Monday, December 25, 2017

दलित साहित्य सिर्फ संज्ञा नहीं, नये सौन्दर्यशास्त्र की स्पष्ट धमक हो

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति



बहस तीखी हो चुकी थी। पहुंचे हुए अतिथि शायद जान ही चुके होंगे कि जो व्‍यक्ति अभी उनसे मुखातिब है उससे पार पाना आसान नहीं। वह तकरार नहीं, बहस थी और सामने वाले निरुत्‍तर।  

उस वक्‍त आपकी लड़ाई दलित साहित्‍य संज्ञा की नहीं, बल्कि उस चेतना की थी जिसमें दलितों को किसी भी अवसर से वंचित कर दिए जाने वाली मानसिकता से विरोध था। आप अपनी कविता के हवाले से कह ही सकते थे,

पथरीली चट्टान पर
हथौड़े की चोट
चिंगारी को जन्‍म देती है
जो गाहे-बगाहे आग बन जाती है

आग में तपकर
लोहा नर्म पड़ जाता है
ढल जाता है
मनचाहे आकार में
हथौड़े की चोट में ।
एक तुम हो,
जिस पर किसी चोट का
असर नहीं होता ।

लेकिन अतिथि के निवेदन पर भी आप कविता सुनाने को इच्‍छुक नहीं थे। यह आपकी फितरत भी तो नहीं थी कि सामने वाले को किसी भी तरह से प्रभावित करके अपने लिए एक सुगम रास्‍ता बना लें। यदि ऐसा किया होता तो फिर हो सकता है कि आपके नाम में ‘वाल्‍मीकि’ शब्‍द की जो अनुगूंज सुनाई देती है, उसे सुनना शायद ही मुमकिन हुआ होता। हो सकता है, हम सिर्फ किसी ओमप्रकाश को ही जानते। या फिर किसी ओमप्रकाश ‘खैरवाल’ को। यही तो था न आपके उस गोत्र का नाम जिसे चंदा भाभी अपने नाम के साथ इस्‍तेमाल कर लेती थी। चंदा खैरवाल। और आपसे भी जिक्र करती थी कि अपने नाम से वाल्‍मीकि हटाकर खैरवाल लिखे। कई बार मुझे भी सुननी पड़ी लताड़, ‘’ओए वाल्‍मीकियों हटो यहां से, मुझे बिस्‍तर उठाने दो। जाओ तब तक छत में जाके बैठो या निकलो यहां से, मुझे साफ-सफाई करनी है घर की।‘’ 

बहुत सामान्‍य सी बातों में भी उनके व्‍यंग्‍य में छुपी वेदना छलक ही आती थी। उनके घर साफ करने तक हम दोनों ही चुपचाप सड़क पर निकल आते थे। लेकिन आप उनके उस स्‍नेहपूर्ण व्‍यंग्‍यात्‍मक आग्रहों के आगे भी खुद को टूटने से बचाते रहे और अपने नाम के साथ जुड़े उस वाल्‍‍मीकि शब्‍द को बचाए रखते रहे। आपका सीधा सा तर्क था। जो आज वाल्‍मीकि से खैरवाल लिख दिया तो मालूम नहीं बाद में वह खैरवाल भी कभी अपनी ‘वाल’ को भी जुदा कर दे। ‘खैर’, ‘खुरी’, ‘खरे’ जैसे किसी सामाजिक रूप से ‘प्रतिष्ठित’ संज्ञा में बदल जाए। आपने उन ‘दुनियादार’ किस्‍म के लोगों की भी परवाह नहीं कि जो  आपका एक आकलन तो नाम सुनकर ही कर लेने के दुराग्रह के साथ थे। उन दुराग्रह से ग्रसित लोगों को ही तो संबोधित रही आपके कवि की आवाज। उन्‍हें ही तो लताड़ लगाती हुई है आपकी कविता। राजेन्‍द्र यादव से आप लड़ रहे थे और मानते थे कि वे वैसे दुराग्रही व्‍यक्ति नहीं है। क्‍या इस कारण ही तो कहीं आपने उनके अनुरोध पर भी कविता सुनाना उचित न समझा हो ?
आपका रोष किसी अवसर को चुरा लेने का नहीं था। वह आपकी फितरत की स्‍वभाविकता में था। लेकिन राजेन्‍द्र यादव तो उसमें एक दलित का आक्रोश देख रहे थे। इस मायने में उन्‍हें युगदृष्‍टा कहना ही पड़ेगा। वरना ‘सदियों का संताप’ के प्रकाशित होते हुए भी हम उस पुस्‍तक को दलित साहित्‍य की पुस्‍तक कहां कह पाए थे। अन्‍य कविता पुस्‍तकों की तरह वह भी मात्र एक कविता पुस्‍तक की तरह ही छपी थी। नेहरूयुवक केन्‍द्र के बगीचे में बैठकर उन कविताओं को भी तो दूसरी समकालीन कविताओं की तरह से परखने की कोशिश की गई थी। बाद के दौर में तो जब आप लगातार पत्रिकाओं में मौजूद रहने के चलते आत्‍मविश्‍वास महससू करने लगे तो आपने इस बात को जरूरी तौर पर रखना शुरु किया था कि दलित साहित्‍य के मूल्‍यांकन का पैमाना पहले से चले आ रहे सौन्‍दर्यशास्‍त्र से संभव नहीं। आपकी पुस्‍तक ‘दलित साहित्‍य का सैन्‍दर्यशास्‍त्र’ इस बात की गवाह है कि आप एक नया सौन्‍दर्यशास्‍त्र रचना चाहते थे। उस पुस्‍तक में तो आपने कुछ प्रारम्भिक बातें ही की। भविष्‍य में संभव होता कि आप कुछ निश्चित अवधारणओं तक पहुंचते। पर कम्‍बखत समय ने हमें भी वंचित कर दिया उससे।
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  स्‍मृति

Sunday, December 17, 2017

कुछ संस्कारित फुसफसाहटें

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति



     निश्चित ही उस दिन ‘हंस’ संपादक राजेन्‍द्र यादव, कथाकार गिररिराज किशोर और प्रियवंद जी ने जान ही लिया होगा कि अजीब अहमकों का शहर है देहरादून, अतिथियों के आगमन को स्‍वीकार लेने ;से अनुग्रहित होने की बजाय, हर व्‍यक्ति अपनी ही तरह की अकड़ में रहे। घीसू-माधव की अकड़ को भी क्‍या अकड़ कहा जा सकता है ?
गए तो थे ऋषिकेश इसलिए कि अतिथियों को लिवा लाएंगे, पर लौटे ऐसे, मानो पहुंचने वाले उन्‍हें ही उनके शहर पहुंचाने आए हों। एक ड्राइवर के अलावा तीन व्‍यक्ति जब पहले से गाड़ी में हों तो उसी में ठुंस कर चले आने वाले घीसू-माधव के बारे में क्‍या कहा जाए भला। ऊपर से तुर्रा यह कि अतिथियों को कहां रुकवाना है, इस तक का भी कोई इंतजाम नहीं। अतिथियों को इच्‍छा जाहिर करनी पड़ रही हो कि जहां गोष्‍ठी रखी है, पहले वहीं चलते हैं, तो दोनों मेजबान हंसते है अपनी तरह। भोलेपन की मुस्कियों भरी विलम्बित लय में अवधेश और ठहाक भरे अंदाज में ताल की संगत देते हुए नवीन।  भला हो हम्‍माद जी का, यमुना भवन  का गेस्‍ट हाऊस खुलवा दिया। 
शाम घिर चुकी थी। कमरा खुल गया था। ‘टिप टॉप’ में खबर पहुंचा दी गई, सभी ‘टंटे’ यमुना कालोनी पहुंचे। आज की शाम रंगीन है। भाई जितेन ठाकुर को जिम्‍मेदारी तो पहले ही सौंपे हुए थे कि फौजी कैं‍टीन का जुगाड़ रखेंभाई।   जिन्‍हें खबर हुई, वे पहुंच गए। जिन तक खबर नहीं पहुंची, वे नहीं पहुंचे। आने वाले आए और अपने-अपने गिलास थाम कर बैठते गए। एक पत्रिका का संपादक सामने हो और शहर के अनाम लेखक अपनी रचना पढ़ने का उतावले न हों, यही अंदाज तो है देहरादून की गोष्ठियों का। आप मुझसे बेहतर जानते हैं, दून के बाशिंदे सुनाने में नहीं, सुनने में यकीन करते हैं। विद्धानों को सुनने का अवसर जुटाने के लिए गोष्‍ठी करते हैं।         
यमुना भवन की वही गोष्‍ठी थी जिसमें आपने ‘हंस’ संपादक राजेन्‍द्र यादव से सीधे सीधे तकरार शुरू कर दी थी। देहरादून में लिखने पढ़ने वालों के रूप में शायद राजेन्‍द्र यादव कुछ ही नामों से परिचित थे। मुख्‍य तौर पर सुभाष पंत, जितेन ठाकुर और अवधेश। नये लिखने वालों में नवीन नैथानी के बारे में भी उनकी कुछ राय बनने लगी थी। शायद, अपने मन की कोई ऐसी ही बात उन्‍होंने जाहिर कर भी दी थी। बस, वहीं वे फंस चुके थे। हिंदी साहित्‍य की दुनिया कैसे तथा‍कथित केन्‍द्रों  में तक अपना घेरा बनाए रहती है और कैसे गिरोहबाज लोग, छोटे शहरों की पहुंच को एक हद से आगे नहीं बढ़ने देते, जैसे विषय की जो परिणति आपकी उपस्थिति से जन्‍म ले सकती थी, आखिर वही हुआ। आपने तो अन्‍य मामालों में भी वंचनाओं की जो पीड़ा भोगी थी, उसका तार आखिर समाज को वंचित बनाए रखने वाले जाल को क्‍यों न भेदता भला। आपके कहे के आशयों को तजुर्मा करूं तो शायद उन बातों को रख पाना आसान हो कि राजेन्‍द्र यादव जी ने जो सुना, उसके अर्थ क्‍या लिए होंगे। निश्चित ही उन्‍हें अहसास हो गया होगा कि हिंदी के हम स्‍थापितों ने जो कुछ माहौल रचा हुआ है, उसके कारण हिंदी की दुनिया के अनुभवों का दायरा इकहरा है। वंचितों के प्रति संवेदनशीलता तो हमने बहुत प्रकट की है, लेकिन उस तबके के व्‍यक्ति के भीतर जो गुस्‍सा है, वह तो कहीं आया ही नहीं है। आप उस गोष्‍ठी में हो रही बातचीत का केन्‍द्र हो चुके थे।
काश, कि उस दिन नाटक की रिहर्सल में व्‍यस्‍त न होने की वजह से मैं भी उस गोष्‍ठी में होता। जो कुछ घटा, उसे बाद के दिनों में मित्रों से सुनकर जानने की बजाय साक्षात महसूस करता। आपसे कहूं कि यदि मैं वहां रहा होता तो उस वक्‍त अपने दूसरे साथियों के भीतर आपको लेकर जो गुस्‍सा फूट रहा होता, उसे भी बयान कर ही पाता। ‘शाम का मजा’ खराब हो जाने की वजह से उनके भीतर फूटने वाला गुस्‍सा कुछ इस की ‘संस्‍कारित फुसफसाहटों’ में ही होता कि वाल्‍मीकि तो यहां भी अपना ही राग लेकर बैठ गया, एक ही तो विषय है इसके पास। ऐसी गुनगुनाहटें मैं पहले भी और बाद बाद में भी कभी कभार सुनता ही रहा हूं। आपके न होने पर ताने मुझे ही झेलने पड़े हैं। मेरे सामने कह देने पर शायद वे मुझे अपने बीच का ही मानकर ऐसा कह पा रहे होते थे। यह बात मैंने आपको पहले कभी नहीं बतायी तो सिर्फ इसलिए कि आपके अंदाज में बढ़ जाने वाली तकरार हमारी सामूहिक दोस्तियों के लिए ठीक नहीं रहती, यह मेरी आशंका भर नहीं थी, आप जानते हैं एक दिन आप हरजीत पर कैसे चढ़ बैठे थे जब एक पोस्‍टर बनाकर उसने टिप टॉप में टांगा था जिसमें किसी अभिव्‍यक्ति (अभी याद नहीं कि किस विषय पर ) को प्रयुक्‍त हुए ‘भंगिमा’ शब्‍द को उसने कुछ इस अंदाज में लिखा था- भंगी-मां। आपके गुस्‍सा ऐसा फूटा था कि सिक्‍ख धर्म को अंगीकार करने वाले ज्‍यादातर लोग दलित जातियों से हैं, ऐसा उस दिन ही, पहली बार मुझे मालूम हुआ था। क्‍योंकि आपने हरजीत को कुछ इसी तरह की बातों से लताड़ा था और हरजीत को उसके पुश्‍तैनी कारोबार- ‘बढ़ई’ की याद दिलायी थी। आपके गुस्‍से में तो दूसरे दोस्‍त भी ब्राहमणवादी करार दे दिए जाते। जबकि मैं उनके बारे में भी जानता था कि ब्राहमण का ‘ब्रहम’ भी उनकी प्रेरणा कभी नहीं रहा। हां, संस्‍कारों से मिली शिक्षा के असर में वे कई बार ऐसी टिप्‍पणियों को कर जाते थे, जिन्‍हें वे खुद भी सही नहीं मानते रहे।
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Thursday, December 7, 2017

सेक्स और जनवाद को खदेड़ती लड़कियां

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति


कौन जानता है कि कब किसका हंसना, बोलना, उठना, बैठना, रूठना, मनाना जैसा तात्‍कालिक भाव, भविष्‍य में जिक्र के साथ व्‍यक्तित्‍व का स्‍थायी मामला जैसा दिखने लगे। घीसू, माधव भी कहां जानते थे कि उनकी हरकतें इतिहास की किसी ऐसी कथा का हिस्‍सा हो जाएंगी जिसमें हिंदी का दलित साहित्‍य जन्‍म लेगा। मैं कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानी के पात्र घीसू, माधव की बात नहीं कर रहा। अपने ही तरह के उन दो इंसानों की बात कर रहा जिनके भोलेपन में भी कितनी ही गंभीर हरकतें शामिल रहती थी। शाम होते ही जिन्‍हें कुलबुलाने का रोग था और अपनी उस कुलबुलाहट में ही अक्‍सर वे गैरजिम्‍मेदार नजर आने लगते है। रहे होंगे कभी हरजीत और अवधेश बहुत करीब। रहा होगा कभी अरविन्‍द इस तिकड़ी का एकमात्र संयोजक। पर उस वक्‍त तो जो जोड़ी सबसे ज्‍यादा अराजक कहलायी जा रही थी वह अवधेश जी और नवीन भाई की थी। ऐसे ही तो नहीं पडा था दोनों का नाम घीसू-माधव।  पर कौन घीसू, और कौन माधव ? इस प्रश्‍न से कभी कोई नहीं उलझा। आप भी तो नहीं उलझे न भाई साहब (वाल्‍मीकि जी) ।

याद होगा आपको एक दिन पहले ही टिप-टॉप की बैठक में घीसू-माधव ने सूचना दे दी थी कि आने वाले कल की शाम सारे ‘टंटे’ टिप-टॉप में जमा हों। याद नहीं आ रहा कि किसी भी बात को पोस्‍टर बनाकर टांग देने वाले हरजीत ने ऐसी कोई सूचना सार्वजनिक कर दी थी या नहीं कि ‘हंस’ संपादक राजेन्‍द्र यादव, कथाकार गिररिराज किशोर और प्रियवंद को ऋषिकेश आना है। प्रियवंद जी शायद कोई मकान खरीदना चाहते थे ऋषिकेश में । वह मकान शायद लेखक गीतेश शर्मा जी का था, जो कलकत्‍ता में रहते थे। बहुत निश्चित होकर नहीं कह पा रहा कि मकान किसका था। पर सुना था कि वह ऐसा मकान है जिसका मुंह गंगा की ओर खुलता है और प्रियवंद जी को संगमन के काम के लिए उपयुक्‍त लगा है। मालूम नहीं उस मामले का क्‍या हुआ होगा। देहरादून में लिखने पढ़ने वालों की जमात तीनों ही लेखकों के लेखन और नाम से परिचित थी लेकिन व्‍यक्तिगत परिचय का दायरा घीसू और माधव का ही था। अवधेश एक स्‍थापित कवि थे। अज्ञेय जी के द्वारा संपादित चौथे सप्‍तक के कवि और आर्टिस्‍ट के नाते उनका एक नाम था। पुरानी पीढ़ी के सुभाष पंत जी के अलावा दून की नयी पीढ़ी में जितेन ठाकुर के बाद नवीन भाई की कहानियां उस समय की दो स्‍थापित पत्रिकाओं ‘हंस’ एवं ‘सारिका’ में  प्रकाशित होने लगी थी जिसके कारण नवीन जितेन जी की तरह ही, अब कवि की बजाय कहानीकार नवीन नैथानी की पहचान को प्राप्‍त होने लगे थे। ‘चढाई’ उनकी पहली कहानी थी जो संभवत: 1989 दिसम्‍बर के ‘हंस’ में छपी थी और ‘हंस’ के उस अंक की यादाश्‍त हम दूनवासियों के लिए ‘चढ़ाई’ की बजाय उसी अंक में प्रकाशित आलोकधन्‍वा जी की कविताओं ‘पतंग’ और ‘भागी हुई लड़कियां’ ही रही। पूरे शहर के एक-एक व्‍यक्ति को न जाने कितनी कितनी बार उन कविताओं को सुनना पड़ा। ‘हंस’ नवीन भाई के थैले में होता था और मोका मिलते ही वे कविताएं पढ़ने लगते थे। यदि कविताओं के पाठ लयात्‍मक आवाज में न किये गये होते तो स्‍पष्‍ट जानिये देहरादून का हर बाशिंदा उस कवि आलोकधन्‍वा का दुश्‍मन हो गया होता जिसकी कविताओं को उन्‍हें सजा की हद तक सुनना पड़ रहा था। यह कहना शायद अति‍शयोक्ति न हो कि उन कतिवाओं के बाद हिन्‍दी की दुनिया में, शुरूआत में कविताओं में और बाद में कहानियों में भी, जिस तेजी से भागती हुई लड़कियां प्रवेश करने लगी, उसका कारण नवीन भाई के पाठ ही रहे होंगे। आलोक धन्‍वा की उन कविताओं का स्‍वर- ‘आकाश का नरम और मुलायम बनाते हुए कि बांस की सबसे पतली कमानी उड़ सके, दुनिया का सबसे पतसे पतला और रंगीन कागज उड़ सके और शुरू हो सके रोटियों किलकारियों की एक नाजुक दुनिया’ उस समय तक ‘हंस’ में जारी ‘सेक्‍स और जनवाद’ की बहस के लफंगेपन को भी भगा देने में प्रभावी हो रही थी। हालांकि आप भी जानते हैं एक संस्‍थानिक प्रदूषण का मुकाबला कोई एक अकेली कविता कब तक कर सकती है। ‘हसं’ की लफंगई के प्रभाव तो इतने गहरे रहे कि चाचियों, मामियो, बहनों की छातियों पर चढ़कर साइकिल चलाने वाली कहानियों से ही हिंदी कहानी को युवा मानने की प्रवृत्ति ने जोर पकड़ा। यहां तक कि वैचारिक शालीनता का जामा पहनकर निकलने वाली ‘पहल’ भी उसके प्रभाव से मुक्‍त नहीं रह सकी और अपना ऐसा युवा खोजने लगी जो रक्‍त संबंधों से बचते हुए पड़ोस की आंटियों की बेटियों के भागने में स्‍त्री विमर्श का नया पाठ रचे। ‘पहल’ के युवा के लिए जरूरी था कि अन्‍य युवाओं से हर मायने में जुदा हो और उस जुदापन में ही ‘पहल’ अपने प्रभाव की वैचारिकता को विदेशी रचनाओं के अनुवाद वाली उदारता में छुपा सकता था।


  स्‍मृति

Friday, December 1, 2017

वह गुस्ताख मिज़ाज



कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति

जब चारों ओर उथल-पुथल मची हो। दिग्‍भ्रम की सी स्थिति हो, संकट- मौत की ओर धकेलने वाली स्थितियों भर का ही नहीं, निर्मम तरह से किये जाने वाले वार और तड़फडते जिस्‍म के साथ पाश्विक हिंसा का डर फैलाते हुए भी खड़ा हो,
मनुष्‍य विरोधि ताकतें आक्रमकता का ताण्‍डव रचते हुए लगातार ताकतवर होती जा रही हों, तो ऐसे में मित्र और शत्रु की पहचान करना मुश्किल हो जाता है। हो सकता है, वह आपका मित्र ही हो जिसने खुद की जान बचाने के लिए कोई ऐसी हरकत कर दी हो जिससे आपकी जान सासत में पड़ गयी। या, शत्रु ही हो, चाहता हो कि आप मुसिबत में फंस जाएं, लेकिन उसके रचे गये प्रपंच ने आपको पहले से थोड़ा लाभ की स्थिति में पहुंचाने में मदद कर दी हो। ऐसे में दोस्‍त और दुश्‍मन की पहचान कैसे करेंग। क्‍या इसे वैज्ञानिक समझदारी कही जाएगी कि आप प्राप्‍त परिणाम के आधार पर मित्र और शत्रु की पहचान कर लें ? यह विज्ञान की यांत्रिक परिभाषा ही होगी जिसके आधार पर तर्क रखा जाएगा कि प्रयोगों से प्राप्‍त परिणामों की सत्‍यतता की बारम्‍बारता से ही कोई व्‍यवहार सिद्धांत हो जाता है।

धर्म को लेकर सवाल खड़े हो तो न जाने कितने समान वैचारिक मित्र भी ऐसे ही यांत्रिकता के साथ भिन्‍न राय रखते हैं। यहांवहां से, जाने कहां कहां से कितने ही हवाले गिनाते हुए धर्म को एक पद्धति और जनता की आंकांक्षाओं को सहारा- देने , यह वालभी कहते हुए कि चाहे झूठा ही सही, जैसी बातें करने लगते हैं।  

आपकी स्‍मृतियां इन स्थितियों से उबरने का रास्‍ता सुझा रही हैं। जिदद की हद तक अपने तर्क के पक्ष में खड़े रहने वाला आपका बौद्धिक साहस हिम्‍मत बंधाता है। आपकी स्‍मृति के हवाले से ही कह सकता हूं कि ऐसे में जरूरी हो जाता है कि खूब तेज आवाजों में बोला जाए- जो भी बोलना हो। कहीं ऐसा न हो कि कानाफूसी आपको संदिग्‍ध बना दे। तेज आवाजों में रखा गया आपका पक्ष बेशक आपके भीतर के अन्‍तरविरोधों को भी छुपने न दे। लेकिन तहजीब की मध्‍यवर्गीय शालीनता का दिखावा करना छोड़ दे।

आपने यदि विरोध को उस दिन तहजीब की मध्‍यवर्गीय शालीनता में रखा होता तो आपके भीतर की आग से कैसे तो राजेन्‍द्र यादव भी वाकिफ हो पाते! हिंदी में दलित साहित्‍य की संज्ञा तो तब थी ही नहीं और आप अपनी कविताओं के पक्ष में वैसे ही तर्क दे रहे थे, जो स्‍थापित नहीं था। आपमें खुद के भीतर को रख देने का जो बौद्धिक साहस था, उसके कारण ही न सिर्फ राजेन्‍द्र यादव बल्कि हिन्‍दी की दुनिया जान पायी थी अम्‍बेडकर सिर्फ एक संविधान निर्माता नहीं बल्कि एक ज्‍योतिपुंज है इस देश के दलित शोषितों के लिए ।

उस रोज ‘हंस’ संपादक राजेन्‍द्र यादव अचानक से देहरादून पहुंचे थे। गिररिराज किशोर, प्रियंवद और राजेन्‍द्र यादव के लिए बिना पहले से की गई व्‍यवस्‍था के बावजूद रात भर की शरण के नाम जुटा ली गयी यमुना कालोनी गेस्‍ट हाऊस की शाम थी। इस किस्‍से को यदि किस्‍से को वास्‍तविक रूप से बुनने वाला और सचमुच का किस्‍सागो, नवीन ही यदि कहे तो मेरा पक्‍का यकीन है कि अंधियारी शाम, नहीं जाति और धर्म को एक पद्धति मानने वाली धूल से फैलता अंधकार, कम से कम उन लोगों को जरूर ही बाहर निकलने में मददगार होगा जो बदलाव की बात करना शौक के तौर पर नहीं, जरूरी कार्रवाई के रूप में देखते हैं। वरना हकीकत तो यह है कि देहरादून में किसका परिचय था राजेन्‍द्र यादव से, प्रियंवद से या गिरिराज जी से ही। अवधेश और नवीन ही तो थे उस गोष्‍ठी के सूत्रधार।

अजीब अहमकों का शहर है यूं भी देहरादून, जिन्‍हें अवसरों की ताक में डोलते हुए कोई नहीं पाएगा। इस शहर के बाशिंदें की पहचान का एक सिरा इस मिजाज से भी पकड़ा जा सकता है कि अवसर के होते हुए भी संकोची बना दिखेगा। अतिमहत्‍वाकांक्षा तो दूर की बात महत्‍वाकांक्षा की डालों पर भी झूला डालने से बचेगा। बिना बड़बोलेपन के खामोशी से अपने में जुटा रहेगा। लेकिन भूल न करे कि यहां बाशिंदा मतलब इतना भर नहीं कि जो देहरादून में ही रहता हो। जी नहीं, देहरादून में रहने वाले तो बहुत से हैं लगातार के ‘खबरी’। ऐसे समझे कि जैसे जयपुर में रहते हुए भी अरूण कुमार ‘असफल’ देहरादून का बाशिंदा ही बना रहा। ये न मानिये कि मैं यह बात इसलिए कह रहा कि अरूण चूंकि जयपुर से लौटकर दुबारा से देहरादून में रहने लगा है और अब सचमुच का बाशिंदा हो गया है। लौटकर तो जबलपुर से आप भी आए थे देहरादून पर मैं ही नहीं दूसरे साथी भी बता सकते हैं कि आप अपना देहरादून खो कर ही लौटे थे। हां, फिर से बांशिदा हो जाने के कारण उम्‍मीद बनने लगी थी कि आप अपना देहरादून पा लेंगे। लेकिन  उसका वक्‍त ही नहीं मिला आपको।  कोई यह भी कह सकता है कि अरूण तो गोरखपुर का मूल बाशिंदा है, फिर उसके भीर तो है वह गोरखपुर की विशेषता ही हुई। इस बात से मेरी असहमति नहीं कि गोरखपुर में भी देहरादूनिये रहते हों। किसी दूसरे शहर में भी हो सकते हैं। अभी यदि आप दिल्‍ली में हो तो राजेश सेमवाल से मिल लें। जान जाएंगे की गजब की सौम्‍यता के बावजूद एक गुस्‍ताख किस्‍म की अकड़ है बंदें में। लिजलिजापन तो कोसों दूर की बात। लम्‍बे समय से दिल्‍ली में रहने वाले सुरेश उनियाल या हमेशा बाहर ही बाहर रहे मनमोहन चडढा से पूछें कि आप कहां के बाशिंदे हैं जनाब। गनीमत समझिये कि उनक जवाब में कोई गुस्‍ताख खामोशी भरी आवाज न सुननी पड़ जाए आपको। बस उसी गुस्‍ताख आवाज में उस दिन आड़े हाथों ले लिया था आपने ‘हंस’ संपादक राजेन्‍द्र यादव को।


मेरी सीमा है कि मैं उस पूरे प्रकरण को उतनी वास्‍तविकता में न रख पाऊं, क्‍योंकि पता नहीं इस बीच मैं भी अपने भीतर कितना बचा पाया हूं दून को। बल्कि मैं ही क्‍यों देहरादून में रहने वाले हमारे दूसरे साथी भी क्‍या उसे बचा पा रहे हैं या नहीं। पर यकीन के साथ कोई भी कह सकता है कि नवीन के भीतर तो वह हमेशा ही बचा हुआ है। दरअसल देहरादून की बदलती आबोहवा में वह तो अब भी श्सौरी का बाशिंदा है न। यह कथा कहने का सुपात्र वही है। मैं उम्‍मीद करूंगा कि पिछले कुछ दिनों से उसके शरीर में जो थकान बसती जा रही है, उसे मोहलत दे ताकि वह उस किस्‍से को कह पाए, वरना मुझे तो कहनी ही होगी। मैं तो आपसे सीधे मुखातिब जो हूं इस वक्‍त।      

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