गनीमत है कि महत्वाकांक्षा
में डूबा मेरा भीतर सत्तामुखापेक्षी, स्त्री विरोधी, दलित विरोधी एवं साम्प्रदायिकता
का पक्षधर मान लिए जाने से अभी तक बचा रह पाया है। वैसे उम्मीद है आगे भी शायद
मैं बचा ले जाउुं, महत्वाकांक्षा से अति
महत्वाकांक्षा की फिसलन को मेरी आंखें अभी ठीक से देख पा रही है। हालांकि आंखों की
रोशनी को बचाए रखने में उन आयोजकों का ही अहम रोल है जिन्हें कभी मुझे भी मंच पर
बुला लेने की नहीं सूझी या जिनके देखने की सीमा, तय दायरे में ही बनी रही। उन
आलोचकों का भी अहम रोल है जिन्होंने अपनी नाम गिनाउुं आलोचनाओं में मेरा जिक्र
करने की जहमत नहीं उठाई। उन घोषित संगठनवादियों की भी अहम भूमिका है जिन्होंने
अपने गिरोह में मुझे शामिल देखने से पहले ही दूरी बनाये रखी। उन आत्मीय मित्रों का
भी आभारी हूं अतिमहत्वाकांक्षा के नशे में जिन्हें खुद मुझ जैसे अति निकट के व्यक्तियों
के नाम लेने में कभी कोई लाभ नहीं दिखा। लाभ हानि के गणित के साथ वे सिर्फ अवसरों
को उपलब्ध करा सकने वाले सम्पर्कां को ही भुनाने की जुगत बैठाते रहे। काश अगर
इनमें से कोई भी स्थिति बनी होती तो अतिमहत्वाकांक्षा की फिसलन में मेरे पाँव भी
रिपट तो गये ही होते। आभारी हूं मैं उन आयोजकों का भी, आकस्मिक तरह से जिनके
आमंत्रण पर मैं उपस्थिति हो तो गया पर जो अपने आयोजन के खर्चे के स्रोत को विवाद
के दायरे में आने से बचा गये। उन समीक्षकों का, मेरे लिखे का जिक्र कर देने पर भी
जिन्होंने अपने को किसी गिरोह में दिखने से बचाए रखा। उन आत्मीय मित्रों का भी
जिनके साथ मैं भी जीवन का ककहरा सीखता रहा पर जो अपनी दुनिया में रमते हुए कहीं
जिक्र करना जैसा भी हुआ तो भुलाए रहे और देवतव को प्राप्त हो ये लोगों के जिक्र
के साथ ही अपनी हैसियत के लिए सचेत रहे। वरना कौन नहीं चाहेगा कि निर्मोही सूचनाएं
उसे नामवरी बनाती रहें। कौन नहीं चाहेगा कि अरबों खरबों की जनसंख्या वाली इस धरती
पर चार, छै, दस उसके भी ऐसे भी प्रशंसक हो कि जिन्हें उसके अहंकार में भी
विनम्रता दिखे और उसकी डुगडुगी पीटते हुए उसकी आलोचना करने वालों तक पर वे पिल
पड़ें। मेरे भीतर की महत्वाकांक्षा भी फिसलकर अति महत्वाकांक्षा की खाई में गिर
जाने वाली तो हो ही सकती थी। यह तो स्पष्ट ही है कि मेरे भीतर भी महत्वाकांक्षा
की एक कोठरी तो है ही जिसमें बैठकर मुझे भी यह देखने का मन तो होता ही है कि लोग
मुझे जाने, मेरे लिखे को पढ़े, मेरे लिखे पर बात हो जे एन यू की औपचारिक गाष्ठियों
से लेकर धारचूला या गंगोलीहाट के जंगलों तक में चलने वाली अनौपचारिक गोष्ठियों में,
और उनका जिक्र भी हो मीडिया में। मेरे भीतर भी महत्वाकांक्षा का स्रोत वैसे ही
मौजूद है जैसे उन दूसरों के भीतर, जो एक दो और तीन एवं अनंत की गिनतियों तक पुरस्कार
प्राप्त करते हैं।
क्या ही अच्छा
हो कि किसी सांस्कृतिक एकजुटता की शुरूआत वस्तुनिष्ठता के साथ तय कार्यभार से
हो। तय हो कि किस किस तरह के आयोजन को साम्प्रदायिक, फासीवादी, स्त्रीविारेध,
दलित विरोधी, सत्तामुखापेक्षी माना जाए। ताकि समय समय के हिसाब से व्याख्यायित
करना न हो। कौन सा पुरस्कार ग्रहण किया जाए और किसका विरोध हो। वरना यह मुश्किल
होगा कि कब कौन उदय प्रकाश बन जाए या बना दिया जाए, कब कौन कृष्ण मोहन घोषित कर
दिया जाए या हो जाए, कब कौन नरेश सक्सेना हो जाए या बना दिया जाए। चुन कर टारगेट
करने और चुन कर कुतर्क का सहारा लेकर कहीं भी शामिल हो जाने की प्रवृत्ति वस्तुनिष्ठता
के दायरे में लक्षित हो तो चुनी हुई चुप्पियों का साम्राज्य ध्वस्त किया जा
सकता है और समाज को जनतांत्रिक बनाने के कार्यभार को आगे बढ़ाया जा सकता है।
3 comments:
अच्छा लेख.
सामयिक..
बहुत ही उम्दा .... बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति .... Thanks for sharing this!! :) :)
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