Sunday, September 28, 2008

मेरी रंगत का असर

कमल उप्रेती मेरा हम उम्र है। मेरा मित्र। उस दिन से ही जिस दिन हम दोनों ने कारखाने में एक साथ कदम रखा। कहूं कि अपने बचपन की उम्र से बुढ़ापे में हम दोनों ने एक ही तरह एक साथ छलांग लगायी। यानी जवानी की बांडरी लाईन को छुऐ बगैर। भौतिक शास्त्र में एक शब्द आता है उर्ध्वपातन (ठोस अवस्था द्रव में बदले बिना गैस में बदल जाए या गैस बिना द्रव में बदले ठोस में बदल जाए।), जो हमारा भी एक साथ ही हुआ। हम साथ-साथ लिखना शुरु कर रहे थे। एक कविता फोल्डर फिलहाल हमारी सामूहिक कार्रवाईयों का प्रकाशन था उन दिनों। यह बात 1989 के आस-पास की है। लेकिन कमल का मन लिखने में नहीं रमा। वह पाठक ही बना रहा। एक अच्छा पाठक। तो भी यदा कदा उसने कुछ कविताऐं लिखी हैं। अभी हाल ही में लिखी उसकी कविता को यहां प्रकाशित करने का मन हो रहा है।

मेरी रंगत का असर

कमल उप्रेती
0135-2680817

मैं खुश हूं कटे हाथों का कारीगर बनकर ही
नहीं है मेरा नाम ताज के कंगूरों पर
फिर भी सुल्तान बेचैन है
मेरी उंगलियों के निशां से

मैं जीना चाहता हूं
कौंधती चिंगारियों
धधकती भटिटयों के बीच
जिसमें लोहा भी पिघल,
बदल रहा है
मेरी रंगत की तरह

मैं सर्दी की नाईट शिफ़्ट में एक
पाले का सूरज बनाना चाहता हूं
जून की दोपहर
सड़क के कोलतार में
बाल संवारना चाहता हूं।

मैं मुंशी बनकर जी भी तो नहीं सकता
जिसकी कोई मर्जी ही नहीं
जिसकी कमीज़ के कालर पर
कोई दाग ही नहीं
पर खौफजदा है
सुल्तान के खातों से

मेरी निचुड़ी जवानी और
फूलती सांसों से
ए।सी। कमरों में कागजी दौड़-धूप के साथ लतपत
कोल्ड ड्रिंक पीने से डरता है सुल्तान
बेफिक्री के साथ गुलजार रंगीन रातों को
जाम ढलकाने से भी

पर मैं तो ठेके पर नमक के साथ
पव्वा गटकना चाहता हूं
सारी कड़वाहट फेफड़ों में जमे
बलगम की तरह थूकना चाहता हूं।

8 comments:

शिरीष कुमार मौर्य said...

अच्छी कविता ! कमल जी तक मेरा सलाम पहुंचाएं !

Ashok Pande said...

विजय भाई,

मुख्य बात कहने से पहले आपको बताता चलूं कि क़रीब ढाई हज़ार साल पहले आपके द्वारा दिये गए 'फ़िलहाल'के सारे अंक मेरे पास अभी तक महफ़ूज़ हैं. उनकी महक अब भी वैसी ही है - जस की तस.

कमल उप्रेती की कविता आश्चर्यजनक रूप से एक वैश्विक फ़ॉर्म और ज़मीन की कविता है. मुझे पोलैण्ड का बहुत जल्दी मर गया कवि राफ़ाल वोयात्चेक याद आया जिसकी एक कविता तक़रीबन इसी क़द की है. मैंने उसका अनुवाद किया था कभी - अपने कबाड़ख़ाने में खोजता हूं, मिल गई तो ज़रूर भेजूंगा ताकि आप उसे कमल तक पहुंचा दें.

बाक़ी यह कि कमल भाई को मेरा सलाम दें और कहें कि ऐसी बेबाकी की हिन्दी कविता को जितनी आज ज़रूरत है, पहले कभी न थी.

थैंक्यू भाई.

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत ही यथार्थ कविता है।

Udan Tashtari said...

एक घुटन-एक अजब सी कशीश-छटपटाहट-एक खुली हवा में सांस लेने की बैचेनी...सब कुछ मात्र चन्द पंक्तियों में. यथार्थ की जीती यह जिन्दा रचना-कमल भाई से कहें कि नियमित लिखें. आपके बाल सखा हैं, शायद आपका अनुग्रह न टालें और हम सब का भला हो जाये ऐसे बेहतरीन भावों के मालिक को पढ़.

आभार इसे पेश करने का.

Anil Pusadkar said...

नमन कमल ज़ी की कलम को और आभार आपका अच्छी और सच्ची कविता पढने का मौका देने के लिये।

Arvind Mishra said...

नग्न यथार्थ को प्रेजेंट करती गहन भावों की कविता !

प्रदीप मानोरिया said...

पर मैं तो ठेके पर नमक के साथ
पव्वा गटकना चाहता हूं
सारी कड़वाहट फेफड़ों में जमे
बलगम की तरह थूकना चाहता हूं।
सुंदर अति सुंदर पंक्तियाँ .. आपका चिठ्ठा जगत में हार्दिक स्वागत है निरंतरता की चाहत है .. मेरा आमंत्रण स्वीकारें समय निकल कर मेरे ब्लॉग पर पधारें

संगीता पुरी said...

आज ही आपके ब्लाग पर आने का मौका मिला ....अर्थपूर्ण, भावपूर्ण और कुछ सोंचने को मजबूर करते .....पद्य और गद्य दोनो पढ़ने को मिले... इसके लिए कमल ज़ी और आप ...दोनो को धन्यवाद।