Thursday, February 26, 2009

भूगोल सौरी का एक मात्र सत्य था

नवीन नैथानी एक महत्वपूर्ण कथाकार हैं। देहरादून में रह्ते हैं। सौरी उनकी कल्पनाओं में आकार लेती एक ऎसी जगह है, जहां के बाशिंदे अपनी जमीन से बेइंतहा प्यार करते हैं। हाल ही में उनकी कहानियों की किताब प्रकाशित हुई है "सौरी की कहानियां" पुस्तक के ब्लर्ब पर प्रकाशित उनकी कहानियों का परिचय कुछ इस प्रकार है-
लोक आख्यानों-उपाख्यानों एवं किंवदंतियों को समकालीन कहानी में दर्ज करने वाले रचनाकरों की संख्या कम है। नवीन कुमार नैथानी लम्बे अरसे से पहाडी अंचल की लोककथाओं को समकालीन कहानी का कलेवर प्रदान करने वाले ऎसे ही विरल रचनाकार हैं यह कहना भी कि ये लोक कथाएं सचमुच किसी अंचल विशेष- सौरी की हैं या कहानीकार की कपोलकल्पित रचनाएं मात्र: उतनी ही अस्पष्ट हैं जितनी कि ऎसी रचनाओं का भूगोल-इतिहास। पारस कहानी का नैरेटर इस पर कुछ-कुछ प्रकाश डालता है- 'भूगोल सौरी का एक मात्र सत्य था और तथ्य उसी के इर्द-गिर्द खडे होकर सौरी को आकार देते रहे, सौरी के बाशिंदे अपने होने फ़कत को सौरी की जमीन से जोडते रहे। उस जमीन में सिर्फ़ किस्से पैदा होते थे और कहानियां उस फ़सल का महज एक उत्पाद थीं। सौरी के बाशिंदे अपने किस्सों में अपना इतिहास समेटते रहे और इतिहास को किस्सों की छणभंगूरता में नष्ट करते रहे।' आस-पास फ़ैले व्यापक लोक-समाज और समय की लेखकीय समझ सौरी और वहां के बाशिंदों का देशकाल निर्मित करती है और 'सौरी' हमारा वर्तमान समाज और समय बनकर पहचान की आशवस्ति प्राप्त कर लेता है।
'सौरी के बाशिंदों के लिए जिनकी सौरी कहीं नहीं है' लेखक का यह समर्पण वाक्य पाठकों के सम्पूर्ण कुतुहल को परिचित और अपरिचित के बीच उपस्थित कला-कौशल की अपूर्व स्रजनात्मक छमता के साथ आमंत्रित करता प्रतीत होता है। इस तरह समकालीन कहानी के दायरे को लोक सम्पदा से सम्रद्ध और विकसित करने की व्यापक रचनात्मक चेष्टा नवीन कुमार नैथानी को अपने समवर्ती रचनाकारों से अलग पहचान दिलाती है।
पुस्तक का आवरण




प्रस्तुत है नवीन कुमार नैथानी की स्म्रतियों में अपने जनपद (देहरादून) का वह दौर जब वे कहानियां लिखना शुरू ही कर रहे थे।


एक बडी गोष्ठी स्व. राज शर्मा ने करायी थी DOLFIN का गठन करते हुए. यह १९८७ की बात है-है-संभवतः अप्रैल या मई का महिना था. DOLFIN से आशय था Democratic organisation for literarture and fine arts.वे इसमें सभी कलाकारों की भागीदारी चाहते थे. इस संबंध मे शहर के वरिष्ठ लोग सही रोशनी डाल सकते हैं. यह इन पंक्तियों के लेखक की पहली गोष्ठी थी ऒर यहां उसने कुछ कवितायें सुनायी थीं जिनमें कुछ इस तरह की ध्वनि निकलती थी कि हमारे दादा परदादा अपने जमाने में प्रेम किया करते थे. इस गोष्ठी में मेरा प्रवेश राजेश सेमवाल के सॊजन्य से हुआ था. इस गोष्ठी से ही अतुल शर्मा से परिचय हुआ ऒर फिर देहरादून की साहित्यिक दुनिया से धीरे धीरे संपर्क बढता रहा. उन दिनों देहरादून में साहित्य की दीवानी एक नयी पीढी उभर रही थी- राजेश सकलानी, दिनेशचन्द्र जोशी,विजय गौड,रतीनाथ योगेश्वर, मदन मोहन ढुकलान, दैवेन्द्र प्रसाद जोशी जैसे नाम इस समय ध्यान आ रहे हैं.जितेन ठाकुर ऒर जयप्रकाश नवेन्दु पहले ही परिद्र्श्य में आ चुके थे.जितेन की कविता धर्मयुग में छप चुकी थी. कविता संग्रह आ चुका था. नवेन्दु के भी एकाधिक संग्रह छप चुके थे. ये दोनों उस नयी फ़ॊज के बीच थोडा वरिष्ठ लगते थे. नयी फ़ौज अतुल शर्मा की अगुवाई में समान्तर कवि- सम्मेलन आयोजित/प्रायोजित कर लेती थी( प्रायः ये सम्मेलन उस मंचीय कविता के खिलाफ़ होते थे जिनकी सरपरस्ती स्व. गिरिजाशंकर त्रिवेदी किया करते थे. प्रसंगवश यह उल्लेखनीय है विगत तीन दशकों से अधिक समय तक त्रिवेदीजी कवि सम्मेलनों के बहुत सफ़ल संचालक रहे. उनकी वाणी में सरस्वती निवास करती थी. वे बहुत मदुभषी थे किन्तु कवि सम्मेलन की दुनिया में सिमटे हुए थे.वे हिन्दुस्तान में स्ट्रिंगर भी थे.डी.ए.वी.कालेज में संस्कत के विभागाध्यक्ष तो थे ही.गत वर्ष उन्के निधन पर राजीव नयन बहुगुणा ने पठ्नीय श्रद्धांजली युगवाणी में लिखी थी. उम्मीद है विजय गौड उस श्रद्धांजलि को इस ब्लाग पर चस्पां करेंगे. उन सम्मेलनों को गरिमा प्रदान करने हेतु तीन बुजुर्गवार अध्यक्ष की आसन्दी के लिये उपलब्ध थे- रमेश कुमार मिश्र 'सिद्धेश', सुखबीर विश्वकर्मा (वे कविजी के नाम से ख्यात थे ऒर उन पर यह खाकसार अलग से कुछ फ़ूल चढायेगा) ऒर चारूचन्द्र चन्दोला. कविजी सडक दुर्घटना में हमसे बिछड गये ऒर सिद्धेशजी बिमारी के बाद इस दुनिया में नहीं रहे- वे डयबेटिक थे ऒर दिल के मरीज भी. सिद्धेशजी ठहाके बहुत ही सुन्दर लगाते थे- उसमें एक उठान वाली लय होती थी;थोडी सी मिठास ऒर बहुत महीन कम्पन. वे जब ठहाके लगाते तो उनके होंठ लरजते थे. वे कला-प्रेमी थे ऒर पत्थरों के रूपाकारों पर काम करते थे.एक बार अतुल शर्मा ने टाउन हाल में एक प्रदर्शनी का आयोजन किया था जहां सिद्द्धेशजी की प्रस्तर-स्रजन के साथ अतुल की कविताओं का संसार था. उस प्रदर्शनी के लिये हम तांगे मे सहस्र्धारा रोड से् सिद्धेशजी की प्रस्तर - संपदा लादे शहर की सड्कों से गुजर रहे थे ऒर उनके निश्छल ठहाकों की लहरों में उतरा रहे थे. अब वे पल दुर्लभ हैं.
अब वे सडकें नहीं हैं.
शहर में तांगे नहीं हैं.

फिर भी शहर में अब भी काफी कुछ बचा हुआ है.यह देहरादून की फितरत है. इस शहर में अपने को बचाने की जिजीविषा मॊजूद है.इस बारे में फिर कभी.

2 comments:

batkahi said...

naveen bhai,bahut dino ki apki CASUAL chuppi ke bad kitab ki khabar faagun ki nayi hawa ki tarah aai.aap jis din kaho dehradun aakar ham dhang se celebrate karen......

शोभा said...

वाह बहुत सुन्दर लिखा है।