कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति
निश्चित ही उस दिन ‘हंस’ संपादक राजेन्द्र
यादव, कथाकार गिररिराज किशोर और प्रियवंद जी ने जान ही लिया होगा कि अजीब अहमकों
का शहर है देहरादून, अतिथियों के आगमन को स्वीकार लेने ;से अनुग्रहित होने की
बजाय, हर व्यक्ति अपनी ही तरह की अकड़ में रहे। घीसू-माधव की अकड़ को भी क्या
अकड़ कहा जा सकता है ?
गए तो थे ऋषिकेश इसलिए कि अतिथियों को लिवा लाएंगे, पर लौटे ऐसे, मानो पहुंचने
वाले उन्हें ही उनके शहर पहुंचाने आए हों। एक ड्राइवर के अलावा तीन व्यक्ति जब
पहले से गाड़ी में हों तो उसी में ठुंस कर चले आने वाले घीसू-माधव के बारे में क्या
कहा जाए भला। ऊपर से तुर्रा यह कि अतिथियों को कहां रुकवाना है, इस तक का भी कोई इंतजाम
नहीं। अतिथियों को इच्छा जाहिर करनी पड़ रही हो कि जहां गोष्ठी रखी है, पहले
वहीं चलते हैं, तो दोनों मेजबान हंसते है अपनी तरह। भोलेपन की मुस्कियों भरी विलम्बित
लय में अवधेश और ठहाक भरे अंदाज में ताल की संगत देते हुए नवीन। भला हो हम्माद जी का, यमुना भवन का गेस्ट हाऊस खुलवा दिया।
शाम घिर चुकी थी। कमरा खुल गया था। ‘टिप टॉप’ में खबर पहुंचा दी गई, सभी
‘टंटे’ यमुना कालोनी पहुंचे। आज की शाम रंगीन है। भाई जितेन ठाकुर को जिम्मेदारी
तो पहले ही सौंपे हुए थे कि फौजी कैंटीन का जुगाड़ रखेंभाई। जिन्हें
खबर हुई, वे पहुंच गए। जिन तक खबर नहीं पहुंची, वे नहीं पहुंचे। आने वाले आए और
अपने-अपने गिलास थाम कर बैठते गए। एक पत्रिका का संपादक सामने हो और शहर के अनाम
लेखक अपनी रचना पढ़ने का उतावले न हों, यही अंदाज तो है देहरादून की गोष्ठियों का।
आप मुझसे बेहतर जानते हैं, दून के बाशिंदे सुनाने में नहीं, सुनने में यकीन करते
हैं। विद्धानों को सुनने का अवसर जुटाने के लिए गोष्ठी करते हैं।
यमुना भवन की वही गोष्ठी थी जिसमें आपने ‘हंस’ संपादक राजेन्द्र यादव से
सीधे सीधे तकरार शुरू कर दी थी। देहरादून में लिखने पढ़ने वालों के रूप में शायद राजेन्द्र
यादव कुछ ही नामों से परिचित थे। मुख्य तौर पर सुभाष पंत, जितेन ठाकुर और अवधेश। नये
लिखने वालों में नवीन नैथानी के बारे में भी उनकी कुछ राय बनने लगी थी। शायद, अपने
मन की कोई ऐसी ही बात उन्होंने जाहिर कर भी दी थी। बस, वहीं वे फंस चुके थे।
हिंदी साहित्य की दुनिया कैसे तथाकथित केन्द्रों में तक अपना घेरा बनाए रहती है और कैसे गिरोहबाज
लोग, छोटे शहरों की पहुंच को एक हद से आगे नहीं बढ़ने देते, जैसे विषय की जो
परिणति आपकी उपस्थिति से जन्म ले सकती थी, आखिर वही हुआ। आपने तो अन्य मामालों
में भी वंचनाओं की जो पीड़ा भोगी थी, उसका तार आखिर समाज को वंचित बनाए रखने वाले
जाल को क्यों न भेदता भला। आपके कहे के आशयों को तजुर्मा करूं तो शायद उन बातों
को रख पाना आसान हो कि राजेन्द्र यादव जी ने जो सुना, उसके अर्थ क्या लिए होंगे।
निश्चित ही उन्हें अहसास हो गया होगा कि हिंदी के हम स्थापितों ने जो कुछ माहौल
रचा हुआ है, उसके कारण हिंदी की दुनिया के अनुभवों का दायरा इकहरा है। वंचितों के
प्रति संवेदनशीलता तो हमने बहुत प्रकट की है, लेकिन उस तबके के व्यक्ति के भीतर
जो गुस्सा है, वह तो कहीं आया ही नहीं है। आप उस गोष्ठी में हो रही बातचीत का
केन्द्र हो चुके थे।
काश, कि उस दिन नाटक की रिहर्सल में व्यस्त न होने की वजह से मैं भी उस गोष्ठी
में होता। जो कुछ घटा, उसे बाद के दिनों में मित्रों से सुनकर जानने की बजाय
साक्षात महसूस करता। आपसे कहूं कि यदि मैं वहां रहा होता तो उस वक्त अपने दूसरे
साथियों के भीतर आपको लेकर जो गुस्सा फूट रहा होता, उसे भी बयान कर ही पाता। ‘शाम
का मजा’ खराब हो जाने की वजह से उनके भीतर फूटने वाला गुस्सा कुछ इस की ‘संस्कारित
फुसफसाहटों’ में ही होता कि वाल्मीकि तो यहां भी अपना ही राग लेकर बैठ गया, एक ही
तो विषय है इसके पास। ऐसी गुनगुनाहटें मैं पहले भी और बाद बाद में भी कभी कभार सुनता
ही रहा हूं। आपके न होने पर ताने मुझे ही झेलने पड़े हैं। मेरे सामने कह देने पर
शायद वे मुझे अपने बीच का ही मानकर ऐसा कह पा रहे होते थे। यह बात मैंने आपको पहले
कभी नहीं बतायी तो सिर्फ इसलिए कि आपके अंदाज में बढ़ जाने वाली तकरार हमारी
सामूहिक दोस्तियों के लिए ठीक नहीं रहती, यह मेरी आशंका भर नहीं थी, आप जानते हैं
एक दिन आप हरजीत पर कैसे चढ़ बैठे थे जब एक पोस्टर बनाकर उसने टिप टॉप में टांगा
था जिसमें किसी अभिव्यक्ति (अभी याद नहीं कि किस विषय पर ) को प्रयुक्त हुए ‘भंगिमा’
शब्द को उसने कुछ इस अंदाज में लिखा था- भंगी-मां। आपके गुस्सा ऐसा फूटा था कि
सिक्ख धर्म को अंगीकार करने वाले ज्यादातर लोग दलित जातियों से हैं, ऐसा उस दिन
ही, पहली बार मुझे मालूम हुआ था। क्योंकि आपने हरजीत को कुछ इसी तरह की बातों से
लताड़ा था और हरजीत को उसके पुश्तैनी कारोबार- ‘बढ़ई’ की याद दिलायी थी। आपके
गुस्से में तो दूसरे दोस्त भी ब्राहमणवादी करार दे दिए जाते। जबकि मैं उनके बारे
में भी जानता था कि ब्राहमण का ‘ब्रहम’ भी उनकी प्रेरणा कभी नहीं रहा। हां, संस्कारों
से मिली शिक्षा के असर में वे कई बार ऐसी टिप्पणियों को कर जाते थे, जिन्हें वे
खुद भी सही नहीं मानते रहे।
...जारी
1 comment:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (18-12-2017) को "राम तुम बन जाओगे" (चर्चा अंक-2821) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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