होने से
ज्यादा दिखने की चाह भारतीय मिजाज का ऐसा पक्ष रहा है जिसके कारण उत्सर्जित हुए
सामाजिक मूल्य और नैतिकताओं का ढोल जब तब फटते हुए देखा जा सकता है। भारतीय
राजनीति का विकास भी इस होने और दिखने की जुगलबंदी में ही एक ओर अंग्रेजों की गुलामी
का विरोध करते हुए दिखता हुआ रहा, तो उसी के साए में आजादी की परिकल्पना भी करता रहा।
यहां तक कि राजनीति का सबसे प्रगतिशील चेहरा जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की पृष्ठभमि
में आकर लेता रहा और आज तक विद्यमान है, वह भी उस से अछूता नहीं रह पाया। यही वजह
है साहित्यक सांस्कृतिक क्षेत्र में जो हलचल सांगठनिक जैसी हुईं, उनमें उसके
प्रभाव अन्तविरोध की टकराहट को जन्म देने वाले भी हो जाते रहे। यह बात काफी हद
तक जग जाहिर सी है। ज्यादा स्पष्ट तरह से देखना चाहें तो हिंदी भाषी क्षेत्रों
से बाहर उसके स्वरूप को पहचानने के लिए लेखक संगठनों की कार्यशैलियों को देखा जा
सकता है। ये लेखक संगठन जहां नेतृत्व के स्तर पर हिंदी भाषी प्रभुत्व राष्ट्रीय
दिखते हुए हैं, वही अन्य भाषी क्षेत्रों में एक बड़े छाते के नीचे ही एक ही भूभाग
में भाषायी आधारों पर गठित इकाइयों के रूप में कार्यरत रहते हैं। एक ही नाम से दो
भिन्न-भिन्न भाषाओं के संगठन आम बात हैं, जिनमें आपस में कभी कोई एकजुटता नहीं दिखायी
देगी। यहां तक कि हिंदी वाले उस अमुक भाषायी क्षेत्र के रचनाकारों से अपरिचित बने
रहते हैं और अमुक भाषायी स्थानिकता तो हिंदी की रचनात्मक दुनिया को दोयम ही
मानती हुई हो सकती है। कोलकाता के संदर्भ में भी यह उतना ही सच है बल्कि उससे भी
कहीं ज्यादा सच ही कोलकाता के साहित्यिक सांस्कृतिक समाज को अपने अपने तरह से
गतिमान बनाए हुए है। शासन पर बदलते राजनीतिक प्रभाव के बावजूद उसमें यथास्थिति का
बना रहना जहां एक और बांग्ला भाषी साहित्य समाज को विशिष्टताबोध के रसोगुलला-पैटेंट
के भावबोध से भरे रहता है तो वही दूसरी ओर मारवाड़ी चासनी को नवजागरण के डंडे से
हिलाते रहने वाले हिंदी मिजाज को प्रभावी होने का अवसर देता है। इन दोनों की ही
अपनी अपनी कार्यशैली है। बांग्ला भाषी साहित्यिक सांस्कृतिक आवाज में जहां उच्चतम कलात्मक मूल्यों को स्वीकारने का दिखावा
है तो हिंदी में बौद्धिक दिखने के लिए एकेडमिक स्वरूप को धारण करती शोधार्थियों और
चेले चपाटों की बड़ी भीड़ है।
यह बातें किन्हीं विशेष संदर्भ को ध्यान में रखकर नहीं कही जा रही है बल्कि एक निकट के मित्र द्वारा पूछे गए उस सवाल का जवाब में है जिसमें बहुत सी जिज्ञासाएं मेरे सोचने समझने की धारा की पहचान से वाबस्ता रहीं।
1 comment:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (17-02-2019) को "श्रद्धांजलि से आगे भी कुछ है करने के लिए" (चर्चा अंक-3250) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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अमर शहीदों को श्रद्धांजलि के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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