Saturday, September 13, 2008

एक खुरदरी सतह पर हाथ रखते हुए

देहरादून की साहित्यिक संस्था संवेदना के बारे में कुछ सिलसिलेवार लिखने का मन है।

विजय गौड


संवेदना का झीना परदा हटाते हुए दिखायी देती उस दीवार के रंग को छुओ, जो इतिहास की किताबों में दर्ज नहीं, तो उसकी खुरदरी सतह पर जिन उंगलियों के निशान दिखायी देगें, उनमें न सिर्फ देहरादून के साहित्य जगत का अक्स होगा बल्कि हिन्दी साहित्य में अपनी उपस्थिति के साथ दर्ज आप कुछ ऐसे साथियों को पायेगें जिन्हें जब भी पढ़ेगें तो एक बहुत सुरीली सी आवाज में सरसराता चीड़ के पेड़ों का संगीत शायद सुन पायें। यह अपने जनपद से लगाव के कारण अतिरिक्त कथन, कतई नहीं है।

पिछले 20 वर्षों से माह के प्रथम रविवार को होने वाली बैठक संवेदना का स्थायी भाव है। यूं संवेदना के गठन को चीन्हते हुए उसकी उम्र का हिसाब जोड़े तो कुछ ऐसे ब्यौरों को खंगालना होगा जो अपने साथ देहरादून के इतिहास की अडडेबाजी के शुरुआती दौर का इतिहास बेशक न हो पर उस जैसा ही कुछ होगा। डिलाईट जो आज तमाम खदबदाते लोगों का अडडा है, संवेदना के गठन के उन आरंम्भिक दिनों की शुरुआत ही है। संवेदना के इतिहास को जानना चाहूं तो डिलाईट जा कर नहीं जान सकता। डिलाईट में बैठने वाले वे जो अडडे बाज हैं, दुनियावी हलचलों के साथ है, साहित्य उन्हें बौद्धिक जुगाली जैसा ही कुछ लगता है। हां, देहरादून के राजनैतिक इतिहास और समकालीन राजनीति पर बातचीत करनी हो तो जितनी विश्वसनीय जानकारी उन अडडे बाजों के पास हो सकती है वैसी किसी दूसरे पर नहीं। तो फिर संवेदना के इतिहास के बारे में किससे पूछूं ?
कोई होगा, कहेगा कि उस वक्त जब देश बंधु जीवित था। देश बंधु को नहीं जानते! उसे आश्चर्य होगा देशबंधु के बारे में आपके पास कोई जानकारी नहीं।
अरे! वह एक युवा कहानीकार था। बहुत कम उम्र में ही चला गया। अवधेश कुमार चौथे सप्तक के कवि थे पर वे भी शायद उसके बाद ही चौथे सप्तक के रुप में जाने गये। देश बंधु और अवधेश में से कौन पहले छपने लगा था - इस पर कोई विवाद नहीं पर इस बात को स्पष्ट करने वाला कोई न कोई आपको या तो संवेदना में मिल जायेगा या डी लाईट में नही तो देहरादून रंगकर्मियों के बीच तो होगा ही।

संवेदना का इतिहास लिखना चाहूं तो बिना किसी से पूछे बगैर नहीं लिख सकता। पर पूछूं किससे ? फिर कौन है जो दर्ज न हो पाये इतिहस को तिथि दर तिथि ही बता पाये। पिछले बीस सालों का विवरण तो रजिस्टरों में दर्ज है। पर उससे पहले ! इतिहास लिखना मेरा उद्देश्य भी नहीं। यह तो एक गल्प है जो सुनी गयी,देखी और जी गई बातों के ब्यौरे से है। बातों के सिलसिले में ढूंढ पाया हूं कि 1972-73 के आस पास गठित संवेदना और उसकी बैठके 1975-76 के आस पास कथाकार सुभाष पंत के अस्वस्थ होकर सेनोटोरियम में चले जाने के बाद जारी न रह पायीं। देहरादून के लिक्खाड़ सुरेश उनियाल, धीरेन्द्र अस्थाना भी रोजी रोटी के जुगाड़ में देहरादून छोड़ चुके थे। नवीन नौटियाल की सक्रियता पत्रकारिता में बढ़ती गयी थी। अवधेश कुमार कविताऐं लिखने के साथ-साथ नाटकों की दुनिया में ज्यादा समय देने लगे थे।
उस दौर के कला साहित्य और सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष से जुडे किसी बुजुर्गवार से पूछूं तो कहेगा कि संवेदना का गठन उस वक्त हुआ था जब देश बंधु मौजूद था। नहीं यार, देशबंधु तो बहुत बाद में कहानीकार कहलाया। "दूध का दाम" सुभाष पंत की पहली कहानी थी जो सारिका में छप चुकी थी। कहानी की स्वीकृति पर कथाकार कमलेश्वर जी के पत्र को लेकर जब वे डिलाईट में पहुंचे थे तो शहर के लिक्खाड़ नवीन नौटियाल, सुरेश उनियाल, अवधेश कुमार उस पत्र को देखकर चौंके थे। एक दोस्ताना प्रतिद्वंदिता ने उन्हें जकड़ लिया था। वे स्थापित लेखक थे। हर अर्थ में लेखक होने की शर्त को पूरा करते हुए। वे अडडेबाज थे। घंटों-घंटों 23 नम्बर की चाय पीते हुए दुनिया जहान के विषयों से टकरा सकते थे। समकालीन लेखन से अपने को ताजा बनाये रखते थे। शहर के लिखने, पढ़ने और दूसरे ऐसे ही कामों में जुटे सामाजिक कार्यकर्ताओं से उनका दोस्ताना था। जबकि सुभाष पंत तो एक गुडडी-गुडडी बाबू मोशाय थे। सरकारी मुलाजिम भी। लेखक बनने की संभावना अपनी गृहस्थी और दूसरी घरेलू जिम्मेदारियों के साथ निभाते हुए। ऐसे शख्स से वे युवा लिक्खाड़ पहले परिचित ही न थे। तो चौंकना तो स्वाभाविक था। क्यों कि वह गुडडी-गुडडी सा शख्स उन्हें उस सम्पादक का खत दिखा रहा था जिसमें प्रकाशित होने की आस संजायें वे भी तो लिख रहे थे।




---जारी

3 comments:

ravindra vyas said...

आप यह एक बेहद महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं और इसका नोटिस लिया जाना चाहिए। मुझे लगता है, छोटे-छोटे शहरों में होने वाली इस तरह की गोष्ठियां एक जीवंत साहित्यिक माहौल बनाती हैं। इस तरह के किस्से इतिहास में अब भी स्पंदित हैं कि कैसे इस तरह की छोटी गोष्ठियों में आकर युवा और युवतम रचनाकार बाद में बड़े लेखक बने।
शुभकामनाएं।

Anonymous said...

laghukatha ke kathanak ko khench kar bada kiya gaya hai,shyam

अजित वडनेरकर said...

विजय भाई , मज़ा आ गया पढकर । मैं भी अपने बारह हजार आबादी के कस्बे राजगढ़ में ऐसी गोष्ठियों का साक्षी बना हूं। देहरादून तो एक सदी से शहर ही है और अब तो खासी राजधानी है।
अगली कडी का इंतजार...