Sunday, November 12, 2017

साहित्य और प्रर्यावरण के अन्तर संबंध


पर्यावरण चेतना और सृजन के सरोकार जैसे सवालों पर विचार-विमर्श करते हुए कोलकाता की सुपरिचित संस्था साहित्यिकी ने भारतीय भाषा परिषद में 11 नवंबर 2017 को एक राष्ट्रीय परिसंवाद का आयोजन किया। परिसंवाद में भागीदारी करते हुए जहां एक ओर हिंदी कविताओं में विषय की प्रासंगिकता को तलाशते हुए जहां डा. आयु सिंह ने हिंदी कविता में विभिन्न समय अंतरालों पर लिखी गई अनेक कवियों की कविताओं को उद्धृत करते हुए अपनी बात रखी वहीं ठेठ जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ता सिद्धार्थ अग्रवाल ने जन समाज की भागीदारी की चिंताओं को सामने रखा। दूसरी ओर पर्यावरणविद, वैज्ञानिक एवं साहित्य की दुनिया के बीच अपने विषय के साथ आवाजाही करने वाले यादवेन्द्र ने अपने निजी अनुभवों को अनुभूतियों के हवाले से पर्यावरण के वैश्विक परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए न सिर्फ पर्यावरण को अपितु पूरे समाज को पूंजी की आक्रामकता से ध्वस्त करने वाली ताकतों की शिनाख्त करने का प्रयास किया।
कार्यक्रम के आरंभ में 'साहित्यिकी' संस्था, कोलकाता की सचिव गीता दूबे ने संस्था की गतिविधियों का संक्षिप्त विवरण देते हुए अतिथियों का स्वागत किया। तत्पश्चात वाणी मुरारका ने‌ मरुधर मृदुल की कविता 'पेड़, मैं और हम सब' का पाठ किया।  'साहित्य और पर्यावरण' पर अपनी बात रखते हुए डा. इतु सिंह ने कहा कि प्रकृति प्रेम हमारा स्वभाव और प्रकृति पूजा हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है। उन्होंने जयशंकर प्रसाद, अज्ञेय‌ आदि की कविताओं  के हवाले से प्रकृति के प्रति उनके लगाव और चिंता को स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि बाद में भवानी प्रसाद मिश्र आदि ने प्रकृति प्रेम की ही नहीं प्रकृति रक्षण की भी बात की। हेमंत कुकरेती, केदारनाथ सिंह, लीलाधर जगूड़ी, ज्ञानेन्द्रपति, मंगलेश डबराल, कुंवर नारायण,  उदय प्रकाश, लीलाधर मंडलोई, वीरेंद्र डंगवाल, मनीषा झा, राज्यवर्द्धन, निर्मला पुतुल की कविताओं में पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा बेहतरीन ढंग से उठाया गया है।
पूर्व बातचीत के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए पर्यावरणविद सिद्धार्थ अग्रवाल ने कहा कि पर्यावरण और स्थानीय भाषा दोनों के साथ असमान व्यवहार होता है। प्रकृति का अनियमित शोषण हो रहा है। नदियों का लगातार दोहन हुआ है। जागरूकता के अभाव में पानी बर्बाद होता है। आज के समय में हम विश्व स्तर पर जलवायु परिवर्तन देख रहे हैं। केन बेतवा परियोजना के कारण बहुत बड़ी संख्या में पेड़ डूबने वाले हैं। उन्होंने अपना दर्द साझा करते हुए कहा कि आज के समय में पर्यावरण के लिए काम करना बेहद चुनौतीपूर्ण है।
"पर्यावरण और सांस्कृतिक विरासतें" विषय पर दृश्य चित्रों‌ के माध्यम से अपना व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए यादवेन्द्र ने कहा कि जलवायु परिवर्तन की कीमत हमने ऋतुओं के असमान्य परिवर्तन के रूप में चुकायी है। गंगोत्री ग्लेशियर लगातार पीछे की ओर खिसकता जा रहा है। पांच छः सालों के बाद केदारनाथ मंदिर में चढ़ाया जानेवाला ब्रह्मकमल खिलना बंद हो जाएगा। जलवायु परिवर्तन के लक्षणों के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा  कि अगर दुनिया ने अपने चाल और व्यवहार में परिवर्तन नहीं किया तो चीजें ऐसी बदल जाएंगी कि दोबारा उस ओर लौटना संभव नहीं हो पाएगा। राष्ट्रीय धरोहरों पर  निरंतर बढ़ते जा रहे खतरों की चिंताएं भी उनके व्याख्यान का विषय रहीं।
अध्यक्षीय भाषण में किरण सिपानी ने कहा कि पर्यावरण में आ रहे बदलावों की वजह से हमारा अस्तित्व खतरे में है। अभी भी लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता का अभाव है। हम अदालती आदेशों से डरते हुए भी सरकारी प्रयासों के प्रति उदासीनता बरतते हैं। आवश्यकता है अपनी उपभोग की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की। प्लास्टिक पर रोक लगाने की बजाय उनका उत्पादन बंद होना ‌चाहिए।

परिचर्चा में पूनम पाठक,  विनय जायसवाल, वाणी मुरारका आदि ने हिस्सा लिया। शोध छात्र, प्राध्यापक, साहित्यकार, पत्रकार, युवा पर्यावरण कार्यकर्ता एवं विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर चिंता जाहिर करने‌वाले लोगों की एक  बड़ी संख्या ने कार्यक्रम में हिस्सेदारी की।
कार्यक्रम का कुशल  संचालन रेवा जाजोदिया और धन्यवाद ज्ञापन विद्या भंडारी ने किया।

एक साहित्यिक संस्था का जनसमाज को प्रभावित करने वाले विषय में दखल करने की यह पहल निसंदेह सराहनीय है।

2 comments:

सुधाकल्प said...

अतीव महत्वपूर्ण व सार्थक विचार विमर्श

कविता रावत said...

बहुत अच्छी विचारशील प्रस्तुति
शीर्षक में 'प्रर्यावरण' को सही कर लें