सोचो थोड़ी देर
आखिर कब तक
सरकारों का बदल जाना
मौसम के बदल जाने की तरह
नहीं रहेगा याद
कब तक यही कहते रहेंगे
इस बार गर्मी बड़ी तीखी है
बारिस भी हुई इस बार ज्यादा
और ठंड भी पड़ी पहले से अधिक
कब तक
बेशक
सट्टे बाजार के इर्द-गिर्द
घूमते हुए हम
पूंजीवाद का विराध करते रहे
बेशक
हथियारों की ईजाद में संलग्न
दुनिया को बेखौफ देखने की
सोचते रहे
बेशक
प्रेम में हारते हुए हम
बच्चों को प्रेम करने को
कहते रहे
पर जंगल से दूर रह कर
जंगल राज पर
कब तक मारते रहेंगे ठप्पे ?
यह कविताएं मेरे हाल में ही प्रकाशित कविता संग्रह सबसे ठीक नदी का रास्ता में शामिल हैं।
5 comments:
बढिया कटाक्ष
विजय जी
छोटी की रचना में इतनी गहरी बात कह दी है आपने .........
आपका प्रयास सही है समाज को झकझोड़ने का
कभी तो हम अपना कर्त्तव्य पहचानेगे
achcha sanklan! achchhi kavitaein!
जेनुइन बेचैनी...।
बहुत सही....एकदम सटीक....सुन्दर रचना...
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