसूस करता हूँ कि नहीं, सब कुछ नष्ट नहीं हुआ और इतनी आसानी से नष्ट नहीं होगा   I feel that I can still have my faith in written word or ‘language’ or literature इसके लिए इन्हें कभी शुक्रिया नहीं कहा, लेकिन आज आप सबकी मौजूदगी में कहना चाहता हूँ ।

मैं नवीन जी के साथ पुरस्कार के संस्थापकों, आयोजकों को भी बधाई देना चाहूँगा । आप सबका आभार कि आपने मेरी इन बातों को ध्यान से सुना ।




Sunday, August 13, 2023

महा परियोजनाओं का सांस्कृतिक परिदृश्य


देहरादून की नाट्य संस्था वातायन ने पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह की  पहलकदमी दिखाई है, नाटकों के मंचन किये, इसमें कोई दो राय नहीं कि देहरादून रंगमंच के इतिहास में वह हमेशा दर्ज रहेगी. उन पर निगाह डाले तो आश्चर्यजनक खुशी मिलती है. मूल रूप से रंगमंच के लिए समर्पित इस संस्था की पिछली चार नाटय प्रस्तुतियां अपने विषय के कारण उल्लेखनीय कही जा सकती है. दिलचस्प है कि ये चारों प्रस्तुतियां कमोबेश अपने अपने तरह से भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष की कहानी और उस दौर के सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक परिदृश्य पर ध्यान खींचतीं हैं. 2019 में रचा गया और मंचित किया गया नाटक दांडी से खाराखेत तक. स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में देश भर में व्याप्त नमक सत्याग्रह आंदोलन की आवाज देहरादून में लून नदी में नमक बनाने की कार्रवाई के साथ सुना गया था, नाटक उसी अल्पज्ञात इतिहास को सामने लाने के लिए गोरखाली समाज के नायक और नमक सत्याग्रह आंदोलन के दौरान ही गांधी जी के सम्पर्क में आए खड‌क बहादुर सिंह के नायकत्व को स्थापित करने की कोशिश करता है. उसके बाद  2022 में नागेंद्र सकलानी एवं तिलाड़ी कांड को आधार बना कर रचे और मंचित किया गया नाटक- मुखजात्रा, और आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष 2022-23 के  दौरान कथाकार प्रेमचंद के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास गोदान पर आधारित नाट्य आलेख का मंचन और इस माह अगस्त 11 एवं 12 की सबसे ताजा प्रस्तुति वीर चंद्र सिंह गढवाली’.    


इन चारों प्रस्तुतियों की एक खास बात यह है कि इनके नाट्य आलेखों को तैयार करने में वातायन के कलाकारों की भूमिका विशेष रही है और इनके प्रथम मंचन भी वातायन ने ही किये. दांडी से खाराखेत का नाट्य आलेख वातायन द्वारा 2019 में आयोजित उस रंग शिविर में तैयार हुआ जिसका संचालन निवेदिता बौंठियाल द्वारा किया. नाटक का निर्देशन निवेदिता बौंठियाल ने किया. लगभग 40-42 वर्ष पहले निवेदिता बौंठियाल (उनियाल) रंगमंच के अपने सफर की शुरुआत वातायन से ही की थी और पिछले लगभग 30-35 वर्षों से वे बम्बई में एवं कलाकार के रूप में सक्रिय हैं. मुखजात्रा सुनील कैंथोला द्वारा लिखे और प्रकाशित नाटक को एक रंग शिविर में मंचिय प्रक्रिया तक पहुंचाने का उपक्रम बना था. यह रंगशिविर उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध रंगकर्मी डॉ सुवर्ण रावत के नेतृत्व में सम्पन्न हुआ था और वे ही नाटक के निर्देशक थे. सुनी सुनायी खबरों के हवाले से यह रंगशिविर गढवाल महासभा ने अयोजित किया था.शायद इसीलिए नाटक का पहला मंचन प्रशासन द्वारा आयोजित कौथीग-2022 में हुआ हो. कुछ दिनों बाद नाटक में कुछ मामूली बदलावों के साथ नाटक का मंचन टाउन हाल देहरादून में वातायन की ओर से किया गया और डॉ सुवर्ण रावत ही नाटक के निर्देशक थे. गोदान की स्क्रिप्ट को नाटक के निर्देशक मंजुल मयंक मिश्रा ने प्रेमचंद के उपन्यास के कुछ खास हिस्सों को लेकर तैयार किया. वीर चंद्र सिंह गढवाली के मंचन के दौरान वितरत फोल्डर से नाटय स्क्रिप्ट के लेखक के बारे में तो कोई सूचना नहीं मिलती है, लेकिन मंचन से पूर्व उदघोषक की सूचना से जानकारी मिली थी वातायन के कुछ युवा साथियों द्वारा यह नाट्य आलेख राहुल सांकृत्यायन द्वारा वीर चंद्र सिंह गढवाली की लिखी जीवनी पर आधारित है.    

चारों नाटको के विषय चयन को देखते हुए यह ध्यान बरबस ही जाता है कि कुछ बड़ा करने और बड़ा रचने की सदइच्छाओं के साथ वातायन लगातर अपने आपको तैयार करता जा रहा है. अति महत्वकांक्षा से भरी वातायन की यह परियोजना दून रंगकर्म पर किस तरह से प्रभाव डाल रही है और शेष भारत की साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों से इनका क्या रिश्ता है ? उसे समझना चाहें तो वह समीकरण ही दिखाई देगा जिसका कमोबेश लक्ष्य यही होता है कि दिखती हुई दूरी के साथ अंदरखाने सत्ता से एक सम्पर्क सधा रहे ताकि कार्यक्रम आयोजित करने के लिए बजट, पुरस्कार, विदेश यात्राएं जैसे मिलने वाले लाभ झोली में बने रहें. गतिविधि विशेष को अलोचना के दायरे में  लाए बगैर भी कहा जा सकता है कहाँ सिर्फ विषय भर से और कहाँ विषय को एक सीमा तक तोड़ मरोड करके शुद्ध सांस्कृतिक कर्म किया जा सकता है और इतना ही नहीं,जनपक्षीय तक बना रहा जा सकता है. नाटक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की काव्य रचना राम की शक्ति पूजा से लेकर प्रेमचंद का गोदान के सहारे देशभर में नहीं विदेशों तक घूमा जा सकता है. बिना इस और सोचे हुए कि हवाई खर्चे से लेकर महंगे होटलों तक में रुकने की सुविधा के खर्च कहां से आते होंगे, कविकुंभों का हिस्सा हुआ जा सकता है. 

 

किसको पिता तुल्य कह दिया गया और किस तरह आयोवा हुआ जा सकता है, जब यह आज छुपाया नहीं जाया जा पा रहा है तो क्यों नहीं माथे पर त्रिपुंड लगाकर चिढाती हुई  हंसी हो लिया जाये? मंदिर के नाम पर दिए गए चंदे के चेक को लहरा लिया जाए. पुरस्कार वापसी जैसी जबरदस्त कार्रवाई का हिस्सा होते हुए बहुत भी आयोजित हो रहे किसी कार्यक्रम का चुपके से हिस्सा हो लिया जाये? साहित्य अकादमी ही आयोजक हो चाहे. तो फिर क्या हाल ही में मंचित वातायन के नाटक वीर चंद्र सिंह गढवाली भी उस महत्ती परियोजना का सबसे विकसित रूप तो नहीं जिसकी शुरुआत नजीबाबाद का इफ्तार हुसैन वाली मासूम संस्कृतिक चिंता से हुई थी?

चलिए, इसको थोड़ा परख लिया जाए और नाटक के उस अंतिम दृश्य को याद कर लिया जाए जो नाटक की टैग लाइन बना दिया गया- आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया? और इस बात तक को दरकिनार कर दिया जाए कि एक इक्लाबी चरित्र किस तरह रिड्यूस होकर अपनी गरिमा खो दे रहा है. यह दृश्य आजादी के बाद उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पेशावर कांड के सिपाही वीर चंद्र सिंह गढ़वाली को दी गई तुच्छ पेंशन पर सवाल उठाते हुए नाटक का अंत करता है और यहीं पर नाटक का किरदार- राहुल सांकृत्यायन चीख चीख कर चिल्ला रहा है - आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया? इतना नहीं  अपने साथी किरदार के साथ जीवन की घटनाओं को शेयर करता वीर चंद्र सिंह गढवाली का किरदार भी दाहड़ मारकर रोते हुए वही दोहरा रहा है - आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया? नाटक अपने अंत की ओर है और पार्श्व से अन्य कलाकार भी अब मंच पर आकर उतनी ही तीखी आवाज और कोरस के से स्वर में दोहरा रहे हैं - आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया?


यह आरोप नहीं बल्कि उस अनुगूंज को याद दिलाना है, पिछले कुछ सालों से जिसका हल्ला खूब सुनाई दे रहा है कि मानो भारत देश मात्र आठ दस साल पहले आजाद हुआ हो और अब आजाद देश की जो पहली सरकार है, वह पहले के दौर की सरकारों से भिन्न है.

सरकारी चरित्र में वास करती अमानवीयता को छुपाते हुए गैर राजनैतिक दिखने का यही साहित्यिक-सांस्कृतिक तरीका है. और यही समझदारी तथ्यों में हेर फेर कर देने का उत्स होती है. देख लेते हैं कि राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी जीवनी में पेशावर कांड के सिपाही की स्थिति क्या है, 

“ ... 25  जुलाई 1955  को उत्तर प्रदेश सरकार ने लिखा कि राज्यपाल को इसके लिये बड़ी प्रसन्नता है कि चन्द्र सिंह गढ़वाली को अब १४ रुपया मासिक आजीवन पेन्शन दी जायगी। यह जले पर नमक छिड़कना था। भला आजकल के जमाने में 14 रुपये से क्या बनता है? बड़े भाई ने 16  अगस्त 1955 को सरकार को चिट्टी लिखकर इस पेंशन को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। यह खबर समाचार-पत्रों में भी प्रकाशित हुई। बड़े भाई की चिट्टी का कुछ अंश निम्न प्रकार है-

.. मेरी उमर 65 साल की है। आपने 14  रुपये मुझे पेंशन दिये हैं। क्या मैं यह समझँ कि हमारे गणतन्त्र राज्य ने मेरे लिये अन्तिम कार्य के लिये उपरोक्त पेंशन ही उचित और काफी समझी....? मैं आपके भेजे हुये पेंशन के पत्र को वापस करता हूँ.... । क्षमा । “[1]


कोई भी रचना या कलाकृति अपने समकाल से निरपेक्ष नहीं हो सकती। किसी बदले हुए समय में उसके पाठ भी अपने समय भिन्न कैसे हो सकते हैं फिर। राहुल सांकृत्यायन के पात्र के माध्यम से नाटक का यह अंत आखिर कहना क्या चाहता है? यह बिंदु अहम रूप से विचारणीय है। यह एक बड़ी विडंबना है, जब रचनात्मकता सत्ता की भाषा हो जाना चाहती है और एक नायक के जीवन से केवल उन क्षणों को

चुनती है जो उसके द्वारा चुन लिए गए अंत का विकास कर सकते हैं
, या थोड़ा बहुत तोड़ मरोड़ कर, कुछ अतिरिक्त जोड़ घटाकर, वैसा कर सकने में सहायक हो सकते हैं।

 



राजनैतिक पार्टी और सरकार के फर्क को भूला देने वाली राजनीति की चेतना ही पेशावर के नायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली जेल जीवन के दौरान डिप्रेशन में दिखा सकती है। उसे खुद के कपड़े फाड़ कर बिलख बिलख कर रोता हुआ दिखा सकती है। वरना राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की जीवनी पेशावर कांड का घटनाक्रम घटने से पहले ही नहीं, बल्कि बाद में सजा पाए गढ़वाली को भी जेल में अन्य कैदियों के साथ सम्पर्क बनाये रखते हुए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष करते वीर का परिचय देती है। मूल जीवनी का निम्न हिस्सा यहां देख सकते हैं,

इस एकान्त काल कोठरी में चन्द्र सिंह कभी सोचते— “चन्द्र सिंह, तुम क्या कर बैठे ? मारे जाओगे। पिता, स्त्रि[i]याँ, बच्चे सदा के लिये तुमसे छूट चुके । तुम इस अंधेरी कोठरी में पड़े हुए हो, न जाने कब तक के लिये ?"

फिर उनके मन में यह सोचकर गर्व हो उठता- "चन्द्र सिंह शाबाश, तुमने मानुष जीवन का फल पा लिया। अपनी तुच्छ शक्ति के अनुसार तुमने देश माता के लिये यह सब कुछ किया। देश-भक्ति कसूर नहीं है। यह शर्म करने या घबराने की चीज नहीं है। तुमने अपने जीवन की कीमत वसूल कर ली। अपने परम कर्त्तव्य को पूरा कर लिया। जब तक साँस चलती है, तब तक इस कोठरी में आनंद से रहो। जो तुम चाहते थे, वही तुमको मिला।" वह इस प्रकार के विचारों में अपने आपको भूल गये इसी समय बूटों की आहट से उनका ध्यान टूटा। जंगले से बाहर शौककर देखा कि नम्बर १ और नम्बर ४ प्लाटून के सैनिक जा रहे हैं उन्होंने जोर से आवाज़ दी — “ जवानों, घबड़ाना मत। मैं भी यहीं हूँ” [2]

                                              

सिर्फ अपने बारे में, परिवार, मां, बाप, पत्नी और बच्चों के बारे में सोचते हुए अपने किये पर पश्चाताप करते हुए डिप्रेशन का शिकार होकर विक्षिप्त अवस्था को प्राप्त हो चुके चन्द्र सिंह गढवाली को प्रस्तुत करने के लिए पूरे नाटक का जो ताना बाना बुना गया उसकी शुरुआती झलक एक मांगल गीत से होती है. जिसे गाते हुए कलाकार दर्शकों पर फूल बरसाते हुए एक दम बीचोंचीच से जाते हुए गुजरते हैं, मंच पर सामूहिक अभिनंदन करते हैं और विंग्स के पीछे निकल जाते हैं. यहाँ उस तरह की ओपनिंग और मंगल गीत की प्रासंगिकता का सवाल करना बेमानी है क्योंकि अभी आप नहीं जानते कि नाटक किस तरह से डेवेलप होगा. और वह अपने पहले दृश्य में उस बालक च्न्द्र सिंह से परिचित कराता है जिसकी बहादुरी का यह किस्सा नाटय टीम  के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है कि कैसे बालक चंद्र सिंह एक क्रोधित अंग्रेज अधिकारी के सिर पर एक तांत्रिक के मंत्र से शक्तिकृत भभूत चुपके से छिडक कर उसके क्रोध को कम कर देता है और निर्दोष लेकिन गुनहगार ठहराये जा रहे गांव वाले सिर्फ छोटे से जुर्माने की सजा में ही निपट जाते हैं.

अगले दृश्य पार्श्व में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आक्रोशित जनसमूह की आवाजें हैं, मंच पर हवलदार चन्द्र सिन्ह और उसकी बटालियन के दूसरे सिपाहियों को जनता पर गोली चलाने का हुक्म देते अंग्रेज फौजी अफसर हैं और जवाब में अपने साथियों सीज फायर का हुक्म देता हवलदार चन्द्र सिन्ह है.यही है पेशावर विद्रोह. जो ऐसे लगता है जैसे एकाएक घटा हो. ऐसा नहीं है कि तैयारी की आवश्यक कार्रवाइयों के विवरण राहुल संकृत्यायन द्वारा लिखी जीवनी में न हो. लगभग 415 पृष्ठ और 26 प्र्करणों में लिखी मूल जीवनी के लगभग 350 पृष्ठ ऐसे ही विवरणों से भरे हैं. लेकिन नाटय टीम की दिक्कत है कि यदि वह उन विवरणों के एक छोटे से प्रकरण को भी मंच पर लाए तो दो समस्यायें हैं.

1.      नाटक की समयावधि बढ सकती है क्योंकि बाकी वे हिस्से तो उसके लिए जरूरी ही हैं जिनसे अपनी कर्रवाई पर पछताते हुए असहाय से दिखते चंद्र सिंह के प्रति दर्शकों के भीतर सहानुभूति का भाव उपजाने और अपने लक्ष्य तक पहुंचना है.

2.      वैसे दूसरी दिक्कत ज्यादा बड़ी है,क्योंकि दर्शकों के भीतर पहले से ही मौजूद वीर चंद्र सिंह गढवाली की छवि को तोड‌ना तो मुश्किल ही हो जाएगा तो फिर अपनी पेंशन के लिए लाचार होकर गिडगिडाते चंद्र सिंह गढवाली को कैसे दिखाया जा सकता था.

घटनाक्रम के बाद जेल जीवन के दृश्य हैं और उससे पहले मोर्चे से वापिस भेज दिये गए बगावती सिपाहियों की आपसी बतचीत है. जिसमें चन्द्र सिन्ह के आर्यसमाजी हिंदू होने का खुलासा नाटय टीम को ज्यादा महत्वपूर्ण लगा है. खैर, प्रसंगों के चयन में  नाट्य टीम की स्वतंत्रता को सवाल क्यों किया जाए ? जबकि राहुल सांकृत्यायन की मूल जीवनी और पृष्ट 198 में दर्ज एक ऐसा ही विवरण हमारे पास हो,उसे देख लेते हैं,

            “चन्द्र सिंह के ऊपर आर्यसमाजी होने की बात कह करके एक और इल्जाम खड़ा किया गया था, जिसके लिये कोर्ट मार्शल ने एबटाबाद के डिप्टी कमिश्नर लेफ्टिनेंट कर्नल एम० ई० रेकी से गवाही ली थी, बयान भी लिया था।“[3]

यह विवरण राहुल उस वक्त देते हैं जब चंद्र्सिंह को बगावत का गुनाहगार घोषित करने के लिए सरकारी गवाह सूबेदार जय सिंह और सूबेदार त्रिलोक सिंह के बयानों का जिक्र मूल जीवनी में हो रहा है. सवाल है पेशावर कांड के वीर सिपाही को आर्यसमाजी हिंदू साबित करके वातायन नाट्य दल क्या कहना चाहता है. यहां यह आग्रह  नहीं कि वातायन को नागेंद्र सकलानी हो चाहे चन्द्र सिंह गढवाली, दोनों की कम्यूनिस्ट पहचान दिखानी ही चाहिए थी. जबकि अपनी परियोजना के सबसे मह्त्वपूर्ण नाटक मुखजात्रा में नागेंद्र सकलानी की मूल पहचान-कम्यूनिस्ट को छुपाने का एक इतिहास पहले से है. मूल जीवनी से चन्द्र सिंह गढवाली की जो छवि बंनती है उसकी एक बानगी यहां प्रस्तुत है कि अपने जनसमाज के बारे में वह समझदारी क्या थी,   


“हमारे गढ़वाल में ताँबा -लोहे की खानें हैं। नाना प्रकार की जड़ी-बूटियाँ, औषधियाँ हैं। पत्थर, लकड़ी है, कागज बनाने की सामग्री, मधु, शिलाजीत, इंगुर, फूल और फलों से जंगल सम्पन्न हैं। इससे भी बड़ी और महत्व की चीज बहती हुई गंगा की धारा है, जिससे हम करोड़ों किलोवाट बिजली पैदा करके घर-घर पहुँचा सकेंगे। हमारा गढ़वाल औद्योगिक प्रदेश हो जायगा । हम समय और शक्ति का सदुपयोग करेंगे।”

"हमें स्वस्तन्त्र भारत में जनतान्त्रिक गढ़वाल बनाने का मौका मिलेगा। हम १० लाख गढ़वालियों की आर्थिक समस्या, संस्कृति, भाषा, भारत के ६६० जिलों से भिन्न है। "

आज के टिहरी गढ़वाल और ब्रिटिश गढ़वाल, अपर-गढ़वाल और लोअर - गढ़वाल, ठाकुर और ब्राह्मण, डोम और बिष्ट, खैकर और हिस्सेदार, राजा और प्रजा, नहीं रहेंगे, लेकिन, हमको उस समय के इन्तजार में बैठे नहीं रहना होगा। हमें उस समय को लाने के लिये महान् से महान् प्रयत्न करने होंगे। जनता के बीच जाकर, उनके दुःखों का अध्ययन करके, उन्हीं के सामने रखकर उनको दूर करने का प्रयास करना होगा। जन-संगठन के द्वारा शक्ति प्राप्त करना, जनता में राजनीतिक जागृति लाना। भूख, महामारी, हर प्रकार के आशंकाओं के समय उनकी सहायता करके उनमें विश्वास प्राप्त करना होगा। आज संसार में ऐतिहासिक परिवर्तन होने जा रहा है। हमको भी इस ऐतिहासिक निर्माण में सक्रिय भाग लेना पड़ेगा। हमारी आजादी भी संसार की आजादी में निहित है, इसलिये हमें आपसी छोटे-छोटे झगड़ों को छोड़ देना चाहिये। वैसे तो डोला- पालकी का सवाल भी गौण सवाल नहीं है। इसमें भी नागरिक अधिकार और सामाजिक स्वतन्त्रता की माँग मौजूद है। मगर इस झगड़े से आम डोम जाति का उपकार हो सकेगा। शब्दों में चाहे आर्य कहो या हरिजन, अछूत कहो या आदिवासी, या डोम; उनके लिये अलग मंदिर बना दो, अलग कुआँ खोद दो या थोड़ी देर के लिये उनके हाथ का बनाया लड्डू भी खा लो, इन सबसे उनका असली उपकार नहीं हो पायेगा।“[4]

मंचन के लिहाज से बात की जाये तो बहुत ही बचकाना सा मामला था. जबकि अपने इस नाटक के साथ ही वातायन अपनी रंग यात्रा के 45 वर्षों का जिक्र करती है. इतना ही नहीं आजादी के अमृत महोत्सव के समय की अपनी इस नाटक को दिल्ली के गिन्नी बब्बर से निर्देशित करवाती है. जिनके परिचय में दर्ज करती है कि उन्होने  वर्ष 2012 में श्रीराम सेंटर फॉर आर्ट एंड कल्चर,नई दिल्ली से दो वर्षा का अभिनय में डिप्लोमा प्राप्त किया है. राजेंद्र नाथ, त्रिपुरारी शर्मा, बापी बोस,हेम सिंह, लेंडी ब्रायन, राज बिसारिया, रुद्र्दीप चक्रवर्ती,स्वरूपा घोष, चितरंजन गिरी,के एस राजेंद्रन,मुश्ताक काक व कई अन्य जाने-माने राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त व्यक्तियों/निर्देशकों के सानिध्य में काम किया है.       



[1] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, ध्रुवपुर (1950) ,  पृष्ठ 415

 

[2] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, गिरफ्तारी (1930 में),  पृष्ठ 179

 

[3][3] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, फौजी फैसला (1930 में),  पृष्ठ 198

 

[4][4] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, गांधी जी के पास,  पृष्ठ 305



उपयोग की जा रही सभी तस्‍वीरों के लिए जयदेव भट्टाचार्य का आभार। तस्‍वीरें उनके कैमरे का कमाल हैं।  

Wednesday, April 5, 2023

देहरादून में गोदान का सफल मंचन

 

यह स्‍वीकृत सत्‍य है कि नाटक अभिनेता/ अभिनेत्री का माध्‍यम है और इसी बात को एक बार फिर से साबित किया वातायन द्वारा मंचित नाटक गोदान ने। गोदान का मंचन  3 एवं 4 मार्च 2023 को टाउन हाल देहरादून में संपन्‍न हुआ। मंजुल मयंक मिश्रा क निर्देशन में खेला गया यह नाटक वातायन के युवा और वर्षो से रंगमंच कर रहे रंगकर्मियों का ऐसा सुंदर संतुलन था जिसमें निर्देशकीय समझ निश्चित ही सफलता का एक पैमाना बन रही थी।   

प्रस्‍तुति के लिहाज से संदर्भित नाटक ने न सिर्फ वातयान को ऐतिहासिक सफलता से गौरवान्वित होने का अवसर दिया, अपितु देहरादून रंगमंच के लिए भी यह प्रस्‍तुति एक यादगार प्रस्‍तुति के रूप में याद रखे जाने वाले इतिहास को गढने में सफल कही जा सकती है। 

 

संदर्भित नाटक का आलेख, हिंदी में यथार्थवादी साहित्‍य के प्रणेता कथाकार प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्‍यास ‘’गोदान’’ के आधार पर तैयार किया गया था और उपन्‍यास की उस मूल कथा को आधार बनाकर रचा गया है, आजादी पूर्व भारतीय किसान के जीवन की त्रासदी के प्रतीक के रूप में जिसके मुख्‍य चरित्र होरी के  जीवन का खाका प्रमुख तरह से प्रकट होता है। यानि ग्रामीण समाज के जंजाल को ही नाटक में प्रमुखता से उकेरा गया है। यद्यपि नाटक के उत्‍तरार्द्ध में गांव से भाग कर, शहरी जीवन के अनुभव से विकासित हुए गोबर के चरित्र की एक हल्की झलक भी मिल जाती है। लेकिन शहरी जीवन के छल छद्म और आजादी पूर्व के ग्रामीण समाज के जीवन को प्रभावित कर रही शहरी हवा और इन अर्न्‍तसंबंधों को परिभाषित करने वाले गोदान उपन्‍यास के अंशों से एक सचेत दूरी बरतते हुए निर्देशक ने जिस नाट्य आलेख के साथ गोदान को प्रस्‍तुत करने की परिकल्‍पना की, उसने नाटक की सफलता की जिम्‍मेदारी होरी और धनिया के कंधों पर पहले ही डाल दी। यानि नाट्य आलेख के इस रूप ने भी निर्देशक को पार्श्‍व में धकेलते हुए पात्रों को ही असरकारी भूमिका में प्रस्‍तुत होने का एक अतिरिक्‍त अवसर दिया। मंचन के दौरान यह स्‍पष्‍टतौर पर दिखा भी। धनिया के पात्र को जीते हुए सोनिया नौटिायन गैरोला और होरी की भूमिका में धीरज सिंह रावत ने निर्देशकीय मंतव्‍य को प्रस्‍तुत करने में अहम भूमिका अदा की। बल्कि यह कहना ज्‍यादा उचित होगा कि होरी के परिवार के अन्‍य पात्रों:  सोना के रूप में अनामिका राज, रूपा की भूमिका में सिद्धि भण्‍डारी और गोबर की भूमिका में शुभम बहुगुणा दर्शकों की निगाहों में ज्‍यादा प्रभावी तरह से प्रस्‍तुत होते रहे। लेकिन यह भी सत्‍य है कि अवसर की अनुकूलता के कारण से ही नहीं, अपितु अपने जीवन के सम्‍पूर्ण अनुभव को प्रतिभा के द्रव में घोलकर जिस तरह से सोनिया नौटियाल गैरोला ने धनिया के किरदार का जीवंत रूप में प्रस्‍तुत किया, उसे उनका दर्शक‍ एक लम्‍बे समय तक भुला नहीं पाएगा। रंगकर्म के अपने छोटे से जीवन में ही एक परिपक्‍व अभिनेत्री के रूप में सोनिया नौटियाल गैरोला को देखना और वैसे ही छोटे अंतराल के रंगकर्म के सफर में होरी के किरदार धीरज सिंह रावत का अभिनय इस बात की आश्‍वस्ति दे रहा है कि दून रंगमंच अपने ऐतिहासिक मुकाम की नयी यात्रा पर आगे जरूर बढेगा। रंग संस्‍था वातायन के लिए भी यह आश्‍वस्‍तकारी है कि नये-उत्‍साही और गंभीरता से नाटक करने वाले रंगकर्मियों का इजाफा उनके यहां हुआ है।

उम्‍मीद की जा सकती है कि गोदान के मंचन की यह सफलता वातायन को नयी ऊर्जा से जरूर भरेगी। बेहतर टीम वर्क ही उल्‍लेखित नाटक के मंचन  की सफलता को तय करता हुआ दिख रहा था। संगीत और प्रकाश का खूबसूरत संयोजन भी नाटक को प्रभावी बनाने में अहम भूमिका अदा कर रहा था।




उपयोग की जा रही सभी तस्‍वीरों के लिए जयदेव भट्टाचार्य का आभार। तस्‍वीरें उनके कैमरे का कमाल हैं।  

Wednesday, March 29, 2023

चमकता सितारा चुभन भरा कांटा

यह एक किस्सागो के जीवन का किस्सा है, जिसको उनकी ही जुबानी सुनने के लिए साक्षात्कार कर्ता तो निमित मात्र है. 25 नवम्बर 2022 की एक दोस्ताना शाम को किस्सागो सुभाष पंत जी के आवास पर ही बतियाने के लिए पहुंच जाने का प्रतिफल. उस वक्त ऐसी कोई योजना तो दूर, ख्वाब भी नहीं था कि किसी माह भर की समस्त पोस्ट्स को एक रचनाकार पर केंद्रित करते हुए ब्लाग पर विशेषांक भी निकाला जा सकता है. तब भी बातचीत को रिकार्ड यह सोच के कर लिया था कि इसका कोई सार्थक उपयोग किया जाएगा.

निश्चित ही यह बातचीत इस मायने में दुर्लभ सन्योग का प्रतिफल है कि कैसे बैंड मास्टर बनने की ख्वाइश रखने वाला बच्चा, रोजी राजगार के लिए अपने पंख फैलाते हुए न सिर्फ एक वैज्ञानिक के पद तक पहुंचता है, बल्कि बैंड मास्टर बनने या फिर सिनेमा ओपरेटर बनने के सपने देखते हुए तकलीफो में जीते आवाम के दुख दर्द से अपने को जोड़ते हुए उनके क़िस्सों को ऐसे दर्ज करने लगता है कि हिंदी कथा साहित्य की दुनिया जगमगाने लगती है.

मेरा मानना है कि कथाकार सुभाष पंत से यह बातचीत इस ब्लाग के लिए ही नहीं हिंदी साहित्य की दुनिया के लिए एक तोहफा है.  

-विगौ
कथाकार सुभाष पंत अपनी पत्नी सुश्री हेम जी के साथ  
प्रकाशित रचनाएं


कहानी संकलन
तपती हुईज़मीन,
 चीफ के बाप की मौत, 
इक्कीस कहानियां, 
जिन्न और अन्य कहानियां,
 मुन्नीबाई की प्रार्थना, 
दस प्रतिनिधि कहानियां, 
एक का पहाड़ा, 
छोटा होता हुआ आदमी, 
पहाड़ की सुबह, 
सिंगिंग बेल,
लेकिन वह फ़इल बंद है, 
इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़
(उपन्यास)
सुबह का भूला और पहाड़ चोर, 
एक रात का फ़ा़सला -  अप्रकाशित उपन्यास 
(नाटक)
चिडिया की आंख   

प्र.: पंत जी अगले वर्ष आप 85वे वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं, आपकी साहित्यिक यात्रा की हल्की झलक से तो मैं परिचित हूं, लेकिन आज आपके बचपन को जानने की जिज्ञसा है. उम्मीद है आप यदि अपनी स्मॄति में जोर देंगे तो मेरी जिज्ञासा का कुछ शमन जरूर होगा.        

मेरा जन्म अपने ननिहाल डांडा गांव (देहरादून) में हुआ. मैं देहरादून में ही पैदा हुआ. देहरादून में ही मेरी पढाई लिखाई हुई. देहरादून में ही मैंने नौकरी की और देह्रादून में ही मैं अपनी अंतिम सांस भी लूंगा. मेरी मां डांडे गांव कीं थी. इस तरह से तुम समझो मै पूरी तरह से देहरादुनिया हूँ और देहरादुनिया ही रहूगा. घर वाले बताते थे कि मेरा जन्म मूल नक्षतर के प्रथम चरण में हुआ. वही,   जिसमे तुलसीदास का हुआ था. जन्म के इस सन्योग का प्रतिफल यह था कि मान लिया गया यह जातक पिता के लिए अनिष्टकारी है और इसे किसी को दे दिया जाये. बहरहाल, मेरे जन्म पर ज्योतिषयों ने निर्देश दिए कि पिता को इस जातक का मुंह नहीं देखाना चाहिए। ननिहाल में जातक को त्यागकर किसी और परिवार को देने पर भी गम्भीरता से विचार किया गया। यानी, इधर मैं इस विलक्षण संसार में पहली सांस ले रहा था, उधर मेरे घर से निष्कासन के लिए नैपथ्य में घोड़े सज रहे थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। शायद मेरी जीवनेच्छा पंडितों की भविष्यवाणी से कहीं मजबूत थी। मेरे जन्म की सूचना पाकर पिता आए, उन्होंने मेरा मुंह भी देखा और मेरे घर-निष्कासन की सारी संभावनाओं को खारिज कर दिया। लेकिन मेरी मां ने पूरे जीवन में मुझे कभी अपनाया नहीं. एक शत्रुभाव उसके मन में रहा. तो एक माँ का जो प्यार होता है, वह मैं जानता ही नहीं. वह मेरी तारीफ वारीफ खूब करती थी. लेकिन और बच्चों को जितना वह प्यार करती थी, मुझे नहीं किया कभी. क्योंकि शायद उनके दिमाग में यह हो गया था कि ये जो है मेरे पति का हंता होने वाला है. यह एक तंत्र है जिसे मैंने बचपन से देखा. जबकि पंडितों की भविष्यवाणी को झुटलाते हुए मेरे पिता पूरे चौरासी वर्ष तक जिए.

मेरे होश संभालने पर मां मुझे अकसर बताती थी कि वह मुझे छः महीने बाद ननिहाल से घर (डोभालवाला) लाई थी। इत्तिफाक से मेरे घर आते ही पिता गम्भीर रूप से बीमार हुए थे और लम्बे समय तक बीमार चलते रहे. बीमार हो जाने के कारण उनकी नौकरी छूट गई. करीब पाँच-छै महीने वे बीमार रहे. जिसने परिवार की आर्थिक चूलें हिला दी थी।

मेरे पिता सिनेमा ऑपरेटर थे. बचपन में ही अनाथ हो जाने के कारण उन्हें पढ़ाई बीच में ही छोड़कर धंधे की तलाश में जूझना पड़ा था। वे उस उम्र में ही जीवन-संग्राम में कूद पड़े जो खेलने की उम्र थी। उन्होंने सिनेमा मशीन का काम सीखा और वे मशीन चालक हो गए। वे दर्जा सात फेल थे और बहुत कुशल ऑप्रेटर माने जाते थे। लेकिन उनका दुर्भाग्य यह था कि वे जिस सिनेमा में भी ऑप्रेटर होते उसका दिवाला निकल जाता। उन्हें एक तो वेतन बहुत कम मिलता और वह भी कई कई महीनों में मिलता, ऊपर से बेरोजगारी भी झेलनी पड़ती, जिस कारण हम निरन्तर आर्थिक दलदल में फंसे रहते थे। पिता ने इस दलदल से उभरने के लिए कई भागीरथ-प्रयास भी किए। जैसे मां के गहने-कपड़े बेचकर तांगा-घोड़ा खरीदा जिसे भाड़े पर चलाने के लिए एक नौकर रखा। लकड़ी की टाल खोली। लेकिन सब जगह नुकसान उठाना पड़ा। दरअसल वे इतने सीधे-सच्चे इंसान थे कि उन्हें बच्चा भी ठग सकता था। और ऐसा हुआ भी। उनकी कहानी निरन्त ठगे और हारते जाते किसी सीधे-सच्चे हिन्दुस्तानी की कहानी है। वे अकसर कहा करते थे कि अगर वे सरकारी महकमें में चपड़ासी-खलासी भी होते तो उनकी जिन्दगी इससे कहीं बेहतर होती। सरकारी महकमें में चपड़ासी-खलासी बनने का बहुत छोटा सा सपना था उनका और वह सपना भी कभी पूरा नहीं हुआ। मुझे इस बात का निरंतर खेद रहा कि जब सपने टूटने ही थे, तो उन्होंने बड़े सपने क्यों नहीं देखे...

बहरहाल, नौकरी छूट जाने से परिवार की जो आर्थिक लड़खड़ाई उसने हमारे सामने जो पहला संकट खड़ा किया वह रोटी का संकट था. यानी मेरा जो बचपन है, इस लडखडाती व्यवस्था का बचपन है. इस तरह गरीबी मैंने अनुभव भी की है. हालांकि एक ब्राहमन होने के नाते उस तरह से नही अनुभव की जिस तरह से देश के दलित लोग करते हैं. क्योंकि मुझे सामाजिक सम्मान तो था. ठीक है रोटी नहीं थी, लेकिन सामाजिक रूप से सम्मान था.  

प्र.: आपकी पढ़ाई-लिखाई कहां हुई ? और आपके व्यक्तित्व के निर्माण में उसकी क्या भूमिका रही ? उस शिक्षा ने एक साहित्यकार बनने में किस तरह मद्द की ?  

मेरी शिक्षा का आरम्भ बेसिक प्राइमरी पाठशाला, चुक्खूवाला से हुआ। शिक्षा में पिता का योगदान बस इतना ही रहा कि एक बार उन्होंने मुझे प्राइमरी पाठशाला में अलीप (अलिफ़) में भर्ती कराया. तब कक्षा एक से पहले अलिफ़ और बे हुआ करते थे, लोअर के.जी और अपर के.जी की तरह. दूसरी बार दर्जा छह में तहसील जूनियर हाई स्कूल में। बाकी सब उन्होंने राम भरोसे छोड़ दिया था।

पढने में मैं ठीक रहा. जब मैं दूसरी कक्ष में था, मेरी बुआ मुझे दिल्ली ले गई। घर की खस्ता हालत को देखकर. एक साल उनके साथ रह कर मैंने दूसरी कक्षा की पढ़ाई की। इस दौरान देश ने आजादी का गौरव पाया, विभाजन की त्रासदी झेली और महात्मा गांधी का कत्ल हुआ। मैं बीसवीं शताब्दी की इन दो सर्वोच्च घटनाओं का गवाह हूं। हम दरीबा के कटरे में रहते थे जिसके समीप जामा मस्जिद का मुस्लिम बहुत क्षेत्र था। लोग बहुत उत्तेजित थे और दहशतजदा भी। देश में आजादी आ रही थी और दंगे हो रहे थे। किसी संभावित खतरे के खिलाफ कटरे के हर घर में ईंटें वगैरह जमा किए जा रहे थे। फूफा ने बंडी की जेब में नगदी छिपा रखी थी और बुआ ने कपड़े में लपेटकर गहने पेट में बांध लिए थे। सांझ होते ही कटरे के दोनों ओर के बुलन्द दरवाजे बंद कर दिए गए थे और जवान हथियार लिए ‘जय महादेव’ का घोष करते हुए पहरा दे रहे थे। हवाओं में आतंक था। रात उतर रही थी और किसी की आंख में नींद नहीं थी। कभी भी आक्रामक आ सकते हैं और मार-काट हो सकती है। रात बीत गई कटरे में कोई दंगा नहीं हुआ और सुबह पता चला कि हम आजाद हो गए हैं। कटरे के दरवाजे खुल गए। उस रोज साइकिल पर लदकर जो दूध आता था वह नहीं आया। मैं आंख बचाकर छत पर चला गया। यह आजाद देश की पहली सुबह थी और मेरे सिर पर आजाद देश का पहला आसमान फैला हुआ था। याद नहीं आ रहा है कि उसमें बादल छाए थे कि सूरज चमक रहा था। छत से चांदनी चौक दिखाई दे रहा था। दुकाने अभी बंद थी। एक आदमी अपनी जान बचाने के लिए गुहार लगाता हुआ दौड़ रहा था और कई आदमी हाथ में कांच की बोतलें लिए उसकी जान लेने के लिए वहशी से उसके पीछे दौड़ रहे थे। यह पहला दृश्य था, जो स्वतंत्र भारत में मैंने देखा था। यह आजादी से मेर पहला साक्षात्कार है. एक लम्बा अरसा गुजर चुका है लेकिन यह दृश्य मेरे मानस-पटल पर अभी भी थरथरा रहा है।

उस एक साल के बाद न मेरा मन लगा बुआ के घर और न बुआ को ही लगा कि इसे रखा जाना चाहिये और इतिहास की इन दो बड़ी घटनाओं के बाद मैं दिल्ली से वापिस अपने पुराने स्कूल में लौट आया। फिर जब मैंने दर्जा पांच पास कर लिया तो मुझे छठी में तहसील जूनियर हाई स्कूल में भर्ती कराया गया। यह कह कर कि यहां गणित बहुत अच्छी होती है. लेकिन इसके पीछे कारण यह था कि यहां फीस बहुत कम थी. कहते हैं वह औरंगजेब के जमाने का स्कूल था । टिपरा हाउस में चलता था, जहां पर आजकल गवर्नमेंट गर्ल्स स्कूल है । उसकी छत बुरी तरह से झूल रही थी लेकिन उसका कैंपस बहुत बढ़िया था. 

मैं दर्जा सात में था, हमारे लिए बहुत मुसीबत का साल रहा। चार-पांच महीने के भीतर घर में तीन भाई बहनों की मौंतें हो गईं। जाहिर था कि ये मौंतें कुपोषण और चिकित्सा के अभाव में हुई थीं। लेकिन पिता के दिमाग में ऐसा बैठ गया कि ये मौतें किसी ‘ओपरी’ वजह से हुई हैं। घर पे किसी ने घात मारी है और अब यहां कोई भी जिंदा नहीं रहेगा। पिता को यह लगा, कि किसी ने जादू कर दिया हमारे ऊपर. मेरे उपन्यास- पहाड़चोर में जादू टोने की ऐसी स्थितियां इस अनुभव से ही है. पहाड में यह स्थिति बहुत आम रही. हमारे पिता एक तरह के डिप्रेशन के शिकार हो गए. उन्हें हर वक्त लगता था मेरे पीछे भूत है, एक छाया आ रही है. मां छोटे से अंतराल में तीन बच्चों को खोकर खुद टूटी हुई थी। उसने पिता को समझाने की जगह और हवा दी। असुरक्षा की भावना से वे अर्ध विक्षिप्त हो गए।  पूरा घर भयभीत रहने लगा. हर आदमी को परछाइयाँ दिखाई दे रहीं. हर आदमी को आवाजे सुनायी दे रही हैं. लेकिन मेरे मन में विद्रोह हुआ इस चीज के लिये. हमारा यह मकान दो तल्ले का था उस समय. नीचे वाला हमारे पास था. तो सभी नीचे रहते थे, एक ही कमरे में. डरे हुए, कहीं ऐसा न हो कि भूत खा जाए. मैं ऊपर जा कर सोता था. क्योंकि जिसे सब इस डाह के लिये जिम्मेदार ठहरा रहे थे, उसे मैं जानता था. वह तो बेचारी उसी बात की मारी थी, जिसमें किसी भी विधवा को डाह घोषित कर दिया जाता है. फादर की हालत यह हो गई कि मैं बचूंगा नहीं. घर में कोईं बचेगा नहीं. वे जादू-मंतर वालो के चक्कर में आ गये. कभी कोई पंडित जी बुलाये जा रहे, कभी कोई हंडिया फूट रही, और न जाने क्या क्या हो रहा. पूरा घर कीला जा रहा. खूब नाटक हो रहा. लेकिन कोई उन्हें कह दे, ये सब बेकार की बातें हैं तो उन्हें लगता कि मेरा सबसे बड़ा दुश्मन है. मैं तो बडी मुश्किल से घर को बचा रहा हूँ. परिवार के लोगों को बचा रहा हूँ. और ये मेरे अगेंस्ट में जा रहे.

उन्हें हर समय लगता कि कोई छाया उनका पीछा कर रही है। घर उनके लिए श्मशान या कत्लगाह हो गया था। वे हमें लेकर कभी एक ठौर जाते, कभी दूसरे ठौर। हम पूरी तरह से खानाबदोश हो गए थे। ओझा, तांत्रिकों के शिकंजे ने पिता को पूरी तरह जकड़ लिया था। वे जो कुछ कमाते इनके हवाले कर देते। आश्चर्य की बात है कि ऐसे विकट समय में मेरे भीतर पहला रचनात्मक विस्फोट हुआ। उन दिनों हम मां के ननिहाल अजबपुर में शरण लिए हुए थे।

बाद में मेरी माँ के नाना मामा को लगा कि यहाँ तो हालत खराब है घर की. वे अजबपुर में रह्ते थे. मेरी माँ का मायका तो डांडे गांव में था. वे हम सब लोगों को अपने घर ले गए अजबपुर. वहां से तहसील स्कूल चार-पांच मील की दूरी पर था और यह रास्ता मुझे पैदल तय करना होता था। तब दूरी, दूरी ही नहीं लगती थी. माँ के नाना मामा छोटे किसान थे. लेकिन दिल बडा था, किसानों वाला. एक आदमी उन्होंने पिताजी के साथ लगा दिया कि वह उन्हें सिनेमा लेकर जाए और वापस लेकर आए और हमें बोल दिया तुम हमारे साथ रहोगे ।

इसी दौरान मेरे भीतर साहित्य का विस्फोट हुआ. सेवंथ क्लास में जब मैं था, तहसील के सारे स्कूल के अध्यापकों ने अपनी मांगों के समर्थन में एक रैली निकाली, जिसके जुलूस में मिडिल स्कूल के सभी छात्र शामिल हुए थे। अध्यापकों की सबसे बड़ी ताकत उसके विद्यार्थी ही होते हैं, जिन्हें वे अपने हित में इस्तेमाल करते हैं। इस जुलूस में मैं भी पूरे जोशो-खरोश के साथ भागीदारी कर रहा था। यह जुलूस परेडग्राउंड में पहुंचकर विशाल सभा में बदल गया और मंच से अध्यापक अपने दुःखों और संकटों के बारे में बताने लगे। तहसील स्कूलों के अघ्यापकों का भी वेतन बहुत कम था और वह भी समय पर नहीं मिलता था। अध्यापको की करुण गाथाओं ने मेरे मानस पर गहरा असर डाला और मैं भयानरूप से विह्नल हो गया। यह एक अजीब ढंग की बेचैनी थी। मुझे इससे छुटकारा तब मिला जब मैंने अजबपुर लौटकर रात में टिटिमाते दिए की लौ में अपनी करुणा कागज पर उतार ली। यह मेरे जीवन की पहली रचना थी और इसे जन्म देने में मैंने असहनीय पीड़ा और जन्म देने के बाद अपरिमित सुख अनुभव किया था। अपनी यह रचना मैंने स्कूल की बाल-सभा में सुनाई । तहसील जूनियर हाई स्कूल की एक बड़ी खूबी थी कि वहां बालसभा हुआ करती थी. उसमें तीनों क्लास के बच्चे- छठवी, सातवीं आठवीं, इकट्ठे हो जाया करते थे. वहां पर, अंताक्षरी होती, या जिस किसी को कुछ सुनाना है, वह सुनाएं. यह बच्चों के बीच में प्रतिभाओं को निखारने का तरीका था. अगली बालसभा जब हुई उसमें मैं भी लिख क ले गया था.  लेकिन संकोच के कारण मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी. मैं बार-बार अपने दोस्त को कह रहा था कि वह बोले गुरु जी को. मेरे दोस्त ने वहीं से बोला, गुरुजी सुभाष भी कुछ लिख कर लाया है, सुनाना चाहता है. गुरुजी ने मुझे बुला लिया. कांपते हुए पैरों के साथ मैं मंच पर गया और जो कुछ लिखा था उसे पढ़कर सुनाने लगा.  इसे सुनाते हुए मेरे पैर थरथरा रहे थे, स्वर कांप रहे थे और आंखों में आंसू छलछला रहे थे। रचना के समाप्त होते ही हैड मास्साब ने मुझे अपनी बाहों में जकड़ लिया। शायद उनकी आंखों में भी आंसू थे। हैड मास्साब ने वह लेख उन्होंने मुझसे ले लिया, यह कहकर कि मैं इसे कहीं छपवाऊंगा. इस तरह से मैं वहां पर लेखक डिक्लेअर हो गया. बाद में यह आलेख ‘शिक्षक-बंधु’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ, जो शायद आगरा से निकलती थी। तहसील जूनियर स्कूल के पूरे इतिहास में मैं वह पहला छात्र बन गया जिसकी कोई रचना किसी पत्रिका मैं छपी। वह भी बच्चों की किसी पत्रिका में नहीं, अध्यापकों की गम्भीर पत्रिका में।

दर्जा आठ की परीक्षा के बाद गर्मियों की छुट्टियों में पिता ने मुझे कम्पोजिटर का काम सीखने के लिए ‘सिंधी प्रेस’ में लगा दिया। संभवतः उनके दिमाग में मेरे भाविष्य की इससे बड़ी कोई  तस्वीर नहीं थी। लेकिन मैं यह काम नहीं सीख पाया, क्योंकि ‘शिक्षक-बंधु’ में लेख छप जाने के बाद मैं अपने को लेखक मानने लगा था और लेखक होने के नाते कम्पोजिटर के काम को मैं बहुत घटिया समझता। कंपोजिंग सिखाने वाला जो शख्स था, मुझे बहुत प्यार करता था. वह कहता, तू बहुत जल्दी सीख लेगा काम. लेकिन मैं उसे कहूं, भाई मैं तो लेखक हूं, मैं कंपोजिटर नहीं हो सकता. वह मुझे मेटल के अक्षरों को जोड़ने के लिए कहता था. बताता था यह ‘क’ है, ‘ब’ है.  मैं सबसे पहले उसमें सुभाष जोड़ने लगता. बाकी जो काम की चीजें होती थी, उसमें मैं कुछ इधर जोड़ दू तो कुछ उधर. गैली तोड देता. गैली तोड़ने के बाद हर बार मुझसे अक्षर गलत खानों में पड़ते, जिससे मालिक नाराज हो गया और उसने मुझे छापाखाने से बाहर निकाल दिया। प्रैस में मैं नालायक सिद्ध हो गया था. उसका परिणाम यह हुआ कि मुझे 9th क्लास में डीएवी कॉलेज में भर्ती कर दिया गया. अगर मैं कंपोजिटर बन जाता तो नाइंथ क्लास में पढ़ता हुआ नहीं होता लेकिन मैं कंपोजिंग में फेल हो गया था.

जब दर्जा 9 हो गया तो दर्जा 10 तो होना ही था. उस समय मेरे साथ यहां के- डोभालवाला, चुक्कूवाला के दस-बारह लड़कों ने हाई-स्कूल की परीक्षा साथ दी थी। हम अलग अलग स्कूलों में पढ़ते थे, फिर भी हमारे बीच भाईचारे जैसी कोई चीज पैदा हो गई थी। परिणाम वाले दिन सुबह ही हम सभी इकट्ठा होकर न्यूज एजेन्सी गए। यह मालूम होने पर कि रिजल्टवाला अखबार तीन बजे से पहले नहीं आएगा। हमने सलाह की कि रिजल्ट आने तक रायपुर की नहर के किनारे पिकनिक मना ली जाए। बाद में तो पता नहीं क्या होने वाला है। परिणाम पूर्व के समय को तनाव में क्यों बरबाद किया जाए। किराए पर साइकिलें लेकर और एक-एक पर तीन-तीन लदकर शोर मचाते, रास्ते मे दिखाई देनेवाली लड़कियों से छेड़खानी करते हुए हम पिकनिक स्थल पर पहुंच गए और हमने खूब  खूब मस्ती काटी। लौटे तो हमने दून क्लब की बगल से गुजरती सड़क पर कई आदमियों को अखबार लिए दौड़ते हुए देखा। ‘रिजल्ट निकल गया है,’ कोई चिल्लाया और हमारे दिल पंखे की तरह डोलने लगे। हमने हाथ-पैर जोड़कर अखबार लिए दौड़ते एक आदमी को रिजल्ट बताने के लिए फुसला लिया। वह अखबार की उस प्रति का मालिक होने की वजह से, जिसमें लाखों बच्चो का भविष्य कैद था, एक गर्वीली अकड़ से भरा हुआ था, लेकिन वह दयालु भी था क्योंकि हमारा रिजल्ट बताने के लिए वह नाली की उस मुंडेर पर बैठ गया था, जिसके नीचे कचरा बह रहा था। मेरे साथ जितने भी लड़के थे वे सारे फेल हो गये और मैं पास, सेकंड डिविजन। अखबार वाले सज्जन ने पहले तो मुझे देखा, फिर बोला- पास हो गया तू, सेकंड डिवीजन. अबे इतना दुबला पतला लड़का, तू पास हो गया.  एक बारगी साथियों के फेल होने का दुख भी मुझे हुआ कि इतने लोगों का साथ छूट रहा है. वैसे फेल होने वाले को हम लड़कों में ज्यादा सम्मान से देखा जाता था.

अब मैं जब घर आया, पिता उस समय नौकरी पर गए हुए थे. मां मेरी, बेशक मुझे पसंद नहीं करती थी, लेकिन पढ़ने में बहुत सपोर्ट करती थी. वह बडी बोल्ड महिला थी. इतनी बोल्ड महिला मैंने अपने जीवन में कोई दूसरी नहीं देखी. भाषा की तो मास्टर थी. वह शब्दों की जादूगर थी। वह इन्हें तलवार की तरह भी इस्तेमाल करना जानती थी और संजीवनी की तरह भी। उसकी भाषा दो आयामी थी। ऐसे व्यंग में बात करती थी कि आदमी को छलनी कर देती, लेकिन खुद पारे की तरह फिसल जाती और पकड़ में न आती। मेरी भाषा में जो कुछ थोड़े बहुत व्यंग हैं, वहीं से हैं.  इतनी बोल्ड थी कि एक बार जब मैं छोटा था तो मुझे लेकर कौलागढ़ गई। वहां उन दिनों रामायण चल रही थी, कोई व्याख्यान चल रहा था। वहां पर जो पंडित जी थे, बड़े प्रसिद्ध पंडित, अभी नाम याद नहीं आ रहा, सती प्रथा के पक्ष में बोल रहे थे। वहां सो डेढ़ सौ आदमी जमा थे. मां बीच में से खड़ी होकर और वही से बोली, पंडित जी औरते तो सती हो जाएंगी पहले तुम सता होकर दिखाओ। जब तुम्हारी पति-पत्नी मरे तो तुम भी सता होकर दिखाना. मेरी पढ़ाई को लेकर मां ने हमेशा मेरी मदद की. शायद पढ़ाई को लेकर उसके दिमाग में जरूर कोई कंपलेक्सेस रहे होंगे. वह उन्हे मुझ में पूरा करना चाहती थी.

अगस्त की घनघोर बारिश और प्रलयंकारी तूफान में घर के छत की टिने उड़ गई थी और जीने की तरफवाली दीवार बैठ गई। सुबह का वक्त था. पिता दीवार चिन रहें थे और मैं तसले में गारा भरकर उन्हें दे रहा था, उसके बाद उन्हें 11:00 बजे के आसपास सिनेमा जाना होता था. मैंने बताया मैं पास हो गया सेकंड डिवीजन. पिता ने कहा, ठीक है अब नौकरी कर लो.

मैंने कहा, जी मैं तो पढ़ना चाहता हूं. मुझे उस समय का उनका कहा शब्द याद है- उन्होंने कहा अबे यार तू अगर पत्थर होता तो मैं तुझे दीवार में तो लगा देता.  दर्जा 8 से ही मैं ट्यूशन पढ़ाने लगा था. होता यह था की उस समय दर्जा 8 पास करना भी बहुत बड़ी बात मानी जाती थी. परिवार में मेरे बारे में एक अच्छी राय बन रही थी. मैं पढ़ने में अच्छा हूं. बस इसिलिए परिवार के ही एक बेटे और बेटी को दर्जा आज तक की पढ़ाई करवाने की जिम्मेदारी मुझे मिल गई और पारिश्रमिक मिला एक गिलास दूध. मैं एक गिलास लेकर जाता था पढ़ाने और वहाँ से मुझे गाय का दूध मिलता था. मुझे उस दूध में, सच में, गाय के खुर दिखाई देते थे. तुम भी देखना कभी गाय के दूध में उसके खुर दिखाई देते हैं. उससे मेहंताने से फायदा यह होता था कि घर का चाय का खर्च कट जाता था. चाय का दूध मैं ले आता था. उस तरह पढाने से फायदा यह हुआ कि मुझे दो-चार ट्यूशन और मिल गई. अब कुछ रुप्ये भि मिल जाते थे. ₹5 प्रति ट्युशन. इसिलिए मेरा यह अरगुमेंट था कि यदि मैं अपना फीस का खर्चा निकाल लेता हूं तो मुझे आगे पढ़ना दिया जाए। कुछ ट्यूशन और कर लूंगा। उस वक्त  मां ने ही मुझे सपोर्ट किया.

नहीं, यह पढेगा. मैं खर्चा दूंगी।

महिलाओं की एक आदत होती है परिवार कितने भी संकट में हो वह अपने रोज के खर्चे में से जो कुछ बचाती हैं, संकट के वक्त उसको निकाल लेती हैं। यह महिलाओं के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी ताकत है कि जब परिवार मुसीबत में हो तो सामने आ खड़ी होती है । बस फिर मेरा फर्स्ट ईयर एडमिशन हो गया डीएवी कॉलेज में और यही मेरे साहित्य का दूसरा विस्फोट होता है

मैं विज्ञान का छात्र था. इसलिए नहीं कि कौन सा सब्जेक्ट मुझे पढ़ना था, बल्कि, इसलिए कि उस वक्त यह मान्यता थी फिजिक्स केमिस्ट्री मैथस लेने से नौकरी आसानी से मिल जाती है.

यहां बगल में एक किराएदार रहते थे, वर्ल्ड बैंक के प्रोजेक्ट में काम कर रहे थे, जो प्लेग की रिसर्च संबंधित था यह. वे बहुत सारी किताबें लेकर के आते थे. उन्हें किताबें पढ़ने का शौक था. उस समय छोटी-छोटी दुकानें होती थी किताबों की, जहां किराए में किताबें मिलती थी.  बहुत सारे बन्नूवाल लोग, पार्टीशन के बाद जो यहां पर आए, दुकानें उन्होंने ने खोली थी। विभाजन की मार को झेल रहे वे जबरदस्तलोग रहे. संघर्ष कर रहे थे जीने का. इसलिए बहुत से ऐसे काम करते थे जिससे रोजी रोटी का मामला कुछ निपट सके। उन लोगों ने भीख नहीं मांगी, अपने तरह से संघर्ष किया । इस तरह से कई किताब जो वे पड़ोसी लेकर आते थे, मुझे भी पढ़ने को मिल जाती थी. बस उसी से मैंने कुछ साहित्य पढ़ लिया. गुलशन नंदा, प्रेमचंद, और भी कई। जो भी किताब आ जाती थी वही पढता. इस तरह से मेरा रुझान साहित्य की ओर होने लगा. मेरी हिंदी की कोर्स की किताब में जो छायावाद पर रचनाएं होती, मुझे बहुत प्रभावित करने लगी। छायावाद में भी कहूं तो महादेवी वर्मा. उनकी करुणा. लेकिन उसी वक्त मुझे लगा कि मुझे नौकरी कर लेनी चाहिए थी, क्योंकि वह सिनेमा जहां पिता काम करते थे, बिक गया। इसे जुब्बल के राजा ने खरीद लिया था। हालांकि बाद में उन्होंने सिनेमा हॉल ही चलाया लेकिन उसका नाम बदलकर ‘दिग्विजय टॉकीज’ कर दिया. उससे पहले ‘प्रकाश सिनेमा’ के नाम से प्रसिद्ध रहा।  दिक्कत यह हुई कि सिनेमा रिनोवेशन के लिए बंद कर दिया गया। रिनोवेशन का काम सालभर या इससे ज्यादा ही चलना था और इस दौरान पिता को सिर्फ रिटेनरशिप फीस ही मिलनी थी, जो उस बढ़ती हुई मंहगाई में बहुत कम थी। बड़ा बेटा होने के नाते घर की चिन्ताओं में शामिल होना मेरा दायित्व था। मैं और ज्यादा ट्युशनें करने लगा। लेकिन यह उस गरीबी के विरुद्ध बहुत दरिद्र और दारुण प्रयास था, जिसे हम झेल रहे थे। कोई जादू या लीला ही हमें पार उतार सकते थे। और सचमुच ऐसा एक करिश्मा मेरे हाथ आ गया। शायद यह विचार कोई फिल्म देख कर आया था, हो सकता है

कोई उपन्यास पढ़कर, कि मैं एक ऐसा उपन्यास लिख डालूं, जिसे प्राप्त करने के लिए पुस्तक विक्रेताओं के यहां लाइने लगी हों। और सचमुच मैंने ग्यारहवीं की छुट्टियों में एक उपन्यास ‘चमकता सितारा चुभन भरा कांटा’ लिख मारा। इसे लिखने में मुझे कतई भी दिक्कत नहीं हुई। तब मैं यह नहीं जानता था कि क्या नहीं लिखा जाना चाहिए। अब जान गया हूं तो लिखना बहुत मुश्किल हो गया है। यह एक प्रेम-त्रासदी थी। मैं इसे पढ़ता तो मेरी आंखों से अविराम अश्रुधारा बहने लगती। जिसे सुनाता, वह भी करुणसिक्त हो जाता। मां ने पढ़ा तो उसे लगा कि ऐसे पुत्र रत्न को जन्म दे कर उसकी कोख धन्य हो गई है। मैं तो खैर अपने को साहित्याकाश का चमकता हुआ सितरा समझ ही रहा था। मुझे विश्वास था कि इसके प्रकाष्श्ति होते ही साहित्य जगत में विस्फोट हो जाएगा। मैंने अपनी व्यथा-कथा के साथ अनेक प्रकाशकों को इसे प्रकाशित करने के लिए पत्र लिखे। प्रकाशकों के एड्रेस इकट्ठे किए और सबको एक एक चिट्ठी लिखी कि मैं पढ़ने वाला विद्यार्थी हूँ. आप मेरा यह उपन्यास छाप लीजिए ताकि मैं आगे पढ़ सकूं.  कुछ ने जवाब ही नहीं दिया, कुछ ने हमदर्दी जताते हुए खेद व्यक्त कर दिया. यह उपन्यास बाद में एक प्रकाशक ने छापा, लेकिन यह दूसरी ही कहानी है।

मैं आकाश से औंधे मुंह जमीन पर गिर पड़ा और मैंने तय कर लिया कि मैं कुछ भी बनूंगा, पर लेखक कभी नहीं बनूंगा।

बहरहाल वक्त चलता रहा। वह कभी नहीं रुकता। महानतम घटनाओं के लिए भी नहीं रुकता। गति ही उसका धर्म है। मैंने इंटरमीडिएट पास कर लिया और डी.ए.वी. कॉलेज में बी.एस-सी. में प्रवेश ले लिया। पिता ऐसा नहीं चाहते थे, आर्थिक स्थिति भी यह सचमुच नहीं चाहती थी, लेकिन मैं चाहता था और मां मुझे सहारा दे रही थी। छुट्टियों के बाद मैं सेकंड ईयर में चला गया. और अब पिता की तुलना में मेरी सामाजिक हैसियत भी बढ़ गई थी। वे जिस सिनेमा में नौकर थे, मैं उस सिनेमा के मैंनेजर के बच्चां का सम्मानित ट्यूटर हो गया. हुआ यह कि सिनेमा का रिनोवेशन चल रहा था. पिताजी रोज ही वहा जाते थे. बेशक काम ना हो तब भी जाते थे. मैं भी कभी-कभी उनके साथ जाता था. एक रोज सिनेमा के मैनेजर ने पिताजी से पूछा, यह कौन है? 

पिताजी ने कहा, मेरा बेटा है.

उसने मेरी पढ़ाई के बारे में पूछा और मुझे कहा मेरे बच्चों को पढ़ा दो. वह जुब्बल स्टेट का कारिंदा था और सिनेमा का मैनेजर. जुब्बल इस्टेट में रह्ता था. राजा वहा रहता नहीं था. बहुत ही भव्य घर था उनका. मैं उनके यहां जाकर के बच्चों को पढ़ाने लगा. अच्छी रकम मिलने लगी. बस फिर तो जब कभी वह आता तो मुझसे बहुत हंस कर बातें करता.

इस तरह से मुझे एक अच्छा ट्यूशन मिला मेरा साहित्य विस्फोट दूसरा यहां पर खत्म हुआ. ट्यूशन से मुझे इतना पैसा मिल जाता था कि मैं अपनी फीस दे ही देता था, बल्कि थोड़ा बहुत घर को भी मदद कर देता था. तब तक सिनेमा के रिनोवेशन का काम भी पूरा हो चुका था और पिताजी को दोबारा से नौकरी मिल गई थी। अब पहले से थोड़ा ज्यादा पैसे मिलने लगा था पिताजी को. लेकिन घर की आर्थिक स्थिति अब भी बहुत अच्छी नहीं थी. वे चाहते थे कि मैं बीएससी की बजाय नौकरी कर लूं।

प्र.: तो बीएससी करने के बाद आप नौकरी करने लगे ?  

नहीं, नहीं. बीएससी करते हुए ही मेरी नौकरी लग गई थी. तब मैं सिर्फ इंटर पास था. बीएससी उस समय 2 वर्ष का होता था. पहला वर्ष पास हो जाने के बाद जब मैं दूसरे वर्ष में था किसी छुट्टी के दिन कालेज के साथियों ने वन अनुसंधान संस्थान के बोटेनिकल गार्डन में पढ़ाई-कम-पिकनिक का कार्यक्रम बनाया था। मुझे भी वे साईकिल पर लाद कर वहां ले गए। मेरे पास साईकिल नहीं थी। मैं पैदल ही कालेज भी जाता था और ट्युशन के लिए भी।

वन अनुसंधान संस्थान की शानदार इमारत और समुद्र की तरह फैला हरियाला कैम्पस देखा तो मैं आश्चर्य चकित रह गया। मैंने मन ही मन सोचा कि वे लोग कितने भाग्य्रशाली होंगे जो यहां नौकरी करते होंगे। और आश्चर्य की बात कि उसके छह-सात महीने के बाद, जब मैं बी.एस-सी फाइनल में था, मुझे इस संस्थान से काल लैटर आ गया। तकनीकी सहायक की एक पोस्ट थी, जिसके लिए दस लड़के बुलाए गए थे और वे लगभग सभी मेरे क्लास-फैलो थे। उन्होंने मुझे सलाह दी कि मुझे इंटरव्यू में नहीं जाना चाहिए। उनके वहां सोर्स हैं, मेरा नहीं है और बिना सिफारिश के नौकरी नहीं मिलती। मैं भयानक ढंग से निराश हो गया। इस दुनिया में मेरी सिफारिश करने वाला कोई भी नहीं है। सिनेमा-ऑप्रेटर के लड़के की औकात ही क्या है जो कोई उसकी सिफारिश करेगा। मैं बहुत बुझे मन से इंटरव्यू में गया। जानता था कि मेरा यहां चयन नहीं होगा। आश्चर्य की बात कि इंटरव्यू में मुझसे एक ही सवाल पूछा गया और मेरे द्वारा दिया गया जवाब इतना अच्छा माना गया कि मेरा चयन हो गया। चयन बोर्ड के अध्यक्ष FRI के असिस्टेंट प्रेसिडेंट थे। वे वैज्ञानिक थे और प्लाईवुड पर उनका काम था- डॉक्टर नयन मूर्ति। इंटरव्यू के वक्त चेयरमैन ने मुझे अपने शैक्षणिक कागजात दिखाने के लिए कहा. उस वक्त मेरे पास हाई स्कूल का सर्टिफिकेट था और इंटर की मार्कशीट। इंटर गणित में मेरे 87 मार्क्स  देखकर वे आश्चर्यचकित थे और काफी प्रभावित हुए। उसके बाद मुझसे प्रश्न किया,

Name some solvent।

मुझे इंटरव्यू पूरा याद है, माना कि मेरी याददाश्त इतनी अच्छी है नहीं, वह इसलिए याद है क्योंकि एक ही सवाल मुझसे पूछा गया था. उस वक्त मैं चूंकि ट्यूशन पढ़ाता था इसलिए बहुत सी जानकारियां मेरे पास यूं ही रहती थी। लिहाजा मैंने पूछे गए सवाल के जवाब में तुरंत कहा सर यू वांट ऑर्गेनिक सॉल्वेंट और इन ऑर्गेनिक सॉल्वेंट्स ?

उन्होंने कहा ठीक है ऑर्गेनिक सॉल्वेंट्स बताओ।

मैंने तुरंत कहा सर यू वांट एरोमेटिक और एलिफेटिक?

बस उसने बोला, एक एरोमेटिक बताओ और एक एलिफेटिक। बाद में बोर्ड के चेयरमैन ने अपने अन्य चयनकर्ता साथियों से पूछा कि किसी और को कुछ पूछना है?

सब ने कहा, नो सर, वी आर सेटिस्फाइड।  

उसके तुरंत बाद चेयरमैन ने कहा, बेटा अगर तुम यहां ज्वाइन करते हो तो तुम्हारा बीएससी छूट जाएगा और मैं नहीं चाहता कि तुम्हारा बीएससी छूटे। मै एकदम दुविधा में हो गया. बीएससी करना चाहता था और जो नौकरी मिल रही थी वह जरूरत थी।

खैर मैंने कहा, जी मैं तो बीएससी करना चाहता हूं.

उसने बोला, आर यू श्योर ? तो तुम्हें अपॉइंटमेंट ना भेजा जाए।

मैंने कहा, नहीं।

यह कहकर मैं आ गया। एक महीने के बाद मेरे हाथ में नियुक्ति पत्र था और मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं। . मैंने पत्र छुपा दिया,  क्योंकि घर में यदि पता चल जाता तो तय था की नौकरी करनी पड़ेगी।  नौकरी करता हूं तो पढ़ाई छूटती है। पढ़ाई करूं तो नौकरी। मैं दोनों ही नावों पर सवार होना चाहता था। और ऐसा हुआ भी। क्योंकि यह दुनिया बहुत बेहतरीन लोगों से भरी थी. उधर कॉलेज समय पर न पहुंच पाने के कारण मेरी अटेंडेंस बहुत शॉर्टपा थीं. क्लास-टीचर की हिदायत थी कि यदि अटेंडेंस शार्ट रही एग्जाम में नहीं बैठने दिया जाएगा।

दुविधा की उस स्थिति में ही एक दिन मैं उस अप्वाइंटमेंट लेटर को लेकर एफ आर आई के डिपार्टमेंट केमिस्ट्री ऑफ फॉरेस्ट प्रोडक्ट चला गया। उसी डिपार्टमेंट में मेरा स्लेक्शन हुआ था. डिपार्टमेंट के अधिकारी का नाम नारायण था. वे भी दक्षिण भारतीय थे। मैं लंच टाइम में पहुंचा था। डिपार्टमेंट में मौजूद कर्मचारियों ने बताया कि साहब सिस्टर क्वार्टर में रहते हैं।

पूछते- पाछते मैं सिस्टर क्वार्टर चला गया. वहां जाकर मालूम हुआ कि वह तो क्वार्टरों की एक लंबी लाइन है. सेकंड वर्ल्ड वार में FRI का एक हिस्सा हॉस्पिटल में बदल दिया गया था.  उस दौरान वहां रहने वाली नसों के कारण ही उन क्वाटर्स को सिस्टर क्वाटर्स कहा जाता था. मुझे समझ ही नहीं आया कि मैं किससे पूछूं नारायणन साहब कहां रहते हैं. उसी वक्त एक व्यक्ति साइकिल से गुजर रहा था, दुबला पतला सा आदमी. उसने साइकिल रोक कर मेरी तरफ देखा और पूछा, आर यू मिस्टर पंत ?

मैंने कहा, यस सर.

उसने तुरंत कहा, कब ज्वाइन कर रहे हो ?

संभव था चयनबोर्ड में वे भी एक सदस्य रहे हो. चूंकि किसी और को मुझे फेस नहीं करना पड़ा था, इसलिए मैं पहचानता नहीं था.

मैंने उन्हें अपना संकट बताया. उन्होंने धैर्य से मेरी बात सुनी और कहां, देखो एक्सटेंशन देना हमारे हाथ में नहीं, प्रशासन का काम है. रजिस्ट्रार का काम है। लेकिन उन्होंने तरीका बताया कि जिस दिन तक तुम्हें ज्वाइन करना है उस से एक दिन पहले तक हमारे पास एक रजिस्टर्ड लेटर आ जाना चाहिए जिसमें तुम एक्सटेंशन मांग लो। एक महीने का एक्सटेंशन मांग लो।  उसके पीछे उन्होंने जो आईडिया दिया, यही कि जैसे ही हमारे पास पत्र पहुंचेगा, हम उसे प्रोसेस करेंगे. इस काम में पांच-एक दिन लग जाएंगे. पांच-एक दिन आगे लग जाएंगे और ऐसे करते करते दस-पंद्रह दिन का समय तुम्हें मिल जाएगा. इस बीच कॉलेज को मैनेज करने की कोशिश करो. हो सकता है महीने भर का एक्सटेंशन मिल जाए. और नहीं भी मिला तो भी पंद्रह-बीस दिन तुम्हारे पास हैं।

मैंने वही किया और मुझे एक महीने का एक्सटेंशन इस हिदायत के साथ मिल गया कि एक्सटेंशन हेस बिन ग्रांटेड फॉर वन मंथ एंड नो फर्दर एक्सटेंशन विल बी गिवन टू यू.  

इधर यह एक अच्छी बात हुई कि मेरे साथ के जो दूसरे लड़के थे उन्होंने टीचर से कह दिया कि सर इसका अपॉइंटमेंट हो गया, पर यह जा नहीं रहा।

टीचर ने मुझे हडकाया, क्यों नहीं जा रहे हो?  मालूम है नौकरी क्या होती है ? आजकल मिलती है नौकरी किसी को?

मैंने कहा, सर आप ही ने कहा हुआ है कि यदि अटेंडेंस कम हुई बैठने नहीं दूंगा एग्जाम में। उसने रजिस्टर मंगाया और कहा ले ‘पी’ और धड़ाधड़ मेरी अटेंडस पूरी.

जाओ ज्वाइन करो.

सच, इतने अद्भुत लोग उस जमाने में थे. आज तो हर कोई ऐसे मामले में पैसे की बात करता है. इस तरह से मैंने नौकरी में ज्वाइन कर लिया. नारायण साहब ने बुलाया, मुझे एक जगह  ले गए और बोले, यह तुम्हारे बैठने की जगह है. बैठो. अपना इम्तिहान दो. कोई काम तुम्हें नहीं दिया जाएगा. कैजुअल लीव लेकर एग्जाम दे देना. लेकिन प्रैक्टिकल तुम नहीं दे पाओगे. एक सैटरडे छुट्टी होती है उस दिन प्रैक्टिकल कर लेना. इस तरह से मैंने नौकरी के साथ-साथ बीएससी भी कर ली। बीएससी पास हो जाने के बाद मैंने एमएससी में भी एडमिशन ले लिया था कॉलेज में. चूंकि एमएससी की क्लासेस मॉर्निंग में होती थी.

 प्र.: आपका विवाह कब हुआ?

सन् 61 में मैं नौकरी पर आया था, सन् ‘.....62. में आश्चर्यजनक रूप से मेरा प्रोमोशन हो गया. आर्श्चजनक इसलिए कि संस्थान में तकनीकी सहायक से अंनुसंधान सहायक ग्रेड टू होने में पंद्रह से बीस साल लग जाते थे. सन् ‘....64... में और भी आश्चर्य ढंग से मेरी हेम से शादी हो गई. वह भी आश्चर्य इसलिए कि जो भी मेरे विवाह का प्रस्ताव ले कर आता, पड़ोसी हमारे घर की टूटी दीवारे दिखाकर उसे सलाह देते कि लड़की को ढ़ांग से धक्का दे देना पर इस घर में उसका विवाह मत करना। कहते हैं कि ‘पेयरस् आर मेड इन हैवेन’। मैं स्वर्ग, नर्क और पुनर्जन्म पर विश्वास नहीं करता। फिर भी मुझे लगता है कि हमारा विवाह सचमुच स्वर्ग में ही तय हुआ होगा। हेम ने एक आदर्श भारतीय पत्नी की तरह हर वक्त मेरा साथ दिया। हमारे बीच अद्भुत समझदारी थी जो अब तक कायम है, जब कि हमारे स्वभाव तमाम उम्र दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े रहे। मैं गम्भीर किस्म का संजीदा और वह हर पल हंसते रहने वाली। मैं शुष्क मिजाज और वह शौकीन तबीयत की। मैं निर्लिप्त और वह पूरी तरह से लिप्त। मैं काम बहुत अनगढ़ ढंग से करता और वह बहुत सुगढ़ ढंग से करने वाली। मुझे गुलदस्ता सजाना होता तो मैं उसे ऐसी जगह सजाता, सौन्दर्यबोध के हिसाब से जहां उसे नहीं सजाया जाना चाहिए। वह झाडू भी रखती तो ऐसी जगह रखती जहां उसे रखा जाना चाहिए। यानी, ऐसी कितनी ही बाते हैं, मैं समझता हूं सारी ही बाते हैं, जो हमे दो अलग छोरों पर खड़ा होना सिद्ध करती हैं। लेकिन हमने दाम्पत्य का इतना लम्बा सफर शानदार सफलता से तय कर लिया।

प्र.: यानि आपने जीवन की गाड़ी को एक मुकाम में लगा देने के बाद साहित्य में पदार्पण किया?

इस बीच में मेरा वह है उपन्यास भी छप गया। मेरे उन्हीं दोस्त ने, जो मुझे किताबें पढ़ने के लिए देते थे, उपन्यास लखनऊ से छपवा दिया. हालांकि उससे पहले मेरा वह उपन्यास, जब मैंने चिट्ठियां लिखी थी, एक प्रकाशक ने मंगा लिया था. वह दरियागंज का प्रकाशक था कोई. लेकिन वह उसे दबा कर बैठ गया. तब मेरा एक दोस्त तेज सिंह, जो बाद में रुड़की में प्रोफेसर हुआ, उसका एक भाई दिल्ली में फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर था, उसको कहा गया. उसने जैसे तैसे उपन्यास उस प्रकाशक के यहां से निकलवाया। उपन्यास की प्रति वहां से मिलने के बाद मुझे मेरठ से एक प्रकाशक की एक और चिट्ठी आ गयी. ओमप्रकाश जी नाम था उनका. उन्होंने उपन्यास मंगवा लिया. उन्हें पसंद आया. उन्होंने कहा, हमसे मिलने आइए। मैं उनसे मिलने मेरठ गया. उस वक्त बस में जाते हुए मैं अपने को एक वीआईपी से कम नहीं समझ रहा था।

शाम तक मैं मेरठ पहुंचा. उनके लड़के और लड़की ने मेरा स्वागत किया. बोले, साहब तो कल सुबह मिलेंगे. आप हमारे साथ हैं इस समय. उन्होंने मुझे पूरा मेरठ घुमाया. फिल्म दिखाइ। होटल में खाना खिलाया. रात को मुझे अपने घर में ही रूकवाया। सुबह मेरी ओमप्रकाश जी से मुलाकात हुई. वे मशीन पर बैठे हुए थे. मैं पहुंचा. वे बोले, हमें तुम्हारा उपन्यास बहुत पसंद आया. हम इसे छापेंगे। पर तुम्हारा नाम नहीं चलेगा. हम तुम्हें एक ब्रैंड नाम देंगे और हर महीने आप एक उपन्यास लिख कर देंगे हमें। इस उपन्यास के हम आपको ₹100 दे रहे हैं। मैंने हाथ जोड़े. कहा, जी आप मेरा उपन्यास वापस दे दीजिए. उपन्यास लेकर मैं वापस आ गया और मेरा मोह भंग हो गया साहित्य से. पूरा ही मोहभंग हो गया. यह सुनना मुझे अच्छा नहीं लगा कि वे मुझे ब्रैंड नाम देंगे। और इस तरह से बारगेनिंग करेंगे।

प्र.: इस हादसे के बाद भी आप साहित्य की दुनिया में कैसे आये फिर?

जिस वक्त मैं एमएससी में था, मॉर्निंग क्लासेस के लिए मुझे सुबह 7:00 बजे निकलना पड़ता था. घर से. खाने का डिब्बा साइकिल पर लादे हुए मैं कभी कॉलेज की तरफ भाग रहा होता तो फिर नौकरी के लिये. शाम को ट्यूशन के लिए. यह सब इतना दबाव था कि मैं इसे टॉलरेट नहीं कर पाया. सन छियासठ के अंतिम महीनों में मैं गम्भीर रूप से बीमार हो गया। शुरुआत तो हल्के खांसी, जुकाम से हुई, लेकिन हेम की चेतावनी के बावजूद मैंने इसकी परवाह नहीं की। ऑफिस भी जाता रहा टयूशनें तथा अन्य दीगर काम में भी उलझा रहा। बाद में होश आया लेकिन तब तक मुझे प्लुरिसी हो चुकी थी। यह एक गहरा संकट था। सही बात तो ये थी कि ऐसी बड़ी बीमारी के लिए मैं तैयार ही नहीं था। उन दिनों यह एक गम्भीर बीमारी मानी जाती थी। पिता को कभी डॉक्टरी चिकित्सा पर भरोसा नहीं था, इस बार भी नहीं हुआ और वे टोने-टोटकों में उलझ गए।

देवदूत की तरह ऑफिस का एक दोस्त जियालाल, जो पिछड़ी जाति का था, मदद के लिए खड़ा हो गया। उसने सुना तो दौडा हुआ घर आया।

क्या हुआ तुझे ?

डॉक्टर बता रहे हैं कि प्लूरेसी हुआ है, मैंने बोला।

अरे यह तो बड़ी भयंकर बीमारी है.

दरअसल उस समय पर ऐसी बीमारियों का ट्रीटमेंट नहीं था. मेरा एक्सरे लेकर वह अपनी जान पहचान से मिलिट्री हॉस्पिटल के एक डॉक्टर से मिला. उस डॉक्टर ने भी प्लूरेसी कहा। ट्रीटमेंट था-  90 इंजेक्शन मुझे इस्ट्रैप्टोमाइसिन के लगवाने होंगे. बस वही एक इलाज था उस वक्त। हर रोज इंजेक्शन लगवाने मैं हॉस्पिटल कैसे जाऊं? वह हर दिन दफ्तर से साईकिल पर हांफता हुआ आता और मेरे इस्ट्रैप्टोमाइसिन का इंजेक्शन लगाता और यहां तक कि जब बाजार में इस इंजैक्शन की कमी पड़ी तो उसने कहीं न कहीं से इसकी व्यवस्था कि, और एक दिन भी नागा किए बिना नब्भे इंजेक्शन का कोर्स पूरा कराया. यह एक निःस्वार्थ सहायता थी। उसने कभी हमारे घर में एक प्याला चाय भी नहीं पी और मेरे ठीक होने के बाद कभी उसने मेरे घर में कदम भी नहीं रखा। स्वर्ग इस दुनिया में ही है और देवदूत भी इसी दुनिया में रहते हैं।

90 इंजेक्शन का वह कोर्स पूरा होने के बाद मैंने ड्यूटी जॉइन कर ली ज्वाइन करते हुए मुझे मालूम हुआ मेरा प्रमोशन हो गया और मैं रिसर्च असिस्टेंट ग्रेड टू बन गया। इस तरह से जिंदगी चलती रही. साहित्य से मेरा इतना ही संबंध था कि मैं कभी-कभी सारिका हिंदुस्तान या धर्मयुग पढ़ लिया करता था। वह भी रेगुलर नहीं। कभी-कभी। सच बताऊं तो मुझे लेखकों से डर लगता था. मैं तो एक बैंड मास्टर बनना चाहता था.

मेरे एक भाई थे सत्येन शरत। मेरी बुआ के लड़के. वे बहुत अच्छे लेखक थे। उनका एक उपन्यास था फिल्म लाइन के ऊपर- क्लोजअप।  बहुत ही शानदार उपन्यास। साप्ताहिक हिंदुस्तान जाने किसी पत्रिका में वह उपन्यास सीरियलाइज हुआ था। मैं अपने उन भाई सत्येन शरत को देखकर बहुत डरता था, जब कभी उनसे सामना होता। दूसरी ओर उस समय के तीन बड़े लेखक राजेंद्र यादव कमलेश्वर और मोहन राकेश, इनका मामला ऐसा था कि साहित्य एक तरफ चलता था और चर्चा में ये ही रहते थे। मै इन तीनों के नाम जानता था। इनके नाम भी मैं इसलिए जानता था कि कभी-कबार कुछ मैगजीन देख लेता था, या सत्येन शरत के छोटे भाई थे शैलेंद्र, उनसे बातचीत होती थी तो वहीं इनके नाम लिया करते थे।

1970-71 की बात है. मैं एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में अहमदाबाद जा रहा था। अहमदाबाद एक्सप्रैस के प्रथम श्रेणी के कोच में आभिजात्य से भरा, जो मुझे नौकरी ने दिया था, यात्रा कर रहा था। किसी स्टेशन पर, शायद वह पालमपुर था, मैंने अपना बचा हुआ जूठा खाना, जो अब खाने के काबिल नहीं रह गया था, खिड़की से बाहर फेंका। खाने के पैकेट पर एक जवान औरत और उसके दो बच्चे ऐसे झपटे जैसे वे मिल्कियत लूट रहे हो। मुझे सहसा ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरा हृदय मुट्ठी में भींचकर निचोड़ दिया हो। शायद ये शब्द मेरी उस मनोदशा को बताने के लिए अपर्याप्त हैं। वह शब्दातीत थी। यात्राओं के दौरान पता नहीं कितनी बार मैंने ऐसे दृश्य देखें होंगे। मैं कभी उद्वेलित नहीं हुआ। इस बार शायद इसलिए उद्वेलित हो गया कि इस घटना में मैं स्वयं भी एक पात्र था, जिसके फेंके खाने पर एक मां और उसके दो बच्चे झपटे थे। वजह यह भी हो सकती है कि इस समय मैं घटना को संवेदना की आंख से देख रहा था, जो सिर्फ घटना को ही नहीं, घटना के पार और भी बहुत कुछ देख लेती है। मैं बुरी तरह आहत हो गया। ये तीन जोड़ी आंखें मेरा पीछा करने लगीं। वे पूरी यात्रा, अहमदाबाद प्रवास और वहां से लौटते हुए भी निरन्तर मेरा पीछा करती रहीं। वे आज भी कहीं मेरा पीछा कर रहीं हैं। मैं अजीब-सी छटपटाहट से भर गया और यह वैसी ही छटपटाहट थी, जैसी मुझे दर्जा सात में अध्यापकों की रैली में हुई थी। यह अभिव्यक्ति की छटपटाहट थी। इसी छटपटाहट में घर लौटकर मैंने ‘गाय का दूध’ कहानी लिखी। यह कहानी इस घटना पर नहीं है. यह घटना तो मेरी स्मृति की पूंजी है जो मुझे लिखने के लिए प्रेरित ही नहीं करती, बल्कि यह भी बताती है कि मुझे क्या और किनके लिए लिखना है। मैंने यह कहानी ‘सारिका’ को भेज दी और भूल गया। उसमें बहुत प्रतिष्ठित लेखकों की कहानियां प्रकाशित होतीं थी। यह मेरी पहली कहानी थी। एकदम अनगढ़ और जैसी कहानियां साहित्यिक पत्रिकाओं में छपतीं थी, उनसे बहुत अलग किस्म की। लेकिन सुखद आश्चर्य हुआ कि कुछ महीनों बाद मुझे इस कहानी पर कमलेश्वर जी का पत्र मिला। हाथ से लिखा हुआ। बहुत ही सुन्दर राइटिंग में, जैसे मोती माला में पिरोये गए हों। यह पत्र सारिका के पैड पर लिखा हुआ था। इसमें कहानी की बेहद प्रशंसा और प्रकाशन की स्वीकृति थी। मैं यह पत्र पाकर पागल-सा हो गया। अपनी पहली ही कहानी की प्रशंसा में शीर्षस्थ लेखक और कहानी की सर्वोच्च पत्रिका के यशस्वी सम्पादक का उनके ही हाथ से लिखा पत्र निश्चय ही मेरे लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं था। मैंने इसे पता नहीं कितनी बार पढ़ा और पता नहीं कितने दिन यह मेरे कुरते की उस जेब में सुशोभित रहा, जिसके नीचे एक धड़कता हुआ दिल होता है। इस पत्र ने मुझे हिम्मत दी और मैं लिखने के बारे में गम्भीरता से सोचने लगा।

प्र.: देहरादून के  साहित्य जगत से आपका कब और कैसे परिचय हुआ? उस वक्त देहरादून में लिखने वाले कौन कौन लोग थे ?   

मैं विज्ञान का विद्यार्थी था और व्यवसाय भी मेरा विज्ञान से ही सम्बंधित था और मेरे पास साहित्य या उसके पठनपाठन की कोई परम्परा नहीं थी। कमलेश्वर जी के पत्र ने लेखन के प्रति मेरा उत्साह बढा दिया था. हेमा ने  मेरा उत्साह देखकर सलाह दी कि मैं साहित्य में एम00 करलूं और लिखने के प्रति गम्भीरता से सोचूं। बस यहीं मुझसे अपने जीवन की एक बड़ी भूल हो गई कि मैंने सुबह की क्लासेज में डी.ए.वी. कालेज में एम.ए.(हिन्दी) में एडमिशन ले लिया। स्कूली शिक्षा हमें विशेषज्ञ और विद्वान तो बना सकती है, लेखक नहीं बना सकती। लेखक तो जीवन को देखने की दृष्टि बनाती है। लेखन के लिए भाषा और कच्चा माल हमें जीवन से प्राप्त होता है। अनुभव को रचना और कच्चे माल को फिनिश प्रॉडक्ट में कैसे बदलना होता है यह तमीज हमें महान लेखकों की रचनाएं सिखाती हैं।  

किसी भी लेखक के वास्तविक शिक्षक और गुरू वे सामान्य लोग होते हैं जिन्हें भाषा का व्याकरण नहीं आता, लेकिन वे भाषा की आत्मा के साथ ही जुड़े नहीं होते भाषा के विधायक हैं। उसे बनाते हैं, संवारते हैं और इसे बहुआयामी गतिशीलता प्रदान करते हैं। 

मुझसे पहले सारिका में अवधेश की कहानी छपी थी. लेकिन वह नवलेखन अंक में छपी थी। उस कहानी का शीर्षक शायद- कल था।  जब मैंने एमए में एडमिशन ले लिया तो मैंने वहां अवधेश का नाम सुना. अवधेश का नाम मुझे याद आया, क्योंकि मैंने उसकी कहानी पढ़ी हुई थी। अवधेश कक्षा में आया तो हर कोई उसी की ओर लपक रहा था. अवधेश अवधेश आया। मैंने सिधे अवधेश से मुलाकात की और पूछा अवधेश तुम लेखक हो?

अवधेश ने भी मुझ से सीधा पूछ लिया, तुम भी लेखक हो ?

मैंने कहा, भैया मेरी एक कहानी सारिका में स्वीकृत हुई है, उसका पत्र आया है. 

अवधेश ने कहा, शाम को डिलाईट रेस्टोरेंट पहुंचो। वहां लेखक मिलते हैं। कहानी लेकर आना और साथ में कमलेश्वर का पत्र भी।

डिलाईट उस समय घंटाघर के पास था। मुझे अपनी रचनाओं और कमलेश्वर जी के पत्र के साथ डिलाइट रेस्टोरेंट में आमंत्रित किया गया, जो उन दिनो बुद्धिजीवियों का अखाड़ा हुआ करता था। मैंने बहुत झिझकते हुए अपनी कुल जमापूंजी तीन कहानियों और कमलेश्वर जी के पत्र के साथ डिलाइट में कदम रखा। दो कहानियां मैं तब तक और लिख चुका था. वहां सुरेश, अवधेश, नवीन, देशबंधु, मनमोहन, नवीन नौटियाल और दो-एक लोग पहले से बैठे थे और काफ्का की किसी कहानी, शायद मैटामॉरफोसिस पर गम्भीर विमर्श कर रहे थे। उनके गम्भीर विमर्श ने मेरे छक्के छुड़ा दिए। इससे पहले मैंने काफ्का का नाम ही नहीं सुना था। खैर, विमर्श बीच में ही रोककर अवधेश ने मेरा परिचय कराया.

यह सुभाष पंत हैं, कहानी लिखते हैं और कमलेश्वर ने इनकी कहानी स्वीकृत की है।  

सभी ने मुझे वह कहानी सुनाने के लिए कहा गया जो ‘सारिका’ में प्रकाशन के लिए स्वीकृत थी। मैंने उनके आदेश का पालन किया और उन्हें ‘गाय का दूध’ कहानी सुनाई। कहानी सुनकर उनके थोबड़े कुछ ऐसे हिले मानों कह रहे हों कोई बात नहीं हमारे साथ रहोगे तो एक दिन कहानी लिखना सीख जाओगे। इसके बाद सुरेश से अपनी कहानी सुनाने के लिए कहा गया। शायद इस वजह से कि मैं जान सकूं कि कहानी कैसे लिखी जाती है। इस कहानी का शीर्षक ‘कीड़ा’ था। यह मेरी समझ में कतई नहीं आई थी, लेकिन इसकी प्रशंसा में सिर हिलाना मेरी मजबूरी थी, क्योंकि मैं अपने को इस साहित्य मंडली के अयोग्य सिद्ध नहीं करना चाहता था। इसके बाद कमलेश्वर जी का पत्र देखा और पढ़ा गया और इसके साथ ही उस मंडली में मेरा कद सबसे बड़ा हो गया। ये सब नई पीढ़ी के साहित्य के लाजवाब लोग थे। इन्होंने खूब पढ़ा था, लिख भी खूब रहे और अपनी रचनाओं के प्रकाशन के लिए संघर्ष कर रहे थे और रचनाओं के ‘सम्पादक के अभिवादन और खेद’ सहित लौट आने का मानसिक संकट झेल रहे थे।

सच बताऊं, ये सारे इतनी खूबसूरत लोग थे कि उसका मैं बयान नहीं कर सकता। ये सब उस समय के ऐसे लोग थे जो शहर में नया साहित्य लेकर आ रहे थे. उससे पहले के दौर में छयावाद के प्रभाव वाला पुराना साहित्य मौजूद था। उनसे होड करते हुए ये लोग नई तरह की चीजें लिख रहे थे। अलग बात है कि उनमें से कोई छप नहीं रहा था। लेकिन ये नई सोच के लोग थे। हर शाम डिलाइट में हमारा जमावड़ा होता। साहित्य पर गम्भीर बहसें होती, सब एक दूसरे को लिखने के लिए प्रेरित करते और लिखे की आलोचना में कसाई का व्यवहार करते। मेरी उनसे दोस्ती हो गई। इनकी संगत से ही में पीपीएच का नाम जाना वहां से सो वे साहित्य आता था गोर्की को पढ़ा और दूसरे लेखकों को पढ़ा। उससे पहले मैंने कुछ नहीं पढ़ा था। इनका यह कंट्रीब्यूशन बहुत बड़ा है मेरे लिए। अवधेश के साथ भी दोस्ती हो गई। अब शाम को डिलाइट  जाना शुरु हो गया. उसी दौरान अवधेश ने ठेके वाले शराबी पिलानी शुरू कर दी। हालांकि मैं कम ही पीता था। ‘हमने ‘संवेदना’ नाम की एक अनौपचारिक संस्था बनाई, जिससे देहरादून में साहित्य का बहुत अच्छा माहौल बन गया। साहित्यिक मस्ती का अपना उन्माद था। सारे अभाव उसके सामने बौने हो गए थे और हम विनम्र निर्ममता से शहर के साहित्यिक खेमों को ध्वस्त कर रहे थे।

सारिका के ‘आजादी के पच्चीस वर्षः सामान्य जन और सहयात्री लेखक’ विशेषांकों की सीरीज के फरवरी तिहत्तर के अंक में ‘गाय का दूध’ प्रकाशित हो गई। प्रकाशित होते ही इस कहानी ने धूम मचा दी। इस की प्रषंसा में सौ से अधिक तो मुझे पाठकों के पत्र ही मिले। यह अंग्रेजी समेत भारत की अनेक भाषाओं में अनूदित और प्रकाशित हुई। अनेक जगहों पर इस पर गोष्ठियां आयोजित की गईं और इसके नाट्य रूपान्तरण हुए। इस एक कहानी ने मुझे प्रथम पंक्ति के लेखकों में शामिल कर दिया। आज सोचता हूं तो लगता है शायद यह ठीक नहीं हुआ। किसी अनुभव को रचना बनने के लिए लम्बे समय तक अवचेतन में पकना और आत्ममंथन के दौर से गुजरना चाहिए और लेखक बनने के लिए आदमी को संघर्ष के लम्बे रास्ते से गुजरना चाहिए। संयोग से मुझे नौकरी और फिर लेखक की पोशाक बहुत सहज ढंग से प्राप्त हो गई। अगर ये दोनों चीजें मुझे ऐसे न मिलतीं तो अनेक समर्थ कहानियां इन्हें पाने के संघर्ष पर लिखीं जाती, जो मेरी अपना अनुभव किया हुआ सच होता। सफलता जितने संघर्षों के बाद मिलती है वह उतनी ही टिकाऊ और पुख्ता होती है। धीमी आंच में पक कर ही खाने में रस पड़ता है। मेरी राह आसान हो गई। पत्रिकाएं मुझसे कहानी मांगने लगी और मैं जो भी लिखता वह सम्मान के साथ प्रकाशित होने लगा।

कॉलेज, दफ्तर, हर दिन की बैठक-बाजी, रात-रातभर पढ़ना-लिखना तथा अन्य गहमा-गहमी मेरी शारीरिक क्षमताओं से कहीं ज्यादा बड़ी सिद्ध हुई और मैं एक बार फिर बीमार हो गया। एम,ए.फाइनल की परीक्षा तो बीमारी की परवाह न करते हुए मैंने निबटा ली, लेकिन इसके बाद मुझे खाट पकड़ लेनी पड़ी। डाक्टरों ने मुझे टी.बी. घोषित कर दी। मेरे पढ़ने-लिखने पर अंकुश लग गया। एक बार फिर सबकुछ गड़बड़ा गया और बहुत विलम्ब से आरम्भ हुई साहित्य की गाड़ी सहसा पटरी से नीचे उतर गई। पढ़ने-लिखने के सुख की जगह इंजेक्शन, दवाइयां, बेचारगी और सहानुभूतियां। उसी दौरान कमलेश्वर जी का पत्र आ गया, सारिका का अगला अंक समांतर कहानी विशेषांक है, उसमें तुम्हारी कहानी चाहिए। उस बीमारी की स्थिति में ही मैंने कहानी पूरी की और कमलेश्वर जी के पास भेज दी. उधर मुझे सैनिटोरियम जाने का हो गया. मैंने कमलेश्वर को खत लिखा कि मैं सेनेटोरियम जा रहा हूं। उन्होंने उस कहानी का पारिश्रमिक एडवांस में भेज दिया. अभी कहानी छपी भी नहीं थी और जबकि उस वक्त मेरे पास ऐसी कोई मुश्किल नहीं थी.

प्र.: लगातार की बीमारियों से जूझते हुए भी आप लेखन में सक्रिय रहे, यह जानना सचमुच दिलचस्प है. न सिर्फ सक्रिय रहें, बल्कि समांतर कहानी आंदोलन के एक महत्वपूर्ण कथाकार के रूप में भी याद किये जाते हैं, यह आपके लिए ही नहीं हम     देहरादून वासियो के लिए भी गर्व की बात है.

दरअसल वहां सैनिटोरियम में मैंने सही अर्थों में मनुष्यता सीखी। सैनिटोरियम जाते हुए मैं बड़े उत्साह में था. क्योंकि मुझे लगाता था कि मैं लेखक हो गया था और हर जगह कहानियां ढूंढ रहा था. मुझे लगा कि वहां पर खूब कहानियां मिलेंगी। लेकिन वहां जाकर मेरा सारा मोह भंग हो गया। एक ही तरह की परेशानी से घिरे हुए लोग. एक ही तरह की ड्रेस पहने हुए लोग. घंटी बज रही है- भागो। जागो। टूथपेस्ट करो साफ सफाई करो. दूसरी घंटी बज जाएगी! तीसरी घंटी बजेगी नाश्ता आएगा. सेनेटोरियम की जिन्दगी जेल के जीवन की तरह होती है। शहर से दूर एक निर्वासित जिन्दगी, थकी-हारी। कठोर अनुशासन और घंटियों में बंधी दिनचर्या। कैम्पस से बाहर जाने की अनुमति नहीं। बिना पास के बाहर पकड़े गए तो फाइन। रात नौ बजे सोना है। नींद न आए तब भी सोना है। वार्ड के मरीजों की कराहों और खांसियों के बीच सोना है। बत्तियां गुल कर दी जाती हैं। जेल और सेनेटोरियम में फर्क बस यही है कि वहां अपराधी कैद होते हैं, यहां रोगी कैद होते हैं। एक अलग तरह की भाषा थी वहां, जो स्पूटम, एक्स-रे, ईएसआर, निगेटिव, पाजिटिव, नर्स और डाक्टरों के गिर्द घूमती। लेकिन आदमी की जिजीविषा अनन्त है। वह दुःखों में भी खुशी के लम्हे ढूंढ लेता है। मृत्यु अपरिहार्य सच्चाई होने के बाद भी वह अंतिम सांस तक उससे लड़ता है। सेनेटोरियम जाने के बाद मुझे पता लगा कि मैंने जो भी उसके बारे में कहानियां पड़ी है यहां की जिंदगी से मेल नहीं खाती हैं. यहाँ की कहानियां तो उससे कहीं ज्यादा भिन्न है। लोग सेनेटोरियम में प्यार की कहानियां लिख रहे होते हैं. असलियत है, लड़कियों की शक्ल नहीं देख सकते थे आप। आदमियों का हॉस्टल एक तरफ तो लड़कियों का हॉस्टल दूर। आप लड़कियों को देखी ही नहीं सकते थे। सारी कहानियां झूठी है,  एकदम झूठी है।

मैं सैनिटोरियम तो चला गया, लेकिन मैं कभी भी पॉजिटिव साबित नहीं हुआ. मतलब मेरे थूक में कभी भी ट्यूबरक्लोसिस का बैक्टीरिया नहीं पाया गया। वहां हर हफ्ते स्पूटम टेस्ट होता था। सैनिटोरियम में जब मैं एडमिट हुआ तो पहले दिन मुझसे वहा का खाना खाया ही नहीं गया। वहां एक क्रिस्चियन लेडी थी बरनाबास। वह वहां पर नर्स थी। ढलती सांझ के रंग की और ईसा की पवित्र करुणा से भरी हुई वह अधेड़ उम्र की ईसाई महिला थी। वह विधवा थी। उसका शायद एक ही बेटा था जो दिल्ली के किसी पब्लिक स्कूल में पढ़ रहा था। बरनाबास देख रही थी कि मुझसे खाना खाया नहीं जा रहा है, वरना तो वहां मरीज रोटियों के लिए आपस में प्रतियोगिता करते रहते थे कि ज्यादा रोटी कौन खाएगा. वे मानते थे कि ज्यादा रोटी खाने से ज्यादा ताकत आ जाएगी. कोई कहता, मैंने बीस खा ली. कोई कहता मैंने दस खा ली।  

मैंने जीवन में इतनी महान स्त्री कभी नहीं देखी। उसने मुझे देखा और सवाल किया, तू खाना क्यों नहीं खा रहा है?  

मैंने कहा, मैडम मुझसे खाया नहीं जा रहा है।

याद कर तेरी औरत तेरा गेट पर इंतजार कर नहीं कर रही है लौटने का। खाएगा नहीं तो मर जाएगा।

मैंने कहा, मैडम मैं सीख लूंगा खाना। लेकिन आज खाया नहीं जा रहा है।

फिर डांटा उसने मुझे।

हमारे खाने के बाद उसको खाना खाना था. वह चली गई। लौटी तो घर से खाना बना कर ले आई मेरे लिए।

खा मेरे साथ।

खा लिया मैंने खाना। अगले दिन से मैंने मैस का खाना शुरू कर दिया। जीवन उसी तरह चलने लगा. 15 अगस्त आ गया.  

15 अगस्त को सैनिटोरियम में की छूट होती थी. कि आप बाहर जा सकते हैं. लेकिन उसके लिए आपको डॉक्टर से सर्टिफिकेट लेना होता है। एप्लीकेशन लिखनी होती थी कि मैं 15 अगस्त में शरीक होने बाहर जाना चाहता हूं. मैंने एप्लीकेशन लिख दी। मेरी एप्लीकेशन रिजेक्ट होकर आ गई। लेकिन लोगों को तैयार होकर जाते हुए देख मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और मैंने भी सोच लिया मैं भी जाऊंगा, जो भी होगा देखा जाएगा। उस दिन हॉस्पिटल की छुट्टी थी और इंचार्ज बरनाबास थी। मैं चला गया परेड देखने। वहा मेला सा लगा हुआ था. कहीं भुट्टा भुन रहा था. भुट्टा खाया।

जब मैं लौटा, बरनाबास बैठी हुई थी. उसने तुरंत कहा, सामान बांध ले। हॉस्पिटल से तुझे छोड़ दिया जा रहा है। और खाना नहीं मिलेगा तुझे। लेकिन थोड़ी देर बाद वह मेरे लिए खीर लेकर आ गई. उस दिन मैस में खीर बनी हुई थी। भगोना भरके लाई थी।

एक रोज मैं डहेलिया की खुशबू, सूरज की कुनमुनी धूप में कैम्पस की कोमल घास में लेटा हुआ था। शाम की चाय की घंटी का आदेश होनेवाला था। उसी की प्रतीक्षा में मुझे नीद का हल्का-सा झटका आ गया। झटके में एक छोटा-सा सपना। उसमें मैंने देखा कि हेम मुझे मिलने आई है। बस इतना-सा सपना और मेरी आंख खुल गई। मेरे गिर्द एक परछाई फैली हुई थी अपनी सुगंध के साथ। परछाई में भी सुगंध होती है। यह तब मैंने पहली बार महसूस किया था। मैंने चौंककर पीछे देखा। वहां सचमुच हेम खड़ी थी। वह एक दृढ़ निश्चय के साथ आई थी कि मुझे रोगमुक्त कराकर ही मेरे साथ वापस लौटेगी। और ऐसा हुआ भी। इतने में ही दूसरी तरफ से बरनाबास आई। उसने मुझे लेटे हुए देखा. हेम पास में बैठी थी.

अरे, तेरी दुल्हन है क्या? बड़ी सुंदर है यह तो। बहुत खूबसूरत लड़की है।

हेम को वह अपने साथ ले गई। बाद में जब हेम मेरे पास लौटी तो उसने बताया कि मेरा तो रहने का इंतजाम हो गया। मैंने पूछा कहां हो गया। बोली बरनाबास ने कहा मेरे यहां रह लो। मेहमान की तरह रखा उसने उसे. कंडीशन लगायी मेरे ऊपर कि मैं उससे मिलूंगा नहीं और वह मुझे मिलने नहीं आएगी।

यह मेरे साथ रहेगी।

इस बीच मेरी दूसरी कहानी सारिका में छप कर मेरे पास वही पहुंच गयी. सारे में हल्ला हो गया कि मैं तो लेखक हूं। उसका फायदा यह मिला कि मैंने कॉटेज के लिए अप्लाई किया हुआ था, मुझे मिल गया। वह कॉमन वार्ड के अलावा कुछ कॉटेज भी थे। बस उस कहानी ने मुझे वह दिलवा दिया। अब तो हम कॉटेज में रहने लगे। कॉटेज में होता यह था कि कोई डॉक्टर आपको देखने नहीं आता था. आपको कोई परेशानी है तो आपको ही बताना होगा। तब डॉक्टर काटेज में विजिट करता था.

अगले ही महीने मेरे सारे परीक्षण सिवाय रक्त की ई.एस.आर.के. पूरी तरह सामान्य निकले। सालभर दवाइयां खाने और हर तीन महीने के बाद कसौली में आकर चैक-अप कराते रहने के परामर्श के साथ मुझे सेनेटोरियम से छुट्टी मिल गई। बरनाबास ने हमें सजल नयनो से विदा किया। उसकी आंखें भारी थीं। रुंधे गले से उसने कहा था कि देहरादून पहुंचकर हम उसे पत्र लिखें। वापसी की इस यात्रा में सबसे पहले तो मैंने सेनेटोरियम से एक माह के लिए दी दवाइयां फेंकी और फिर उनके दिए प्रैस्क्रिप्शन को चिदर-चिदरे करके हवा में उड़ा दिए। मैंने न फिर उनकी बताई कोई दवा खाई और न चैक-अप के लिए कसौली गया। वह कसौली की मेरे जीवन की पहली और अंतिम यात्रा थी। इसके बाद मैं लगभग तीस साल तक बीमार भी नहीं हुआ, सिवाय सर्दी-जुकाम जैसी मौसमी बीमारियों के। देहरादून लौटकर मैंने बरनाबास को भी कोई पत्र भी नहीं लिखा। मेरे पास शब्द ही नहीं थे। उसने हमारे लिए जो किया था उसके लिए धन्यवाद शब्द बहुत छोटा था। सचमुच ऐसा होता है जीवन में बहुत बार कि भावना को व्यक्त करने के लिए शब्द ही नहीं मिलते। शब्दों की एक सीमा है और भावनाएं सीमाहीन हैं।

प्र.: आपकी बातों से लग रहा है कि दो कहानिया सारिका में प्रकाशित होने तक तो आपकी कमलेश्वर जी से मुलाकात हुई नहीं, फिर उनसे कब और कैसे मिलना हुआ?

बीमारी और फिर सेनेटोरियम चले जाने से मेरा लिखना-पढ़ना पूरी तरह खत्म हो गया था। दरअसल लिखने का मेरा विश्वास ही डगमगा गया था। तभी कमलेश्वर जी का आत्मीय आग्रह से भरा पत्र आ गया। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि अगर मेरी सेहत इजाजत दे तो मैं कलीकट में होनेवाले ‘समान्तर सम्मेलन’ में आ जाऊं। मेरा स्वास्थ्य इतनी लम्बी यात्रा के योग्य नहीं था। लेकिन कमलेश्वर जी से मिलने का मोह और वरिष्ठ लेखकों के साथ कुछ समय बिताने का मुझे भी वह एक अवसर लग रहा था. क्योंकि उससे पहले मैं किसी लेखक से मिला नहीं था. देहरादून के अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलता था जरूर। मैंने अपनी स्वीकृति भेज दी। अगला पत्र इब्राहिम शरीफ ने भेजा. सारा अरेंजमेंट इब्राहिम शरीफ कर रहा था। योजना यह थी कि पहले सारे लेखक मद्रास में रुकेंगे और वहां से एक साथ ही कालीकट जाएंगे। मद्रास मेरे लिए नई जगह नहीं थी. उससे पहले भी मैं मद्रास गया हुआ था।

मैं मद्रास पहुंच गया. स्टेशन में क्लॉक रूम में मैंने सामान रख दिया। वेटिंग रूम में फ्रेश-व्रेश होकर तैयार हो गया। बाहर निकला. उम्मीद कर रहा था कि कोई बैनर-वैनर लगा हुआ होगा कार्यक्रम का. लेकिन कहीं कुछ नहीं था. मैं परेशान हो गया। इब्राहिम शरीफ का मेरे पास पता था-मैलापुर। मद्रास मेरे लिये उस तरह अनजाना नहीं था. मैंने लोकल बस पकड़ी और मेलापुर पहुंच गया। जहां पर में उतरा वहां कुछ दुकानें थी. लेकिन समस्या भाषा की थी. मैं हिंदी में पूछता था, उन्हें हिंदी नहीं आती थी. अंग्रेजी में पूछता हूं, अंग्रेजी नहीं जानते थे। इब्राहिम शरीफ मिल नहीं रहा था। अल्टीमेटली एक दुकानदार को कुछ समझ आया. उसने मुझसे पूछा, मुस्लिम फेलो ? मुस्लिम ?

इस देश में पहचान हिंदू और मुसलमान है।

मैंने कहा, जी. तो उसने रास्ता बताया। अंततः में एक घर के आगे पहुंच गया मैंने घंटी बजाई अंदर से आवाज आई क्या सुभाष पंत  है ?

हां, मैंने कहा, भाई मैं ही हूं।

उस शख्स ने कहा मैं इब्राहिम शरीफ का भांजा हूं। और मेरी ड्यूटी थी आपको लाना। लेकिन मैं आपको पहचानता नहीं था। तब मैंने सोचा, आप इतने बड़े लेखक हैं तो यहां तक तो पहुंच ही जाएंगे।

उसने मुझे एक रिक्शे पर बैठा दिया. मेरा सामान क्लॉक रूम में ही था. मेरे पास कुछ था भी नहीं और मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं कहां जा रहा हूं। रिक्शावाला मुझे काफी दूर ले गया. एक गेट के आगे उसने रिक्शा रोक दिया. वहां गेट पर एक सुदर्शन सा व्यक्ति खड़ा था। रिक्शा वाले ने उस व्यक्ति से कुछ कहा, वह व्यक्ति लपक कर मेरे पास आया उस मुझे गले लगाते हो कहा, सुभाष मैं इब्राहिम शरीफ.

तो पहला पहला लेखक जिसके में गले लगा, वह इब्राहिम शरीफ था।

इब्राहीम शरीफ ने लान में टहलत लेखकों से मेरा परिचय कराया। ये थे कामतानाथ, हिमांशु जोशी, श्रवण कुमार, से.रा. यात्री, मधुकर सिंह, आशीष सिन्हा। सब ने बहुत आत्मीयता से मिले। लगा ही नहीं जैसे वे एक नए लेखक से मिल रहे। कामता जी ने पूछा, ’सुभाष तुम्हारा सामान कहां है।

’वह तो मैं क्लाकरूम में जमा करा आया हूं।’

’वाह तुम वाकई समान्तर के सबसे स्मार्ट लेखक हो। क्लाकरूम की रसीद शरीफ को दे दो। कल कालिकट जाते समय वह तुम्हारा सामान छुड़ा लेगा। ऊपर हमारा सामान खुला पड़ा है, तुम बिना किसी संकोच किसी के सामान का इस्तेमाल कर सकते हो।

शरीफ़ ने रसीद लेते हुए मुझसे पूछा कि क्या मैं अभी कमलेश्वर जी से मिलना चाहोगे या तैयार होने के बाद मिलेगे। वे तुम्हे लेकर बहुत चिंतित हैं। कई बार तुम्हारे बारे में पूछ चुके हैं।

मेरे जवाब देने से पहले ही कामता जी ने कहा, ’सुभाष बहुत स्मार्ट है, यह तो पहले से ही तैयार है। कमलेश्वर कई बार इनके बारे में पूछ रहे हैं तो अभी मिलवा दो।’

मैंने भी उसी समय कमलेश्वर जी से मिलने को तैयार हो गया।

गलियारा पार कर शरीफ़ ने कमरे का दरवाजा खटखटाकर आवाज दी, ’कमलेश्वर जी आपके लिए एक गिफ्ट लाया हूं।’

’क्या उपहार लाए हो?’

’देहरादून से सुभाष।’   

’यह तो वाकई उपहार है।’ कमलेश्वर जी की जादूभरी आवाज़ आई।

दरवाजा खुला और कमलेश्वर जी ने मुझे अपनी छाती से लगा लिया। कमरे में ले गए और मेरी सेहत वगैरह के बारे में पूछते रहे। फिर उन्होंने आवाज़ दी, ’हेमा आओ हम तुम्हें अपने दोस्त से मिलवाते हैं।’

मैं चौंका। मेरी पत्नी का भी यही नाम है। लेकिन मिलने के लिए जो महिला आई वह दक्षिण भारत सिने जगत की कोई शख्सियत थी। यह बंगला भी उसी का था, जहां लेखकों को टिकाया गया था।

’ये सुभाष पंत हैं, देहरादून से आए हैं। बड़े लेखक हैं।’

मुझे संकोच हुआ। उस समय तक मैं सिर्फ दो कहानियों का लेखक था। दोनों कहानियां संयोग से सारिका विशेषांकों में प्रकाशित थीं।

औपचारिक अभिवादन के बाद कमलेश्वर जी ने कहा, ’हेमा इनके लिए चाय भिजवाओ।’ फिर मेरी ओर मुखातिब होकर बोले, ’सुभाष मुझे माफ करना, मैं तुम्हारे साथ चाय नहीं पिऊंगा, मैने अभी चाय पी है।’

कुछ ही देर बाद एक सेविका दक्षिण भारत तरीके से चाय ले आई। आधी प्लेट में और आधी प्याले में।

मैंने चाय पीने के लिए प्याला उठा ही रहा था तो कमलेश्वर जी ने कहा, ’एक मिनट रुको सुभाष। प्याले से टपकती चाय से तुम्हारी पैट खराब हो जाएगी।’ उन्होंने मेरे सामने से प्लेट प्याला उठा लिया। सैक में प्लेट की चाय रिताकर उसे साफ किया और प्लेट-प्याला मुझे वापिस करते हुए कहा, ’अब आराम से चाय लो। पैंट पर टपकेगी नहीं।’

मैं हतप्रभ था। लग रहा था, जैसे मैं कोई सपना देख रहा हूं।



प्रश्नकर्ता: विजय गौड़