(पेशे से चिकित्सक डॉ एन.एस.बिष्ट का अपने बारे में कहना है कि (बंगाली) खाना पकाना, (अंग्रेजी) इलाज करना और (हिन्दी) कविता लिखना ये तीनों चीजें मुझे उत्साहित रखती हैं, क्योंकि इन तीनों कामों में ही रस, पथ्य, मसाले और रसायन जैसी, बहुत सारी मिलीजुली बातें हैं। डॉ बिष्ट युवा है और कविताऐं लिखते हैं। हाल ही में उनकी कविताओं की एक पुस्तक "एकदम नंगी और काली" तक्षशिला प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है। उनकी कविताओं की विशेषता के तौर पर जो चीज अपना ध्यान खींचती है वह है उनकी भाषा, जिसमें हिन्दी के साथ-साथ दूसरी अन्य भाषाओं, खास तौर पर बंगला, के शब्दों का बहुत सुन्दर प्रयोग हुआ है। भाषा का यह अनूठापन उनकी कविताओं को समकालीन हिन्दी कविताओं में एक अलग पहचान दे रहा है।)
डॉ एन.एस.बिष्ट 09358102147
वास्तव
वास्तव का मतलब -
एक निर्विघ्न छाया के रास्ते पर फिसले जाना
लेकिन मुझको ऊंट की सवारी चाहिए
ऊंट, जिसकी मेरू बादल के घट पर घर्ष खाये
ऊंट, जिसको इतने दिनों से सहेजा है
हर चीज का हरा सत्व सार कर
हरे का मतलब, लेकिन घास-पात नहीं
हरे का मतलब है छाया के रास्ते लगा
एक और रास्ता
जिस रास्ते में आंखों पर लगे किताब की तरह, आकाश
पन्ना पलटते ही सब कुछ जैसे पढ़ा जाय
हर चीज में ही आंखों लगने जैसी, जैसे कोई चीज हो
वास्तव
सिर्फ फिसलायेगा, चोट नहीं आयेगी कहीं
कंकड़ नहीं, कंटक नहीं कोई,
केवल छाया
छाया बिछाया नरम रास्ता
गिर पड़े तो आवाज नहीं, रक्तझरण नहीं, दाग नहीं -
आंखों लगने जैसा कोई दाग
तब भी मैं छोड़-कर चलता हूं, जल भरी छाती लिये
मछली की तरह तरना तैरता
यह तीर्ण जल
लेकिन कोई आंसू नहीं, कोई मानव स्राव नहीं
खिड़की के कांच पड़ा वृष्टि-जल है
जल जो पंख खोल मधुमक्खी सा उड़ता आता है
छपाक आंखों पर लगता है।
पहाड़ भारती
जहां भी जाता हूं मेरे चेहरे से चिपका रहता है, पहाड़ का चित्र
मेरी भंगिमा में हिमालयों का सौम्य, दाव की दुरंत द्युति
मेरे तितिक्षा में आकश खोभते
दयारों का शांकव
मेरी आंखों में स्तब्ध घुगतों की दृष्टि
मेरे चाल-चलन में गंगा-यमुनाओं की हरकत
बढ़ गया तो बाढ़, बंध गया तो बांध
मेरी सावधानी में ऊर्ध्वाधर बावन सेकेण्ड
जन गण मन के
अधिनायक के
जहां भी जाता हूं पुलिंदा कर चलता हूं भारत का मानचित्र
कि मर्यादाओं का न उलंघन हो
साथ लिये चलता हूं आस्तीन में सरयू की रेत
कि रेगिस्तान मिला तो एक टीला और कर दूंगा
कि समन्दर मिला तो किनारा बनाकर चल दूंगा
जहां भी जाता हूं ओढ़कर चलता हूं संविधान की गूढ़ नामावली
कि समुद्रतल से हिमालय के शिखर तक
हमारे उत्कर्ष की ऊंचाई बराबर है
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक
हमारी राष्ट्रीयता की रास एक है
कि जाति, धर्म, नाम सब भारत के वर्षों में विरत
वलय बनाते हैं
जहां भी जाता हूं बस इतना चाहता हूं कि पहचान लिया जांऊ
कोई बेईमानी न करे मेरा नाम, पता न पूछे
कोई मक्कारी न करे मुझसे जाति, धर्म न पूछे।
1 comment:
जहां भी जाता हूं पुलिंदा कर चलता हूं भारत का मानचित्र
कि मर्यादाओं का न उलंघन हो
साथ लिये चलता हूं आस्तीन में सरयू की रेत
कि रेगिस्तान मिला तो एक टीला और कर दूंगा
कि समन्दर मिला तो किनारा बनाकर चल दूंगा
पढ़कर खुशी हुई और ये जानकर की एक चिकित्सक ने लिखी है थोड़ा ओर गौर से पढ़ डाली ....आपका शुक्रिया .....उम्मीद है ओर पढने को मिलेगा ....
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