Friday, July 31, 2015

अनजाना फासीवाद


लोकतंत्र का मतलब इतना ही नहीं कि किसी भी संस्‍था के हर फैसले को किसी भी कीमत पर उचित ही मान लिया जाए। वैधानिक ढांचे के कायदे से चलती संस्थाओं की कार्यशैली और निर्णय भी। उन पर स्‍वतंत्र राय न रख पाने की स्थितियां पैदा कर देना तो नागरिक दायरे को तंग कर देना है। स्‍वतंत्र राय तो जरूरी नागरिक कर्तव्‍य है, जो वास्‍तविक लोकतंत्र के फलक को विस्‍तार देती है। सहमति और असहमति की आवाज को समान जगह और समान अर्थों में परिभाषित करने से ही लोकतंत्र का वास्‍तविक चेहरा आकार ले सकता है। ऐसे लोगों का सम्‍मान किया जाना चाहिए जो बिना धैर्य खोये भी असहमति के स्‍वर को सुनने का शऊर रखते हैं। सम्‍मान उनका भी होना चाहिए जो बेलाग तरह से नागरिक कर्तव्‍य को निभाने में अग्रणी होते हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को वास्‍तविक ऊंचाईयों तक पहुंचाने में ऐसी दृढ़ताएं महत्‍वपूर्ण साबित होती हैं।
आदरणीय कलाम साहब, भूतपूर्व राष्‍ट्रपति की लोकप्रियता को कोई दाग नहीं लगा सकता। उनका घोर विरोधी भी नहीं। वे सादगी पसंद, भारत के ऐसे राष्‍ट्रपति थे, टी वी पर जिन्‍हें कई बार स्‍कूली बच्‍चों के बीच देख मन प्रफुल्लित हो जाता था। अन्‍य मौकों पर भी उनकी सहजता, सरलता की ऐसी तस्‍वीरें देखते हुए उनके प्रति आदर उमड़ता था, यह कोई आश्‍चर्य की बात नहीं। उनके व्‍यक्तित्‍व में एक सच्‍चे नागरिक का तेज नजर आता था। वे विज्ञान के अध्‍येता थे, वैज्ञानिक थे, यह कोई छुपा हुआ तथ्‍य नहीं। लेकिन उनके वैज्ञानिकपन को अनुसंधान के शास्‍त्रीय पक्ष के साथ पहचान करती आवाज पर हिंसक हो जाना,  लोकतंत्र का मखौल बना देना है। सहमति के संतुलन की ऐसी आवाज से असहमति रखना लोकतंत्र की खासियत हो सकता है, वाजिब भी है। लेकिन हिंसक हो जाना तो अनजाने में ही हो चाहे, फासीवादी मूल्‍यों का ही समर्थन है।
न्‍याय के विभिन्‍न रूपों में फांसी सबसे बर्बर अंदाज है, यह कहना भी लोकतंत्र का पक्ष चुनना है और वैश्विक दृष्टि का पक्षधर होना है। अंधराष्‍ट्रवादी निगाहें यहां भी विरोध के फासीवादी चेहरे में नजर आती हैं।
आश्‍वस्ति की स्थिति हो सकती है कि खुद के भीतर उभार ले रहे फासीवाद को पहचानना शुरू हो और अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के स्‍वस्‍थ लोकतंत्र की दिशा निश्चित हो।     
-- विजय गौड  

Thursday, July 30, 2015

प्रतिरोध का गीत


अभी हाल में अमेरिकी अदालत में एक दिलचस्प मामला आया जिसमें दुनिया की सबसे बड़ी कोयला खनन कम्पनी पीबॉडी इनर्जी कॉर्प ने अपने खिलाफ़ दायर मुक़दमे को ख़ारिज करने से ज्यादा जोर इस बात पर लगाया कि तहरीर में उद्धृत करीब 45 साल पुराने एक गीत की पंक्तियाँ हटा दी जायें।यह तहरीर दो पर्यावरण ऐक्टिविस्ट लेस्ली ग्लूस्ट्रॉम (चित्र) और थॉमस एस्प्रे ने दो साल पहले कम्पनी के विरोध में प्रदर्शन करने पर की गयी अपनी गिरफ़्तारी को चुनौती देते हुए दी थी। इन याचिकाकर्ताओं ने अपनी तहरीर की शुरुआत लोकगायक जॉन प्राइन(चित्र) के 1971 के अत्यंत लोकप्रिय गीत "पैराडाइज़" की कुछ महत्वपूर्ण पंक्तियों से की है जिसमें पीबॉडी द्वारा स्ट्रिप माइनिंग के जरिये पैराडाइज़ नामक शहर(इसको "स्वर्ग" के प्रतीक के रूप में भी लिया जा सकता है) के उजड़ने की बात कही गयी है। यह गीत पर्यावरण ऐक्टिविस्ट आज भी दुनिया के विभिन्न हिस्सों में गाते हैं।
--यादवेन्द्र yapandey@gmail.com
09411100294
पीबॉडी के कोयला खनन और नागरिकों द्वारा उसके विरोध का इतिहास बहुत पुराना है जब समय समय पर खनन करने की उसकी स्ट्रिप तकनीक और उस से पर्यावरण को होने वाले विनाश का जबरदस्त विरोध किया गया। इसी विरोध को 1971 में डाकिया से लोकगायक बने जॉन प्राइन ने ने शब्द और स्वर दिये - प्राइन का बचपन का बड़ा हिस्सा ग्रीन नदी के किनारे बसे पैराडाइज़ शहर में बीता और कोयला खनन के चलते उसके उजड़ते चले जाने को उन्होंने नज़दीक से देखा है।सत्तर के दशक में इस शहर का अस्तित्व धरती पर से मिट गया जब पूरी ज़मीन खनन को समर्पित कर दी गयी। उस समय भी पीबॉडी कम्पनी जॉन प्राइन के गीत की लोकप्रियता से घबरा गयी थी और उसने "फैक्ट्स वर्सेस प्राइन" शीर्षक से पुस्तिका छाप कर बाँटी थी जिसमें धौंस जमाते हुए कहा गया कि "संभवतः हमने ही उस गीत की रिकॉर्डिंग के लिए बिजली मुहैय्या करायी जो हमारे ऊपर पैराडाइज़ को खुरच कर उजाड़ डालने का आरोप लगा रहा था।" अब 44 साल बाद पीबॉडी एकबार फ़िर इस गीत से भयभीत हो रहा है - गीत में बयान किये तथ्यों की आँच साढ़े चार दशकों बाद भी जनता को सड़कों पर आने को प्रेरित कर रही है। कम्पनी ने कोर्ट से गुज़ारिश की है कि "याचिकाकर्ता गीत के माध्यम से पीबॉडी को बदनाम करने के साथ साथ पूरी इनर्जी इंडस्ट्री पर हमले कर रहे हैं....वे बेतुकी , असत्य , अनावश्यक और भड़काने वाली बात कर रहे हैं।" पीबॉडी कंपनी ने अपनी गतिविधियों के प्रति बढ़ते जनप्रतिरोध देखते हुए 2013 शेयरधारकों बैठक अपने मुख्यालय सेंट लुइस में न करके नार्थ व्योमिंग के एक कॉलेज में आयोजित की जहाँ प्रदर्शन कर रहे हुए याचिकाकर्ताओं को गिरफ़्तार किया गया था।आंदोलनकर्ताओं का आरोप था कि कम्पनी पर्यावरण का विनाश करने के साथ साथ अपनी एक सहायक कंपनी दिवालिया घोषित कर के अपने करीब 25 हज़ार कामगारों को पेंशन और स्वास्थ्य बीमा के लाभों से वंचित करने का षड्यंत्र रच रही है।




  -- जॉन प्राइन


पैराडाइज़ 
         
जब मैं छोटा था मेरा परिवार जाता था
वेस्टर्न केंटुकी 
मेरे माँ पिता वहीँ पैदा हुए थे 
बाबा आदम के ज़माने का एक पिछड़ा शहर है वहाँ 
वह अक्सर याद आता है .... बार बार 
इतनी बार कि मेरी स्मृतियाँ साथ छोड़ने लगती हैं। 



(कोरस)

अब तुम्हारे डैडी लेकर नहीं जायेंगे 
तुमको मुहलेनबर्ग काउंटी 
वहीँ जहाँ नीचे उतरो तो बहती है 
ग्रीन नदी 
और पहले बसता था पैराडाइज़ शहर ....
माफ़ करना बेटे… बहुत देर कर दी तुमने भी 
मिस्टर पीबॉडी का कोयला कब का 
ले जा चुका उसको तो अपने साथ खुरच कर। 

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कोयला कम्पनी दुनिया का सबसे बड़ा बेलचा लेकर आयी 
और उजाड़ डाले सभी पेड़ पौधे 
सारी धरती नंगी कर दी खुरच खुरच के 
पहले कोयला निकाला और घुसते चले गये 
धरती जहाँ ख़तम हो जाती है अंदर पाताल तक 
और दुनिया भर में  पीटते रहे ढिंढोरा
कि कर रहे हैं विकास पिछड़े आदमी का। 



(कोरस)


मैं जब मरुँ मेरी राख बिखेर देना 
ग्रीन नदी के ऊपर 
और दुआ है कि मेरी रूह जाकर टिक जाये 
रोचेस्टर डैम के ऊपर 
ऐसे मैं स्वर्ग के आधे रस्ते तो पहुँच ही जाऊँगा 
और मिल लूँगा इंतज़ार करते पैराडाइज़ से 
वहाँ से मेरा गाँव बहुत पास है 
महज़ पाँच मील दूर।   




 अनुवाद- यादवेन्द्र

Saturday, July 25, 2015

हमारा आस पास

यादवेन्‍द्र


शाम से गहरे सदमे में हूूं,समझ नहीं आ रहा इस से कैसे निकलूँ । देर तक सिर खुजलाने के बाद लगा उसके बारे में लिख देना शायद कुछ राहत दे।

मुझे किसी व्यक्ति या समाज की आंतरिक गतिकी और गुत्थियों को समझने के लिये गम्भीर अकादमिक निबन्ध पढ़ने से ज्यादा ज़रूरी और मुफ़ीद लगता है उसके कला साहित्य की पड़ताल करना। पर हिंदी के अतिरिक्त सिर्फ़ अंग्रेज़ी जानने की अपनी गम्भीर सीमा है । भारत की हिन्दीतर भाषाएँ हों या विदेशी भाषाएँ, इनके बारे में अंग्रेज़ी में उपलब्ध सामग्री मेरा आधार है।

आज शाम बड़े परिश्रम से ढूँढ कर मैंने ग्रीस के बड़े लेखकों की दो कहानियाँ पढ़ीं।दोनों रचनाएँ सात आठ साल से आर्थिक बदहाली से जूझ रहे ग्रीक समाज की भरोसे की कमी से जूझती आत्मा की हृदय विदारक पीड़ा का बयान करती हैं।एक कहानी डांवा डोल भविष्य से घबराये हुए पड़ोसी नौजवान की ऊँची इमारत से छलाँग लगा देने के दृश्य से लगभग विक्षिप्त हो जाने वाली स्त्री की अत्यंत मर्मस्पर्शी कहानी है,दूसरी कहानी आर्थिक संकट के कारण बगैर कोई नोटिस दिए नौकरी से बाहर कर दिए गए एक कामगार की भावनात्मक अनिश्चितता का जिस ढंग से ब्यौरा प्रस्तुत करती है वह कोल्ड ब्लडेड मर्डर सरीखा झटका देती है। उसके बाद जाने किसका नम्बर आ जाये,इस आशंका का रूप इतना मुखर है कि पाठक को लगने लगता है कहीं कल उसका इस्तीफ़ा न ले लिया जाये।

मैंने पिछले महीने मेडिकल साइंस के एक प्रतिष्ठित जर्नल में छपे अध्ययन के बारे में पढ़ा कि 2011-2012 के दो सालों में ग्रीस में आत्महत्या की दर में 35फीसदी से ज्यादा बढ़ोतरी हुई है।बेरोज़गारी ऐसी कि हर चौथा व्यक्ति काम से बाहर है।ऐसे समाज को विद्वानों से ज्यादा अंतरंगता के साथ लेखक कवि कलाकार समझ सकते हैं,और उनके तज़ुर्बे संकट के समय हमें उबरने में मदद कर सकते हैं।मानव समाज इसी साझेपन से चलता और विकसित होता है।

Tuesday, July 14, 2015

मित्र हो तो असहमति को रखने में संतुलन बरतना ही होगा




हमेशा इस पसोपेश में रहता हूं कि मन की बातों को कह दूं या नहीं। संकट है कि कहने का वह सलीका कहां से लाऊं जो शालीन बनाये रखे। फिर भी कोशिश में तो रहता ही हूं कि मेरे भीतर का मनुष्‍य, जो वैसे ही वाचाल है, और वाचाल न नजर आये। यूं कहने का साहस तो अब भी नहीं जुटा पा रहा हूं। बस इतना जाने कि जो कुछ कह रहा हूं किंचित जमाने से असहमतियों के कारण कह रहा हूं।
कह पा रहा हूं तो यह भी स्‍पष्‍ट जानिये असहमत हूं जिनसे/जिससेए जरूर है वह कोई मित्रवत स्थिति ही होगी। मेरे ऐसा स्‍पष्‍टीकरण न देने पर भी आपकी सह्रदयता उसे दुश्‍मन तो नहीं ही मानेगी, मित्र ही समझेगी। ज्‍याद ही अपने अनुमानों के घोड़ो पर दौड़ेगे तो इतना ही कह पायेंगे कि किसी मित्र से संवादरत हूं शयद। तात्‍कालिक समय में रूठे हुए किसी मित्र से। यानि स्‍थायी दुश्‍मनाने में असहमति को रखने का भी कोई औचित्‍य नहीं।
बेशक आप जो भी माने पर मित्र को सिर्फ मनुष्‍य की शक्‍ल में न देखें। बस, अपने दायरे को थोड़ा विस्‍तार दें और जीवन जगत में व्‍याप्‍त किसी पेड़, पक्षी, फल जानवर, कंकड़, पत्‍थर, शैवाल, फफूंद और निर्मितियों की अजब गजब दुनिया को भी- भौतिक या, अभौतिक तरह से भी जो अपनी ताकत दिखाते हुए मौजूद हैं, अपनी निगाह में उतार लें। मेरे कहे के साथ चलते हुए पायेंगे कि असहमति का मसला सैद्धान्तिक नहीं बल्कि व्‍यवाहरिक होता है। सैद्धान्तिक असहमतियां तो मित्रवत दायरे में ही निपट चुकी होती है। उनके प्रकटीकरण तो स्‍वंय व्‍यवहार से ही उपजी असहम‍तियां हो जाती हैं। कई बार प्रकटीकरण की कोई स्‍पष्‍ट वजह भी नहीं होती, तो भी वे तो न जाने कब हिंसक हो जाती हैं। ऐसी असहमतियां निश्चित ही  हत्‍यारेपन की प्रवृत्ति है, विरोध की असभ्‍य आवाज और सांस्‍कृतिक हत्‍यारेपन में उनके अर्थ एक ही होते हैं। यूं लिजलिजे समर्थन में तो अराजक हिंसा ही प्रश्रय पाती है।
आप जानना चाहते हैं ये सांस्‍कृतिक हत्‍यारापन क्‍या है ? विश्‍वास दिलाइये कि हिसंक न होंगे। हो सकता है मैं अपनी वाचालता में आपको जाने क्‍या-क्‍या कह बैठूं, वैसे भी इस वक्‍त तो असहमति की असभ्‍य आवाज और उसकी तीव्र हिंसकता ही मुझे वाचाल हो जाने को मजबूर कर रही है, आपका सांस्‍कृतिक हत्‍यारापन उतना नहीं। फिर भी जानने चाहे तो जान ले- ठेकेदार, दलाल और बिल्डिरों वाले टुच्‍चेपन को ही आप जो थोड़ा नफासत भरा अंदाज दे देते हैं, वह तो निश्चित ही सांस्‍कृतिक हत्‍यारापन है- संवाद के लिए छटपटाती किसी पुकार को सुनने लेने के बाद भी अनुसनापन ही जाहिर करना, विरोध की स्थितियां निगाह में निगाह डाल कर न रखी जा सके, गर्दन पहले ही घुमा देना।

चलिये छोडि़ये क्‍या-क्‍या कहूं। वैसे भी दुनिया संबंधों को कायम रखने की जितनी आधुनिकता से सुसज्जित हो रही है, असहमति का हत्‍यारापन उतना सांस्‍कतिक हुआ जा रहा है, बहुधा असभ्‍य आवाज के साथ साथ कदमताल करता हुआ भी।    

Friday, July 10, 2015

वक्त बचा है कम, कुछ बोल लेना चाहिए

अतियथार्थ की स्थितियों का प्रकटीकरण व्‍यवस्‍थागत कमजोरियों का नतीजा होता है, कला, साहित्‍य के सृजन ही नहीं उसके पुर्नप्रकाशन की स्थितियों में भी इसे आसानी से समझा जा सकता है। हिन्‍दी साहित्‍य में कविता कहानियां ही भरमार में हैं। यह यथार्थ ही नहीं बल्कि अतियथार्थ है। देख सकते हैं कि व्‍यवस्‍थागत सीमाओं के बावजूद, कविता और कहानी के दम पर साहित्‍य की पत्रिकाएं निकालना आसान है। इतर लेखन पर केन्‍द्रीत होकर काम करने के लिए पत्रिकाओं को अपनी व्‍यवस्‍थागत सीमाएं नजर आ सकती हैं, या आती ही हैं। इसलिए कविता कहानी वाले अतियथार्थ के साथ समझोता करते हुए ही उनका चलन जारी रहता है, बल्कि बढ़ता हुआ है। ऐसे में पुस्‍तक आलोचना पर केन्‍द्रीत होकर अंक निकालने के लिए जैसी वैचारिक दृढ़ता चाहिए, वह अपने आपमें सांगठनिक कार्यपद्धति की ओर बढ़ने की मांग करत है। 

हाल ही में प्रकाशित एवं वितरित होता हुआ अकार का 41वां अंक इसकी बानगी है। आपसी सहयोग की सांगठनिक पद्धति ही उसे महत्‍वपूर्ण स्‍वरूप देती हुई देखी जा सकती है। अकार-41 का यह अंक पुस्‍तक समीक्षाओं पर केन्‍द्रीत है और राकेश बिहारी के अतिथि सम्‍पादन में प्रकाशित हुआ है। 
अकार का यह अंक मेरे हाथ में उस वक्‍त आया है, जब मैं अपनी प्रिय पत्रिका पहल के 100 अंक का इंतजार कर रहा था। हालांकि पहल का 100 वां अंक तो आज भी रतजगे करवाता हुआ है बल्कि अब तो लगने लगा है कि संभवत: डाक की गड़बड़ी में हो न हो, मुझे इन्‍टरनेट के जरिये ही उसे उसी तरह पढ़ने को मजबूर होना पड़े, जैसे पहल 99 के लिए हो चुका हूं। मेरी इस चिन्‍ता से डाक व्‍यवस्‍था को क्‍या लेना देना कि कुछ पत्रिकाएं ऐसी होती है जिन्‍हें पढ़ने ही नहीं बल्कि सहेजने का भी अपना सुख होता है। पहल के अभी तक के संग्रहित अंको में पहल-99 मेरे पास हमेशा हमेशा के लिए नदारद रह जाने की स्थितियों में है।
अकार-41 कर चर्चा के बीच में पहल का जिक्र मैं क्‍यों करने लग गया ?
यह सवाल किसी ओर से नहीं, मैं खुद से पूछ रहा हूं।
अपनी दिनचर्या के हिसाब से सुबह दफ्तर जाने के पहले बचने वाले समय को मैंने, आमतौर अपने छुट-पुट लेखन और कुछ ऐसी जरूरी चीजें पढ़े जाने के लिए सुरक्षित रखा हुआ है जो ज्‍यादा धैर्य की मांग करती हैं। सुबह के उस वक्‍त में पत्रिकाओं पर सरसरी निगाह डालने का भी कोई अवकाश नहीं। हां, पिछली शाम पलटी गयी पत्रिका में यदि नजर आ गया कोई आलेख वैसे ही धैर्य की मांग करता दिखा तो उसे जरूर शामिल कर लेना होता है। लेकिन मुझ तक पहुंचने वाली हिन्‍दी की पत्रिकाएं में ऐसे पढ़े जाने की स्थितियां सीमित ही हैं। पहल और समयांतर ही दो ऐसी पत्रिकाएं हैं, जो  मेरे इस सुबह के वक्‍त पर डाका डालने में अभी तक अव्‍वल मानी जा सकती हैं। समयांतर का इंतजार तो हर महीने का इंतजार है। अभी तक अनुभव के आधार पर वह किसी भी महीने की 27 तिथि तक पहुंच ही जाती हैपहल के 100 वे अंक से संबंधित कार्यक्रम के दिन वाली अनुगूंज खरों ओर है और मैं उसके अंक 99 से ही अभी वंचित हूं। अब मानने को विवश हो जा रहा हूं कि शायद मुझे 100 वें अंक से भी वंचित हो जाना होगा। क्‍यों अब तक पहुंची नहीं है। मित्रों की सूचनाओं में उसका पढ़ जाना पूरा होता हुआ है। मित्रों से बातचीत के बहाने ही मैं उसके कई सारे पृष्‍ठों के स्‍वाद और प्रभाव को महसूस कर चुका हूं। अकार-41 ने मेरे उस वक्‍त पर आजकल कब्‍जा किया हुआ है।
यहां एक अन्‍य बात, जो प्रासंगिक जान पड़ रही है, कह देना चाहता हूं-
पिछले दिनों अपने एक मित्र से इस प्रस्‍ताव पर बात की, ''भाई क्‍या संयुक्‍त प्रयासों वाली किसी पहलकदमी से कुछ-कुछ पहल और कुछ-कुछ समयांतर वाले स्‍वर के बीच से गुजरती किसी पत्रिका को हम शुरू कर सकते हैं ?'' यद्यपि यह भी कह देना मैं जरूरी जान रहा हूं, यहां स्‍मृतियों में पहली पारी वाली पहल मौजूद है। पहली पारी वाली पहल का प्रकाशन स्‍थगित हो जाने का वक्‍त मेरे लिए स्‍तब्‍धकारी था। क्‍योंकि मेरा मानना रहा कि कविता, कहानियों वाली हिन्‍दी पत्रिकाओं की प्रगतिशील दिशा को बांधे रखने में पहल एक हद तक महत्‍वपूर्ण भूमिका निभा रही थी। उसका प्रकाशन बंद नहीं होना चाहिए था। समयांतर का स्‍वरूप एवं मिजाज थोड़ा भिन्‍न है और जरूरी है।  कविता, कहानियों वाले दायरे की पत्रिकाएं उसके दबाव से मुक्‍त होकर कहीं भी छलांग लगाने को स्‍वतंत्र हैं। दूसरी पारी की पहल को भी अपनी उस भूमिका में अभी उतना नहीं पाता हूं। मित्र ने पत्रिका के प्रकाशन संबंधि अपनी सहमति जाहिर की है। फिर भी अभी बहुत सी दिक्‍कतें हैं कहा नहीं जा सकता कि क्‍या ऐसा संभव होगा भी या नहीं अड़चन के कारण हमारी कमजोर इच्‍छाशक्ति में भी छुपे हो सकते हैं और वास्‍तविक भी हो ही जायें तो वैसा भी हो सकता है।   
इसीलिए अकार-41 का जिक्र करते हुए पहल का जिक्र हो जाना स्‍वाभाविक सी बात है। लेकिन मेरे कहे से ये अनुमान न निकाले जाएं कि बेताबी भरे इंतजार की घडि़यों में अकार का 41वां अंक डाक में अचानक नजर आ जाना, किसी भी पत्रिका के मिल जाने की सी वजहों के कारण यहां जगह पा रहा है। ऐसे होने के अनुमान तो इस बात से भी निर्मूल हो जाते हैं कि पहल-99 के अलम्बित इंतजार में भी अकार के 40वें अंक ने दस्‍तक दी थी। हालांकि अकार के 40वें अंक ने भी उस वक्‍त ठिठकाया था। ज्ञात रहे कि अकार का वह पहला अंक था जो शुद्ध रूप से कविता, कहानी वाले अतियथार्थ का घेरा तोड़ रहा था लेकिन इतिहास संबंधित जानकारियों की अतिमार में बदले हुए स्‍वरूप के प्रभाव बहुत गहरे नहीं पड़ रहे थे। अकार-41 के बारे में अपनी राय व्‍यक्‍त कर देने की जो बेचैनी अभी महसूस हो रही, वैसा तब नहीं हुआ था। बल्कि उस वक्‍त यदि कुछ कह देने की जल्‍दबाजी कर देता तो आज अकार-41 की संभावनाओं पर टिप्‍पणी कर लेने में शायद अब हिचकिचाहट तो महसूस होती ही। 

बताना चाहता हूं कि डाक में मिले अकार-41 को पहली शाम सरसरी निगाह से पूरी तरह पलट लेने में मैं मात खा गया था। फेसबुक से पहले ही मिल चुकी सूचना के आधार पर, मैं अपने मित्र सुभाष चंद्र कुशवाह की किताब चौरीचौरा पर हितेन्‍द्र पटेल के लिखे आलेख से गुजर कर अन्‍य सामाग्री तक गुजर जाना चाहता था। लेकिन उस शाम हितेन्‍द्र पटेल के आलेख ने मुझे छूट ही नहीं दी और पूरा पढ़े जाने से शेष रह गया। इस तरह आलेख ने अकार-41 को मेरी अगली सुबह के वक्‍त में धकेल दिया। मित्रों का लिखा, या उन पर लिखे को सबसे पहले पढ़ने की अपनी कमजोरी को मैं छुपाना नहीं चाहता। आलेख तो पूरा हो गया लेकिन उस सुबह अकार की दूसरी समाग्री से गुजरना तो अधूरा ही रह गया था। शाम को उसे फिर से पलट कर किनारे रख देना चाहता था। पर दिखाये दे गये एक ओर भरोसे के लेखक, बसंत त्रिपाठी ने भी उस शाम अटका दिया। दलित चिंतक तुलसीराम की आत्‍मकथाओं के बहाने लिखे गये उस आलेख को धैर्य से पढ़ लेने के लिए अकार फिर से अगली सुबह के वक्‍त पर हावी थी। ग्रंथ शिल्‍पी से प्रकाशित ई एम एस आत्‍मकथा और वाम राजनीति के कुछ जटिल प्रश्‍न पर लिखे उर्मिलेश के आलेख से ही अभी तक निपट पाया हूं और अकार का 41वां अंक मुझे अभी भी ठिठकाये हुए है। 

अभी तक के आखिरी आलेख से कुछ सहमत और कई जगहों पर असहमति के बावजूद अकार अभी भी मुझे सरसरी निगाह से गुजरने नहीं दे रहा है। हां, शुद्ध साहित्‍य की चयन वाली पुस्‍तकों पर लिखे आलेख तो मेरे सुबह के वक्‍त पर हमला नहीं ही कर रहे। उनके भरोसे अतियथार्थ वाली व्‍यवस्‍थागत कमजोरियां तो नजर आ ही रही है, अकार को सोचना है उससे कैसे निपटे। कविता, कहानियों में मिठू-मिठू अंदाज की आलोचना से ज्‍यादातर साहित्यिक पत्रिकाएं, जगमग दुनिया पहले ही बनाये है। हिन्‍दी साहित्‍य की हमारी दुनिया का यही वह मर्मस्‍थल है जहां मुझे अकार-41 का बदला हुआ स्‍वरूप 1994 के फुटबाफल वर्ल्‍ड कप प्रतियोगिता में अचानक से उभर आयी कैमरून की टीम की सी तात्‍कालिक चमक वाला लग रहा है। उम्‍मीद है भविष्‍य का अकार कैमरून की तात्‍कालिक चमक वाला नहीं बल्कि हिन्‍दी साहित्‍य से संबंधित पत्रिका की दुनिया में स्‍थायी रोशनी वाली आकृति हो।

पहल-100 का इंतजार अभी बाकी है। समयांतर के न पहुंचने की आशंका से ग्रसित नहीं हूं, पंकज जी को फोन करने पर डाक की गडबड़ी के बावजूद वह दुबारा पहुंच ही जायेगी।    

      विजय गौड़