हरेले को प्रतिवर्ष श्रावण मास के प्रथम दिन मनाया जाता है। इसे मनाने का विधि विधान बहुत दिलचस्प होता है। जिस दिन यह पर्व मनाया जाता है उससे 10 दिन पहले इसकी शुरूआत हो जाती है। इसके लिये सात प्रकार के अनाजों को जिसमें - जौ, गेहूं, मक्का, उड़द, सरसों, गहत और भट्ट (गहत और भट्ट पहाड़ों में होने वाली दालें हैं) के दानों को रिंगाल से बनी टोकरियों, लकड़ी से बने छोटे-छोटे बक्सों में या पत्तों से बने हुए दोनों में बोया जाता है।
हरेला बोने के लिये हरेले के बर्तनों में पहले मिट्टी की एक परत बिछायी जाती है जिसके उपर सारे बीजों को मिलाकर उन्हें डाला जाता है और इसके उपर फिर मिट्टी की परत बिछाते हैं और फिर बीज डालते हैं। यह क्रम 5-7 बार अपनाया जाता है। और इसके बाद इतने ही बार इसमें पानी डाला जाता है और इन बर्तनों को मंदिर के पास रख दिया जाता है। इन्हें सूर्य की रोशनी से भी बचा के रखा जाता है।
इन बर्तनों में नियमानुसार सुबह-शाम थोड़ा-थोड़ा पानी डाला जाता है। कुछ दिन के बाद ही बीजों में अंकुरण होने लगता है और फिर धीरे-धीरे ये बीज नन्हे-नन्हे पौंधों का रूप लेने लगते हैं। सूर्य की रोशनी न मिल पाने के कारण ये पौंधे पीले रंग के होते हैं। 9 दिनों में ये पौंधे काफी बड़े हो जाते हैं और 9वें दिन ही इन पौंधों को पाती (एक प्रकार का पहाड़ी पौंधा) से गोड़ा जाता है। ऐसा माना जाता है कि जिसके पौंधे जितने अच्छे होते हैं उसके घर में उस वर्ष फसल भी उतनी ही अच्छी होती है।
10 वें दिन इन पौंधों को उसी स्थान पर काटा जाता है। काटने के बाद हरेले को सबसे पहले पूरे विधि - विधान के साथ भगवान को अर्पण किया जाता है। उसके बाद परिवार का मुखिया या परिवार की मुख्य स्त्री हरेले के तिनकों को सभी परिवारजनों के पैरों से लगाती हुई सर तक लाती है और फिर सर या कान में हरेले के तिनकों को रख देती है। हरेला रखते समय आशीष के रूप में यह लाइनें कही जाती हैं -
लाग हरियाव, लाग दसें, लाग बगवाल,
जी रये, जागी रये, धरति जतुक चाकव है जये,
अगासक तार है जये, स्यों कस तराण हो,
स्याव कस बुद्धि हो, दुब जस पंगुरिये,
सिल पियी भात खाये
(अर्थात - हरेला पर्व आपके लिये शुभ हो, जीते रहो, आप हमेशा सजग रहो, पृथ्वी के समान धैर्यवान बनो, आकाश के समान विशाल होओ, सिंह के समान बलशाली बनो, सियार के जैसे कुशाग्र बुद्धि वाले बनो, दूब घास के समान खूब फैलो और इतने दीर्घायु होओ कि दंतहीन होने के कारण तुम्हे सिल में पिसा भात खाने को मिले।)
जो लोग उस दिन अपने परिवार के साथ नहीं होते हैं उन्हें हरेले के तिनके पोस्ट द्वारा या किसी के हाथों भिजवाये जाते हैं। कुमाऊँ में यह त्यौहार आज भी पूरे रीति-रिवाज और उत्साह के साथ मनाया जाता है।
-विनीता यशस्वी
7 comments:
नाम तो याद नहीं आ रहा .. पर इसी प्रकार का एक त्यौहार झारखंड में भी मनाया जाता है .. छोटी छोटी कन्याओं के द्वारा .. अंकुरों से भरी टोकरी को आंगन के मध्य में रखकर वे सामूहिक रूप से गीत गाया करती हैं .. उसमें ईश्वर से अच्छी फसल के लिए और सुख शांति के लिए प्रार्थना की जाती है।
ऐसा ही कुछ राजस्थान में नवरात्री और गणगौर पर्व पर किया जाता है ...बस यहाँ धान के रूप में सिर्फ जौ का प्रयोग होता है!!
लाहुल , हिमाचल प्रदेश् मे शीत ऋतु के सभी त्योहारों में इसी तरह(अन्धेरे मे) जौ उगाया जाता है. देवताओं को अर्पित करने और सगे सम्बन्धियों को भेंटने के लिए. जौ के इन पीले अंकुरों को य़ौरा कहते है.यौरा पवित्रता और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है.
इन त्यौहारों मे से एक का नाम ही योर है.
योर फसल और संतति का आदिम त्यौहार है. इस मे पित्तरों को मदिरा , अन्न , और यौरा अर्पित किया जाता है....
भारत के सभी कोनों से इस पोस्ट पर कमेंट मंगाए. परम्पराओं के अंतर्सम्बन्धों की एक शृखला बंती चली जाएगी.
Thnx for sharing! Happy harela ! Even in Haryana and west U.P. this kind of tradition exists during Dussehra days . This is one India brother ,basically.
Krishna ,according to some pseudo-seculars, was just a local folk hero from cow-belt, but there are dances devoted to Him in Manipur and Meghalaya. Story of Rukmani haran is told in those areas of Arunachal where dialects are Chinese and Indian roads have not yet reached. In south almost every male name is synonymous with Krishna . It is one India definitely.I won't discuss Bharat versus India here..ha..ha..!
मुनीश भाई बहुत बहुत आभार, हालांकि ऎसा कहते हुए औपचारिक नहीं हूं पर औपचारिकता जैसी लग रही है, आपकी टिप्पणी आलेख को अर्थवान बना रही है।
अन्य मित्रों,वाणी जी, संगीता जी और अजेय भाई की टिप्पणियों में भी वह विविधता दिखाई दे रही है जो आप कह रहे हैं।
आप सभी मित्रों का आभार।
हरेला उत्तराखंड का एक प्रमुख लोक त्यौहार है| हरेला उत्तराखंड की प्रकृति प्रेमी, विराट एवं समृद्ध संस्कृति का परिचायक है| ये त्यौहार सामाजिक सोहार्द के साथ-साथ कृषि व मौसम से भी सम्बन्ध रखता है|
हरेला: भिन्न प्रकार के खाद्यानों के बीजो को एक साथ उगाकर, दस दिन के बाद काटा जाता है|
हरेला साल में तीन बार मनाया जाता है|
१. चैत्र: चैत्र मास के प्रथम दिन बोया जाता है और नवमी को काटा जाता है|
२. श्रावण: श्रावन लगने से नौ दिन पहले अषअड़ में बोया जाता है और १० दिन बाद काटा जाता है|
३. आशिवन: आश्विन नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरा के दिन काटा जाता है|
इस लोक त्यौहार के बारे में अधिक जानकारी के लिये निम्न लिंक पर जाने का कष्ट करें-
http://www.merapahad.com/forum/culture-of-uttarakhand/()-harela-festival-of-uttarakhand/
Bahut achhi jaankaaree ke liye shukriya..
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