Monday, May 16, 2011

कहीं खण्डित न हो जाये सौन्दर्य को उपजाने वाली चेतना

ओसामा के मारे जाने के समाचार से खुश होती दुनिया की खबरें अखबारों और दूसरे माध्यमों पर पिछले दिनों खूब छायी रही। तालिबानी विध्वंश की आक्रामकता की पराजय को देखने की ख्वाइश शायद हर सचेत नागरिक के भीतर थी। आतंक की परिभाषा को गढ़्ते बाजार की चकाचौंध दुनिया के प्रभाव में डूबे  लोगों की खुशी के बाबत तो क्या ही कहना। बल्कि कहा जाये कि जीवन में अनावश्यक रूप से हस्तक्षेप करते बाजार के प्रभाव के प्रतिरोध की धाराओं में बंटे लोगों के सामने एक संकट स्पष्ट रहा कि आक्रामकता के विरोध में सिर्फ़ व्यापारिक हितों की चिन्ता से भरे अमेरिका का क्या करें ? अपनी बात को बहुत साफ साफ दोनों ही तरह की  आक्रामकता को लक्षित करने की कोशिश में कई बार किसी एक के साथ दिख जाना हो जाता रहा। हाना मखमलबाफ़ की फ़िल्म   इस द्रष्टि से देखी जाने योग्य फ़िल्म है।  इरादों में  तालिबानी आक्रमता और मानवीय चिंताओं पर झूठी अमेरिकी संवेदनशीलता- जो बम वर्षकों का  बेहद दिल्चस्प खेल है, दोनों को ही लक्षित करती एक युवा फ़िल्मकार की फ़िल्म Budha collapsed out of shame एक महत्वपूर्ण फ़िल्म है। बुध की करूणा में उसका संयोजन एक अनूठा प्रयोग  है। 

बाखती ! यदि घर जाना चाहती हो तो अभी मर जाओ।
यह किसी अमेरीकी सिपाही की सीख नहीं एक दोस्त की सीख है, अपनी हम उम्र दोस्त को जो तालिबानी आक्रामकता के खेल में निरीह अफगानी नजर आ रही है। वही दोस्त जिसकी हर कोशिश उस युद्ध से और युद्ध की आक्रामकता से बाहर निकलने की है। 
जीने के लिए मरना जरूरी है।  तालिबानी आक्रमकता को झेलने के बाद टूटी बोध गुफाओं में जीवन बिताते बच्चों के जीवन में तालिबानी होना भी एक खेल हो जाता है। कथा पात्र बाखती युद्ध के ऐसे खेल की बजाय जीवन को जगमगाने का खेल खेलना चाहती है। स्कूल जाना चाहती है। उस कहानी को फिर-फिर पढ़ना चाहती जिसको सुनना ही उसे लुत्फ देता रहा है। वही कहानी जिसमें एक आदमी पेड़ के नीचे लेटा है। हम उम्र और पड़ोसी अब्बास जिसको जोर-जोर से पढ़ता है। वही अब्बास जिसे तालीबानी होते बच्चे अमेरिका का प्रतीक बना देना चाहते है, बावजूद इसके कि बुद्ध की सी तटस्थता में वह शान्त बना रहता है। अमेरीकी होता हुआ कहीं दिखता ही नहीं।
युवा फिल्मकार हाना मखमलबाफ़ की फिल्म  Budha collapsed out of shame एक रूपक है। एक खेल है जिसे देखने से ज्यादा खेलने का मन करता है। तकनीक की दृष्टि से कहें चाहे कथ्य की दृष्टि से, बहुत ही लाजवाब फिल्म है। एक उम्दा वृत्तचित्र का सा सच उदघाटित करती।  तालिबानी दौर की आक्रामकता जिसमें खूबसूरत आंखों को आजादी नहीं कि दुनिया के खूबसूरत को मंजर को खुली आँखों से देख सके। बबलगम खाती बेफिक्र किस्म की स्त्री को कैद करना तो और भी जरूरी है। लिपिस्टिक अपने पास रखने वाली स्त्री को छूट नहीं दी जा सकती कि वह स्कूल भी जाए। ईश्वर के बताये रास्ते पर दुनिया को चलाने के लिए उन्हें कैद किया जाना जरूरी है। कोई अमेरीकी बम वर्षक नहीं आता मुक्त कराने पर एक खेल चलता रहता है। बाखती स्कूल के लिए निकली है। अण्डे बेचने की थकाऊ कार्रवाई के बाद भी पैसे हासिल नहीं हुए। अण्डों के बदले में जुटाई गई रोटी को बेचने के बाद ही नोट-बुक खरीदी जा सकी है। पेंसिल फिर भी नहीं। स्कूल का कायदा नोट-बुक के साथ पेंसिल भी ले जाने का है। माँ की लिपिस्टिक पेंसिल हो सकती है, यह कल्पना ही इस फिल्म को वह उछाल दे देती है कि फिर तो खेल खेल रह ही नहीं जाता।
हिंसा के खेल को बुद्ध की सहजता से पार पाने की युक्ति बेशक अतार्किक और अव्यवहारिक हो पर युवा फिल्मकार हाना मखमलबाफ़ जिस खूबसूरती से दृश्य रचती है उसमें खेल चरमोत्कर्स तार्किक परिणीति तक पहुँचता है। बाखती मृत्यु के आगोश में दुबक जाने को मजबूर है। हथियारबंद  तालिबानी गिरोह से मुक्ति आत्म समर्पण की युक्ति से ही संभव है। खास तौर पर ऐसे में जब चारों ओर एक घनीभूत तटस्थता छायी हो। चौराहे का सिपाही नियम के कायदे में बंधा बंधकों को छुड़ाने में अपनी असमर्थता जाहिर कर रहा हो। बल्कि असमर्थता जाहिर करते वक्त भी उसके चेहरे पर जब कोई पश्चाताप या ग्लानी जैसा भाव भी मौजूद न हो। बस एक काम-काजी किस्म का व्यवहार ही उसको संचालित किये हो। मेहनतकश आवाम भी जब युद्धोन्मांद में फँसी लड़की की कातर पुकार पर तव्वजो देने की बजाय बहुत ही तटस्थता से बच्चों को दूसरी जगह जाकर खेलने को कह रहा हो। दूसरी जगह- जहाँ जारी खेल बेशक खूनी आतंक की हदों को पार कर जाए पर उनके काम में प्रत्यक्ष रुकावट डालने वाला न हो। मध्य एशिया में जारी हमले के दौरान अमेरीकी प्रतिरोध की दुनिया का कदम इससे भिन्न नहीं रहा है। और उसके चलते ही कब्जे की लगातार आगे बढ़ती कार्रवाई जारी है, यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं।
एक मारक स्थिति से भरी कैद से निकल भाग स्कूल पहुँची लड़की को कक्षा में बैठने भर की जगह हासिल करने के लिए की जाने वाली मश्त अपने प्रतीकार्थ में व्यापक है। झल्लाहट और परेशनी के भावों को चेहरे पर दिखाये जाने की बजाय उदात मानवीय भावना से ताकती आंखों वाली बाखती अपने दृढ़ इरादों और खिलंदड़पन के साथ है। लिपिस्टिक पेंसिल की जगह नोट-बुक पर लिखे जाने के लिए प्रयुक्त होने वाली चीज नहीं, सौन्दर्य का प्रतीक है और इसी वजह से वह उस चुलबुली लड़की को अपनी गिरफ्त में ले लेती है जिसके नजदीक ठुस कर बैठी है बाखती। छीन-झपट कर हथिया ली गई लिपिस्टिक को बेशऊर ढंग से पहले वह अपने होठों पर लगाती है, फिर उतनी ही उत्तेजना के साथ बाखती के होठों को भी रंग देने के लिए आतुर है। उसके इस तरह झपटने से सौन्दर्य को उपजाने वाली चेतना खण्डित हो सकती है, मानवीय सरोकारों से भरी बाखती की अदायें इस बात का अहसास करा देती हैं। लिपिस्टिक बाखती की जरूरत नहीं, उसे तो एक अद्द पेंसिल चाहिए जो उन अक्षरों को नोट-बुक में दर्ज करने में सहायक हो जिसे अघ्यापिका दोहराते हुए बोर्ड पर लिखती जा रही है। बाखती लिपिस्टिक के उपयोग को भी जानती है और सौन्दर्य को कैसे सहेजता से उकेरा जा सकता है, वाकिफ है। तालीबानी अमेरीकी युद्ध खेलते बच्चों की कैद में फँसी सुंदर आँखों वाली लड़की के कागजी नकाब को उतार कर जिस अंदाज में उसने लिपिस्टिक के प्रयोग से उसकी सुदरता को और बढ़ा दिया था बिल्कुल उसी अंदाज में, चुलबुली लड़की के हाथ से लिपिस्टिक लेकर हौले-हौले वह उसके होठों पर, गालों पर सौन्दर्य की लाली के चकते छोड़ते हुए उसे सजाने लगती है। एक-एक कर कक्षा की हर लड़की को सजाकर सुंदरता का संसार रच देना चाहती है। बोर्ड पर अक्षर उकेरती अध्यापिका बेखबर है कि फैल जा रही लिपिस्टिक को थूक की लार से पोंछ-पोंछ कर तराश देने की कार्रवाई में जुटी बच्चियां अपने उस बचपन को छलांगती जा रही हैं जो दक्षिणपंथी उभारों से भरी तालीबानी दिनों के रूप में उनके जीवन का शुरूआती दौर है। तालीबानी विध्वंस के प्रतिरोध में यह दृश्य एक स्वाभाविक लय के साथ फिल्मांकित है।
तालिबानी बने बच्चों द्वारा अमेरिका के प्रतीक बना दिए अब्बास के प्रति बाखती की आत्मीयता बेहद मानवीय है। हाथ पकड़कर स्कूल पहुँचा देने का साथ भर। मुसीबत के वक्त मद्द की गुहार भर का। युवा फिल्मकार सचेत है और आत्मीय प्रेम के चालू मुहावरे में संबंधों को फिल्माने से बच निकलती है। जबकि उस तरह के संबंध पनपने की स्वभाविक गुंजाइश साफ-साफ हैं। यहां इस बात का उल्लेख इधर हाल के दिनों में आई उन हिन्दी की कहानियों के संबंध में करना मौजू है जिनमें कथा विन्यास को गूंथते हुए ऐसी स्थितियों तक पहुँचने की पकड़ में आ जाने वाली युक्तियां साफ दिखाई देती हैं। एक गम्भीर विषय को दैहिक विन्यास तक सीमित कर देने वाले विवरणों से भरे और लहराते पेटीकोटों की छायाओं से भरी ऐसी रचनाओं का संसार क्यों अराजक हो जाता है, युवा फिल्मकार मखमलबाफ की इस फिल्म से सीखा जा सकता है।           



विजय गौड़
  (jansandesh times में पूर्व प्रकाशित)

5 comments:

अजेय said...

जब कि एक बुद्ध कविता मे करुणा ढूँढ रहा था.....

अनूप शुक्ल said...

बहुत सुन्दर समीक्षा। काश यह फ़िल्म देख पाता। :(

sunil kumar said...

sundr

शूरवीर रावत said...

Behtareen. Aur isse pahle bhee "Dayen ya Bayen" par bhee aapki samikchha padhi. Aabhar.

विजय गौड़ said...

Anonymous noreply-comment@blogger.com

10:11 PM (16 hours ago)

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Anonymous has left a new comment on your post "कहीं खण्डित न हो जाये सौन्दर्य को उपजाने वाली चेतन...":

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