Sunday, August 13, 2023

महा परियोजनाओं का सांस्कृतिक परिदृश्य


देहरादून की नाट्य संस्था वातायन ने पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह की  पहलकदमी दिखाई है, नाटकों के मंचन किये, इसमें कोई दो राय नहीं कि देहरादून रंगमंच के इतिहास में वह हमेशा दर्ज रहेगी. उन पर निगाह डाले तो आश्चर्यजनक खुशी मिलती है. मूल रूप से रंगमंच के लिए समर्पित इस संस्था की पिछली चार नाटय प्रस्तुतियां अपने विषय के कारण उल्लेखनीय कही जा सकती है. दिलचस्प है कि ये चारों प्रस्तुतियां कमोबेश अपने अपने तरह से भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष की कहानी और उस दौर के सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक परिदृश्य पर ध्यान खींचतीं हैं. 2019 में रचा गया और मंचित किया गया नाटक दांडी से खाराखेत तक. स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में देश भर में व्याप्त नमक सत्याग्रह आंदोलन की आवाज देहरादून में लून नदी में नमक बनाने की कार्रवाई के साथ सुना गया था, नाटक उसी अल्पज्ञात इतिहास को सामने लाने के लिए गोरखाली समाज के नायक और नमक सत्याग्रह आंदोलन के दौरान ही गांधी जी के सम्पर्क में आए खड‌क बहादुर सिंह के नायकत्व को स्थापित करने की कोशिश करता है. उसके बाद  2022 में नागेंद्र सकलानी एवं तिलाड़ी कांड को आधार बना कर रचे और मंचित किया गया नाटक- मुखजात्रा, और आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष 2022-23 के  दौरान कथाकार प्रेमचंद के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास गोदान पर आधारित नाट्य आलेख का मंचन और इस माह अगस्त 11 एवं 12 की सबसे ताजा प्रस्तुति वीर चंद्र सिंह गढवाली’.    


इन चारों प्रस्तुतियों की एक खास बात यह है कि इनके नाट्य आलेखों को तैयार करने में वातायन के कलाकारों की भूमिका विशेष रही है और इनके प्रथम मंचन भी वातायन ने ही किये. दांडी से खाराखेत का नाट्य आलेख वातायन द्वारा 2019 में आयोजित उस रंग शिविर में तैयार हुआ जिसका संचालन निवेदिता बौंठियाल द्वारा किया. नाटक का निर्देशन निवेदिता बौंठियाल ने किया. लगभग 40-42 वर्ष पहले निवेदिता बौंठियाल (उनियाल) रंगमंच के अपने सफर की शुरुआत वातायन से ही की थी और पिछले लगभग 30-35 वर्षों से वे बम्बई में एवं कलाकार के रूप में सक्रिय हैं. मुखजात्रा सुनील कैंथोला द्वारा लिखे और प्रकाशित नाटक को एक रंग शिविर में मंचिय प्रक्रिया तक पहुंचाने का उपक्रम बना था. यह रंगशिविर उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध रंगकर्मी डॉ सुवर्ण रावत के नेतृत्व में सम्पन्न हुआ था और वे ही नाटक के निर्देशक थे. सुनी सुनायी खबरों के हवाले से यह रंगशिविर गढवाल महासभा ने अयोजित किया था.शायद इसीलिए नाटक का पहला मंचन प्रशासन द्वारा आयोजित कौथीग-2022 में हुआ हो. कुछ दिनों बाद नाटक में कुछ मामूली बदलावों के साथ नाटक का मंचन टाउन हाल देहरादून में वातायन की ओर से किया गया और डॉ सुवर्ण रावत ही नाटक के निर्देशक थे. गोदान की स्क्रिप्ट को नाटक के निर्देशक मंजुल मयंक मिश्रा ने प्रेमचंद के उपन्यास के कुछ खास हिस्सों को लेकर तैयार किया. वीर चंद्र सिंह गढवाली के मंचन के दौरान वितरत फोल्डर से नाटय स्क्रिप्ट के लेखक के बारे में तो कोई सूचना नहीं मिलती है, लेकिन मंचन से पूर्व उदघोषक की सूचना से जानकारी मिली थी वातायन के कुछ युवा साथियों द्वारा यह नाट्य आलेख राहुल सांकृत्यायन द्वारा वीर चंद्र सिंह गढवाली की लिखी जीवनी पर आधारित है.    

चारों नाटको के विषय चयन को देखते हुए यह ध्यान बरबस ही जाता है कि कुछ बड़ा करने और बड़ा रचने की सदइच्छाओं के साथ वातायन लगातर अपने आपको तैयार करता जा रहा है. अति महत्वकांक्षा से भरी वातायन की यह परियोजना दून रंगकर्म पर किस तरह से प्रभाव डाल रही है और शेष भारत की साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों से इनका क्या रिश्ता है ? उसे समझना चाहें तो वह समीकरण ही दिखाई देगा जिसका कमोबेश लक्ष्य यही होता है कि दिखती हुई दूरी के साथ अंदरखाने सत्ता से एक सम्पर्क सधा रहे ताकि कार्यक्रम आयोजित करने के लिए बजट, पुरस्कार, विदेश यात्राएं जैसे मिलने वाले लाभ झोली में बने रहें. गतिविधि विशेष को अलोचना के दायरे में  लाए बगैर भी कहा जा सकता है कहाँ सिर्फ विषय भर से और कहाँ विषय को एक सीमा तक तोड़ मरोड करके शुद्ध सांस्कृतिक कर्म किया जा सकता है और इतना ही नहीं,जनपक्षीय तक बना रहा जा सकता है. नाटक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की काव्य रचना राम की शक्ति पूजा से लेकर प्रेमचंद का गोदान के सहारे देशभर में नहीं विदेशों तक घूमा जा सकता है. बिना इस और सोचे हुए कि हवाई खर्चे से लेकर महंगे होटलों तक में रुकने की सुविधा के खर्च कहां से आते होंगे, कविकुंभों का हिस्सा हुआ जा सकता है. 

 

किसको पिता तुल्य कह दिया गया और किस तरह आयोवा हुआ जा सकता है, जब यह आज छुपाया नहीं जाया जा पा रहा है तो क्यों नहीं माथे पर त्रिपुंड लगाकर चिढाती हुई  हंसी हो लिया जाये? मंदिर के नाम पर दिए गए चंदे के चेक को लहरा लिया जाए. पुरस्कार वापसी जैसी जबरदस्त कार्रवाई का हिस्सा होते हुए बहुत भी आयोजित हो रहे किसी कार्यक्रम का चुपके से हिस्सा हो लिया जाये? साहित्य अकादमी ही आयोजक हो चाहे. तो फिर क्या हाल ही में मंचित वातायन के नाटक वीर चंद्र सिंह गढवाली भी उस महत्ती परियोजना का सबसे विकसित रूप तो नहीं जिसकी शुरुआत नजीबाबाद का इफ्तार हुसैन वाली मासूम संस्कृतिक चिंता से हुई थी?

चलिए, इसको थोड़ा परख लिया जाए और नाटक के उस अंतिम दृश्य को याद कर लिया जाए जो नाटक की टैग लाइन बना दिया गया- आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया? और इस बात तक को दरकिनार कर दिया जाए कि एक इक्लाबी चरित्र किस तरह रिड्यूस होकर अपनी गरिमा खो दे रहा है. यह दृश्य आजादी के बाद उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पेशावर कांड के सिपाही वीर चंद्र सिंह गढ़वाली को दी गई तुच्छ पेंशन पर सवाल उठाते हुए नाटक का अंत करता है और यहीं पर नाटक का किरदार- राहुल सांकृत्यायन चीख चीख कर चिल्ला रहा है - आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया? इतना नहीं  अपने साथी किरदार के साथ जीवन की घटनाओं को शेयर करता वीर चंद्र सिंह गढवाली का किरदार भी दाहड़ मारकर रोते हुए वही दोहरा रहा है - आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया? नाटक अपने अंत की ओर है और पार्श्व से अन्य कलाकार भी अब मंच पर आकर उतनी ही तीखी आवाज और कोरस के से स्वर में दोहरा रहे हैं - आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया?


यह आरोप नहीं बल्कि उस अनुगूंज को याद दिलाना है, पिछले कुछ सालों से जिसका हल्ला खूब सुनाई दे रहा है कि मानो भारत देश मात्र आठ दस साल पहले आजाद हुआ हो और अब आजाद देश की जो पहली सरकार है, वह पहले के दौर की सरकारों से भिन्न है.

सरकारी चरित्र में वास करती अमानवीयता को छुपाते हुए गैर राजनैतिक दिखने का यही साहित्यिक-सांस्कृतिक तरीका है. और यही समझदारी तथ्यों में हेर फेर कर देने का उत्स होती है. देख लेते हैं कि राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी जीवनी में पेशावर कांड के सिपाही की स्थिति क्या है, 

“ ... 25  जुलाई 1955  को उत्तर प्रदेश सरकार ने लिखा कि राज्यपाल को इसके लिये बड़ी प्रसन्नता है कि चन्द्र सिंह गढ़वाली को अब १४ रुपया मासिक आजीवन पेन्शन दी जायगी। यह जले पर नमक छिड़कना था। भला आजकल के जमाने में 14 रुपये से क्या बनता है? बड़े भाई ने 16  अगस्त 1955 को सरकार को चिट्टी लिखकर इस पेंशन को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। यह खबर समाचार-पत्रों में भी प्रकाशित हुई। बड़े भाई की चिट्टी का कुछ अंश निम्न प्रकार है-

.. मेरी उमर 65 साल की है। आपने 14  रुपये मुझे पेंशन दिये हैं। क्या मैं यह समझँ कि हमारे गणतन्त्र राज्य ने मेरे लिये अन्तिम कार्य के लिये उपरोक्त पेंशन ही उचित और काफी समझी....? मैं आपके भेजे हुये पेंशन के पत्र को वापस करता हूँ.... । क्षमा । “[1]


कोई भी रचना या कलाकृति अपने समकाल से निरपेक्ष नहीं हो सकती। किसी बदले हुए समय में उसके पाठ भी अपने समय भिन्न कैसे हो सकते हैं फिर। राहुल सांकृत्यायन के पात्र के माध्यम से नाटक का यह अंत आखिर कहना क्या चाहता है? यह बिंदु अहम रूप से विचारणीय है। यह एक बड़ी विडंबना है, जब रचनात्मकता सत्ता की भाषा हो जाना चाहती है और एक नायक के जीवन से केवल उन क्षणों को

चुनती है जो उसके द्वारा चुन लिए गए अंत का विकास कर सकते हैं
, या थोड़ा बहुत तोड़ मरोड़ कर, कुछ अतिरिक्त जोड़ घटाकर, वैसा कर सकने में सहायक हो सकते हैं।

 



राजनैतिक पार्टी और सरकार के फर्क को भूला देने वाली राजनीति की चेतना ही पेशावर के नायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली जेल जीवन के दौरान डिप्रेशन में दिखा सकती है। उसे खुद के कपड़े फाड़ कर बिलख बिलख कर रोता हुआ दिखा सकती है। वरना राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की जीवनी पेशावर कांड का घटनाक्रम घटने से पहले ही नहीं, बल्कि बाद में सजा पाए गढ़वाली को भी जेल में अन्य कैदियों के साथ सम्पर्क बनाये रखते हुए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष करते वीर का परिचय देती है। मूल जीवनी का निम्न हिस्सा यहां देख सकते हैं,

इस एकान्त काल कोठरी में चन्द्र सिंह कभी सोचते— “चन्द्र सिंह, तुम क्या कर बैठे ? मारे जाओगे। पिता, स्त्रि[i]याँ, बच्चे सदा के लिये तुमसे छूट चुके । तुम इस अंधेरी कोठरी में पड़े हुए हो, न जाने कब तक के लिये ?"

फिर उनके मन में यह सोचकर गर्व हो उठता- "चन्द्र सिंह शाबाश, तुमने मानुष जीवन का फल पा लिया। अपनी तुच्छ शक्ति के अनुसार तुमने देश माता के लिये यह सब कुछ किया। देश-भक्ति कसूर नहीं है। यह शर्म करने या घबराने की चीज नहीं है। तुमने अपने जीवन की कीमत वसूल कर ली। अपने परम कर्त्तव्य को पूरा कर लिया। जब तक साँस चलती है, तब तक इस कोठरी में आनंद से रहो। जो तुम चाहते थे, वही तुमको मिला।" वह इस प्रकार के विचारों में अपने आपको भूल गये इसी समय बूटों की आहट से उनका ध्यान टूटा। जंगले से बाहर शौककर देखा कि नम्बर १ और नम्बर ४ प्लाटून के सैनिक जा रहे हैं उन्होंने जोर से आवाज़ दी — “ जवानों, घबड़ाना मत। मैं भी यहीं हूँ” [2]

                                              

सिर्फ अपने बारे में, परिवार, मां, बाप, पत्नी और बच्चों के बारे में सोचते हुए अपने किये पर पश्चाताप करते हुए डिप्रेशन का शिकार होकर विक्षिप्त अवस्था को प्राप्त हो चुके चन्द्र सिंह गढवाली को प्रस्तुत करने के लिए पूरे नाटक का जो ताना बाना बुना गया उसकी शुरुआती झलक एक मांगल गीत से होती है. जिसे गाते हुए कलाकार दर्शकों पर फूल बरसाते हुए एक दम बीचोंचीच से जाते हुए गुजरते हैं, मंच पर सामूहिक अभिनंदन करते हैं और विंग्स के पीछे निकल जाते हैं. यहाँ उस तरह की ओपनिंग और मंगल गीत की प्रासंगिकता का सवाल करना बेमानी है क्योंकि अभी आप नहीं जानते कि नाटक किस तरह से डेवेलप होगा. और वह अपने पहले दृश्य में उस बालक च्न्द्र सिंह से परिचित कराता है जिसकी बहादुरी का यह किस्सा नाटय टीम  के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है कि कैसे बालक चंद्र सिंह एक क्रोधित अंग्रेज अधिकारी के सिर पर एक तांत्रिक के मंत्र से शक्तिकृत भभूत चुपके से छिडक कर उसके क्रोध को कम कर देता है और निर्दोष लेकिन गुनहगार ठहराये जा रहे गांव वाले सिर्फ छोटे से जुर्माने की सजा में ही निपट जाते हैं.

अगले दृश्य पार्श्व में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आक्रोशित जनसमूह की आवाजें हैं, मंच पर हवलदार चन्द्र सिन्ह और उसकी बटालियन के दूसरे सिपाहियों को जनता पर गोली चलाने का हुक्म देते अंग्रेज फौजी अफसर हैं और जवाब में अपने साथियों सीज फायर का हुक्म देता हवलदार चन्द्र सिन्ह है.यही है पेशावर विद्रोह. जो ऐसे लगता है जैसे एकाएक घटा हो. ऐसा नहीं है कि तैयारी की आवश्यक कार्रवाइयों के विवरण राहुल संकृत्यायन द्वारा लिखी जीवनी में न हो. लगभग 415 पृष्ठ और 26 प्र्करणों में लिखी मूल जीवनी के लगभग 350 पृष्ठ ऐसे ही विवरणों से भरे हैं. लेकिन नाटय टीम की दिक्कत है कि यदि वह उन विवरणों के एक छोटे से प्रकरण को भी मंच पर लाए तो दो समस्यायें हैं.

1.      नाटक की समयावधि बढ सकती है क्योंकि बाकी वे हिस्से तो उसके लिए जरूरी ही हैं जिनसे अपनी कर्रवाई पर पछताते हुए असहाय से दिखते चंद्र सिंह के प्रति दर्शकों के भीतर सहानुभूति का भाव उपजाने और अपने लक्ष्य तक पहुंचना है.

2.      वैसे दूसरी दिक्कत ज्यादा बड़ी है,क्योंकि दर्शकों के भीतर पहले से ही मौजूद वीर चंद्र सिंह गढवाली की छवि को तोड‌ना तो मुश्किल ही हो जाएगा तो फिर अपनी पेंशन के लिए लाचार होकर गिडगिडाते चंद्र सिंह गढवाली को कैसे दिखाया जा सकता था.

घटनाक्रम के बाद जेल जीवन के दृश्य हैं और उससे पहले मोर्चे से वापिस भेज दिये गए बगावती सिपाहियों की आपसी बतचीत है. जिसमें चन्द्र सिन्ह के आर्यसमाजी हिंदू होने का खुलासा नाटय टीम को ज्यादा महत्वपूर्ण लगा है. खैर, प्रसंगों के चयन में  नाट्य टीम की स्वतंत्रता को सवाल क्यों किया जाए ? जबकि राहुल सांकृत्यायन की मूल जीवनी और पृष्ट 198 में दर्ज एक ऐसा ही विवरण हमारे पास हो,उसे देख लेते हैं,

            “चन्द्र सिंह के ऊपर आर्यसमाजी होने की बात कह करके एक और इल्जाम खड़ा किया गया था, जिसके लिये कोर्ट मार्शल ने एबटाबाद के डिप्टी कमिश्नर लेफ्टिनेंट कर्नल एम० ई० रेकी से गवाही ली थी, बयान भी लिया था।“[3]

यह विवरण राहुल उस वक्त देते हैं जब चंद्र्सिंह को बगावत का गुनाहगार घोषित करने के लिए सरकारी गवाह सूबेदार जय सिंह और सूबेदार त्रिलोक सिंह के बयानों का जिक्र मूल जीवनी में हो रहा है. सवाल है पेशावर कांड के वीर सिपाही को आर्यसमाजी हिंदू साबित करके वातायन नाट्य दल क्या कहना चाहता है. यहां यह आग्रह  नहीं कि वातायन को नागेंद्र सकलानी हो चाहे चन्द्र सिंह गढवाली, दोनों की कम्यूनिस्ट पहचान दिखानी ही चाहिए थी. जबकि अपनी परियोजना के सबसे मह्त्वपूर्ण नाटक मुखजात्रा में नागेंद्र सकलानी की मूल पहचान-कम्यूनिस्ट को छुपाने का एक इतिहास पहले से है. मूल जीवनी से चन्द्र सिंह गढवाली की जो छवि बंनती है उसकी एक बानगी यहां प्रस्तुत है कि अपने जनसमाज के बारे में वह समझदारी क्या थी,   


“हमारे गढ़वाल में ताँबा -लोहे की खानें हैं। नाना प्रकार की जड़ी-बूटियाँ, औषधियाँ हैं। पत्थर, लकड़ी है, कागज बनाने की सामग्री, मधु, शिलाजीत, इंगुर, फूल और फलों से जंगल सम्पन्न हैं। इससे भी बड़ी और महत्व की चीज बहती हुई गंगा की धारा है, जिससे हम करोड़ों किलोवाट बिजली पैदा करके घर-घर पहुँचा सकेंगे। हमारा गढ़वाल औद्योगिक प्रदेश हो जायगा । हम समय और शक्ति का सदुपयोग करेंगे।”

"हमें स्वस्तन्त्र भारत में जनतान्त्रिक गढ़वाल बनाने का मौका मिलेगा। हम १० लाख गढ़वालियों की आर्थिक समस्या, संस्कृति, भाषा, भारत के ६६० जिलों से भिन्न है। "

आज के टिहरी गढ़वाल और ब्रिटिश गढ़वाल, अपर-गढ़वाल और लोअर - गढ़वाल, ठाकुर और ब्राह्मण, डोम और बिष्ट, खैकर और हिस्सेदार, राजा और प्रजा, नहीं रहेंगे, लेकिन, हमको उस समय के इन्तजार में बैठे नहीं रहना होगा। हमें उस समय को लाने के लिये महान् से महान् प्रयत्न करने होंगे। जनता के बीच जाकर, उनके दुःखों का अध्ययन करके, उन्हीं के सामने रखकर उनको दूर करने का प्रयास करना होगा। जन-संगठन के द्वारा शक्ति प्राप्त करना, जनता में राजनीतिक जागृति लाना। भूख, महामारी, हर प्रकार के आशंकाओं के समय उनकी सहायता करके उनमें विश्वास प्राप्त करना होगा। आज संसार में ऐतिहासिक परिवर्तन होने जा रहा है। हमको भी इस ऐतिहासिक निर्माण में सक्रिय भाग लेना पड़ेगा। हमारी आजादी भी संसार की आजादी में निहित है, इसलिये हमें आपसी छोटे-छोटे झगड़ों को छोड़ देना चाहिये। वैसे तो डोला- पालकी का सवाल भी गौण सवाल नहीं है। इसमें भी नागरिक अधिकार और सामाजिक स्वतन्त्रता की माँग मौजूद है। मगर इस झगड़े से आम डोम जाति का उपकार हो सकेगा। शब्दों में चाहे आर्य कहो या हरिजन, अछूत कहो या आदिवासी, या डोम; उनके लिये अलग मंदिर बना दो, अलग कुआँ खोद दो या थोड़ी देर के लिये उनके हाथ का बनाया लड्डू भी खा लो, इन सबसे उनका असली उपकार नहीं हो पायेगा।“[4]

मंचन के लिहाज से बात की जाये तो बहुत ही बचकाना सा मामला था. जबकि अपने इस नाटक के साथ ही वातायन अपनी रंग यात्रा के 45 वर्षों का जिक्र करती है. इतना ही नहीं आजादी के अमृत महोत्सव के समय की अपनी इस नाटक को दिल्ली के गिन्नी बब्बर से निर्देशित करवाती है. जिनके परिचय में दर्ज करती है कि उन्होने  वर्ष 2012 में श्रीराम सेंटर फॉर आर्ट एंड कल्चर,नई दिल्ली से दो वर्षा का अभिनय में डिप्लोमा प्राप्त किया है. राजेंद्र नाथ, त्रिपुरारी शर्मा, बापी बोस,हेम सिंह, लेंडी ब्रायन, राज बिसारिया, रुद्र्दीप चक्रवर्ती,स्वरूपा घोष, चितरंजन गिरी,के एस राजेंद्रन,मुश्ताक काक व कई अन्य जाने-माने राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त व्यक्तियों/निर्देशकों के सानिध्य में काम किया है.       



[1] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, ध्रुवपुर (1950) ,  पृष्ठ 415

 

[2] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, गिरफ्तारी (1930 में),  पृष्ठ 179

 

[3][3] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, फौजी फैसला (1930 में),  पृष्ठ 198

 

[4][4] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, गांधी जी के पास,  पृष्ठ 305



उपयोग की जा रही सभी तस्‍वीरों के लिए जयदेव भट्टाचार्य का आभार। तस्‍वीरें उनके कैमरे का कमाल हैं।  

2 comments:

The colors within me said...

नैरेटिव सैट करना भी एक कला ही है | किस बात को हाईलाइट किया जाये, किस बात को अंडरटेकर में कहा जाये, किस महत्वपूर्ण बात को समय की कमी की माफ़ी मांगते हुए कालीन के नीचे गर्द की तरह छुपा लिया जाये और आप सोचते रह जाओ, झूठ तो कुछ भी नहीं कहा‌, मतलब यही सत्य है अंतिम सत्य की तरह |
चंद्रसिंह गढ़वाली जी मृत्योपरांत भी कितनी बार ये अन्याय झेलेंगे, बहुत शर्मिंदगी की बात है हम सबके लिए |

आपके इस आलेख ने सत्ता के नैरेटिव का बहुत जरूरी पक्ष उजागर किया ; रंगमंच, साहित्य कैसे बारिकी से ये नैरेटिव सैट कर रहे हैं कि हाई पावर‌ के लैंस चाहिए समझने के लिए |

ऋतु डिमरी नौटियाल

ऋषिकेश अहमद said...

वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली जी के चरित्र से उनका मार्क्सवादी व्यक्तित्व से ज़्यादा जरूरी ब्रिटिश अधिकारी के ऊपर टोटके/ भभूत को आजमाते दिखाना बता देता है कि वे कैसे दर्शको के मस्तिष्क में अनर्गल बातों को ठूसने चाहते हैं ताकि जो असली घीज है वो विस्मृत हों जाए और केवल यही याद रह जाये. पेंशन के लिए भिखारी की तरह रोटा गढ़वाली, यही तो चाहते हैं वे, ताकि पेशावर कांड को धूमिल किया जा सके, तभी टोनितने सस्ते में उस घटना को निबटा दे रहे हैं जो आज के आदमखोर राजनैतिक आकाओ के मुंह पर तमाचा जड़ रही है. अगर उसे सही से दिख दिया तो आज की सत्ता नंगी हो जायेगी.
वातायन को आइना दिखाने के लिए आपका धन्यवाद.