चोखेर बाली ने रवीश जी के आलेख के बहाने भाषा की जो बहस छेड़ी है, रवीश जी के आलेख को ध्यान में रखकर कहूं तो वहां मूल रूप से एक भाषा के भीतर ही शब्द संयोजन और उसके भाषिक विन्यास का मामला है। भाषायी भिन्नता के सवाल पर मुझे तेलगू के कवि वरवर राव की वह टिप्पणी याद आ रही है जिसमें वे भाषा के दो रूपों का जिक्र करते हैं - एक सत्ता की भाषा और दूसरी जनता की भाषा। यानी यहां वे दो भाषाओं के समूल विभेद की बात करते हैं। भाषायी विभेद को वे एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से व्याख्यायित करते हैं। लिंगभेद की बजाय उत्पादन के यंत्रों पर कब्जा किए शासक वर्ग और उसके द्वारा शोषित जनता के आधार पर उसका विश्लेषण करते हैं।
एक ही भाषा के भीतर उसके विन्यास के सवाल पर भाषाविद्ध नोम चॉमस्की सृजनात्मकता पर बल देते हैं। उनका मानना है सृजनात्मकता मन की क्षमता है, जो किन्हीं नियमों के अंतर्गत अब तक न सुनी गयी रचनाओं को भी पहचानता है और नये-नये वाक्यों का उत्पादन (निष्पादन) करता है। यानी निष्पादन की इस प्रक्रिया को कोई भी भाषा-भाषी बिना किसी लिंगभेद के ग्रहण करता है। स्वंय हिन्दी के भीतर ही देख सकते हैं कि किसी भी वस्तु के लिंग को निर्धारित करते हुए हिन्दी भाषी स्त्री हो चाहे पुरुष, कभी कोई गलती नहीं करते। एक स्त्री भी "बस जाती है" कहती है और एक पुरुष भी "ट्रक जाता है" कहता है। यहां बस और ट्रक के रूप, आकार या गति के आधार पर नहीं बल्कि हिन्दी भाषा के भीतर मौजूद सामंतीय संस्कार, जो सिर झुका कर काम करने वाली स्त्री की तस्वीर हमारे सामने रखते हैं, वैसे ही सार्वजनिक रूप से सेवा के भाव के साथ कार्य में जुती बस को स्त्रीलिंग और उसी सामंतीय संस्कारों के चलते बलशाली से दिखते और अपनी मर्जी से संचालित होते भाव को लिए ट्रक को पुल्र्लिंग बना देते हैं। इस तरह से यदि देखना चाहें तो एक हद तक हिन्दी में वस्तुओं के लिंग निर्धारण की व्याख्या संभव हो सकती है। यद्यपि यह मुक्कमिल नहीं है। अन्य भी, और कई नियम हो सकते हैं जिन पर गम्भीरता से विचार करने वाले स्वत: मु तक पहुंच पाएं। यहां तो बस यह उल्लेखनीय है कि भविष्य में उत्पादित होने वाली किसी भी वस्तु,जिसके अस्तीत्व की भी आज कल्पना संभव नहीं, के लिंग निर्धारण में किसी हिन्दी भाषी पुरुष और स्त्री में शायद ही मतभेद हों। अब सवाल यह है कि मीडिया की भाषा में, जो सनसनी और चौंकाऊपन दिखाई दे रहा है क्या उसके कारणों को रवीश जी की दृष्टि, जो इसे लिंगभेद के कारणों की उपज मानती है, से विश्लेषित किया जा सकता है ?
मेरी समझ में टी आर पी को बढ़ाने के लिए जो बाजारु किस्म के दबाव हैं, जिसके पीछे मुनाफा एक मात्र शर्त है, वही एक मूल बिन्दू हो सकता है जो इस प्रवृत्ति को विश्लेषित कर पाए। यहां स्त्री और पुरुष के बदल जाने पर शायद ही कोई बदलाव दिखे, ऐसी आशंका रखना चाहता हूं।
बाजार सनसनी पैदा करता है और सनसनी से भरी खबरें ही बाजार हो सकती हैं। बाजार की चमक-दमक में ही वो चुधियाट हो सकती है जो झूठे सपनो का संसार रच सकती है और उन सपने के पूरे न हो सकने के लिए किसी सनसनी भरी खबर में ही जनता की लामबंदी को रोकना संभव है। सनसनी भरी खबर ही ज्यादा दर्शक बटोरू भी हो सकती है। जितने ज्यादा दर्शक जिस रिपोर्ट के कारण मिले उतनी पौ बारह उस पत्रकार की जिसकी वह रिपोर्ट है। ऐसे ही सुरक्षित रह सकती है हमारी रोजी-रोटी, यह बात मीडिया का हर स्त्री-पुरुष जानता है। इसलिए उनका शाब्दिक संयोजन भी उसी प्रवृत्ति के चलते है जो बेशक दर्शक को ज्यादा देर तक भले ही न टिकाए रख पाए पर चौंका कर अपने पास तक तो ले आए। सिर्फ और सिर्फ टी आर चाहिए और उस टी आर पी के आधार पर ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन। बल्कि मुनाफे की यह मानसिकता हमारे भीतर जब महत्वांकाक्षा के रूप में होती है तो ब्लाग पर उस एक क्लिक के लिए ही जो हमारी टी आर पी को बढ़ाने वाला होता है, क्या हमें सनसनीखेज शीर्षको की खोज में परेशान नहीं करता। महत्वाकांक्षा की इस प्रव्त्ति से संचालित स्त्री और पुरुष ब्लागरस में भी यहां कोई खास फर्क शायद ही दिखे।
2 comments:
यह विषय एक विस्तृत विवेचन की मांग करता है -मात्र रविश जी और चोखेरवालियों के बौद्धिक विलास /जुगाली और आप द्वारा एक रस्म अदायगी भर की पोस्ट से विषय के साथ न्याय होता नहीं लगता .मुझे बहुत नागवार लगता है जब मात्र सनसनी के उद्येश्य से कुछ ऐसे मुद्दे उछाल दिए जाते हैं जिनकी न तो कोई दीर्घ जीविता होती है और न तार्किकता और न ही कोई बृहत्तर औचित्य ही -हम दलित साहित्य का जुमला पहले से ही झेल रहे हैं और अब भाषा की लैंकिकता का सवाल उठा एक शिगूफा एक वहम बुना जा रहा है -नाम चोमस्की का जिक्र आपने किया है उनका तो यह मानना है की भाषा के कई रूप हमारे अवचेतन से जुड़े हैं -वह तो यहाँ तक कहता है कि हमारे संस्कार जो जन्म के पूर्व के अवयव तक समेटे होते हैं अवचेतन में सहसा ही ऐसे भाव-शब्द उपन्न कर देते हैं जिनकी कोई औपचारिक या अनौपचारिक शिक्षा भी हम नहीं लिए रहते ! आपके ट्रक या बस के सोदाहरण भाषा भाष्य से असहमत न होते हुए भी कहना है कि हमारा मन /अवचेतन उस भाषा की बारीकियों को सहज ही ग्रहण कर लेता है जिस के सानिध्य में हमारी पीढी दर पीढी रहती आयी है .
पुनः कहूँगा कि विषय एक विस्तृत विवेचना की मांग करता है .सादर !
apke vichar theek hae lekin ye lekh bhi vichar karne ke liye majboor kar detaa hae
एनडीटीवी इंडिया को अपनी ही बनाई हुई अपनी अच्छी छवि
(इमेज) हजम नहीं हो रही है। इसीलिए एनडीटीवी अपनी इमेज तेजी से बदल रहा
है। एनडीटीवी ने अपना चोला उतारना शुरु कर दिया है। कल तक जो एनडीटीवी
भूत-प्रेत और मनोहर कहानियाँ छाप खबरों पर अन्य खबरिया चैनलों की खबर
लेता था, अब वही एनडीटीवी उन्हीं की तर्ज पर खबरें परोसने लगा है।
http://www.hindimedia.in/index.php?option=com_content&task=view&id=5140&Itemid=43
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