उत्तराखंड के शोधार्थियों के लिए जरूरी किताब
डॉ. शोभा राम शर्मा
उत्तराखंड की वर्तमान आधुनिक प्रशासनिक प्रणाली के पीछे निश्चित रूप से अंग्रेज प्रशासकों का हाथ रहा है। उत्तराखंड यानी गढ़वाल और कुमाऊं अंग्रेजों से पहले यहां के राजाआे और फिर गोरखा सामंती तंत्र की अराजकता की गर्त में रहा। अंग्रेजों के ही प्रयासों से उत्तराखंड में पहली बार तार्किक तरीके से भूमि की नाप—जोख, वर्गीकरण और तदनुसार कर निर्धारण का कार्य संपन्न हुआ। जंगलात की सुरक्षा के लिए नियम बने। सार्वजनिक मार्गों और पुलों का निर्माण हुआ। सार्वजनिक शिक्षा और डाक व्यवस्था का शुभारंभ हुआ। तराई-भाबर में नहरों का निर्माण हुआ। इसी काल में कोटद्वार, रामनगर, हल्द्वानी, टनकपुर, रानीखेत, नैनीताल, पौड़ी, मसूरी, लैंसडाउन जैसे नगरों की स्थापना हुई। मौद्रिक व्यवस्था को स्थायित्व मिला । न्याय के लिए अदालतों का गठन हुआ। अपराधों की रोकथाम के लिए शेष भारत से अलग और केवल डंडे के बल पर काम करने वाली विशिष्ट किस्म की (राजस्व पुलिस) पटवारी व्यवस्था लागू हुई। इस व्यवस्था के तहत ही पटवारियों को पुलिसिया अधिकार प्राप्त हैं और यह व्यवस्था आज भी उत्तराखंड के पर्वतीय ग्रामीण अंचलों में विद्यमान है। अंग्रेजों के समय में ही यहां बच्चों और ियों की खरीद-फरोख्त जैसी कुप्रथाआें पर पाबंदी लगी। एक अर्थ में कहा जाए तो भले ही अंग्रेजों ने ये सारे काम अपने दूरगामी साम्राज्यवादी हित के लिए किए हों लेकिन यह यह निश्चित तौर पर सच है कि उन्होंने ही उत्तराखंड की परिस्थितियों के हिसाब से पहली बार एक व्यवस्था कायम करने का सफल प्रयास किया।
उत्तराखंड के पूर्व मुख्य सचिव और पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त डॉ. रघुनंदन सिंह टोलिया द्वारा लिखित— फाउंडर्स ऑप मॉडर्न एडमिनिस्ट्रेशन इन उत्तराखंड :1815—1884 (उत्तराखंड में आधुनिक प्रशासनिक व्यवस्था के संस्थापक 1815—1884 ) संभवत: पहली पुस्तक है जिसने उत्तराखंड के आधुनिक प्रशासन के इतिहास को लिपिबद्ध किया गया है। यह एक तथ्यात्मक और एेसा एेतिहासिक दस्तावेज है, जिसे एक जगह संग्रहीत करने की बहुत बड़ी जरूरत थी। गोरखों की पराजय (सन् 1815) के पश्चात ईस्ट इंडिया कंपनी ने कुुमाऊं कमिश्नरी के नाम से जिस प्रशासनिक इकाई का गठन किया गया , लेखक ने उसमें नई प्रशासनिक व्यवस्था का सूत्रपात करने वाले प्रशासकों के कार्यकाल व कार्यप्रणाली का क्रमवार विवरण प्रस्तुत किया है। ये प्रशासक ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी थे। इनमें से कमिश्नर ट्रेल, लशिंगटन, बैटन और हेनरी रैमजे का कार्यकाल बहुत महत्वपूर्ण रहा। इन सभी कमिश्नरों ने प्रशासक के रूप में अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि बनाए रखी। हेनरी रैमजे कंपनी द्वारा 1856 में कमिश्नर नियुक्त हुे थे। 1857 के विद्रोह को सफलतापूर्वक झेलने के बाद वे कंपनी के कर्मचारी नहीं रहे क्योंकि 1848 में ब्रिटिश सरकार ने भारत का प्रशासन अपने हाथों में ले लिया था। लेकिन हेनरी रैमजे 1884 तक यहां के कमिश्नर बने रहे।
अंग्रेजों ने कुमाऊं कमिश्नरी (टिहरी रियासत को छोड़ कर शेष गढ़वाल समेत) की विशिष्ट परिस्थितियों का आकलन कर उसे शेष ब्रिटिश भारत के समकक्ष नहीं रखा। बल्कि उसके लिए अलग नियम कानून बनाए या यहां के प्रशासकों को यह छूट दी कि वे स्थानीय जरूरत के मुताबिक नियम कानूनों को स्थगित या खारिज कर सकें। फलस्वरूप प्रशासकों के व्यक्तित्व की छाप भी यहां उभरती नई प्रशासनिक व्यवस्था पर पडी ।
लेखक ने बिना किसी पूर्वाग्रह के तत्कालीन अंग्रेज प्रशासकों की कार्यप्रणाली को यथातथ्य इस पुस्तक का विषय बनाया है और वह अपनी आेर से कोई विश्लेषण नहीं प्रस्तुत करते । उन्होंने यह अन्य शोधार्थियों के लिए छोड़ दिया है। उत्तराखंड के आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, प्रशासनिक इतिहास के शोधार्थियों को यह पुस्तक अवश्य पढऩी चाहिए। मेरा आग्रह है कि डॉ. टोलिया को अपनी कलम के माध्यम से 1884 के बाद स्वतंत्रता प्राप्ति तक और उसके बाद का प्रशासनिक इतिहास प्रस्तुत करना चाहिए। वह स्वयं उत्तराखंड के प्रशासक रहे हैं। उत्तराखंड के इतिहास पर शोध करने वालों के लिए इसकी नितांत आवश्यकता है। लेखक ने इतने पुराने और लगभग विनष्ट होने की कगार पर पहुंचे सरकारी अभिलेखों और अन्य स्रोतों के जंगल से जो बहुमूल्य सामग्री संग्रहीत की और एेसा करने में जिस धैर्य और लगन से काम किया वह निस्संदेह प्रशंसनीय है। इसके लिए लेखक सचमुच बधाई के पात्र हैं।
फाउंडर्स ऑप मॉडर्न एडमिनिस्ट्रेशन इन उत्तराखंड:1815—1884
लेखक: आरएस टोलिया
प्रकाशक : बिशन सिंह महेंद्रपाल सिंह,देहरादून
मूल्य: 1250 रुपये, पृष्ठ : 408
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