इस से पहले भी यहाँ (नवम्बर २००८ के पोस्ट १० में) शेल सिल्वरस्टीन की भाषाओँ के विलुप्त होते जाने पर एक मार्मिक कविता प्रस्तुत की जा चुकी है...मेरी समझ में आम बोल चाल की भाषा में और बेहद मामूली विषयों पर लिखने वाले वे अमेरिका के एक बड़े कवि हैं.यहाँ उनकी तीन छोटी कवितायेँ फिर से प्रस्तुत हैं: |
शेल सिल्वरस्टीन की कवितायेँ
आवाज
तुम्हारे अन्दर बसी हुई है एक आवाज
पूरे दिन दबी जुबान दुहराती हुई...
...मुझे लगता है मेरे लिए यह ठीक है...
...मैं जानता हूँ ये गलत है...
कोई टीचर,ज्ञानी,माँ बाप
दोस्त या सयाना ही क्यों न हो
तय नहीं कर सकता
क्या है सही तुम्हारे लिए...
बस तुम कान लगा कर सुनो
क्या कह रही है आवाज
तुम्हारे अन्दर बसी हुई है जो..
कोई तो होगा
कोई तो होगा जिसे रगड़ रगड़ के
चमकाना होगा तारों को
उनकी चौंध धुंधली पड़ गयी है आजकल
कोई तो होगा जिसे रगड़ रगड़ के
चमकाना होगा तारों को
चीलों,फाख्तों और सागर के ऊपर मंडराने वाले परिंदों के लिए
उलाहने लिए आए हैं सब के सब
कि घिस पिट गए हैं और
बदरंग हो गए हैं तारे...
सब को चाहिए नए नवेले तारे
पर हम इनको लायें कहाँ से?
इसलिए ढूँढो चीथड़े लत्ते
और दुरुस्त कर लो पालिश कि बोतलें ...
कोई तो होगा जिसे रगड़ रगड़ के
चमकाना होगा तारों को..
कितना??
कितनी पिचकन दिख रही है जर्जर दरवाजे पर
निर्भर करता है कितनी जोर से धक्का मार के इसको तुम बंद करते रहे हो...
कितनी परतें निकल सकतीं हैं एक ब्रेड में
निर्भर करता है कितनी बारीकी से काट रहे हो तुम...
कितनी अच्छाई समा सकती है एक दिन के गर्भ में
निर्भर करता है कितने अच्छे ढंग से इसको जीते हो तुम...
कितना प्यार भरा हो सकता है एक दोस्त के अन्दर
निर्भर करता है तुम आतुर हो कितने खुद इसे लुटाने के लिए ...
शेल सिल्वरस्टीन (१९३२-१९९९) अमेरिका के प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट,नाटककार, यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी लोकप्रिय कविताओं में से तीन कवितायेँ...चयन और प्रस्तुति: यादवेन्द्र |
2 comments:
क्या इस कविता में बीच मे ब्रेक दिये जा सकते हैं…पढ़ने में बेहद असुविधा हो रही है और पढ़े बिना रहा नहीं जा रहा है…
बहुत अच्छा लगा यह पढकर।
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