कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति
बहस तीखी हो चुकी थी। पहुंचे हुए अतिथि शायद जान ही चुके होंगे कि जो व्यक्ति
अभी उनसे मुखातिब है उससे पार पाना आसान नहीं। वह तकरार नहीं, बहस थी और सामने
वाले निरुत्तर।
उस वक्त आपकी
लड़ाई दलित साहित्य संज्ञा की नहीं, बल्कि उस चेतना की थी जिसमें दलितों को किसी
भी अवसर से वंचित कर दिए जाने वाली मानसिकता से विरोध था। आप अपनी कविता के हवाले
से कह ही सकते थे,
पथरीली चट्टान पर
हथौड़े की चोट
चिंगारी को जन्म देती है
जो गाहे-बगाहे आग बन जाती है
आग में तपकर
लोहा नर्म पड़ जाता है
ढल जाता है
मनचाहे आकार में
हथौड़े की चोट में ।
एक तुम हो,
जिस पर किसी चोट का
असर नहीं होता ।
लेकिन अतिथि के निवेदन पर भी आप कविता सुनाने को इच्छुक नहीं थे। यह आपकी
फितरत भी तो नहीं थी कि सामने वाले को किसी भी तरह से प्रभावित करके अपने लिए एक
सुगम रास्ता बना लें। यदि ऐसा किया होता तो फिर हो सकता है कि आपके नाम में ‘वाल्मीकि’
शब्द की जो अनुगूंज सुनाई देती है, उसे सुनना शायद ही मुमकिन हुआ होता। हो सकता
है, हम सिर्फ किसी ओमप्रकाश को ही जानते। या फिर किसी ओमप्रकाश ‘खैरवाल’ को। यही तो था न आपके उस गोत्र का नाम जिसे चंदा भाभी अपने नाम के साथ इस्तेमाल कर
लेती थी। चंदा खैरवाल। और आपसे भी जिक्र करती थी कि अपने नाम से वाल्मीकि हटाकर खैरवाल
लिखे। कई बार मुझे भी सुननी पड़ी लताड़, ‘’ओए वाल्मीकियों हटो यहां से, मुझे बिस्तर
उठाने दो। जाओ तब तक छत में जाके बैठो या निकलो यहां से, मुझे साफ-सफाई करनी है घर
की।‘’
बहुत सामान्य सी बातों में भी उनके व्यंग्य में छुपी वेदना छलक ही आती
थी। उनके घर साफ करने तक हम दोनों ही चुपचाप सड़क पर निकल आते थे। लेकिन आप उनके
उस स्नेहपूर्ण व्यंग्यात्मक आग्रहों के आगे भी खुद को टूटने से बचाते रहे और
अपने नाम के साथ जुड़े उस वाल्मीकि शब्द को बचाए रखते रहे। आपका सीधा सा तर्क
था। जो आज वाल्मीकि से खैरवाल लिख दिया तो मालूम नहीं बाद में वह खैरवाल भी कभी
अपनी ‘वाल’ को भी जुदा कर दे। ‘खैर’, ‘खुरी’, ‘खरे’ जैसे किसी सामाजिक रूप से ‘प्रतिष्ठित’
संज्ञा में बदल जाए। आपने उन ‘दुनियादार’ किस्म के लोगों की भी परवाह नहीं कि जो आपका एक आकलन तो नाम सुनकर ही कर लेने के
दुराग्रह के साथ थे। उन दुराग्रह से ग्रसित लोगों को ही तो संबोधित रही आपके कवि
की आवाज। उन्हें ही तो लताड़ लगाती हुई है आपकी कविता। राजेन्द्र यादव से आप लड़
रहे थे और मानते थे कि वे वैसे दुराग्रही व्यक्ति नहीं है। क्या इस कारण ही तो
कहीं आपने उनके अनुरोध पर भी कविता सुनाना उचित न समझा हो ?
आपका रोष किसी अवसर को चुरा लेने का नहीं था। वह आपकी फितरत की स्वभाविकता
में था। लेकिन राजेन्द्र यादव तो उसमें एक दलित का आक्रोश देख रहे थे। इस मायने
में उन्हें युगदृष्टा कहना ही पड़ेगा। वरना ‘सदियों का संताप’ के प्रकाशित होते
हुए भी हम उस पुस्तक को दलित साहित्य की पुस्तक कहां कह पाए थे। अन्य कविता
पुस्तकों की तरह वह भी मात्र एक कविता पुस्तक की तरह ही छपी थी। नेहरूयुवक केन्द्र
के बगीचे में बैठकर उन कविताओं को भी तो दूसरी समकालीन कविताओं की तरह से परखने की
कोशिश की गई थी। बाद के दौर में तो जब आप लगातार पत्रिकाओं में मौजूद रहने के चलते
आत्मविश्वास महससू करने लगे तो आपने इस बात को जरूरी तौर पर रखना शुरु किया था
कि दलित साहित्य के मूल्यांकन का पैमाना पहले से चले आ रहे सौन्दर्यशास्त्र
से संभव नहीं। आपकी पुस्तक ‘दलित साहित्य का सैन्दर्यशास्त्र’ इस बात की गवाह
है कि आप एक नया सौन्दर्यशास्त्र रचना चाहते थे। उस पुस्तक में तो आपने कुछ
प्रारम्भिक बातें ही की। भविष्य में संभव होता कि आप कुछ निश्चित अवधारणओं तक
पहुंचते। पर कम्बखत समय ने हमें भी वंचित कर दिया उससे।
...जारी
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