Sunday, May 8, 2011

पैरेट मिर्ची खाता है, रैबिट कैरेट खाता है


मानव जीवन और पशु जीवन के बीच के आपसी रिश्तों के असंगत व्यवहार वाली पर्यावरणीय मानसिकता को जन्म दिया है। जंगलों और उसके आस-पास निवास करने वाले ग्रामीणों के लिए जंगल और पशु उनके आर्थिक आधार हैं, इस बात को ऐसे स्थानों पर रह रहे ग्राम वासी वर्षों से जानते हैं। लेकिन पर्यावरण की एकांगी समझ ने न सिर्फ मानवीय जीवन को ही दूभर बनाया हुआ है बल्कि जंगली पशुओं के प्रति एक झूठे प्रेम का ढकोसला रचा हुआ है। जंगलों के आस-पास निवास कर रहे ग्रामीणों का किस तरह से ऐसी ही मानसिकता से बने कानून के दायरे का शिकार होना पड़ जाता है इसका ताजा उदाहरण उत्तराखण्ड के रिखणीखाल इलाके में घटी हाल की घटना है। कानूनी दायरे ने मामले को इस कदर पेचीदा बना दिया है कि उत्तराखण्ड के विभिन्न इलाकों में पुलिस प्रशासन के खिलाफ आवाजें हर ओर सुनायी दे रही है। धरने प्रदर्शनों के लिए मजबूर जनता गिरफ्तार किये गये ग्रामीणों की रिहाई के लिए सड़कों पर उतरने को मजबूर हो रही है। विस्तृत सूचना के लिए विभिन्न पत्रों की रिपोर्ट की तस्वीरें यहां दी जा रही है। पर्यावरणीय मामले की पड़ताल करता डॉ सुनिल कैंथोला का आलेख एक सचेत नागरिक की चिन्ताओं के साथ है।
डा. सुनील कैंथोला








‘‘लामा जी उवाच’’
 ‘पैरेट मिर्ची खाता है, रैबिट कैरेट खाता है।’ 
लामा जी अभी सिर्फ ढाई साल के हैं और रंग-बिरंगे चित्रों से भरपूर अपनी किताब से बारहखड़ी सीखने के खेल में जुटे रहते हैं। ये किताब लामाजी को दुनियां भर का ज्ञान बटोरने का अवसर प्रदान करेंगी, परन्तु यदि वे इस किताबी ज्ञान का ही सच मान लेंगे और अपने सामान्य ज्ञान को नजर अंदाज करेंगे, तो यह उनके लिए घातक भी हो सकता है। जैसे किताबें कहेंगी कि भोजन चक्र के अनुसार बाघ का भोजन वनों के शाकाहारी प्राणी हैं, तो यह लामाजी व उनकी किताबों के लिए एक क्रूर मजाक ही होगा। क्योंकि उत्तराखंड में बाघ बच्चे भी खाता है और उनकी माताओं को भी। ऐसा बहुत पहले से होता आ रहा है। तार्किक आधार पर यह भी कह सकते हैं कि ऐसा तो उस समय से होता आ रहा है, जब जंगलों में बाघ के प्राकृतिक आहार की कोई कमी न थी और भोजन चक्र में बाघ के लिए पर्याप्त भोजन उपलब्ध हुआ करता था। ’’मैन ईटर आॅफ रुद्रप्रयाग’’ में जब जिम कार्बेट उस बाघ का किस्सा लगाते हैं, जो तीर्थयात्रियों से भरी एक झोपड़ी के भीतरी कक्ष से एक स्थानीय महिला को उठाकर ले जाता है, तो क्या यह ये इंगित नहीं करता कि उत्तराखंड के बाघों के भोजन चक्र का हिस्सा यहां की महिलाएं बन चुकी थी।
वन्यजीव शास्त्री संभवतः इसे हंसी में उड़ा दें, किन्तु वन्यजीव शास्त्र अभी इतना परिपक्व भी नहीं हुआ है। फिर इसे साबित करने के लिए मात्र वन्यजीव शास्त्रियों के पुस्तकालयों और शोधपत्रों को खंगालने मात्र से ही समस्या का समाधान नहीं होने जा रहा है। निश्चित रूप से वन्यजीव शास्त्र को इस विवाद में शामिल किए जाने की आवश्यकता है, किंतु समग्र रूप में यह सवाल राजनैतिक है।

मैं अपना तर्क इस स्थापना ;हाइपोथीसीस से शुरू करता हूं कि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में बाघ के भोजन चक्र में स्थानीय महिलाएं और बच्चे शामिल हैं। इसके पक्ष में मुझे आंकड़े प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं लगती, क्योंकि यह सर्वविदित है कि बाघ लगातार हमारे बच्चों और महिलाओं को दबा रहा है। ऐसा तब से है, जब वनों में उसके लिए प्रचुर आहार मौजूद था। ऐसा कहा जा सकता है कि बूढ़ा अथवा घायल बाघ ही नरमांस का भक्षण करता है। तब भी बात वहीं की वहीं रहती है, क्योंकि हर बाघ यदि घायल न भी हो तो बूढ़ा तो होगा ही अर्थात् बाघ जब बच्चा होता है, तो मां का दूध पीता है, जवानी में हिरन वगैरह खाता है और बुढ़ापे में हमारे बच्चों और महिलाओं को अपना निवाला बनाता है। ऐसा संभवतः इसलिए भी हो कि विकट पहाड़ में हिरन का शिकार मैदानी क्षेत्रों की तुलना में अधिक श्रमपूर्ण हो, अन्यथा न लिया जाए तो मैदानी तथा पर्वतीय क्षेत्रों में बाघ द्वारा हिरन के आखेट में कुल ऊर्जा ;कैलोरी व्यय पर तुलनात्मक अध्ययन पर पीएचडी कोई बुरी बात न होगी।
बहरहाल! मैं पुनः बाघ के भोजन चक्र में शामिल हो चुके अपने पहाड़ों के बच्चों तथा महिलाओं के प्रश्न पर आता हूं। समाचार पत्रों में नरभक्षी बाघों के आंतक की घटनाएं लगातार छपती आ रही हैं। इन्हें नरभक्षी ;मैन ईटर कहना भी उचित न होगा, क्योंकि उत्तराखंड के बाघ नर का भक्षण नहीं करते। वे अपने भोजन चक्र को लेकर बहुत ही चूजी हैं। उन्हें सिर्फ महिलाएं और बच्चे ही चाहिए। चंूकि पहाड़ के अर्थतन्त्र की रीढ़ कहे जाने वाली महिला और भविष्य कहे जाने वाले बच्चे राजनैतिक रूप से हाशिए पर हैं। अतः देश में बाघ के  संरक्षण के नाम पर उनका बाघों का भोजन बन जाना कोई बड़ा सवाल पैदा नहीं करता।
इन्हीं क्षेत्रों में हमारे भाई लोग भी तो शाम को झूमते हुए निकलते हैं। कभी ज्यादा हो जाए, तो कहीं थोड़ा बहुत आराम भी कर लेते हैं। रसोई में खाना बनाती महिला के सामने से उसके बच्चे को उठा ले जाने के तो अनेक किस्से मिल जाएंगे, पर ऐसा नहीं सुना कि रास्ते में टुन्न पड़े अपने किसी भाई पर बाघ ने हमला कर दिया हो। शायद बाघ उसे सूंघ कर या उस पर कुछ कर के चला जाए, पर उसे हानि नहीं पहुंचाएगा। इससे कुछ लोग यह भी निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बाघ संभवतः शराब विरोधी आन्दोलन के सदस्य होते हों।
किन्तु इस विषय पर चर्चा करना इस लेख का उद्देश्य नहीं है। यहां तो मैं मात्र अपने महान देश के विकास और संरक्षण के लिए अर्पित अपने समुदाय की बात निम्न बिन्दुओं के आधार पर रखने का प्रयास कर रहा हूं। 

1. उपलब्ध आंकड़े और ज्ञात इतिहास यह इंगित करते हैं कि महिलाएं और बच्चे बाघ के भोजन चक्र का हिस्सा बन सकते हैं।

2. अपना उत्तराखंड बन जाने के बाद भी हमारे सैकड़ों बच्चे और महिलाएं बाघ का शिकार बनी हैं। किसी गांव में आक्रोशित जनता द्वारा पिंजड़े में कैद बाघ को जलाया जाना निश्चित रूप से गैर कानूनी है, पर महानगरों में बैठे पर्यावरण प्रेमियों के बच्चे और महिलाएं बाघ के आतंक से महफूज हैं और पर्यावरण प्रेमी, पहाड़ की महिलाओं और बच्चों की त्रासदी से अनजान हैं।

3. बाघ नरभक्षी नहीं अपितु महिला एवं बालभक्षी होता है। कम से कम उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में तो यह तथ्य स्वीकार करना ही पड़ेगा, किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि नरभक्षी बाघ होते ही नहीं हैं। हमारे यहां वे भी पाए जाते हैं, किन्तु मनुष्य के रूप में। ये संख्या में कम हैं, पर दबंग हैं। इन पर अभी हाल ही में कुलानन्द घनसाला ने ’मनखी बाघ’ के नाम से एक नाटक भी खेला था। ये कई रूपों में और व्यवसाय में मिल जाएंगे। ये अभी हाल ही में बड़ी तेजी से फले-फूले हैं। इन पर उंगली उठाना अपने को ‘विनायक सेन’ बनाना है। इनकी कचहरी में बाघों का आंतक कोई मुद्दा नहीं है। इसीलिए उत्तराखण्ड की महिलाओं और बच्चों का बाघ से मुक्ति का फिलहाल कोई रास्ता नहीं है।

4. ऐसा नहीं कि बाघों को संरक्षण की आवश्यकता नहीं। वे उत्तराखण्ड की जैव विविधता का अभिन्न अंग हैं, किन्तु इनको बचाने की प्रक्रिया में कहीं तो कोई खोट है। इस बारे में सूचना के अधिकार का उपयोग करके बहुत कुछ सामने लाया जा सकता है कि कहीं सर्कस के बाद तो यहां नहीं छोड़े या नरभक्षी की समस्या को सरकारी विशेषज्ञ किस स्तर पर देखते हैं। शायद कभी कोई सिरफिरा सवाल पूछने की हिम्मत करे वरना ज्यादातर संस्थाएं तो पर्यावरण संरक्षण में ही जुटी हैं, क्योंकि फिलहाल पैसा उसी के लिए आ रहा है।

5. टाईगर बचाने के लिए टास्क फोर्स बन सकता है, तो हमारे बच्चे बचाने के लिए क्यों नहीं? यहां तात्पर्य वन कर्मियों को तोप तमंचे से लैस करने का नहीं, अपितु नरभक्षी होने के कारणों पर विशेषज्ञ समिति के गठन से है।

5. इस लेख के माध्यम से मैं उत्तराखण्ड पुलिस का हार्दिक आभार व्यक्त करना चाहता हूं, जिन्होंने धामधार गांव की श्रीमती बिल्ला देवी को तब तक गिरफ्तार नहीं किया, जब तक वे जंगल से घास काट कर नहीं लाई और अपने पशुओं के चारे का इंतजाम कर सकी। श्रीमती बिल्ला देवी भी बाघ को जलाने की आरोपी हैं। भाईसाब, ऐसी दरियादिली और मानवता तो अपने देवभूमि उत्तराखण्ड की पुलिस में ही हो सकती है। उत्तर प्रदेश की बात होती, तो आसपास के 5-7 गांव के लोग गिरफ्तार कर लिए जाते और वो सब कबूल भी कर लेते कि ’ हां साब बाघ हमने जलाया है’। ये हुआ अपना प्रदेश बनाने का फायदा।

रीजनल रिपोर्टर से..

5 comments:

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

इन्सान होने से कहीं अच्छा है कि कोई काश विलुप्ति की कगार वाला जीव हो जाए

स्वप्नदर्शी said...

Thanks Vijay for bringing this issue in the front. The responsibility for protecting people as well as wildlife needs better management on part of the state and central government. In Uttrakhand 80% land belongs to forest department and they should make sure that wild animals do not cross the Fens and threaten life of poor people in the neighborhood. Forest department generates revenue from these forest and gets all the grants to conserve wild life. It should not be peoples responsibility to protect wild animals at the cost of their own and their children.

Dr. Dinesh Sati said...

The issues raised in the story are undoubtedly very pertinent. Despite investing huge grants on R&D by various labs of the Ministry of Environment and Forest, nothing much related to type of behavioural change of these wild animals over the time and how to prevent such attacks on women and children has been done! The concept of classifying core or buffer zones of the wildlife sancuaries and parks in hilly areas specially of Uttarakhand need to be redefind and adquate measures to safe guard not only the wildlife but the miserable women and childern populaion in those areas is the utmost requirement of the hour!

KEEPTHEWORD said...

I agree. I want to protect the leopards in Uttarakhand, like every other animal, but I am not ready to accept that women and children become the hunted. If we cannot restore the natural food chain in the forests, i.e. increasing the number of deers and other animals that are leopard's natural prey, these man eaters will have to go.

विजय गौड़ said...

Anonymous noreply-comment@blogger.com

6:13 AM (13 hours ago)

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Anonymous has left a new comment on your post "पैरेट मिर्ची खाता है, रैबिट कैरेट खाता है":

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