Friday, August 7, 2009

जब व्हेल पलायन करते है



संवाद प्रकाशन से
यूरी रित्ख्यू के प्रकाशनाधीन उपन्यास जब व्हेल पलायन करते हैं का हिन्दी अनुवाद कथाकार डॉ शोभराम शर्मा ने किया है।डॉ शोभाराम शर्मा की रचनाओं को इस ब्लाग पत्रिका में अन्यत्र भी पढ़ा जा सकता है।

उत्तराखंड के पौड़ी-गढ़वाल में 6 जुलाई 1933 को जन्मे डॉ। शोभाराम शर्मा 1992 में राजकीय स्नाकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर से हिंदी विभागाध्यक्ष के पदसेसेवानिवृत्त हुए हैं। 50 के दशक में डा।शोभाराम शर्मा ने अपना पहलालघुउपन्यास "धुमकेतु" लिखा था। पेशे से अध्यापक रहे डा। शर्मा नेअपनी रचनात्मकता का ज्यादातर समय भाषाओं के अध्ययन में लगाया है। सामान्य हिंदी, मानक हिंदी मुहावराकोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी मुहावराकोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी लोकोक्तिकोश (दो भाग) उनके इस काम के रूप में समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं।
पूर्वी कुमांऊ तथा पश्चिमी नेपाल की राजी जनजाति (वनरावतों) की बोली का अनुशीलन (अप्रकाशित शोध् प्रबंध) उनका एक महत्वपूर्ण काम है।क्रांतिदूतचे ग्वेरा" (चे ग्वेरा की डायरी पर आधरित जीवनी) एक ऐसी कृति है जो बुनियादी बदलावों के संघर्ष में उनकी आस्था और प्रतिबद्धता को रखती है। पिछलों दिनोंउन्होंने संघर्ष की ऊर्जा से अनुप्राणित कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद भी किए जो जल्द ही प्रकाशन की प्रक्रिया से गुजरकर पुस्तकाकार रूप में देखे जा सकेंगे। इसी कड़ी में "जब व्हेल पलायन करते हैं" एक महत्वपूर्ण कृति है। इसके साथ-साथ डॉ। शोभारामशर्मा ने ऐसी कहानियां लिखी हैं जिसमें उत्तराखंड का जनजीवन और इस समाज के अंतर्विरोध बहुत सहजता के साथ अपने ऐतिहासिक संदर्भों में प्रस्तुत हुए हैं। वनरावतों परलिखा उनका उपन्यास "काली वार-काली पार" जो प्रकाशनाधीन है नेपाल के बदले हुए हालात और उसके ऐसा होने की अवश्यमभाविता को समझने में मददगार है। उत्तराखंड की ऐतिहासिक, सांस्कृतिकऔर सामंतवाद के विरोध् की परंपरा परलिखी उनकीकहानियां पाठकों मेंलोकप्रिय हैं।
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पता: डी-21, ज्योति विहार, पोस्टऑपिफस- नेहरू ग्राम, देहरादून-248001, उत्तराखंड। फोन: 0135-2671476





डॉ. शोभाराम शर्मा


चुक्ची लोग परंपरा से कुल या गोत्र नाम का उपयोग नहीं करते थे। लेकिन जब सरकारी दस्तावेज में नाम अंकित करने का मौका आया तो यूरी ने एक परिचित गोत्र रूसी भू-वैज्ञानिक का गोत्र नाम अपना लिया और इस तरह "यूरी" यूरी रित्ख्यू हो गए।




यूरी रित्ख्यू का जन्म 8 मार्च 1930 को चुकोत्का की ऊएलेन नामक बस्ती में अल्पसंख्यक शिकारी चुक्ची जनजाति में हुआ। उनके परिवार का मुख्य पेशा रेनडियर पालना था। रेनडियर की खालों से बने तंबू-घर (यारांगा) में जन्मे यूरी रित्ख्यू ने बचपन में शामानों को जादू-टोना करते देखा, सोवियत स्कूल में प्रवेश लेकर रूसी भाषा सीखी, विशाल सोवियत देश के एक छोर से दूसरे छोर की यात्रा करके लेनिनग्राद पहुंचे, उत्तर की जातियों के संकाय में उच्च शिक्षा प्राप्त की और लेखक बने, चुक्ची जनजाति के पहले लेखक। यूरी वह पहले चुक्ची लेखक हैं जिसने हिमाच्छादित, ठंडे, निष्ठुर साइबेरिया प्रदेश की लंबी ध्रुवीय रातों और उत्तरी प्रकाश से दुनिया का परिचय कराया।
अनादिर तकनीकी विद्यालय में पढ़ने के दौरान ही "सोवियत चुकोत्का" पत्रिका में उनकी कविताएं व लेख छपने शुरू हो गए थे। 1949 में लेनिनग्राद स्टेट यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान उनकी कुछ लघु कथाएं "ओगोन्योक" और "नोवी-मीर" पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। 1953 में उनका पहला लघु कथा-संग्रह "हमारे तट के लोग" सामने आया। 24 साल की उम्र में ही वह सोवियत लेखक संघ के सदस्य बन गए। यूरी या जूरी रित्ख्यू की रचनाओं का अंग्रेजी, जापानी, फ़िनिश, डेनिश, जर्मन और फ़्रैंच आदि भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। "जब व्हेल पलायन करते हैं", "ध्रुवीय कोहरे का एक सपना", "जब बर्फ पिघलती है", "अचेतन मन का आईना" और "अंतिम संख्या की खोज" उनके सर्वोत्तम उपन्यासों में गिने जाते हैं। "जब बर्फ पिघलती है" उपन्यास 20वीं सदी में चुक्ची जनजाति के जीवन में आए वाले बदलावों का लेखा-जोखा है। एक रचनाकार के रूप में यूरी रित्ख्यू पर मैक्सिम गोर्की का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। "जब व्हेल पलायन करते हैं" पर गोर्की की आरंभिक भावुकता की छाप है तो "जब बर्फ पिघलती है" पर गोर्की की उपन्यास त्रयी "मेरा बचपन", "जीवन की राहों में" और "मेरे विश्वविद्यालय" का प्रभाव साफ झलकता है।
संयुक्त राज्य अमेरिका से प्रकाशित "ध्रुवीय कोहरे का एक सपना" में ध्रुवीय जीवन और प्रकृति का ऐसा हृदयस्पर्शी विवरण है जो दूसरे रचनाकारों की कृतियों में कम ही मिलता है। यूरी की कृतियों में चुक्ची जाति के लोगों के आत्मत्यागी जीवन, कठोर श्रम, उनकी भोली दंत-कथाओं, प्राचीन परंपराओं-धरणाओं के साथ आधुनिकता और 20वीं सदी के विज्ञान एवं संस्कृति के विचि्त्र मिलाप और चुकोत्का के ग्राम्य-जीवन का अत्यंत काव्यमय एवं अभिव्यंजनात्मक भाषा में वर्णन किया गया है। "अंतिम संख्या की खोज" उपन्यास में रित्ख्यू ने खुद को कुछ नए ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया है। इस उपन्यास में पश्चिमी संस्कृति, चुक्ची लोगों के भोले विश्वासों और महान बोल्शेविक विचारों का अंतर्द्वंद्व चित्रित है। 1918 में अमंडसेन नामक अन्वेषक का उत्तरी ध्रुव अभियान इस उपन्यास की केंद्रीय घटना है। जहाज के बर्फ में फंसने और जम जाने से अमंडसेन को पूरा कठिन ध्रुवीय शीतकाल वहां के स्थानीय लोगों के साथ बिताने पर मजबूर होना पड़ता है। उसे लगता है कि सदियों पुराने तौर-तरीकों के कारण ध्रुवीय लोगों का सभ्य होना संभव नहीं है। लेकिन "जियो और जीने दो" के अपने दृष्टिकोण की वजह से वह चुक्ची लोगों का विश्वास जीतने में सपफल रहता है। उसी साल लेनिन के महान विचारों से प्रेरित एक बोल्शेविक नौजवान अलेक्जेई पेर्शिन भी वहां पहुंचता है। वह वर्ग-संघर्ष के जरिए चुकोत्का में सोवियत-व्यवस्था की नींव डालना चाहता है। दैनंदिन जीवन संघर्ष से जूझते लोगों पर उसके भाषणों का कम ही असर होता है। वह लोगों को रूसी भाषा सिखाता है और अपनी ही एक शिष्या उमकेन्यू से शादी कर लेता है। उमकेन्यू खुद को उससे भी बड़ी बोल्शेविक दिखाने की कोशिश करती रहती है। उमकेन्यू का अंध पिता गैमिसिन भी बोल्शेविक सपनों की ओर खिंचता है और पेर्शिन के इस वादे पर विश्वास करने लगता है कि एक दिन कोई रूसी डॉक्टर आकर उसे अंधेपन से मुक्त कर देगा।
उपन्यास का केंद्रीय पात्रा चुक्ची शामान (ओझा) कागोट है जो अपने जनजातीय कर्त्तव्यों से विमुख हो चुका है। एक अमरीकी स्कूनर पर काम करते हुए अमंडसेन कागोट को रसोइया रख लेता है। अमंडसेन स्वयं कागोट के कामों की निगरानी करता है और प्रारंभिक नतीजों से खुश होता है। खोजी जहाज पर शामान कागोट व्यक्तिगत स्वच्छता का पाठ पढ़ता है जबकि चुक्ची सर्दियों में नहाते नहीं थे ताकि मैल की परत ध्रुवीय ठंड से उनकी रक्षा करती रहे। कागोट कलेवे के यूरोपियन परंपरा के मुट्ठे बनाने की कला में पारंगत हो जाता है। लेकिन जब उसे गणित का ज्ञान दिया जाता है तो अमंडसेन का प्रयोग गड़बड़ा जाता है। अनन्तता का विचार कागोट की समझ में नहीं आता। वह अंतिम संख्या को जादुई शक्ति का स्रोत समझ बैठता है और उसकी प्राप्ति के लिए अपनी सारी शक्ति लगा देता है। उसकी अपनी दुनियां तो परिमित थी। हर चीज यहां तक कि आकाश के सितारे भी गिने जा सकते थे बशर्ते कोई हार न माने तो। अमंडसेन के दल द्वारा दी गई कापियों पर वह संख्या पर संख्या लिखता चला जाता है। अंतिम संख्या के लिए इस हठध्रमिता के कारण जब कागोट अपने कर्त्तव्य से विमुख हो जाता है तो अमंडसेन को उसकी मूर्खता का अनुभव होता है और वह शामान कागोट को निकाल बाहर करता है।
वस्तुत: कागोट की हठध्रमिता अमंडसेन से कुछ कम नहीं है जो दुसाध्य उत्तरी ध्रुव तक पहुंचने के प्रयास में नष्ट हो जाता है या पेर्शिन जैसे बोल्शेविकों का अपना परिमित विश्व-दृष्टिकोण जो अंतत: गुलाम और व्यक्ति पूजा की भेंट चढ़ जाता है। अपने इस उपन्यास में रित्ख्यू ने यह भी दिखाया है कि विज्ञान के सर्वग्रासी हमले के आगे चुक्ची संस्कृति अपने अस्तित्व की रक्षा में कितनी असुरक्षित सिद्ध हुई। अपनी सभी कृतियों में लेखक अपने सुदूर अतीत के पूर्वजों की संस्कृति को अपने कथांनक में इस तरह संयोजित करता है कि पाठक उस छोटे-से राष्ट्र की दुर्दशा से अभिभूत हो जाते हैं। वह रित्ख्यू द्वारा वर्णित किसी स्वर्ग का विनाश न होकर जीवन की उस पद्ध्ति की समाप्ति है जिसके द्वारा दुनियां के उस कठोरतम वातावरण में वे लोग अपने को बचा पाने में समर्थ हो सके थे।
यूरी रित्ख्यू की पिछली कृतियां समाजवादी और यर्थाथवादी कही जा सकती हैं। उनमें मुख्यत: सोवियत-व्यवस्था की सपफलताओं का चित्राण ही अधिक है। लेकिन "अंतिम संख्या की खोज" में बोल्शेविक प्रशासन के प्रारंभिक दिनों में चुक्ची समाज की जटिलताओं को ही संतुलित रूप में उकेरा गया है।
रित्ख्यू ने सोवियत-व्यवस्था के समय पूरब से पश्चिम तक संपूर्ण सोवियत संघ की यात्रा की थी। पिछले दशक में उन्होंने अमरीका के अनेक विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दिए। बीसियों बार पेरिस की यात्रा की। उष्णकटिबंधीय जंगलों का भ्रमण किया। अनेक साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित यूरी रित्ख्यू की कृतियां सोवियत संघ के बिखराव के बाद रूस में छपनी बंद हो गई थीं। लेकिन यूनियन स्वेलाग नामक स्विट्जरलैंड निवासी प्रकाशक ने जर्मन और दूसरी यूरोपीय भाषाओं में उनकी रचनाओं की ढाई लाख प्रतियां छाप डालीं। इध्र यूरी रित्ख्यू साइबेरिया की अनादिर नदी के किनारे बसे अनादिर कस्बे में रह रहे थे। अनादिर चुकोत्का स्वायत्त क्षेत्रा का प्रशासनिक केंद्र है। रूस के धुर पूर्वी छोर पर बसी इस बस्ती की स्थापना 3 अगस्त 1889 को नोवोमारीइन्स्क के नाम से हुई थी। 5 अगस्त 1923 को इसका नया नाम अनादिर रख दिया गया। 12 जनवरी 1965 को अनादिर को नगर की मान्यता प्राप्त हुई। सोवियत-व्यवस्था में पले-बढ़े चुक्ची जनजाति के इस पहले उपन्यासकार यूरी रित्ख्यू का 20 मई 2008 को देहावसान हो गया। यूरी की गणना आज भी अत्यदधिक प्रसिद्दध व लोकप्रिय सोवियत लेखकों में की जाती है।

4 comments:

Vinay said...

बहुत अच्छा लेख
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'विज्ञान' पर पढ़िए: शैवाल ही भविष्य का ईंधन है!

sanjay vyas said...

यूरी का लिखित साहित्य विशाल और शायद असंख्य साइबेरियाई जन समुदायों के बारे में हामारी समझ बढाने में महत्वपूर्ण है. अन्यथा तो कितने ही ऐसे समाज है जिनके साहित्य के सिर्फ वाचिक परंपरा में होने से वे महज पिछली सदी के बवंडर में ही नष्ट हो गए भले ही वे इससे पहले कई हज़ार सालों से पीढी दर पीढी हस्तांतरित हो रहे थे.
हिंदी में विश्व का क्लासिक लेखन तो खूब आया है पर चुक्ची जैसे लोगों का और पर लेखन अनुदित होकर आये ये बड़ी बात है. अनुवादक बधाई के पात्र हैं.

डॉ .अनुराग said...

बचपन में धकेल दिया आपने .जब प्रगति मैदान में हम रशियन बुक स्टाल के आगे खड़े घंटो लगाते थे ओर हमारे दोस्त यार इधर उधर घुमते थे .

Vineeta Yashsavi said...

Apki is post ne kafi kuchh yaad bhi dila diya...aur bahut kuchh naya bata bhi diya...

ye post bahut behtreen post hai...