जलवायु परिवर्तन को लेकर साम्राज्यवादी खेमे में ही नहीं बल्कि तीसरी दुनिया में भी एक बहस जारी है, जहां एक पक्ष उसे मनुष्य के ह्स्तक्षेप की वजह मानता है वहीं दूसरे पक्ष का कहना है कि यह शुद्ध रूप से प्राक्रतिक घटना की वजह से जारी है। हमारे मित्र और साथी यादवेन्द्र जी इस बहस के बीच एक सकारात्मक हस्तक्षेप कर रहे हैं। प्रस्तुत है उनके हवाले से यह पोस्ट। |
यादवेन्द्र
आज कल पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन की बात खूब जोर शोर से उठाई जा रही है...ये ऐसा विषय है जिस पर राजनीति तो सर चढ़ के बोल रही है,पर राजनीतिक लोग भी जिस आधार को ले कर शोर मचा रहे हैं वो है वैज्ञानिकों द्वारा दुनिया के अलग अलग हिस्सों में किये गए दीर्घ कालिक अध्ययन.भारतीय हिमालयी क्षेत्रों में इसको सही ठहराने के लिए कई शोध परियोजनाएं चल रही हैं और अनेक विश्विद्यालय,संस्थान और गैर सरकारी संगठन इस दिशा में सक्रिय हैं.हिमालयी ग्लेशिअर --खास तौर पर गंगोत्री ग्लेशिअर -- के बहुत तेजी से पिघलने की बात कई अध्ययनों में सामने आयी है...हांलाकि जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए कोपेनहेगेन में आयोजित विश्व सम्मेलन से ठीक पहले भारत के पर्यावरण मंत्री ने ये कह के सबको हैरत में डाल दिया कि ग्लेशिअर के पिघलने कि बात सही है पर जलवायु परिवर्तन ही इनका कारण है ये साबित करना मुश्किल है.पिछले साल अगस्त में संसद में दिए बयान में इन्ही मंत्री महोदय ने कहा था कि पिछले तीन दशकों के आंकड़े देखें तो पाता चलता है कि गंगोत्री ग्लेशिअर १८-२५ मीटर प्रति वर्ष कि रफ़्ता
र से पीछे खिसक रहा है--ध्यान देने कि बात है कि इस से पहले के आंकड़े बताते हैं कि इसके पिघलने कि रफ़्तार काफी खत्म थी। भारतीय वैज्ञानिकों के एक शोध पत्र में दिया गया उपग्रह चित्र इसकी पुष्टि करता है.
उत्तराखंड के एक गैर सरकारी संगठन ने नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क में बसे १६५ गांवों का अध्ययन करके यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि भागीरथी घाटी के सालों भर प्रवाहमान बने रहने वाले ४४% जलस्रोत या तो सूख गए या फिर इनमे जल प्रवाह बरसाती भर हो के रह गया.सर्दियों में इन इलाकों में बारिश और बर्फ काम पड़ने लगी,सर्दियों की अवधि कम से कम एक महीना सिमट गयी.बरसात की निरंतरता में कमी आयी है--अब ये कम समय में और कम क्षेत्र में सिकुड़ गयी है,पर साथ साथ इसकी तीव्रता में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है.अल्मोड़ा के
गोविन्द बल्लभ पन्त संस्थान के अध्ययन बताते हैं कि पिछले दो दशको में कम
समय में तीव्र वारिश की घटनाएँ अलकनंदा घाटी में बढ़ी हैं.
ऊंचाई वाले इलाकों में बुरांश,फ्यूली और काफल परंपरागत समय से पहले देखे जाने लगे हैं---कई बार तो डेढ़ महीना पहले तक.ये बात किसी एक साल की नहीं है बल्कि सालों साल ऐसा देखा जा रहा है.एक अध्ययन तो यहाँ तक कहता है कि जलवायु परिवर्तन की यही गति बनी रही तो ब्रह्मकमल जैसा ईश्वरीय फूल पांच सालों में ही विलुप्त हो जायेगा.दर असल ब्रह्मकमल निरंतर बर्फ से ढके ३०००-४००० मीटर ऊँचे स्टालों पर उगता है.जलवायु परिवर्तन के कारण पहले बर्फ से ढके रहने वाले इलाके भी धीरे धीरे सिकुड़ रहे हैं--अब बर्फ की परतें ऊपर की ओर खिसकती जा रही हैं, इस लिए इनमे उगने वाले वनस्पति भी बर्फ की परतों के साथ ज्यादा ऊंचाई पर स्थानांतरित होते जा रहे हैं.ऊपर खिसकते जाने की भी एक संभव सीमा है और अपने चरम पर पहुँचने पर इन वनस्पतियों और जीवों को खुद को बचाए रखना बेहद मुश्किल होगा.
इन वैज्ञानिक अनुसंधानों की बाबत यहाँ रेखांकित की जाने वाली बात ये है कि जलवायु परिवर्तन के सूचक कारकों का जायजा आम आदमी के अनुभव जगत में दर्ज --बगैर वैज्ञानिक कारणों की समझ हुए भी---घटनाओं की पृष्ठभूमि में पहली बार लिया गया है.नंदा देवी पार्क में किये गए एक विज्ञानी अध्ययन में आम लोगों ने जो अ-साधारण मौसमी परिवर्तन महसूस किये वे हैं: तापमान का बढ़ना,बर्फबारी की अवधि कम हो जाना,सेब की फसल कम होना,ऊंचाई वाले इलाकों में गोभी मटर टमाटर ,सर्दी की फसलों का कम समय में पक जाना, कीड़े मकोड़ों का बढ़ता हुआ प्रकोप,मार्च-मई में बरसात की मात्रा का कम हो जाना, आम तौर पर जुलाई अगस्त ममे होने वाली बर्फ बारी का एक महीना बाद खिसक जाना,सर्दियों की बरसात का दिसम्बर जनवरी से खिसक के जनवरी फरवरी में चला जाना,सर्दियों की फसल की बुवाई में देरी,गेंहू और जौ की उपज में कमी इत्यादि.सर्वेक्षण बताता है की बरसात और बर्फ बारी में कमी की बात ९०% से ज्यादा लोग मानते हैं.
आशा की जानी चाहिए कि बड़े शहरों में बनायीं गयी ऊँची वातानुकूलित इमारतों में बैठ कर शोध करने वाले सरकारी वैज्ञानिक अपने शोध की दिशा निर्धारित करने में भविष्य में भी इसी तरह आम लोगों की बात को गौर से सुनते और दर्ज करते रहेंगे.
इस सन्दर्भ में मुझे कुछ साल पहले विज्ञानं की दुनिया की प्रतिष्ठित पत्रिका नेचर में पढ़ी एक रिपोर्ट याद आती है जिसमे बीती सदी की अंग्रेजी लेखिका जेन ऑस्टेन के उपन्यास एम्मा का जिक्र था कि जब ये प्रकाशित हुआ तो इसमें फूलों से भरे सेब के बाग़ को ले कर लेखिका पर बहुतेरे लांछन लगाये गए थे ---ये कहा गया था कि इस ऐशो आराम में रहने वाली लेखिका को इतना तक नहीं पाता कि सेब के वृक्ष फूलों से कब गदराते हैं,जिस मौसम का जिक्र करते हुए सेब के फूलों कि चर्चा कि गयी थी आम तौर पर ब्रिटेन में उन दिनों सेब के पेड़ पर फूल लगते नहीं.पर उपन्यास के प्रकाशन के कोई ९०-९५ साल बाद एक प्रसिद्द मौसम विज्ञानी ने उपलब्ध मौसमी आंकड़ों की छान बीन करके ये बताया कि जेन ऑस्टेन ने जिस साल का जिक्र किया है उस साल ब्रिटेन में रिकॉर्ड गर्मी पड़ी थी और सेब के बागों में समय से पहले फूल आ गए थे---इस बात की आधिकारिक पुष्टि की जा सकती है.
इस उदाहरण से ये सबक तो मिलता ही है कि आम जनता को अनपढ़ गंवार मान लेने की गलती वैज्ञानिकों को नहीं करनी चाहिए...और अनुसन्धान की दिशा क्या हो इसके निर्धारण में उनको गौरव पूर्ण और न्यायोचित हिस्सेदारी दी जानी चाहिए...
4 comments:
अगर आम आदमी यह महसूस कर रहा है तो वैज्ञानिकों क उनसे पहले यह महसूस करना चाहिये .. यह उनका काम भी है ।
जलवायु समस्या के मूल में भी पूंजीवाद की भयावह लूट और लालच है।
फ्रांसुआस दोबोन्न अक्सर याद आती हैं- दुनिया को बचाना है तो दुनिया को बदलना ज़रूरी है।
वैज्ञानिक !
वैज्ञानिक (?)
हमारी व्यवस्था चतुर लिंगमों को वैज्ञानिक मानती है भाईयो. जो क़िताबें रट कर डिग्रियाँ लेते हैं,और् बाद में कंपनियों के लिए पेटॆंट खरीदने-बेचने वाले
दल्ले बन जाते हैं. हमीं लोगों ने इन्हे यह काम दिया हुआ है..... और आज हम उन्हे अपना "काम" याद दिला रहे हैं.
bahoot achha likha aapne
Post a Comment