Monday, November 18, 2013

ओम प्रकाश वाल्मीकि पर विजय गौड़



मनहूस खबरें लड़ने नहीं देतीं: विजय गौड़

(देहरादून वह शहर है जहाँ ओम प्रकाश वाल्मीकि ने एक  कवि के रूप में अपनी यात्रा शुरू करते हुये हिन्दी समाज के सामने  प्रमुख दलित चिन्तक और कथाकार के रूप में  ख्याति प्राप्त की.उनकी इस यात्रा  की शुरूआती कथा देहरादून के बाहर प्राय: अल्प-ज्ञात है.हाल ही में देहरादून से कलकत्ता स्थानान्तरित हुए साथी विजय गौड़ न सिर्फ वाल्मीकि जी के शुरूआती साहित्यिक सफ़र के हमराह रहे बल्कि उनसे कार्य-स्थल (नौकरी से संबन्धित)पर भी जुड़े रहे .यह बहुत कम लोग जानते हैं कि वाल्मीकि जी कभी रंगमंच पर भी सक्रिय रहे.यहाँ विजय गौड़ वाल्मीकि जी को याद करते हुए एक तरह से देहरादून को भी याद दिला रहे हैं कि मुज्फ़्फ़रनगर में जन्मे  वाल्मीकि दरअल देहरादून के ही थे.)
 

मैं उनसे लड़ना चाहता था। ठीक वैसे ही जैसे हम तब लड़ पाते थे जब मुझे उनकी उम्र का अंदाजा नहीं था। वे मुझसे बड़े थे। कितने बड़े, यह मैं नहीं जानता था और इसे जानने की कोई उत्सुकता भी मुझे कभी न थी। उनकी उम्र का अंदाज तो मुझे पिछले पांच वर्ष पहले हुआ था। जब वे देहरादून से जबलपुर और जबलपुर के बाद स्थानांतरित होकर दोबारा देहरादून आ चुके थे और उनमें पहले का वह दोस्तानापन उस रूप में थोड़ा कम हो गया था जिस रू्प में हम पहले लड़ सकने के साथ होते थे। चंदा भाभी ने मजाक में मुझे कुछ कहा था जिसमें आपसी छेड़-छाड़ का वह बहुत करीबी अपनापा तो था लेकिन तीव्रता में वह पहले वाला उतना नहीं था। भाभी के छेड़ने को उतनी ही चतुराई से मैंने भी जवाब दिया था। तब तक मैं जान चुका था कि अगले 3-4 साल बाद वाल्मीकि जी सेवा-निवृत्त हो रहे हैं, यानी अगले कुछ सालों में साठ के हो जायेगें। चेहरे पर मुस्कराहट बिखेरते हुए मैंने कहा था,
''देखो भाभी मुझे अब इतना छोटा न समझो और मेरे साथ पेश आने का अपना अंदाज थोड़ा बदल लो, मैं उम्र में आप दोनों से ही बड़ा हूं, ये जान लो ।"
हमारी छेड़-छाड़ के निशाने पर वाल्मीकि जी ही थे तो उनका चौंकना स्वभाविक था। वे कुछ कहते, इससे पहले ही मैंने अपनी कही गयी बात का खुलासा कर देना चाहा,
 
“भाई सहाब ये बताओ जब आप और मैं पहली बार निकट आये थे तब आपकी उम्र कितनी थी ?"
वे कुछ गिनती सी करने लगे तो मैंने ही बता देना उचित समझा था,
  “उस वक्त आपकी उम्र मात्र पैंतीस के करीब रही होगी और भाभी जी को बता दीजिये मैं इस वक्त चालीस साल का हो चुका हूं।"
मेरे जवाब पर चंदा भाभी भी जोर से हंसी थी और देर तक हंसते हुए हम तीनों ही कुछ क्षणों के लिए पिछले बीस साला अतीत में थे। उस अतीत में कथाकार मदन शर्मा और सुखबीर विश्वकर्मा यानी कवि जी सरीखे हमारे दो बुजुर्ग थे। वाल्मीकि जी की वजह से ही मैं भी दोनों के करीब तक गया था। और वैसी ही करीबी महसूस करता था जैसी वाल्मीकि जी की बातों में इन दोनों के प्रति रहती थी। मदन शर्मा जी का साथ और उनके प्रति आदर का भाव फिर भी कार्यालयी कारणों से रहा होगा, शायद लेकिन कवि जी के प्रति वाल्मीकि जी गहरी श्रद्धा व्यक्त करते थे। देहरादून की साहित्यिक बिरादरी में कवि जी अपने दौर के सबसे ज्यादा जिंदादिल इंसान हैं, ये उनका ही मानना नहीं था,, मैंने भी खुद करीब से महसूसा था। वैनगार्ड जैसे बहुत ही कम जाने जाने वाले अखबार के वे संपादक थे और कविताऐं लिखते थे। मेरे बचपन के साथी विपिन के वे पिता थे, मैं उस वक्त यह नहीं जानता था जब पहली बार वाल्मीकि जी ने मुझे उनसे मिलवाया था। उनसे मिलने हुए जो आदर वाल्मीकि जी दे रहे थेे प्रत्युतर मेें वैसा ही स्नेह बिखेरते कवि जी की खरखरी आवाज को मैं सम्मोहित-सा सुन रहा था। देहरादून की साहित्यिक बिरादरी के किसी भी व्यक्ति से यह मेरा पहला परिचय था जिन्हें मैं शुद्ध रूप में एक लेखक के तौर पर देख रहा था। मदन शर्मा जी से मुलाकात का आधार वह आयुध कारखाना भी था जहां मैं, वाल्मीकि जी और मदन जी काम करते थे। वाल्मीकि जी उस वक्त ड्राफ़्ट्समैन के पद पर थे और मैं कारखाने में कारीगर हो जाने के गुर सीख रहा था। ड्राफ्टसमैन वाल्मीकि जी से उस दिन मैं खूब लड़ा था जब 17 सितम्बर 1989 की हड़ताल वाले दिन वे मुझे उन लोगों के साथ दिखे थे जो हड़तालियों से निपटकर कारखाने में प्रवेश करने की मंशा रखने वाले थे। उन लोगों के साथ ही वाल्मीकि जी भी उस बेरिकेड तक पहुंचे थे जहां मैं स्वंय तैनात था। वाल्मीकि जी को वहां देखकर मैं चौंकता नहीं, क्योंकि उनके व्यक्तित्व में लड़ाकूपन की तस्वीर से वाकिफ था। पर झुंड के साथ उन्हें देखकर मुझे आश्चर्य हुआ था। जब बेरिकेड पर तैनात दूसरे साथी आगे बढ़ने वालों को रोक रहे थे वे दूसरों की तरह आगे बढ़कर कारखाने की ओर जाने वाले रास्ते पर आगे जाने की जिद नहीं कर रहे थे बल्कि मेरे साथ खड़े हो गये थे। मुझे उनका साथ खड़ा हो जाना भला तो लगा था लेकिन कारखाने के भीतर घुसने वालों के साथ उनके वहां पहुंचने की वजह से दूसरे साथियों के सामने मैं खुद को शर्मिंदा महसूस कर रहा था। वाल्मीकि जी और मेरे बीच के करीबी संबंध से परिचित दूसरे साथियों को वाल्मीकि जी का वहां तक पहुंचना बेशक मुझसे मिलने आना जैसा ही लगा हो शायद लेकिन मेरे भीतर की हलचलों में वे अपने वास्तकिव रूप में था। यही वजह थी कि हड़ताल निपट जाने के बाद मैंने उनसे जम कर झगड़ा किया था। उनकी उस कार्रवाई को निशाने पर रख मैंने उन्हें दूसरे डरपोक किस्म के स्टॉफ के रूप में चिह्नित किया था। वे मेरे सारी उलाहनाओं को सुनते रहे थे। विरोध तो नहीं लेकिन अपनी सफाई में उन्होंने अपनी सर्विस कंडिशन का सहारा लेने की कोशिश की तो मैं उन पर बुरी तरह बिफर पड़ा था। वह हमारी लड़ाई का ऐसा दिन था जब मैं घर पहुंच कर भी शांत नही रह पाया था।
आज जब खबर सुनी कि वाल्मीकि जी नहीं रहे तो मुझे उनका वही चेहरा क्यों याद आया ? जबकि उस दिन तो मैं उनसे जम कर लड़ लिया था। लड़ाई के बाद की सुलह का आलम यह था कि वे हमेशा कि तरह जब करनपुर चौक पर खड़े होकर दफ्तर जाने वाली बस का इंतजार कर रहे थे मैं धर्मपुर से करनपुर चौक तक लगातार उठती चढ़ाई पर साइकिल पर हर रोज की तरह पहुंचा था। लेकिन रोज की तरह वहां तब तक रुक कर जब तक कि उनकी बस नहीं आ जाती, उनसे गपियाने के लिए आंखें मिला पाने की स्थिति में न था और इस तरह से पेश आते हुए मानो मैने उन्हें खोजने पर न भी पाया हो, बस का इंतजार कर रहे लोगों पर निगाह फिराकर आगे बढ़ जाना चाह रहा था, एक बेहद आत्मीय आवाज में मैंने अपने नाम की पुकार सुनी थी। चौंकने का सा अभिनय करते हुए मैंने साइकिल रोक दी थी। बहुत ही खुश होकर वे मुझे सूचना दे रहे थे कि बिहार के मुंगेर जिले से निकलने वाली 20-24 पेजी पत्रिका ''पंछी"" के नये अंक में मेरी भी कवितायें प्रकाशित हैं इस बार। लघु पत्रिकाओं के आंदोलन का वह अभूतपूर्व दौर था। पत्रिकाओं के किताबनुमा संस्करणों की बजाय पतली-पतली सी पुस्तिकायें बल्कि एक ही बड़े कागज को घ्ाुमाव देकर पेज दर पेज निर्मित करते कितने ही कविता फोल्डर उस वक्त देश भर से प्रकाशित हो रहे थे। यदा कदा उनमें हमारी रचनाओं के प्रकाशित होने के कितने ही उत्साही क्षण हमारे संबंधों को गति देने वाली बात-चीत का हिस्सा रहे। देहरादून से ही अरविन्द शर्मा उस वक्त ''संकेत"" निकालते थे। जिस पर सम्पर्क का पता वही ''टिप-टॅाप"" लिखा होता था जहां चौकड़ी जमा कर बैठते हुए दिन में शाम वाली स्थितियों का मजा लेने के इंतजार में अरविन्द, अवधेश और हरजीत का इंतजार करने वाले नवीन नैथानी ने उसे इस कदर आबाद कर दिया था कि बाद-बाद के किस्सों में यह तलाशना मुश्किल हो जाता रहा  कि देहरादून की साहित्यिक बिरादरी में ''टिप-टॉप"" की लगातार उपस्थिति का जिक्र आखिर सबसे पहले कब और कहां से होने लगा। अरविन्द के लिये तो ""टिप-टॉप"" उसको दी जाने वाली सूचनाओं का ड्राप बाक्स पहले से ही था। छूत के किटाणु लेकर घूमने वाला अरविन्द ''टिप-टॉप""  के संचालक प्रदीप गुप्ता को कविता लिखाने का रोग पहले ही लगा चुका था। वाल्मीकि जी के साथ ही किसी रोज शायद मैं भी ''टिप-टॉप"" पहुंचा था। जहां देहरादून के बहुत से दूसरे अपने जैसे बदतमीजों से सम्पर्क हुआ। वाल्मिकी जी के मार्फत ही मैं जान पाया था कि देहरादून से हस्तलिखित पत्रिका ''अंक" का पहला अंक प्रकाशित हुआ है। अतुल शर्मा और नवीन कुमार नैथानी के सम्पादन में निकलने वाली वह ऐसी पत्रिका थी जिसके शायद दो ही अंक निकले थे। पहले अंक की गोष्ठी का आयोजन सहस्त्रधारा में किया गया था। कवि जी से मैं परिचित हो चुका था जो उस दिन ही पहली बार राजेश सेमवाल और नवीन नैथानी से भेंट हुई थी। लगातार की ऐसी सक्रियतायें वाल्मीकि जी और मुझे करीब से करीब लाती जा रही थी। साहित्य की उठा-पटक से लेकर दुनिया जहान की कितनी ही बातें जो हमारे भीतर गुस्सा पैदा करतीं, हमारी बातचीतों के किस्से थे। हर स्थिति से लगातार टकराते रहने और टकराहट के दौरान लगने वाले आघ्ाातों से भी विचलित होने की बजाय फिर-फिर टकराने की जिद रखने वाले वाल्मिकि के व्यक्तित्व का प्रभाव मेरे ऊपर भी पड़ता जा रहा था और गैर बराबरी की अवधारणओं को ही दुनिया के संचालन की एक मात्र दिशा मानने वाले विचारों से मेरी टकराहट बढ़ती जा रही थी।
वाल्मीकि जी महाराष्ट्र के चंद्रपुर इलाके में एक लम्बा समय गुजार कर देहरादून स्थांनतरित हुए थे। महाराष्ट्र के दलित आंदोलनों का प्रभाव उन्हें खुद के भीतर के हीनताबोध से बाहर निकाल चुका था। हिन्दी में दलितधारा नाम की कोई स्थिति उस वक्त न थी। कवि जी की कविताओं के प्रभाव भी वाल्मीकि जी कविताओं में थे। मिथ और इतिहास से टकराने की दलित साहित्य की शुरूआती प्रवृत्तियों वाला प्रभाव यदि कहें तो कवि जी कविताओं के वे मुख्य विषय थे। शंभुक, सीता, अहिल्या और किंवदंत कथाओं के ऐसे कितने ही उपेक्षित पात्र सुखबीर विश्वकर्मा की कविताओं में मौजूद रहते थे। वाल्मीकि जी की कविताओं में ही नहीं मैं उस दौर की अपनी कविताओं में भी उनके प्रभावों को पाता हूं। बाद में कहानीकार कहलाये जा रहे वाल्मीकि जी मूलत: एक कवि थे। और कवि के साथ कुछ और कहा जाये तो नाटककार। मेरे और उनके बीच लगातार की करीबी का एक कारण नाटक भी था। कहानियां लिखना ही नहीं उन पर दिलचस्प तरह से बात करने की कोई स्थिति भी मैं याद नहीं कर पाता। मदन शर्मा, वाल्मीकि जी और मैं जो एक ही जगह पर नौकरी करने के कारण अक्सर साथ-साथ मुलाकातों के अवसर वाली स्थिति पा जाते थे, मदन शर्मा जी ही हम तीनों के बीच एक स्वीकृत कहानीकार रहे। मदन जी उन दिनों पंजाब केसरी के स्टार लेखक थे। वीरवार को निकलने वाले पंजाब केसरी के साहित्यिक पृष्ठ में जिसमें हर हफ्ते चार से पांच कहानियां छपती थी, मदन जी कहानी अक्सर ही मौजूद रहती। अपने अनुभवों को आधार बनाकर कहानी लिखने की वाल्मीकि जी की वे कोशिशें मदन जी की ही सलाहों पर पंजाब केसरी के वीरवारी पन्नों में दर्ज हुई जिनके छप जाने के बावजूद भी वाल्मीकि जी एक कवि के रूप्ा में ही जाने जाते थे। पंजाब केसरी के पन्नों में छपी वे कहानियां कहानियों के रूप्ा में नहीं दिखायी दी बल्कि उन कहानियों में अन्य प्रंसगों को पिरोकर वाल्मीकि जी ने ''जूठन"" एक ऐसी कृति रचि जिसने हिन्दी में दलित धारा के उपस्थित होने की स्थिति का बयान ही नहीं किया बल्कि उसको बाहर आने के आधार भी प्रदान किये। हालांकि जूठन से पहले मोहनदास नैमिशराय की ''अपने-अपने पिंजरे"" छप चुकी थी। वह एक ऐसी आत्मकथा जिसे खुद वाल्मीकि जी ने मुझे उस वक्त पढ़ने को दिया था जब मैं उनसे लेकर पढ़ी जा चुकी दया पंवार की ''अछूत"" पर बात कर रहा था।
जूठन में लिखी भूमिका को पढ़ते हुए जब मैं उसके लिखे जाने की स्थिति में जो कुछ नाम पढ़ रहा था तो वे देवत्व को प्राप्त लोगों भर के होने पर मैं भीतर ही भीतर तिलमिला गया था। वाल्मीकि जी से लड़ना चाहता था। लेकिन लड़ने का अवसर मौजूद न था। वैसी स्थितियां सृजित होने के हालात कभी बन नहीं पाये। बल्कि ऐसी बातों पर लड़ने की दूसरी-दूसरी स्थितियां ही, जो लगातार बढ़ती ही गयी, मेरे भीतर गुस्सा जज्ब करती रही। इस बार मैं तय कर चुका था कि अबकि इस कदर लड़ूंगा कि चाहे जो जाये। लेकिन वैसी ही मनहूस खबर जो पिछले 2012 नवम्बर के एक दिन मुझे सुनने को मिली जब बड़े भाई का निधन हुआ और नवम्बर 2013 में जो अपनी पुनर्वावृत्ति कर रही है, मुझे वाल्मीकि जी से लड़ने को वंचित कर दे रही है। सिर्फ रोने, सुबकने और गले लग कर न लड़ पाने के इस दुख को मैं लेखकीय संबंधों की साझेदारी के साथ लिख कर निपटा नहीं पा रहा हूं। काश मेरे शब्द मेरी उस स्थिति को बयां कर पाते जो मुझे लगातार एक छोटे भाई को उसे अपने बड़े भाई पर गुस्से की रूलाहटों से भर रही है।


फ्लैट संख्या: 91, 12वां तल,टाइप-III, केन्द्रीय सरकारी आवास परिसर, ग्राहम रोड़, टॉलीगंज, कोलकाता-700040             
mob : 09474095290   

Sunday, November 17, 2013

ओमप्रकाश वाल्मीकि को विनम्र श्रद्धाँजलि

(साथी रतिनाथ योगेश्वर की टिप्पणी के साथ वाल्मीकि जी की शुरूआती दौर की कविता के साथ लिखो यहां वहां की विनम्र श्रद्धाँजलि)
 
  बहुत ही प्यारे इन्सान बड़े भाई ओमप्रकाश बाल्मीकि का वो स्नेह अब कहाँ...कैसे...किससे मिलेगा ----गहरे सदमें में हूँ...देहरादून के साहित्यिक परिवेश में --जब मैं अ आ की वर्णमाला सीख रहा था ---उनका प्रोत्साहन प्यार --उफ़ --वो सृजनात्मक छटपटाहट के बीच ---सार्थक साहित्य की पहचान --जनसाहित्य से जुडाव संभव न हो पता ----अगर हम युवाओं के बीच बाल्मीकि जी --हमें निर्देशित न करते --सुझाव देकर सहायता न करते ---उन दिनों भाई विजय गौड़ ने एक महत्वपूर्ण कविता फोल्डर ''फिलहाल'' का प्रकाशन हम सभी की कविताओं को लेकर किया था--- भाई विजय गौड़ ने ही अनौपचारिक रूप से बाल्मीकि जी के पहले कविता संग्रह '' सदियों का संताप'' को प्रकाशित करने का प्रस्ताव हम सब के बीच रखा ---और फ़िलहाल प्रकाशन, देहरादून से हम लोगों ने उसे प्रकाशित किया ---उसके आवरण डिजायन का दायित्व मुझे सौपा गया था ---जिसे मैंने पूरी निष्ठा और लगन से निभाया --अच्छा बन पड़ा था आवरण ---बहुत चर्चित हुई थी ''सदियों का संताप '' की कवितायेँ ----करीब करीब रोज शाम को मिलना होता था ---कितनी सार्थक और खूबसूरत होती थी वे शामें ----उसी श्रंखला में मैंने और जनकवि नवेंदु जी ने एक कविता संकलन '' इन दिनों'' सम्पादित करने का विचार किया जिसमे बाल्मीकि जी की कविताओं सहित हम सभी देहरादून के १७ कविओं की कवितायेँ संकलित हुई ---जिसकी भूमिका चौथा सप्तक के कवि अवधेश कुमार भाई ने लिखी और फ्लैप ''उन्नयन'' पत्रिका के संपादक वरिष्ठ कवि श्रीप्रकाश मिश्र जी ने---'' इन दिनों'' कविता संकलन का विमोचन किया प्रख्यात जन कवि बाबा नागार्जुन ने ---बहुत ही आत्मीय भाई ओमप्रकाश बाल्मीकि को मैं भरे मन से श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ --- 
---रतीनाथ योगेश्वर










ठाकुर का कुँआ

-ओमप्रकाश वाल्मीकि




चूल्हा मिट्टी का

मिट्टी तालाब की

तालाब ठाकुर का.



भूख रोटी की

रोटी बाजरे की

बाजरा खेत का

खेत ठाकुर का.



खेत ठाकुर का

बैल ठाकुर का

हल ठाकुर का

हल की मूठ पर हथेली अपनी

फसल ठाकुर की.



कुंआ ठाकुर का

पानी ठाकुर का

खेत खलिहान ठाकुर के

गली मुहल्ले ठाकुर के

फिर अपना क्या?

गाँव?

शहर?

देश?


Sunday, October 13, 2013

कोरस

लिखे जा रहे उपन्यास का एक छोटा सा हिस्सा-      विजय गौड़



संगरू सिंह रिकार्ड सप्लायर था और रिटायरमेंट की उम्र तक पहुंचने से काफी पहले ही मर चुका था। अनुकम्पा के आधार पर संगरू के बेटे को अर्दली की नौकरी पर रख लिया गया था। उस वक्त उसकी उम्र मात्र बीस बरस थी। वह संगरू सिंह का बेटा था पर संगरू नहीं। संगरू सिंह ने उसे पढ़ने के लिए स्कूल भेजा था। वह एक पढ़ा लिखा नौजवान था और दूसरे पढ़े लिखों की तरह दुनिया की बहुत-सी बातें जानता था। बल्कि व्यवहार कुशलता में उसे कईयों से ज्यादा सु-सभ्य कहा जा सकता था। उसका नाम ज्ञानेश्वर है और धीरे-धीरे डिपार्टमेंट का हर आदमी उसे उसके नाम से जानने लगा था।
अर्दली बाप का नौजवान ज्ञानेश्वर दूसरे नौकरी पेशा मां-बाप की औलादों की तरह रूप्ाये कमा लेने और तेजी से बैंक बैलेंस बढ़ा लेने को कामयाबी का एक मात्र लक्ष्य मानता था और जमाने भर में चालू, अंधी दौड़ में शामिल होने के हर हुनर से वाकिफ हो जाना चाहता था। उसकी कोशिशें इन्वेस्टमेंट के नये से नये प्लान, और हर क्षण खुलते नम्बरों के साथ लाखों के वारे न्यारे कर लिए जाने के साथ रहती। इकाई के अंकों में ही अनंत दहाइयों का रहस्य छुपा है और जीवन का गणित ऐसे ही सवालों को चुटकियों में हल करने के साथ ही सफल हो सकता है, उसका जीवन दर्शन बन चुका था। सुबह से शाम तक कभी अट्ठा, कभी छा तो कभी चव्वे की आवाजें उसके भीतर हर वक्त गूंजती रहती थी। गोल्डन फारेस्ट से लेकर गोल्डन ओक, गोल्डन पाइन जैसे नामों वाली वित्तिय गतिविधियों के कितने ही गोल्डन-गोल्डन एजेंट उसके साथी थे। फुटपाथों पर कम्पनी के शेयर संबंधी कागजों की भरमार और कानाफुसी का चुपचाप बाजार जब खरीद पर भी कमीशन देने की उपभोक्तावादी नयी संस्कृति को जन्म दे रहा था, ज्ञानेश्वर अपने मित्रों परिचितों को अपनी अदाओं के झांसे में फंसाकर उनके भीतर के ललचाघ्पन को और ज्यादा उकसाने में माहिर होता जा रहा था। खामोश रहने और मंद-मंद मुस्कराने की निराली अदाओं को उसने इस हद तक आत्मसात कर लिया था कि उसके मोहक आकर्षण का दीवाना, कोई परिचित, रिश्तेदार जब उसके करीब आता तो वह उसे चुपके से और करीब से करीब आने का आमंत्रण दे चुका होता। ऐसे ही करीब आ गये प्रशंसक को वह किसी होटल की भव्यता के दायरे में लगती विस्तार वादी बाजार की कक्षाओं के महागुरूओं के हवाले कर देता। ब्रोकरो, स्टाकिस्टों और बिचौलिये के बीच बंटकर गुम हो जा रहे मुनाफे से बचने की चेतावनी को जरूरी पाठ मान लेने वालों की एक लम्बी श्रृखंला तैयार कर लेने की उसकी कोशिशें बेशक उसे आसानी से कामयाब बना देने में सहायक थी लेकिन साल-छै महीने के अन्तराल में ही उसे एहसास होने लग जाता कि महागुरूओं की आवाज का जादुईपन एक सीमा ही है। लगायी गयी रकम का रिर्टन न मिलने से निराश हो चुके परिचितों को दोपहिया से चोपहिया तक ले जा सकने के सपने दिखाना फिर उसके लिए आसान न रहता और धंधा बदलने को मजबूर हो जाना पड़ता। 

Wednesday, August 21, 2013

फाउंडर्स ऑप मॉडर्न एडमिनिस्ट्रेशन इन उत्तराखंड: 1815—1884


उत्तराखंड के शोधार्थियों के लिए जरूरी किताब

डॉ. शोभा राम शर्मा
उत्तराखंड की वर्तमान आधुनिक प्रशासनिक प्रणाली के पीछे निश्चित रूप से अंग्रेज प्रशासकों का हाथ रहा है। उत्तराखंड यानी गढ़वाल और कुमाऊं अंग्रेजों से पहले यहां के राजाआे और फिर गोरखा सामंती तंत्र की अराजकता की गर्त में रहा। अंग्रेजों के ही प्रयासों से उत्तराखंड में पहली बार तार्किक तरीके से भूमि की नाप—जोख, वर्गीकरण और तदनुसार कर निर्धारण का कार्य संपन्न हुआ। जंगलात की सुरक्षा के लिए नियम बने। सार्वजनिक मार्गों और पुलों का निर्माण हुआ। सार्वजनिक शिक्षा और डाक व्यवस्था का शुभारंभ हुआ। तराई-भाबर में नहरों का निर्माण हुआ। इसी काल में कोटद्वार, रामनगर, हल्द्वानी, टनकपुर, रानीखेत, नैनीताल, पौड़ी, मसूरी, लैंसडाउन जैसे नगरों की स्थापना हुई। मौद्रिक व्यवस्था को स्थायित्व मिला । न्याय के लिए अदालतों का गठन हुआ। अपराधों की रोकथाम के लिए शेष भारत से अलग और केवल डंडे के बल पर काम करने वाली विशिष्ट किस्म की (राजस्व पुलिस) पटवारी व्यवस्था लागू हुई। इस व्यवस्था के तहत ही पटवारियों को पुलिसिया अधिकार प्राप्त हैं और यह व्यवस्था आज भी उत्तराखंड के पर्वतीय ग्रामीण अंचलों में विद्यमान है। अंग्रेजों के समय में ही यहां बच्चों और ियों की खरीद-फरोख्त जैसी कुप्रथाआें पर पाबंदी लगी। एक अर्थ में कहा जाए तो भले ही अंग्रेजों ने ये सारे काम अपने दूरगामी साम्राज्यवादी हित के लिए किए हों लेकिन यह यह निश्चित तौर पर सच है कि उन्होंने ही उत्तराखंड की परिस्थितियों के हिसाब से पहली बार एक व्यवस्था कायम करने का सफल प्रयास किया।
उत्तराखंड के पूर्व मुख्य सचिव और पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त डॉ. रघुनंदन सिंह टोलिया द्वारा लिखित— फाउंडर्स ऑप मॉडर्न एडमिनिस्ट्रेशन इन उत्तराखंड :1815—1884 (उत्तराखंड में आधुनिक प्रशासनिक व्यवस्था के संस्थापक 1815—1884 ) संभवत: पहली पुस्तक है जिसने उत्तराखंड के आधुनिक प्रशासन के इतिहास को लिपिबद्ध किया गया है। यह एक तथ्यात्मक और एेसा एेतिहासिक दस्तावेज है, जिसे एक जगह संग्रहीत करने की बहुत बड़ी जरूरत थी।  गोरखों की पराजय (सन् 1815) के पश्चात ईस्ट इंडिया कंपनी ने कुुमाऊं कमिश्नरी के नाम से जिस प्रशासनिक इकाई का गठन किया गया , लेखक ने उसमें नई प्रशासनिक व्यवस्था का सूत्रपात करने वाले प्रशासकों के कार्यकाल व कार्यप्रणाली का क्रमवार विवरण प्रस्तुत किया है। ये प्रशासक ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी थे। इनमें से कमिश्नर ट्रेल, लशिंगटन, बैटन और हेनरी रैमजे का कार्यकाल बहुत महत्वपूर्ण रहा। इन सभी कमिश्नरों ने प्रशासक के रूप में अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि बनाए रखी। हेनरी रैमजे कंपनी द्वारा 1856 में कमिश्नर नियुक्त हुे थे। 1857 के विद्रोह को सफलतापूर्वक झेलने के बाद वे कंपनी के कर्मचारी नहीं रहे क्योंकि 1848 में ब्रिटिश सरकार ने भारत का प्रशासन अपने हाथों में ले लिया था। लेकिन हेनरी रैमजे 1884 तक यहां के कमिश्नर बने रहे।
अंग्रेजों ने कुमाऊं कमिश्नरी  (टिहरी रियासत को छोड़ कर शेष गढ़वाल समेत) की विशिष्ट परिस्थितियों का आकलन कर उसे शेष ब्रिटिश भारत के समकक्ष नहीं रखा। बल्कि उसके लिए अलग नियम कानून बनाए या यहां के प्रशासकों को यह छूट दी कि वे स्थानीय जरूरत के मुताबिक नियम कानूनों को स्थगित या खारिज कर सकें। फलस्वरूप प्रशासकों के व्यक्तित्व की छाप भी यहां उभरती नई प्रशासनिक व्यवस्था पर पडी ।
लेखक ने बिना किसी पूर्वाग्रह के तत्कालीन अंग्रेज प्रशासकों की कार्यप्रणाली को यथातथ्य इस पुस्तक का विषय बनाया है और वह अपनी आेर से कोई विश्लेषण नहीं प्रस्तुत करते । उन्होंने यह अन्य शोधार्थियों के लिए छोड़ दिया है। उत्तराखंड के आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, प्रशासनिक इतिहास के शोधार्थियों को यह पुस्तक अवश्य पढऩी चाहिए। मेरा आग्रह है कि डॉ. टोलिया को अपनी कलम के माध्यम से 1884 के बाद स्वतंत्रता प्राप्ति तक और उसके बाद का प्रशासनिक इतिहास प्रस्तुत करना चाहिए। वह स्वयं उत्तराखंड के प्रशासक रहे हैं। उत्तराखंड के इतिहास पर शोध करने वालों के लिए इसकी नितांत आवश्यकता है। लेखक ने इतने पुराने और लगभग विनष्ट होने की कगार पर पहुंचे सरकारी अभिलेखों और अन्य स्रोतों के जंगल से जो बहुमूल्य सामग्री संग्रहीत की और एेसा करने में जिस धैर्य और लगन से काम किया वह निस्संदेह प्रशंसनीय है। इसके लिए लेखक सचमुच बधाई के पात्र हैं।
फाउंडर्स ऑप मॉडर्न एडमिनिस्ट्रेशन इन उत्तराखंड:1815—1884
लेखक: आरएस टोलिया
प्रकाशक : बिशन सिंह महेंद्रपाल सिंह,देहरादून
मूल्य: 1250 रुपये, पृष्ठ : 408

Friday, August 9, 2013

आलिंगन


(आजकल इस ब्लाग के कर्ता-धर्ता विजय गौड़ कलकत्ता में अपनी नौकरी की नयी जिम्मेदारियों को समझने और खुद को स्थापित करने में व्यस्त हैं.देहरादून पर कुछ  लेख आगए मिलेंगे. फिलहाल इस ब्लाग के साथी यादवेन्द्र जी के कुछ छाया चित्र. इनके बारे में यादवेन्द्रजी  का कहना है
सबसे पहले तो ये बता दूँ कि मुझे अचानक यह मुगालता नहीं हो गया है कि मैं कोई अति विशिष्ट या दुर्लभ काम कर रहा हूँ।अपने काम के सिलसिले ने  ...या यूँ भी घूमने फिरने की यायावर प्रवृत्ति ने ...मुझे देश के विभिन्न हिस्सों में आने जाने के अवसर दिए। इन मौकों का लाभ मैं हमारी नज़रों से लगभग ओझल हो चुके इन दृश्यों को दर्ज करने के लिए उठाता हूँ --- शहरी जीवन की जटिल और लगभग कृत्रिम जीवन शैली से ये नज़ारे विलुप्त हो चुके हैं ...हाँ, अब भी ग्रामीण या पर्वतीय इलाकों में सुकून की जिंदगी जी रहे मित्रों को संभव है इनमें कुछ भी नयापन न लगे ...पर कुतूहल और लगभग अविश्वास के साथ इन्हें देख कर खुश होने वाले सरल हृदयों की भी कमी नहीं ...इसी भरोसे के साथ आपके साथ इनको साझा कर रहा हूँ ...)












                                                     

                                              

Tuesday, July 23, 2013

अजगरी सबक




डॉ. शोभा राम शर्मा

बहुत पुरानी बात है। पीले पट्ठार की किसी पीली घाटी में एक पीला अजगर रहता था। उसका रंग इतना प्यारा था कि इधर-उधर के चूहे, मेंढक और दूसरे-दूसरे जानवर उस घाटी में आकर रहने लगे। कुछ दिनों में देखा गया कि घाटी में न कोई चूहा था न मेंढक का पूत। इस पर दूसरे जानवरों का माथा ठनका। पता चल गया कि हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती। वे जान बचाकर दिशा-दिशाओं में भाग निकले। कहते हैं कि वर्षों तक वह पीला अजगर उसी घाटी में सोया पड़ा रहा। वर्षों तक केवल हवा फाँककर जिन्दा रहा। दुनिया को बड़ा आश्चर्य हुआ। इसी बीच उसके बेटे-बेटियों ने एक के बाद एक कई पीढि़यों को जन्म दे दिया। अजगरों से सारी घाटी पट गई। बूढ़े अजगर को साँस लेने में भी कठिनाई होने लगी। जब अजगरों को खाने को कुछ नहीं मिला तो वे एक दूसरे को निगलने लगे। स्वयं बूढ़े अजगर ने साँस खींची तो अनेक छोटे-मोटे अजगर उसके पेट में न जाने कहाँ समा गए। अपने भरे-पूरे परिवार को छोटा देखकर अजगर को बड़ा दुःख हुआ।
एक दिन उसने घाटी से सरकना आरम्भ किया तो एक पीली दुनिया उसके पीछे थी। वह जिधर भी सरकता गया, सब कुछ पीला होता गया। नदी, पहाड़, जंगल, घाटियाँ, मैदान और यहाँ तक कि सागर भी पीले पड़ गए। उसने उत्तर की ओर मुँह किया तो भेडि़ए अपनी मांदों में जा छिपे। सफेद भालुओं ने नरम-नरम बपर्फ में घुसकर अपनी जान बचाई। दक्षिण की ओर बढ़ा तो गरम चिपचिपा मौसम आड़े आया और पिफर भारी भरकम हाथियों और चीतों ने भी कई अजगरों को कुचल डाला। पूर्व की ओर बढ़ा तो पीले सागर की मछलियां गायब हो गई। पश्चिम के रेतीले पट्ठार पर जब चूहे समाप्त हो गए तो उसने आगे सरकना छोड़ दिया। इस अभियान में एक विशाल पीले साम्राज्य की स्थापना हो गई। एक अजगरी संस्कृति ने जन्म लिया, जिसका मूल-मंत्रा था- ‘बेशुमार सन्तान पैदा करो और कुछ न मिले तो एक दूसरे को निगल जाओ।’
बूढ़े अजगर ने एक दिन अपने सबसे बहादुर बेटों को बुलाया और कहा- ‘प्यारे बेटो, मैं बूढ़ा हुआ, अब आराम करूंगा। अपनी पीली दुनिया का भार अब तुम्हारे सिर है। मैं सोउफंगा पर जब भी करवट लूं, मेरे खाने-पीने का इन्तजाम बदस्तूर चलता रहे।’ बेटों ने कहा- ‘अब्बाजान, हम तो कब से चाहते हैं कि आप अब अपने पर रहम करें। पीली दुनिया का भार हम अपने उफपर लेते हैं। आप निश्चिन्त रहें।’
आश्वस्त होकर बूढ़ा अजगर सो गया। बेटों ने पीली दुनिया को आपस में बाँट लिया। पहले तो वे इधर-उधर से लड़ते रहे, जब कोई सामने नहीं आया तो एक दूसरे से लड़ने लगे। पीली दुनिया में कुहराम मच गया, पर बूढ़े अजगर की नींद नहीं खुली। उसके खाने-पीने का इन्तजाम बदस्तूर चलता रहा। जब भी एक करवट लेता और जोर की सांस खींचता सामने बंधे उत्तर के भालू-भेडि़ए, दक्षिण के बन्दर-चीते और पूर्व की मछलियां उसके खुले मुँह में समा जाते। वह डकार तक नहीं लेता और दूसरी करवट आराम से सो जाता। नालायक बेटों ने इस बीच इतनी आबादी बढ़ा दी कि उतनी बड़ी पीली दुनिया भी छोटा पड़ गई। मछलियाँ तो मछलियाँ, नदियों और झीलों का पानी तक कम पड़ गया, हर जगह अजगर सरकते नजर आने लगे। बड़े अजगर अब आँखों में आँसू भर कर छोटे अजगरों से कहते- ‘प्यारे बच्चों हमने कितने कष्ट झेलकर तुम्हें इतना बड़ा किया? अब तुम्हारे ये बूढ़े माँ-बाप भूखे मरते हैं, बताओ, तुम्हारा क्या कर्तव्य है?’
छोटे अजगर मुँह खोलते कि उससे पहले ही वे वहाँ पहुँच जाते, जहाँ से वे इस दुनिया में आए थे। भूख-प्यास और बड़ों के आंतक से घबराकर कुछ अजगर, बीहड़ वीरान जगहों में जा छिपे। कुछ दक्षिण के गरम जंगलों में जा घुसे। कुछ बड़े उफँचे पहाड़ों को पारकर पीली दुनिया से बाहर निकल गए और कुछ पीले सागर के पार न जाने किन-किन देशों और द्वीपों में जाकर बस गए। कुछ ने बूढ़े अजगर के पास जाकर पफरियाद की- ‘हे हमारे अब्बाओं के अब्बा! आपके रहते यह कैसा अन्धेर है कि हमें चुपचाप निगल लिया जाता है। कोई एक बूँद भी आँसू नहीं बहाता।’
बूढ़े अजगर ने आँखें खोली, देखा कि सामने एक विशाल पीला अजगर लहरा रहा है। छोटे-छोटे अजगर एक दूसरे से सटकर विनती कर रहे थे। उनींदी आँखों से बूढ़े अजगर को भ्रम हुआ। कतार को अपना प्रतिद्वन्द्वी समझकर वह ताव खा बैठा। एक तगड़ी सांस खींची तो सारे के सारे अन्दर। उतने सारे अजगरों के एक साथ पेट में चले जाने से बूढ़े अजगर का हाजमा खराब हो गया। पेट में मरोड़े उठने लगे। बूढ़ा अजगर तड़फने लगा। पीली दुनिया में जैसे भूकम्प आ गया। बहुत दवा-दारू की गई पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अन्त में पता चला कि दक्षिण के जंगलों में कोई दूर देश का एक पहुँचा हुआ जटा-जटधारी लंगूर महात्मा आया है। बड़ी कठिनाई से महात्मा को लाया गया। महात्मा ने मरीज से कहा- ‘हे पीले देश के बुजुर्गों के बुजुर्ग! आपके पेट में दर्द है कि आपके अपने ही आपके पेट  में चले गए- यह मोह कैसा? आपने तो एक-दो नहीं सारी की सारी पीढि़यां देखी हैं। कहाँ हैं वे सब? जहाँ से आए थे वहीं चले गए तो यह कष्ट कैसा? सच पूछो तो न आप-आप हैं और न वे-वे थे जो आपके पेट में चले गए। सब कुछ एक है- एको{हम द्वितीयो नास्ति। इस चरम सत्य के उफपर माया का आवरण पड़ा है और उसके लुभावने आकर्षण में हम भटकते हैं। इस आवरण को चीरकर पफेंक दो। पिफर न आप-आप हैं न आपका पेट है और न उसका दर्द।’
मरीज ने कुछ आश्वस्त होकर कहा- ‘महात्मन कमाल है! आपके शब्दों ने तो जादू कर दिया। दर्द गायब है। उलटे भूख लगने लगी है। समझ में नहीं आता कि जब मैं-मैं नहीं, पेट-पेट नहीं तो यह भूख कहाँ से उग आती है?’
महात्मा बोले- ‘यह भी आपका भ्रम है। भ्रम का निवारण कीजिए तो भूख कहाँ है?’ अजगर ने अपनी चिपचिपी आँखंे मिचमिचाई और कहा- ‘महात्मन, आप भी तो आप नहीं, पर मुझे दिखाई दे रहे हैं और मेरी आँतें बुरी तरह बुलबुला रही है।’ महात्मा अवाक्! देखते-देखते अजगर ने अपना विकराल मुँह खोला, सांस खींची और महात्मा गायब। खबर उड़ गई कि महात्मा आकाश में उड़ गए।
पिफर तो गजब हो गया। बूढ़े की भूख बढ़ती गई। उसकी आँखों से चिनगारियाँ बरसने लगी। मुँह से लपटें निकलने लगी और लपटों का विषैला पीला धुंआ सारे आकाश में भर गया। उसने पुनः सरकना आरम्भ कर दिया तो सरसराहट से दसों दिशाएँ कांपने लगी। अगल-बगल में बसे भगोड़े अजगरों में हड़कम्प मच गया। वे खिराज लेकर उपस्थित हुए। अनुनय की- ‘महामहिम, हम कोई गैर नहीं, आपके अपने ही हैं। हमें अपनी ही प्रजा समझिए। हम हर सेवा के लिए तैयार हैं।’
बूढ़ा अजगर पिफसपिफसाया- ‘तुमने अपने देश से भागकर पहला अपराध किया। पिफर अपनी दुनियां अलग बसाकर दूसरा अपराध किया। इससे भी बड़ा अपराध तो यह है कि तुमने अपना रंग बदलकर पीली दुनिया को अपमानित किया। बोलो तुम्हें सबक सिखाना मेरा अधिकार है या नहीं?’
एक भूखे अजगर ने कहा- ‘हे दादाओं के दादा! हमने स्वयं रंग नहीं बदला, वहाँ कहीं गर्मी और मिट्टी ने हमारा रंग बदल डाला है। हम जानते हैं कि आपको भूख कितना सताती है। सच पूछो तो हम उसी का इन्तजाम करने इधर-उधर गए हैं। जब भी आवश्यकता हो लिख भेजें। अपने ही तो काम आते हैं।’
इस बीच सारी खिराज बूढ़े अजगर के पेट में समा चुकी थी। उसने सन्तोष की सांस ली और मुस्करा कर बोला- ‘लगता है बाहर जाकर अक्लमंद हो गए हो। चलो, आज तो मापफ किया, लेकिन इतना ध्यान रखना कि मैं तुम्हारे पूर्वजों का पूर्वज हूँ। तुम्हारे कान उमेठना मेरा पहला अधिकार है।’
भगोड़े अजगरों की जान में जान आई। सस्ते में जान छूटी तो रातों-रात भागकर अपने-अपने घर पहुँच गए। बूढ़े अजगर की पफरमाइशों से तंग आ गए तो उपाय सोचने लगे। उन दिनों वहाँ कुछ घुटमुण्डे लंगूर साधु-सन्यासी अपने धर्म का प्रचार कर रहे थे। वे कहते थे कि हिंसा मत करो, प्रेम और शान्ति से रहो। भूरे अजगरों ने उनके सामने अपना दुखड़ा रोया। उन्होंने बताया कि यदि वे पीले देश के बूढ़े अजगर का हृदय बदल सकें तो दुनिया का बड़ा कल्याण हो। घुटमुण्डे साधुओं ने चुनौती स्वीकार कर ली। उन्होंने बूढ़े अजगर की आदतों के बारे में गहराई से छान-बीन की। इसी बीच उन्हें पिछले महात्मा के गायब होने का रहस्य भी ज्ञात हो गया। उनमें से एक ने बड़े उफँचे पहाड़ों को पार किया और घोड़ों, गधों, उफंटों और याकों पर ढेरों पुस्तकें तथा दवाइयाँ लादकर पीले देश को रवाना हुआ। उसने बूढ़े अजगर के सबसे प्यारे बेटे को बस में कर लिया। बेटे ने साधू को बूढ़े अजगर तक पहुँचाया जो पीले देश के बीचोंबीच निकल पड़ा था। अपच के मारे उसका बुरा हाल था। दक्षिण से जो हाथी भेजा गया था उसे निगलने में एक बड़ा सा दाँत बूढ़े अजगर के गले में पफँस गया था। उधर-उत्तर के अजगर उसे लांघकर दक्षिण में आना चाहते थे। उत्तर के भेडि़यों और भालुओं ने अजगरों से निपटने की कला सीख ली थी। वे अचानक पीछे से हमला करते और माँस नोचकर भाग खड़े होते। बूढ़े अजगर के मुँह की ओर से बढ़ने की उनमें हिम्मत नहीं थी। पूँछ की ओर से आना चाहा तो अपच में बूढ़े अजगर की उछलती पूँछ से दबकर मर जाने का खतरा था। दूर देश से साधू ने बूढ़े अजगर के बेटे से कहा- ‘हे पीले देश के राजा! बूढ़े अजगर को यहाँ ऐसे ही पड़ा रहने दो तो तुम्हारे दक्षिणी भाग की रक्षा हो सकती है।’
यही निश्चय हुआ और साधू ने बूढ़े अजगर का इलाज आरम्भ किया। गले में पफँसे हाथी-दाँत को निकाल दिया गया तो बूढ़े अजगर ने आँखें खोली। सामने घुटमुण्डे साधु को देखकर मुस्कराया, बोला- ‘महात्मन, दाढ़ी ओर जटाजूट का क्या हुआ? क्या तुम वहीं नहीं हो?’
साधु ने कहा- ‘हाँ, मैं वही हूँ। दाढ़ी और जटा तो तुम्हारे पेट में गल गए, लेकिन मैं तुम्हारे कष्ट का निवारण करने बाहर निकल आया हूँ।’
‘तो पहले मेरे अपच का इलाज करो’। बूढ़ा अजगर बोला। साधू ने दवाइयों से लदे पाँच गधे उसके सामने कर दिए। बात ही बात में पाँचों गधे ढेरों दवाइयों सहित बूढ़े अजगर के पेट में समा गए। अजगर ने राहत की सांस ली। वह मुस्कराकर पुनः बोला- ‘महात्मन, जब मैं-मैं नहीं, पेट-पेट नहीं तो यह भूख कहाँ से आती है?’
साधू ने कहा- ‘हे जरठ! यह तो देह का धर्म है। देहधारी को भूख तो सताएगी ही। पर हिंसा से विरत रहना ही सबसे बड़ा धर्म है।’ लगता है कि अब आपके ज्ञान में अक्लमन्दी के पर भी उग आए हैं। मैं देहधारी का कर्तव्य ही तो पालता हूँ। हिंसा भी मैं नहीं करता। देखते नहीं समूचा निगल जाता हूँ। एक बूंद भी खून नहीं बहाता। पिफर उतनी दूर से तुम यहाँ क्या सिखाने आए हो? बूढ़े अजगर ने पूछा।
साधू ने उत्तर दिया- ‘हे महात्माओं के महात्मा! मैं सिखाने नहीं सीखने आया हूँ। भगवान तथागत ने मुझे आपके पास भेजा है। कितने करुणामय हैं वे! उन्होंने मुझसे कहा कि पीले देश में उनका सबसे पुराना और सबसे बड़ा भक्त कष्ट में हैं। एक बार पुनः उसके पास जाओ। वह थोड़ा सा भटक गया है। संयम और संतोष की थोड़ी सी कमी रह गई है। मेरा सन्देश उस तक ले जाओ और ढेर सारा ज्ञान लेकर वापस आओ। दोनों ओर कल्याण होगा।’
अजगर ने कहा- ‘भगवान तथागत का भला हो! लेकिन संयम और संतोष तो भरे पेट को सुहाते हैं। तुमने न जाने कौन सी दवा दी, यहाँ तो पेट में चूहे कूदने लगे हैं।’
साधु घबराकर पीछे हटा। उसने पुस्तकों से लदे घोड़े, उफँट और याक अजगर के सामने कर दिए। पिफर वहीं से बोला- ‘मंजु श्री कल्प भगवान तथागत किसी भूखे का कष्ट नहीं पाते। उन्होंने कहा था- मेरे भक्त को भूख बहुत सताती है, उसका इन्तजाम करके जाना। पहले आप देह-धर्म का पालन करें पिफर और बाते होंगी।’ अजगर ने जोर की सांस खींची और घोड़ों, उफँटों और याकों सहित ढेरों पुस्तकें उसके पेट से समा गई। साधु ने देखा कि भरे पेट के संतोष के कारण बूढ़ा अजगर झपकी लेने लगा है। वह उसके सामने आया और गले में कण्ठी बाँधकर बोला- बोलो ‘बु(म् शरणम् गच्छामि’। झपकी लेते-लेते अजगर पुफसपुफसाया- ‘बु(म् शरणम गच्छामि।’ और पिफर ‘संघम् शरणम् गच्छामि’ के साथ दीक्षा पूरी हो गई। नींद के झोंके तेज होने लगे तो साधु जल्दी-जल्दी में प्रार्थना- चक्र थमाकर कानों में पुफसपुफसाया- ‘हे जरठ! इस प्रार्थना-चक्र को निरन्तर घुमाते रहो। जो ग्रन्थ तुम्हारे पेट मंे समा गए हैं, उनके मंत्रों का जाप करते रहो। समाधि मंे इस तरह डूब जाओ कि साक्षात भगवान तथागत के प्रतिरूप बन जाओ। एक बार आँखें खोलकर अपनी सन्तान से जो कुछ कहना चाहो कह दो और आवागमन के बन्धन से निर्वाण प्राप्त करो।’
बूढ़े अजगर ने आँखें खोली। अपने बेटों को पास आने का संकेत किया। वे पास आ गए तो उसके गले में भारी आवाज आई- ‘मेरे प्यारे बेटों! मैं समाधि ले रहा हूँ। मेरी भूख के कारण तुम्हें जो कष्ट झेलने पड़े, उन्हें मन में न लाना। मैंने इस पीले देश की स्थापना तुम्हारे ही लिए की थी। इसकी गरिमा को आँच न आने देना। यह मत भूलना कि तुम दुनिया के सबसे पुराने अजगर की सन्तान हो। दुनिया को सबक सिखाना तुम्हारा काम होगा। तुम्हें एक भेद की बात बताउफँ -यह मेरी बूढ़ी चीमड़ खाल एक दिन सड़कर मिट्टी में मिल सकती है लेकिन मेरी आत्मा तुम में से किसी के भीतर चली आएगी और पिफर दुनिया की कोई शक्ति तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगी। अच्छा अब मैं समाधि लेता हूँ। भगवान तथागत तुम्हारा कल्याण करें!’ ... कहते-कहते बूढे़ अजगर की आँख बन्द हो गई और वह खर्रांटे लेना लगा।
साधु ने संकेत किया और पीले देश के असंख्य अजगर अपने बुजुर्गों के बुजुर्ग का स्मारक बनाने में जुट गए। कुछ ही दिन में बूढ़े अजगर के उफपर एक विशाल लम्बा-चौड़ा पथरीला अजगर पीले देश के बीचों-बीच खड़ा हो गया। सदियों तक उस विशाल दीवार के नीचे घूमते प्रार्थना-चक्र का स्वर पीले देश के हर कोने में सुनाई देता रहा। पीले देश के अगल-बगल से खिराज मिलती रही और अजगर अमन-चैन से दिन काटते रहे।
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समय ने करवट बदली। विशाल दीवार के नीचे घुमते प्रार्थना-चक्र का स्वर मन्द पड़ने लगा। एक दिन ऐसा लगा कि कि प्रार्थना-चक्र का घूमना बन्द हो गया है। पता-चला कि उत्तर के जंगलों में भालू ने आतंक मचा रहा रखा है। भालू का कहना था कि वे जंगल उसके बपौती है और पीला अजगर जबरन् वहां घुस गया था। भेडि़यों ने भी उपद्रव खड़ा कर दिया और उत्तर के कुछ पीले अजगरों ने भी विद्रोह कर दिया। पफलतः पीले अजगर की सन्तान को एक विशाल क्षेत्रा से पीछे हट आना पड़ा। उधर पड़ोस के भूरे अजगरों ने भी खिराज देनी बन्द कर दी और वे इधर-उधर अपने दावे भी पेश करने लगे। संकट की इस घड़ी में किसी को बूढ़े अजगर की याद नहीं आई और संकट गहराता चला गया। इसी बीच कुछ विदेशी सियार सौदागरी करने पीले देश पहुँचे। उन्होंने पीले देश के राजा को बड़ी खूबसूरत जूतियाँ भेंट की। अजगरराज उन जूतियों पर मुग्ध हो गया। सौदागर सियारों ने कहा- ‘हे राजाओं के राजा! अगर इस तरह की जूतियाँ चाहते हो तो हमें अजगर-अजगरनियों की खाल ले जाने की आज्ञा दे।’
‘क्या कहा? तुम हमारी खाल से जूते-जूतियाँ बनाओगे और पिफर हमी को बेचोगे?’
अजगरराज चौंका।
सियारो ने कहा- ‘राजन, इसमें दोष क्या है? सड़ने-गलने से तो अच्छा है कि जूतियाँ बने। इसमें तो आपका लाभ ही लाभ है।’
अजगरराज को उनका तर्क पसन्द तो आया पिफर भी वह बोला- खाल के बदले हमें क्या मिलेगा? तुम जानते हो कि आजकल हम गहरे संकट में हैं’
उसकी दवा हम अपने साथ लाए हैं। महाराज। शौक तो पफरमाएँ। एक गोली हलक में डालो और पड़े रहे। भूख-प्यास से छुट्टी’ यह कहकर एक सियार ने अजगरराज को अपफीम की गोली थमा दी। अजगरराज ने उसे मुँह में डाला और उसकी आँखों में परमानन्द का खुमार लहराने लगा।
सियारों ने कहा- ‘कहिए महाराज, पसन्द आई? ऐसे में तो जिन्दे की खाल भी उतार लो तो उसे पता तक न चले।’
‘जिन्दे की खाल? क्या बात कही? उससे तो और भी सुन्दर जूतियाँ बनेगी न!’ पिनक में अजगरराज ने कहा।
‘बिल्कुल सही पफरमाते हैं जहाँ पनाह! अब मेहरबानी करें और हमारे नाम पट्टा लिखवा दें।’
‘भई, तुम स्वयं लिख लो। बगल में मुहर पड़ी है लगा लो। हमें तंग मत करो। माबदौलत आराम पफरमाएंगे।’
बहुत अच्छा श्रीमान। लेकिन एक प्रार्थना और है। सुना है कि आपकी बड़ी दीवार के नीचे सदियों पुरानी खाल बेकार सड़ रही है। उसे खोदने और ले जाने की भी इजाजत दें। हम श्रीमान की सेवा में और भी शानदार जूते पेश करेंगे। आपकी पीढि़यां दर पीढि़यां उनका उपयोग करेंगी पर वे पुराने नहीं पड़ेंगे।’ - उनमें से एक सौदागार सियार ने प्रस्ताव रखा।
‘मैंने कह दिया- तुम दीवार खोदो या पूरे पीले देश को खोद डालो पर मुझे तंग मत करो।’ और यह कहते-कहते पीला अजगर सिंहासन पर एक ओर लुढ़क गया।
दीवार खोदे जाने की बात से कुछ पीले अजगरों में सनसनी पफैल गई। उनमें से कुछ ऐसे मूढ़ निकले कि अपफीम के सौदे का भी विरोध करने लगे। सौदागर सियारों ने उन पर समझौता भंग करने का आरोप लगाया और दोनों ओर से ठन गई। पिफर भी अपफीम वहाँ धड़ल्ले से आती रही और अजगर उसकी पिनक में बहकते रहे। कुछ अजगरों ने भी अवसर का लाभ उठाया। वे दूसरे अजगरों को अपफीम पिलाने लगे। सैकड़ों की संख्या में उनकी अजगरनियां अपने हरम में रखने लगे। उनसे बेशुमार बच्चे पैदा करने लगे और कुछ ही दिनों में उनकी सुकोमल खाल की जूतियाँ दुनियां के बाजार में बचने लगे। उधर समझौते के विरोधी अजगर सौदागर सियारों की गोलियों के शिकार होते रहे। सौदागरों को मनचाही खालें मिलती रही। अजगर कहते- ‘हम अपफीम की गोलियाँ नहीं खाएँगे।’ सियार कहते- ‘बड़े बेशरम हो। समझौता भंग करोगे? अपफीम की नहीं तो शीशे की गोलियाँ खाओ।’
दुनिया में कुछ विरोध हुआ तो सियारों ने कहा- ऐ दुनिया वालों! तुम वहाँ जाकर तो देखो। अजगरों की जाति अब किसी काम की नहीं रही। उसे तो सड़ी-गली लाश ही समझो। वे तो स्वयं अपनी खाल उतारकर हमारे हवाले कर देते हैं। हम उसका उपयोग न करें तो वे वहीं सड़-गल जाएंगी। दुनिया में ऐसी सड़ान्ध पफैलेगी कि हम सब के लिए किसी भयानक रोग का खतरा उत्पन्न हो जाएगा। हम दुनिया को एक भयानक खतरे से बचा रहे हैं। दुनिया को हमारा एहसान मानना चाहिए।’
उनके इस बयान पर कुछ वहाँ गए भी। उन्होंने देखा कि अजगर जहाँ-तहाँ अपफीम की पिनक में पड़े हैं। अपनी पूँछ को ही अपना शत्राु समझ बैठे हैं और मुँह में डालकर निगलने का प्रयास कर रहे हैं। देखने वालों के भी थूँथन बन्द हो गए।
इसी बीच उत्तर-पश्चिम में बड़ी गड़बड़ हो गई। कुछ सपफेद भालुओं ने लाल लबादा ओढ़ लिया, उन्होंने सपफेद भालुओं को मार-मारकर लहूलुहान कर दिया और सपफेद भालू की जाति को लाल भालू की जाति में बदल दिया। इन नये भालुओं का कहना था कि वे उनके साथी हैं जिन पर आज तक जुल्म और ज्यादतियाँ होती रही हैं। बेचारे अगजरों के कान खड़े हुए तो सियारों ने समझाया- ‘प्यारे अजगरों, भालू की मांद में जाओगे तो वह समूचा हड़प जाएगा। हम तो तुम से खाल ही माँगते हैं, वह तुम्हारे दिल और दिमाग को भी शहद की तरह चाट जाएगा। तुम्हारी संस्कृति और सभ्यता कितनी पुरानी और पुख्ता है यह हम जानते हैं। भालू को इन बातों से क्या लेना-देना? देखते नहीं हम तुम्हारी बदशक्ल खालों को कितनी सुन्दर कला-कृतियों में बदल देते हैं। भालू तो लाठी से पीट-पीटकर बेकार कर देगा।’
शुभ-चिन्तक सियारों की चेतावनी का यह असर हुआ कि अजगर दो पिफरकों मंे बंट गए। पिफर भी एक अक्लमन्द अजगर ने उन्हें कुछ दिनों तक एक साथ बाँधे रखा। लोगों का विश्वास है कि उसमें दीवार के नीचे वाले अजगर की आत्मा उतर आयी थी। उसके नेतृत्व मंे अजगरों ने अपने ही राजमहल पर धावा बोल दिया। सिंहासन पर अपने राजा की दशा देखकर उन्होंने माथा पीट लिया। वह अपने आधे हिस्से को निगलकर मरा पड़ा था। विदेशी सौदागर उसकी सुनहरी खाल भी समुन्दर पार भेज चुके थे। अक्लमन्द अजगर को अपनी जाति की इस दुर्दशा का इतना बड़ा सदमा पहुँचा कि वह अधिक दिनों तक नहीं जी सका। इसी दौर में पीले सागर के पार से समुन्दरी अजगरों की आवाज आई- ‘ऐ पीले देश के अस्मतपफरोशो! तुम उस महान अजगर के नाम पर कलंक हो जो हमारे बुजुर्गों का बुजुर्ग था। उस महान दीवार की रक्षा अब हम करेंगे, जिसके नीचे उसकी महान आत्मा तुम्हारी करनी पर आठ-आठ आँसू रो रही है। तुम्हारा समय लद गया है। हम सूर्यदेश के वासी तुम्हारे पापों का प्रायश्चित करने आ रहे हैं।
वे आए और मुफ्रत में खालों का व्यापार करने लगे।
विदेशी सौदागरों ने कहा- ‘ऐ महान पीले देश के अजगरों! देखो, अपने इस छुटभैये को। खालें ले जाता है और अपफीम भी नहीं देता।’
लाल लबादा ओढ़े अजगरों ने कहा- अपफीम का लोभ अब और किसी को देना। हम तुम्हें भी जानते हैं पर पहले इस छुटभैये से निपट लें।’
पिफर उन्होंने पुरानी चाल के पीले अजगरों से कहा- ‘भैया, आपस में तो बाद में निपट लेंगे, पहले इस छुटभैये को सबक सिखाएं। कल तक हमें खिराज देता था और आज हमारे खाल की जूतियां बेच रहा है। यह सुनकर पीले अजगर दुविधा में पड़ गए।’
उधर छुटभैये ने दूसरे भूरे अजगरों की खालों पर भी अपना हक जताना आरम्भ कर दिया। विदेशी सौदागर ताव खा गए। वे कुछ कहते कि उधर यूरोप के जंगलों में भेडि़यों से कहा- ‘भेडि़ए भाई, यहाँ क्या रखा है? सुना है भालू का मांस स्वास्थ्य के लिए बड़ा मुपफीद है।’ लेकिन भेडि़ए को इतनी भूख लगी थी कि वह उन्हीं पर पिल पड़ा। सियारों का दम टूटने लगा तो भेडि़ए भालू पर भी झपट पड़े। भालू ने खीसे निपोर कर पीछे हटते हुए ऐसा नाच दिखाया कि भेडि़ए देखते रह गए। इसी गपफलत का लाभ उठाकर भालू ने डंडा सम्भाला और भेडि़यों को ऐसी मार मारी कि वे पानी भी न माँग सके।
पूर्व में समुन्दरी अजगर आगे बढ़ते रहे। बड़े उफँचे पहाड़ों के नीचे काली भूरी और चितकबरी खालों के हाथ से निकल जाने का खतरा उत्पन्न हुआ तो पुराना घाघ सियार अपने नये आका के पास पहुँचा और बोला- ऐ मुटल्ले भाई, गोला-बारूद और हथियारों के व्यापार से चर्बी इतनी बढ़ गई कि तुम्हें कुछ दिखाई नहीं देता। अरे समुन्दरी अजगर मुझे निगलता जा रहा है और तुम चुपचाप बैठे हो। आज अगर मेरी बारी है तो कल तुम्हारी आ सकती है। अजगर छोटा हो या बड़ा, पीला हो या भूरा, एक बार अगर उसकी भूख जग गई तो पिफर खुदा ही मालिक है।’
दोगला मुटल्ला सियार पहले ही सशंकित था। उसने आव देखा न ताव और समुन्दरी अजगर के सिर पर दो गोले ऐसे बरसाए कि वह चीं बोल गया। पिफर वह पीले देश में पहुँचा और बोला- ‘ऐ पीले देश के अजगरों! मैंने समुन्दरी अजगरों को ठिकाने लगा दिया। अब तुम्हारी खालों पर मेरा अधिकार है। अपफीम न लेना चाहो तो न सही, पर मेरे पास गोला-बारूद बहुत जमा हो गया है वह तो तुम्हें लेना ही पड़ेगा।’
पुरानी चाल के पीले अजगरों को यह सौदा पसन्द आ गया पर लाल लबादा ओढ़े अजगरों को पसन्द नहीं आया। बस क्या था, अजगरों के दोनों पिफरकों में ठन गई। पीले पिफरके की पीठ पर दोगला मुटल्ला सियार सवार हो गया और लाल पिफरके को भालू का जादू वाला डंडा मिल गया। तमाशा यह हुआ कि मुटल्ला सियार, पीले अजगरों के मुँह में शाम को गोला-बारूद ठूंस देता और वह सुबह लाल अजगरों के हाथ पड़ जाता। लाल लबादे का पफैशन इतना लोकप्रिय हुआ कि शु( पीले अजगरों की संख्या दिन प्रतिदिन कम होती गई और एक दिन पीले अजगरों को पीले सागर के पार एक द्वीप में शरण लेनी पड़ी। मुटल्ले सियार की बड़ी किरकिरी हुई।
लाल अजगरों के लाल देश से घोषणा हुई- ‘हम दुनिया भर के गरीब बेचारों का आह्नान करते हैं। एक नई दुनिया के निर्माण मंे हम हर जगह और हर दशा में उनका साथ देंगे। दुनिया से अब लूट-खसोट का व्यापार बन्द होना चाहिए। हम क्रान्ति के निर्यात में विश्वास नहीं करते, लेकिन कहीं यदि गरीब उठ खड़े होते हैं और क्रान्ति कर देते हैं तो हम जमकर उनका साथ देंगे। दुनिया को सुनने में जैसा भी लगे, लेकिन सत्य यही है कि सत्ता का उदय बन्दूक की नली से होता है। हमने इस सत्य के दर्शन अपनी लम्बी दुर्दशा के बाद किए हैं। हमारी इस बन्दूक के निशाने वे दरिन्दे हैं जो दूसरों की खाल उतार लेते हैं। लूट-खसोट करते हैं और दूसरों का गरम-गरम खून पीकर मोटे होते हैं। हम एक ऐसी दुनिया चाहते हैं जो लूट-खसोट से मुक्त हो, उत्पीड़न, भूख, गरीबी और लाचारी का जहाँ नामोनिशान न हो। हम लुटेरों के उस अमन-चैन के हामी नहीं, जिसमें उन्हें मन-मानी करने की छूट हो। हम सच्चे आर्थों में अमन-चैन चाहते हैं और अपने विशाल पीले आंगन में लाल, पीले, हरे, नीले हर प्रकार के रंग-बिरंगे पूफलों को पूफलने-पफलने की आजादी देते हैं।’
कुछ जानवरों ने कहा- ‘पूरब में एक नये सितारे का उदय हुआ है।’ दीन-दुखियों ने कहा- नई सुबह के नये सूरज का उदय हो गया है।’ उत्तर का लाल भालू तो इतना खुश हुआ कि रात-रात भर नाचता रहा। कुछ दिनों बाद लाल अजगर ने लाल भालू से कहा- ‘भालू भैया, मुटल्ले सियार की अक्ल ठिकाने लगानी है। समुन्दरी अजगरों ने हमें कम नहीं सताया लेकिन वे आखिर अपने ही तो हैं। मुटल्ला सियार उनकी पीठ पर सवार हो गया है। दक्षिण के भूरे अजगरों ने एक जिस्म-पफरोश को भगाया तो यह मुटल्ला वहाँ भी जा धमका है। वह हमें घेरकर भूखों मारना चाहता है।’ भालू ने कहा- ‘प्यारे अजगर, मैं हर दशा में तुम्हारा साथ दूँगा। गोला-बारूद की कमी है तो अभी ले आओ। मैं जरा पश्चिम में पफंसा हुआ हूँ। मुझे भी घेरने का प्रयास हो रहा है। मुटल्ले सियार की चौधराहट से अभी टकराना ठीक नहीं है। तुम उसे कागजी शेर कहते हो लेकिन याद रखो उसके ऐटमी दाँत भी हैं।
अजगर को यह सलाह पसन्द नहीं आई। इसी बीच अपनी सन्तान के अभ्युदय से पुराने महान अजगर की आत्मा सन्तुष्ट हो गई। बड़ी दीवार के नीचे से आवाज आई। ‘शाबाश मेरे बेटो! तुम कोई भी लबादा ओढ़ो लेकिन यह मत भूलो कि तुम महान पीले अजगर की सन्तान हो। अभी तुमको बहुत कुछ करना है। मैंने जिस विशाल पीले देश की स्थापना की, उसका एक बहुत बड़ा भाग अभी भी दूसरों के अधिकार में है। लुटेरे सियार तो कुछ खालें ही ले जाते थे। लेकिन तुम यह नहीं देखते कि वह कल का जंगली भालू तुम्हारे सिर पर बैठा नाच रहा है। वह तुम्हें सीख देता है और तुम नत सिर होकर स्वीकार करते हो। मैंने जब समाधि ली थी तो तुमने क्या वचन दिया था? याद रखो, सीख दुनिया को तुमसे सीखनी है।’
लाल अजगरों के सर्वथा लाल नेता ने कहा- हे महान अब्बाओं के अब्बा! क्या मैं अपना यह लाल लबादा उतार दूँ?’ ‘नहीं ऐसी मूर्खता मत करना।’ -आवाज आई- ‘यह बड़े काम की चीज है। इसके कारण कल की दुनिया को तुमसे कुछ नया कर दिखाने की आशा बंधी रहेगी। मुझे केवल इतना कहना है कि अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए दोस्ती और दुश्मनी का खुलकर प्रयोग करो। राजनीति में न कोई सदा के लिए दोस्त होता है और न दुश्मन। हर हथियार  से अपने को शक्तिशाली बनाओ। सि(ान्त कहीं हवा में नहीं टिकते, उनके लिए मजबूत जमीन की आवश्यकता होती है।’ 

लाल नेता ने सुबह-सुबह आँखे खोली तो लोगों ने देखा कि वह बार-बार लाल लबादे के नीचे अपने पीले शरीर को बड़ी हसरत भरी निगाहों से देख रहा है। उसी समय पूर्वोत्तर में उपद्रव हो गया। मुटल्ले सियार ने वहाँ अपनी सेनाएँ उतार दी। लाल अजगर ने लाल भालू से सलाह की तो वह सीधी सलाह देने में असमर्थ रहा। अजगर ने भालू की दोस्ती और मुटल्ले सियार की शक्ति को एक साथ अजमाने के लिए अपनी सेनाएँ भी वहाँ झोंक दी। भालू दूर से ही गुर्राता रहा। मुटल्ले सियार को पसीना तो आ गया पर अजगर को भी नाकों चने चबवा दिए। उसने एटम बम की धमकी दी तो भालू ने दूर ही से कहा- ‘पीले देश पर बम गिरा तो उसका धुंआ तुम्हारी नई दुनिया में उठेगा।’
सियार ने सोचा-शायद यह सौदा मंहगा पड़ेगा और लड़ाई खत्म हो गई।
उधर पश्चिम के बपर्फीले पठार से आवाज आई- ‘महान लाल अजगर की जय हो! लेकिन हमारी प्रार्थना है कि हमें हमारे हाल पर छोड़ दो। भेड़ों की उफन उतारने का हमारा पुश्तैनी हक बरकरार रहने दो। हमारे दैनिक जीवन में दखल बन्द करो।’
लाल अजगर इस गुस्ताखी को कैसे सहन करता। विरोध का वह स्वर कुचल दिया गया और बपर्फीले पठार का सुनहरा मेढ़ा प्रार्थना-चक्र घुमाता हुआ अपनी जान बचाकर बड़े उफंचे पहाड़ों से नीचे भागा। नीचे बैठे बूढ़े लंगूर ने सोचा अजगर को बीमारी उठे ज्यादा वक्त नहीं हुआ। भालू और अजगर भी भिड़े हुए हैं। मुटल्ला सियार भी ताक में है, मौका अच्छा है बपर्फीले पठार के मेढ़े का इलाका गड़पा जा सकता है। अजगर सब समझता था। अजगर की पूफत्कार सुनाई दी- ‘ऐ नीचे वाले! तुम हमारी सौ भेड़ें उठा ले गए हो, पफौरन वापस करो।’
बूढ़े लंगूर ने कहा- ‘प्यारे अजगर, हम तो धर्म-भाई हैं। भेड़ों की बात है तो सौ के बदले हजार ले लो।’
आवाज आई- ‘भेड़ों की बात नहीं है। वह सुनहरा मेढ़ा कहाँ है?’
लंगूर ने कहा- ‘वह तो हमारी शरण में है। तुम कुछ भी मांग लो, लेकिन शरणागत के साथ धोखा करना हमने नहीं सीखा है।’  ‘और उसके नाम पर तुम दुनिया में हमें बदनाम करते पिफरोगे? तुम्हें सबक सिखाना होगा।’ ‘यह कैसी उल्टी बात करते हो? सबक तो कभी हमने तुम्हें सिखाया था। भगवान तथागत का सन्देश क्या भूल गए?’ यह आवाज चितकबरे चीते की थी।
‘भूला नहीं हूँ प्यारे, उसके जख्म तो अभी तक हरे हैं। तुमने हमारी जाति को निष्क्रिय और कायर बनाया। तलवार की जगह प्रार्थना-चक्र थमवाया और इस तरह लुटेरों से ही नुचवाया!’
‘लुटेरों ने तो हमें भी नोचा-खसोटा है। हम में तो आपसी सद्भाव और सहयोग होना चाहिए।’
‘अपने सद्भाव और सहयोग को अपने पास रख। एक बार तुम्हारा बात मानी तो आज तक भुगत रहे हैं। अपने को दुनिया से बहुत उफपर समझते हो। तुम्हारे पर कुतरने होंगे। बताओ इन बड़े उफँचे पहाड़ों पर यह सपफेदी कैसी है?’
‘बपर्फ की सपफेदी है भाई। बपर्फ सपफेद नहीं तो क्या पीली या लाल होगी?’
‘हमारे पुराने दस्तावेजों में लिखा है कि ये पहाड़ पीले थे। जरूर सपफेदी सपफेद लुटेरों ने पोती होगी। लुटेरे सियारों ने जो पाप किया तुम उसे बनाए रखने की हिमाकत करोगे?’
‘ये तो इतिहास की उलझी हुई बातें हैं। क्यों गड़े मुर्दे उखाड़कर सड़ान्ध पफैलाते हो? पिफर भी बातचीत के लिए हम तैयार हैं।’
‘ठीक है पफौरन शुरू करो।’
‘आप अपना दावा पेश करें।’
‘कह तो दिया ये पीले पहाड़ हैं और जो पीले हैं वे हमारे हैं।’
‘लेकिन पहाड़ तो सपफेद हैं। कौन अन्धा है जो इन्हें पीला कहेगा?’
‘तूने मुझे अन्धा कहा। वार्ता के अपने प्रस्ताव को अपनी जेब में रख। ठोढ़ी पर हाथ रख कर शान्ति के बहुत कबूतर उड़ा चुके, अब अपनी उड़ती हुई खोपड़ी देख।’ -अजगर ने गुस्से में कहा और उसकी आंखों से चिनगारियां बरसने लगी। मुँह से आग उगलता हुआ वह बड़े पहाड़ों से नीचे सरकने लगा। लंगूर और बन्दर आदि उस आग में झुलसने लगे। उतर के भालू ने इसे अजगर की नासमझी बताया। जब तक लंगूरों, बन्दरों और चीतों का देश संभलता, अजगर ने अचानक घोषणा कर दी कि वह सबक सिखा चुका है और अब वह बड़े उफंचे पहाड़ों से पीछे खिसक रहा है। उसने सचमुच पूंछ मुँह में डाली और कुछ पीछे हट गया। पिफर भी वह कुछ भूमि पर कुंडली मार कर बैठ गया। बूढ़े लंगूर ने माथा पीट लिया।
दक्षिण में भूरा अजगर मुटल्ले सियार से जूझ रहा था। लाल अजगर उसकी मदद तो कर रहा था लेकिन दिल से चाहता था कि उत्तर का भालू सीधे उलझ जाए तो मजा आ जाए। इसी समय मुटल्ले सियार के दरवाजे के पास एक गन्ने के खेत का मामला उलझ गया। सियार का कहना था कि गन्ने के खेत के लाल मच्छर उसकी माद में घुसकर उसे तंग करने की सोच रहे हैं। इनके कान उमेठना मेरे अधिकार में है। बस क्या था अजगर ने भालू को जा पकड़ा बोला- ‘भालू भैया, तुमने यूरोप के खूंखार भेडि़ए को सबक सिखाया था न?’
‘तुम कहना क्या चाहते हो?’ भालू मुस्कराया।
‘कुछ वैसा ही सबक इस मुटल्ले सियार को क्यों नहीं सिखाते?’
‘तुम समझते क्यों नहीं? मैं ऐसी गलती नहीं कर सकता जैसी तुम कर बैठे हो। बताओ उन उफँचे बड़े पहाड़ों पर उलझने की क्या आवश्यकता थी?’
‘यह तुम नहीं समझ सकते भालू भैया।  मैं जिस महान परम्परा का उत्तराधिकारी हूँ, उसका दर्द तुम क्या जानो? जरा पीछे तो हटना, मेरी सांस घुट रही है।’
‘क्या?’ भालू अवाक् रह गया।
‘यहाँ तो तुम इंच भर पीछे नहीं हटना चाहते और वहाँ पहुँच गए तो भीतर घुसकर मुटल्ले की कब्र क्यों नहीं खोद डालते?’
‘मुटल्ले ने अगर पूरे खेत को ध्वस्त कर डाला तो?’
‘अरे वह गीदड़-भभकी है। तुम साहस तो करो। इधर मैं देख लूँगा।’
‘अपनी सीख तुम अपनी जेब में रहने दो। -भालू बड़बड़ाया- यह कोई नहर का मामला नहीं हैं। मैं जानता हूँ मुटल्ले के पास कितनी शक्ति है’
‘तो मैं समझ गया। तुम दूसरे के कन्धे पर बन्दूक रखकर भले चला लो, लेकिन स्वयं सामने नहीं आओगे। अपने को भलामानुष कहलवाना चाहते हो और हम पर दुस्साहस का आरोप मढ़ते हो। तभी तो मुटल्ले को रोज दावत पर बुलाते हो और स्वयं उसकी जूठी पत्तले चाटने पहुँच जाते हो। मैं मुटल्ले से जा टकराया तो तुम दूर से गुर्राते रहे। मेरा सुनहरा मेढ़ा भाग निकला तो तुमने कहा- जल्दबाजी की क्या जरूरत थी? जरा उसकी भी सुन लेते। मैं उफँचे पहाड़ों पर पफंस गया तो तुमने उसे नासमझी करार दिया। उफपर से दुनिया भर में ढोल पीटते हो कि तुमने मेरे लिए यह किया, वह किया। तुमने सड़ा-गला और घुना अनाज देकर मेरा स्वास्थ्य चौपट किया। पुराना गोला-बारुद देकर मेरी बन्दूक की नालियों को बेकार कर दिया और बेकार पुरानी मशीनें मेरे मत्थे मढ़ी है। तुम मुझे अपना जर-खरीद गुलाम समझ बैठे हो।’
अजगर को गुस्से में देखकर भालू ने कहा- ‘इस समय तुम आपे में नहीं हो, अगली बार मिलोगे तो बात करूँगा।’ -और वह उठकर चला गया। पीले देश से लाल घोषणा हुई। ऐ दुनिया के लाल भाइयों! यह सुनकर तुम्हें दुःख होगा कि मार्क्स का पढ़ा-पढ़ाया और लेनिन का सिखा-सिखाया महान लाल भालू मर गया है। उसकी जगह सपफेद भालू ने अधिकार कर लिया है और लाल लबादा ओढ़कर वह दुनिया को धोखा दे रहा है। वह सौदागर सियारों की जूतियाँ चाटता पिफरता है। आसमान में करामातें दिखा सकता है लेकिन दुनिया के मजलूमों को एक छदाम भी नहीं दे सकता। मार्क्स और लेनिन के सि(ान्त खतरे में हैं। इस नये खतरे के विरू( एकजुट हो जाओ।
इस घोषणा से लाल दुनिया में बड़ी खलबली मची। लालों में लाल, लाल अजगर की लाल किताबें लेकर जहाँ-जहाँ गलियों में चीखने-चिल्लाने लगे। लुटेरे सियार यह तमाशा देखकर मुस्कराने लगे। पिफर बम के धड़ाके और उसके काले-पीले धुँए के साथ दूसरी घोषणा हुई- ‘ऐ दुनिया वालो! यह कितना बड़ा अन्याय है कि मुट्ठी भर भालू मेरे विशाल क्षेत्रा पर पाँव पसारे बैठे हैं और जगह की कमी के कारण मेरा दम घुट रहा है। दुनिया के इस नये चौधरी को सबक सिखाना है तो मेरी मदद करो। ‘सुना, तो लुटेरे सौदागरों की बांछे खिल गईं। उन्होंने पीले देश के भीतर झांकना शुरू कर दिया।
इधर भूरे अजगर ने मुटल्ले सियार को पीटकर रख दिया वह बोरिया-बिस्तर बाँधकर भागा तो छोटे-मोटे अजगरों ने भी अपने स्वतंत्रा अस्तित्व की घोषणा कर दी। लाल लबादा ओढ़े अजगर भूरे अजगरों के पास पहुँचा और बोला- ‘हम अजगर हैं।’
‘वह तो हम हैं ही।’ -भूरे अजगर एक स्वर में बोले।
‘भालू हमारी जाति का नहीं है।’
तीनों अजगर चुप।
‘बोलते क्यों नहीं? क्या तुम्हें सांप सूंघ गया है?’ उसने पुफंपफकार छोड़ी।
‘सांप तो हमें क्या सूंघेगा पर भालू जरूर सूंघ गया है। क्या हमारी मदद करोगे?’
‘शाबास! अपना खून पिफर भी अपना ही होता है।’ पिफर उसने बड़े भूरे अजगर से कहा-
‘तुम क्या कहते हो?’ उसने तीसरे से पूछा।
‘मैं सोचकर जवाब दूंगा।’ तीसरे ने कहा।
अब उसने बड़े भूरे अजगर को आड़े हाथों लेना आरम्भ किया- ‘तुम महान अजगर की औलाद होकर भी उस नाचीज भालू की गुलामी करोगे? भालू के भौंडे नाच के लिए अपनी ही जाति से द्रोह करोगे? मैंने जो एहसान तुम पर किए हैं उनका यह बदला चुकाओगे?’
‘एहसान का शुक्रिया बड़े भाई, पर पहले उन द्वीपों को तो खाली करो, जिन पर तुम कुंडली मारकर बैठे हो। तुम पर भी तो किसी का एहसान है यह क्यों भूल जाते हो?’ ‘मुझ पर किसी का एहसान नहीं है, उल्टे भालू ने मेरी जमीन दाब रखी है। मैं उसको भी सबक सिखाउफंगा और तुमको सबक सिखाना तो मेरा पुश्तैनी अधिकार है। तुम समझते क्या हो? मुटल्ले सियार को पीट दिया तो खुद को बड़ा तीसमारखां समझने लगे हो। तुम्हारी अकड़ न निकाल दी तो उस महान अजगर की सन्तान नहीं। हां, इस समय तो मैं जा रहा हूँ लेकिन मेरी बात पर गौर करना। अगर अक्ल लौट आए तो जवाब भेज देना।’ -उसने कहा और छोटे भूरे अजगर के कन्धे पर हाथ रखकर एक ओर चल दिया। रास्ते में उसने छोटे अजगर को समझाया- ‘तुम कुछ ऐसा करो कि इन दोनों भूरे अजगरों से अधिक क्रान्तिकारी लगो। शहर की आबादी गाँवों  में और गाँवों की आबादी शहरों में ले जाओ तो कैसा रहे? हमने भी सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान कुछ ऐसा सोचा था लेकिन पूरा नहीं कर सके। मैं चाहता हूँ कि तुम इस क्रान्तिकारी कदम को अपने यहाँ चरितार्थ करो। हाँ, एक बात और हैं तुम्हारे इस बड़े पड़ोसी को गन्दे भालू के संसर्ग में खुजली हो गई है। यदा-कदा उसकी खुजली का इलाज भी कर लिया करो। घुड़कियाँ देगा तो डरना मत। मैं उसी के इलाज का प्रबन्ध करने वापस जा रहा हूँ।’
पीले देश पहुँचने पर उसने बड़े भूरे अजगर के विरू( बयान पर बयान देने आरम्भ कर दिए- ‘ऐ दुनिया वालो! सुनो, बड़े भूरे अजगर का दिमाग चल गया है। भालू की शह पाकर वह अपने यहाँ के निहायत पीले अजगरों को निकाल बाहर कर रहा है। मेरी सीमाओं पर भी छेड़खानी कर रहा है। पड़ोसी छोटे भूरे अजगर को धमकियां दे रहा है। मैं भालू से कह रहा हूँ कि वह मेरे कुनबाई इलके में दखल न करें पर वह भूरे अजगर को और भी उकसा रहा है। भूरे अजगर को तो मैं सबक सिखाकर रहूँगा, पर भालू की नाक में नकेल डालने में मेरी मदद करो।’
अजगरी सबक ;4द्ध
मुटल्ले सियार ने अजगर के बयान पढ़े तो उसने अजगर को अपने यहाँ आने का निमंत्राण दे डाला। अजगर दूसरे ही क्षण वहाँ जा पहुँचा। मुटल्ले ने बड़ी गर्म-जोशी से अजगर का स्वागत किया। उसने कहा- हे महान पीले देश के महान अजगर! आज आपको अपने बीच पाकर हम कितने गौरवान्वित हुए हैं कितनी प्रसन्नता हुई है हमको यह हमारे हृदय से पूछो। भाई हम जानते थे कि आप जैसे महान परम्परा के उत्तराधिकारी एक दिन यथार्थ को समझकर सही निर्णय पर पहुँचोगे और हमारे साथ मिलकर एक ऐसी दुनिया के निर्माण में सहयोग करोगे, जहाँ सबको खुलकर सांस लेने का स्वतंत्राता होगी, जहाँ किसी के बोलने, खाने-पीने और कोई भी काम करने पर किसी प्रकार का अंकुश नहीं होगा।’
अजगर ने आँखें मिचमिचाकर मुस्कराते हुए कहा- ‘यही आशा लेकर मैं आपके पास आया हूँ। इतने दिनों तक भालू के भौंडे नाच में जो समय गंवाया, उसका मुझे कितना दुःख है वह मेरे दिल से पूछो। मैंने भालू को जिस निकटता से देखा है और उसका जो-जो अनुभव मुझे हुआ है, वहीं मैं आप लोगों को बताना चाहूँगा। वह कल का जंगली आज दुनिया का चौधरी बनना चाहता है। बात करने का तो शउफर नहीं, मुँह से भयानक दुर्गन्ध निकलती है और एक नई भौंडी दुनिया बसाने चला है। मैं चाहता हूँ कि हम मिलकर उसकी नाक में नकेल डाल दें। हर जगह उसे टांग अड़ाने की आदत पड़ गई है। एक बार मिलकर पटक दें तो छुट्टी हो।’
‘आप पहल तो करें। हम आपके साथ हैं लेकिन कल तक तो आप हमें पानी पी-पीकर कोसते थे। भूरे अजगर के हाथों हमारी जो दुर्दशा हुई, उसे भूल पाना तो सहज नहीं है।’
सियार ने शिकायत की।
‘अब किस मँुह से अपना हाल कहँू। भाई, यहाँ भी होम करते हाथ जल गए। बड़े मियां तो बड़े मियां, छोटे मियां सुभानल्ला। उधर से भालू गुर्रा रहा है तो नीचे से नमक हराम भूरा अजगर आँखें दिखा रहा है। लेकिन आप चिन्ता न करें भूरे अजगर की खाल उतारकर अगर आपको भेंट न की तो तब कहना।’ -अजगर ने कहा।
‘लेकिन कहीं भालू चढ़ दौड़ा तो?’
‘तो मैं यहाँ क्यों आया हूँ?’
‘यह तो आपने अच्छा किया। लेकिन हमारा सीधे टकराना शायद दुनिया के हित में न हो। भालू बदशक्ल को, बदशउफर हो पर ताकत तो गजब की रखता है।’
‘मैं यह कब कहता हूँ कि आप सीधे भालू से भिड़ पड़े। आप जरा उंगली भर उठा दें, बस इतना की कापफी है। मैं जानता हूँ कि वह आपसे कितना डरता है। मैं निश्चिन्त हो कर भूरे अजगर को सबक सिखा सकूं, क्या आप यह नहीं चाहते?’
‘चाहता तो हूँ भाई, पर कोई बड़ी मुसीबत मोल न ले लेना।’
‘प्रसन्नता है कि आपको मेरा योजना स्वीकार है। हाँ, एक बात और है। मैं वापस जाउफँगा तो लोग पूछेंगे और क्या-क्या लाए। आप ऐसा करें कि हमारे राजा की जो सुनहरी खाल आपके म्यूजियम में पड़ी है, उसे वापस कर दें। उस खाल को देकर जो बहुत लाल है। वे सुनहरे हो जाएंगे और जो सुनहरे हो चुके हैं वे पुराने पीले रंग में आ जाएगे। इससे मेरा काम और भी सरल हो जाएगा।’
‘और भी कुछ चाहिए आपको?’
‘हाँ, आपने पीले सागर को द्वीपों में जो पीले अजगर पाल रखे हैं, उनकी चिन्ता से अब अपने को मुक्त समझे। हम उन्हें कोई कष्ट नहीं होने देंगे। आखिर वे हमारे अपने ही भाई तो हैं।
‘गोला-बारूद और हथियारों की बात तो आपने बिल्कुल ही छोड़ दी। भाई, हम तो सौदागर हैं। कुछ लाभ भी तो हो।’
‘यह कोई कहने की बात है। उतनी दूर से क्या मैं केवल कोरी बातें करने आया हूँ? हाँ, जरा यूरेनियम की अच्छी किस्म की भी जरूरत पड़ेगी। भालू एटम बम से बहुत घबराता हैं।’
इस खुली और खरी बातचीत से दोनों पक्ष बड़े सन्तुष्ट हुए। अजगर ने लाल लबादा उतारा और तह करके कन्धे पर डालते हुए कहा- ‘अब इस बेकार के बोझ को शरीर पर लादे-लादे पिफरना अच्छा नहीं लगता।’ पिफर एक क्षण सोचकर कहा- ‘लेकिन एकदम उतार पफेंकना भी अच्छा नहीं होगा। चलो, आज से कन्धे पर ही रहेगा।’ वह जाने लगा तो मुटल्ले सियार ने पिफर पूछ लिया- ‘अगर भालू चढ़ दौड़ा तो?’
‘तो भी कोई चिन्ता नहीं। उसके पास आखिर कितनी गोलियाँ होंगी? अजगरों की लहर पर लहर जब आगे बढ़ेगी तो वह कितनों को मार पाएगा? मैं जानता हूँ कि वह भूरे अजगर को गोला-बारूद देकर बयानबाजी तक सीमित रहेगा। जब तक उसका गोला-बारूद भूरे अजगरों तक पहुँचेगा। तक तक तो मैं उनकी खाल उतारकर वापस भी हो जाउफँगा।’
अजगर की रणनीति से मुटल्ला सियार बिल्कुल सन्तुष्ट जान पड़ा। लाल लबादे को कन्धे पर डालकर अजगर उन सभी देशों में गया जो भालू से नपफरत करते थे। अपने देश पहुँचते-पहुँचते वह उफँचे बड़े पहाड़ों के नीचे वाले चीते को भी न्यौता देता गया कि वह आए और पुराने झगड़े की सुलह-सपफाई कर ले। लोगों ने सोचा कि शायद बाहर घूमने से अजगर को अक्ल आ गई है। घर पहुँचते ही उसने छोटे भूरे अजगर ही पीठ थपथपाई जिसने बदले में बड़े भूरे अजगर की चिकौटी काट ली। तैश में आकर बड़ा बूरा अजगर सीधे अन्दर पहुँच गया और एक ऐसी सरकार कायम कर दी जो गाँव वालों को गाँवों में और शहरियों को शहरों में लौटा लेने की प्रतिक्रियावादी बात करने लगी। बस पिफर क्या था पीले देश से एक और बयान निकला- ‘दुनिया के लोगों! भूरे अजगर ने मेरी सीमाओं का अतिक्रमण किया है। उसने मेरी कई सौ भेड़ें और बकरियाँ हजम कर डाली हैं। मेरे सब्र का बाँध टूट रहा है।  इस भूरे अजगर को समझाओ। पिफर मुझे न कहना कि मैंने गलत किया है। भालू से कह दो कि वह हमारे बीच न पड़े।’
दूसरी सुबह वह मैत्राी-द्वार के बुर्ज पर आ बैठा। वहीं से बोला- ‘अबे, ओ नमक हराम! यह मेरी ओर मैला किसने किया हैं?’
भूरे अजगर ने बहुत नीचे से कहा- ‘मैं क्या जानंू? मैंने तो बहुत दिन हुए इधर आना ही छोड़ दिया है।’
अजगर ने कहा- ‘तूने नहीं किया तो उस बदतमीज भालू ने किया होगा जो तेरे घर घरजवांई बनकर बैठा है। अब तो तुझे सबक सिखाना ही पड़ेगा।’
यह कहकर उसने ताली बजाई और बेशुमार अजगरी लश्कर भूरे अजगरी देश की उत्तरी सीमा पर छा गई। दुनिया में बड़ा शोर-शराबा मचा। मुटल्ले सियार ने कहा कि यह सब गलत है लेकिन भूरे अजगर को भी छोटे अजगर को सबक सिखाने की हिम्मत क्यों पड़ी? चीता जो सुलह-सपफाई के लिए पहुँच चुका था। बीच ही में नाराज होकर लौट आया। दुनिया भर के लाल एक स्वर में भर्त्सना करने लगे तो अजगर ने बड़े संजीदा स्वर में कहा- ‘मुझे गलत समझा जा रहा है। मैं भालू की तरह किसी की जमीन दाब कर बैठने वाला नहीं हूँ पर अपने छोटे भाई के कान उमेठने का अधिकार मैं नहीं छोड़ सकता। उसकी जमीन का लालच मुझे हो तो तब कहना। मैं तो उसकी गुस्ताखी की हल्की सी सजा देना चाहता हूँ। जिस दिन यह काम पूरा हुआ मैं लौट जाउफँगा।’
भालू सचुमच बयानबाजी से आगे नहीं बढ़ा। उसके हथियारों से लैस होकर ज्यों ही भूरे अजगर ने जवाबी कार्यवाही की और भालू ने भी लीक से हटकर कुछ कड़ी चेतावनी दी तो अजगर ने घोषणा कर दी कि वह सबक सिखा चुका है और पीछे लौट रहा है।
अजगरी सबक ;5द्ध
बड़ा भूरा अजगर छोटे भूरे अजगर के घर से बाहर नहीं निकला तो नहीं निकला। महान अजगर की संतान अपनी इस असपफलता से इतनी बौखला गई कि उसने दोगले मुटल्ले सियार की दुम से चिपकने का अब पूरा पफैसला कर लिया। मुटल्ले सियार को कब से शिकायत थी कि क्यूबा के लाल मच्छर अप्रफीका के जंगलों में भी भयानक लाल रोग पफैला रहे है तो अजगर ने भी छींकना आरम्भ कर दिया। उसका छींकना था कि अशुभ घटा। सौदागर सियार ने हैरान देश के रेगिस्तान में हथियारों के बल पर जो अजूबा खड़ा किया था वह ढह गया। उसके सबसे विश्वसनीय दोस्त को दपफन के लिए दो गज जमीन तक मयस्सर नहीं हुई। उफपर से बड़े मुल्ला की भेड़ें चिल्लाने लगीं कि हमारे आर्य मेढ़े को हमें सौंपो। उसकी नरम-नरम सपफेद उफन से हम अपने बड़े मुल्ला का चोगा तैयार करेंगे। वे बूढ़े हैं और उन्हें ठण्ड भी बहुत सताती है। जब तक हमारा मेढ़ा नहीं मिलेगा, हम तुम्हारी बकरियाँ नहीं छोड़ेंगे।’
सियार ने अजगर को जा पकड़ा- ‘कॉमरेड, अब क्या होगा?’
अजगर- ‘चिन्ता क्यों करते हो? उधर पिरामिडों का भूत है तो इधर महान दीवार की यह महान आत्मा है। हाँ, इस समय तुम्हें जलवायु-परिवर्तन की आवश्यकता है। क्यों न हम तुम दुनिया की छत पर स्केटिंग का आनन्द लें। मन बहलाव भी होगा और भालू की हरकतों पर नजर भी रख सकेंगे। मैंने तो पहले ही वहाँ तक पहुँचने का रास्ता भी तैयार कर लिया है। यह भी देखने का अवसर मिल जाएगा कि बड़े मुल्ला के लबादे के भीतर कहीं भालू तो नहीं छिपा है।
दोनों मटरगश्ती करते हुए उधर बढ़े तो भालू की गुर्राहट से चौंक उठे। भालू वहाँ की नरम-नरम बपर्फ पर पैर पसारे बैठा था। दोनों ने हड़बड़ी में खैबर के दर्रें को पार किया और उल्टे पैरों उल्टाबाद लौटकर राहत की सांस ली। काबुल के सूखे मेवे और पामीर के शु( शहद के हाथ से निकल जाने से सियार को इतनी निराशा हुई कि उसके भीतर अध्यात्म सुगबुगाने लगा। उल्टाबाद की आबो-हवा में उसे इस्लाम के उफपर मंडराते खतरे का अहसास हुआ और उसने घोषणा कर दी कि आज से वह इस्लाम का पैगम्बर है। वहाँ के लोमड़ सिपहसालार की पीठ ठोंकते हुए उसने कहा- ‘भालू, दुनिया की छत पर आ गया है।’
लोमड़- ‘आ गया होगा।’
सियार- ‘आ गया होगा, नहीं, आ गया है। मैं इस्लाम का पैगम्बर हूँ और तुम इस्लाम के सेवक हो। मैं जो कहता हूँ वह तुम्हारे लिए खुदाई हुक्म है।’
लोमड़- ‘मेरे आका, बहुत पहले भी आपने मंूगपफलियां भेजी थी। वे इतनी सड़ी गली और घुनी निकली’ कि हमारे बहादुरों का पेट चल गया। हम बंगाल की खाड़ी में डूबते-डूबते बचे। पिफर उधर बड़े मुल्ला कहते हैं कि आप इस्लाम के दुश्मन हैं। आपने ही वह सांड खुला छोड़ रखा है जो जब तब सींग मार-मारकर हमारे भाइयों को लहू-लुहान कर देता है।’
‘क्या पुराना रोना लेकर बैठे हो?’ सियार ने डांटा- ‘अबकी बार ऐसी करारी मूंगपफलियाँ भेजूँगा कि दाँत बाहर निकल आए। और वह मुल्ला-शैतान की औलाद है। मुझे तो वह भालू का एजेण्ट लगता है। सांड तो मैंने जान-बूझकर छोड़ा है। उसे न छोड़ता तो तुम्हारे मुर्दा दिलों में हरकत कहाँ से आती? यह सब मुझे इस्लाम की खिदमत के लिए ही तो करना पड़ रहा है। अब तो इस्लाम की खिदमत में ये भी हमारा साथ देंगे। इस्लाम की राह पर चलना है तो इनसे सीखें।’
अजगर मुस्करा रहा था।
लोमड़- ‘इनकी लीचियों से तो चेहरे की रौनक है। लेकिन कहीं वियतनाम’ ‘लाहौल-बिला-कूवत, किस गन्दी चीज का नाम ले लिया। जरा भेजे से तो काम लो। तब ये हमारे साथ कहाँ थे? तुम साहस तो करो, मैदान हमारे हाथ होगा।’
अब अजगर की बारी थी। बोला- ‘सही कहते हैं। भालू आज दुनिया की छत पर तो कल तुम्हारी छत पर होगा। इसलिए तुम्हारी छत के नीचे बारूद का ढेर जमा करना आवश्यक हो गया है। भालू के आने पर तुम्हें स्वयं पलीता दिखाना होगा। भालू उस विस्पफोट में खत्म हो जाएगा और उसकी चौधराहट से दुनिया को मुक्ति मिल जाएगी।’ ‘लेकिन मेरे घर का क्या होगा? ‘सिपहसालार लोमड़ ने आशंका प्रकट की।
-बड़े इस्लाम के सेवक बनते हो, क्या इतनी भी कुर्बानी नहीं दे सकते?’ पैगम्बर सियार ने कहा।
सिपहसालार चुप।
अजगर पुफसपुफसाया- ‘प्यारे भाई, चिन्ता मत करो। मेरे पश्चिमोत्तर में कुछ तुम जैसे लोग हैं, जिन्हें मेरा चलन पसन्द नहीं है। मैं  उन्हें और दूसरे बेशुमार अजगर-अजगरनियों को भेज कर तुम्हारे नुकसान को पूरा कर दूँगा। इस्लाम की सेवा में कोड़े मारना आवश्यक हो तो कोड़े मार-मार कर अपनी हसरत पूरी कर लेना। मैंने कारगिल की पहाडि़यों खोदी हैं तो पफारस की खाड़ी में इनका लश्कर मौजूद रहेगा। तुम्हें डरने की क्या आवश्यकता?’ ‘हाँ, अच्छी याद दिलाई। पफारस की खाड़ी- वह तो मेरी जीवन-रेखा है। मेरी शिराएँ वहीं से होकर गुजरती हैं। जब से भालू ने लाल लबादा बोढ़ा मैंने अपनी शिराओं का खून निकाल बाहर किया, क्योंकि उसका रंग भी लाल था। मुझे उस हर चीज से नपफरत है जो लाल है। मेरी शिराओं में अब तेल बहता है तेल। और वह तेल मुझे पफारस की खाड़ी से होकर ही मिलता है। मैं भालू से खुले आम कहता हूँ कि पफारस की खाड़ी मेरी जागीर है। जो भी उधर मुँह करेगा, उसका मुँह तोड़ दिया जाएगा। मुझे यूरोप के उन सियारों में न गिने, जो उसकी एक धमकी सुनकर मैदान छोड़ गए थे। मैं लाल सागर को भी मृत सागर में बदल डालूँगा। पफारस की खाड़ी की क्या, जो भी जगह मुझे पसन्द आ जाए, वह मेरी जागीर है। साइबेरिया के गन्दे जंगल मुझे पसन्द नहीं है। अच्छा हो कि भालू अपनी उस मांद से बाहर निकलने का दुस्साहस न करें। क्यों अजगर भैया, पशु-अधिकारों की रक्षा के लिए क्या यह आवश्यक नहीं है?’
अजगर ने लाल लबादा, उलटकर अपने पीले शरीर की रंगत दिखाई और छोटी सी आँखें मिचमिचाकर कहा- ‘बजा पफरमाते हैं। अब मेरी समझ में आया कि ग्वान्टेमानो, डिएगो गार्सिया और ओकीनावा के अड्डे क्यों जरूरी है? क्यों न एक अड्डा यहीं स्थापित कर लो?’
सिपहसालार लोमड़ बोला- ‘कुछ मेरी भी तो सुनो। इस्लाम की हिपफाजत के लिए एटम बम बहुत जरूरी है।’
सियार-‘अरे, वह तो हम यों ही नजर कर देंगे। तुम बनाने की जहमत क्यों मोल लो?’ लोमड़-‘पिफर वादी-ए-कश्मीर का सवाल है। जमीं पर जन्नत का नजारा और उसे मेरे पड़ोसी की गायें चर रही है। उनके गोबर की बदबू क्या आपके नथुनों तक नहीं पहुँचती?’ अजगर- ‘भाई, हर समस्या को एक साथ हल करने की कोशिश करोगे तो मुश्किल पड़ेगी। तुम्हारे पड़ोसी की एक करारा झटका तो मैं पहले की लगा चुका हूँ। पहले भालू से तो निपट लें, पिफर ऐसा सबक सिखाएगी कि पानी न माँग सके। पिफर तुम वादी-ए-कश्मीर मंे घुसो या सीधे लाल किले में जश्न मनाओ।’
सिपहसालार लोमड़ की जीभ में पानी भर आया। प्रसन्न होकर बोला-
‘तो मुझे क्या करना होगा?’
सियार- ‘कुछ विशेष नहीं, बस हम जो गोला-बारूद, तुम्हें भेजे, तुम उसे पामीर की भगोड़ी भेड़ों की दुम में बाँध देना और उन्हें पामीर की तरपफ हांकते रहना। वे वहाँ जाकर भालू की मांद में विस्पफोट करेंगी और हमारा काम बन जाएगा। भालू नाराज होकर तुम्हारे पाक वतन को नापाक करने की कोशिश करेगा तो हम तीनों मिलकर  उसे यहाँ घेर लेंगे और पिफर यकीनी पफतह समझो। हम तीन ही क्या इंग्लैण्ड के बुल डॉग और दुनिया भर के गि(, उल्लू, चील और शुतुरमुर्ग हमारे साथ हैं। सबकी यहीं इच्छा है कि मैं दुनिया के थानेदार की जिम्मेदार सम्भालूं। क्यों अजगर भैया, तुम्हें कोई एतराज तो नहीं?’
अजगर- ‘बिल्कुल भी नहीं। अगर आपको डण्डा सम्भालने में तकलीपफ होती हो तो मेरे हाथ में दे दें। मैं भालू की खोपड़ी का कचूमर न निकालू दूँ तो कहना। मार-मार कर उसे साइबेरिया के भी पार भगा दूँगा। आप जानते हैं कि वे जंगल तो मेरे थे। भालू को सबक सिखाने का मौका अब मुझे दें।’
सियार- ‘तो ठीक है, हम सब उसे घेरने की योजना तैयार करें और एक हल्ले में उसकी चौधराहट का शीराजा बिखेर दें।’
बस पफैसला हो गया। तीनों ने एक दूसरे की पीठ थपथपाई और अजगर लाल से पीला होकर कारगिल के रास्ते अपने घर को लौट गया।
तब से ह्वांग-हो में न जाने कितना पानी बह गया। उत्तर का लाल भालू दुनिया की छत पर टिक नहीं पाया और थक-हारकर एक दिन वापस चला गया। शान्ति का मसीहा बनने के चक्कर में ऐसा पफंसा कि वाहवाही के साथ अपनी तबाही भी मोल ले बैठा। लाल भालू की मांद पर सपफेद भालुओं ने अधिकार कर लिया। आजादी के नाम पर एक शक्तिशाली राष्ट्र को छिन्न-भिन्न कर दिया गया। सपफेद भालुओं का कहना है कि जीने के लिए रोटी नहीं, मुनापफा कमाने की आजादी ही असली आजादी चाहिए। रोटी तो भीख मांगकर भी जुटाई जा सकती है और आज उनके हाथ में भीख का कटोरा देखकर बड़ी हैरत होती है। मजदूरों और किसानों को उनका हक मिले या न मिले, लेकिन बटमारों लुटेरों और हत्यारों को खुले आम कुछ भी करने की आजादी है। और लाल भालू हैं कि अपने जख्म चाटने से ही पुफरसत नहीं है।
मुटल्ले सियार की धड़ल्ले से चल रही है। उसके साथ हुआ-हुआ करने वाले भी कम नहीं है। उसका कहना है कि वह जहाँ चाहे अपनी पफौजें उतार सकता है और जिसकी नाक में चाहे नकेल डाल सकता है। इसके लिए उसे किसी की इजाजत लेने की आवश्यकता नहीं है। दजला-पफरात की एक मछली ने बगावत कर दी तो मुहल्ला अपने जी-जुजूरों के साथ वहाँ पहुँच गया। इधर उसे इलहाम होने लगा कि अब इस्लाम एक खतरा बन गया है। इसलिए उस मछली और उस जैसे दूसरों के पास हथियार नहीं होने चाहिए। कब्रें तक खोद डाली गई पर हथियार नहीं मिले। कहता है- पेट चीरकर देखो, वहाँ छिपाए होंगे। उसका यह भी कहना है कि विनाशकारी हथियारों का जो तजुर्बा उसे है। वह बहुतों को नहीं है। इसलिए ऐसे हथियार उसी के पास रहने चाहिए। दूसरों को जब जरूरत पड़े, उसका दरवाजा खटखटाएँ और वह मुहैया कर देगा। उपदेश देने में भी वह उस्ताद हो गया है। लेकिन जिन्हें उस पर विश्वास नहीं, वे हथियार बनाने की अपनी आजादी गिरवी रखना मंजूर नहीं कर रहे हैं। उसकी चौधराहट से घबराकर हमने अजगर को जा पकड़ा और विनती की- ‘हे लालों में लाल! यह क्या हो रहा है? तुम भी उसका सथ दे रहे हो। लाल भालू की दशा पर क्या सचमुच तुम्हें कोई दुःख नहीं है?’
वह बोला- ‘हमने तो बहुत पहले ही समझ लिया था कि भालू नाम के लिए ही लाल रह गया है। वह तो रास्ते से कब का भटक गया था। उसका जो हाल हुआ वह तो होना ही था।
हमने कहा- ‘लेकिन इससे लालें की दुनिया में जो पस्त-हिम्मती पैदा हो गई है, उसके लिए आप कुछ करते क्यों नहीं। आप तो उसी की हाँ में हाँ मिलाते जा रहे हैं।’ उसने समझाया- ‘समझने की कोशिश करो। सीधे टकराने का अर्थ जानते हो? हमने दुनिया में जितना उफँच-नीच देखा है, परसों का मुटल्ला क्या जाने? अभी सीधे विरोध मोल लेना ठीक नहीं है। समय आने दो, सबक सिखाया जाएगा।’
और हम चुप हो गए।
इस अजगरी उठा-पटक और टेढ़ी चाल को न समझ पाने के कारण लोग हमसे पूछते हैं- कहिए, आपके उस उगते सितारे का क्या हुआ? हम कहते हैं- ‘आजकल महान अजगरी परम्परा की बदली में छिप गया है।’ वे कहते हैं- ‘नयी सुबह के नये सूरज का क्या हुआ?’ हम कहते हैं- ‘उसे सबक सिखाने का ग्रहण लग गया है।’ पिफर हम कहते हैं- ‘भाई, कभी-कभी सीधे सपाट रास्ते पर भी भूल से पैर इधर-उधर बहक जाते हैं। आगे-आगे देख्एि होता है क्या?’
वे तपाक से कहते हैं- ‘अमां यार, अजदहा तो अजदहा है, लाल-पीला  होता है क्या?’ 