कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति
मैं आपके इस तर्क को निराधार तो नहीं मान सकता कि एक लम्बे समय तक आपकी
रचनाओं को स्थापित पत्र पत्रिकाओं में जगह न दिया जाना आपका दलित होना रहा होगा,
लेकिन थोड़ा वस्तुनिष्ठ तरह से इस संभावना को रखना चाहूंगा कि हिंदी में
पेशेवराना मिजाज न होने के कारण ही ऐसा हुआ होगा। पेशेवराना अभाव के कारण ही हिंदी आलोचना,
आलोचकों की पहुंच की सीमा बनी हुई है। 1989 में प्रकाशित आपकी कविता पुस्तिका
‘सदियों का संताप’ भी उसी गुमानामी के अंधेरे में रहा होता यदि हिंदी में दलित
साहित्य को पहचाना नहीं गया होता। इतिहास गवाह है कि ‘सदियों का संताप’ के
प्रकाशन तक हिंदी में दलित साहित्य नाम की संज्ञा न होने के कारण रचनाओं के बाबत
उस पुस्तिका में हम कहीं भी नहीं कह पाये थे कि ये दलित कविताएं हैं।
हिंदी में दलित साहित्य की आवाज तो ‘हंस’ संपादक राजेन्द्र यादव से हुई आपकी
उस भेंट के बाद ही संभव हुई, जिस मुलाकात में तीखी बहस के बाद हंस संपादक ने आपसे
हंस के लिए कविताएं भेजने को कहा था और मिलते ही उन्हें हंस में छापा भी था। बस
इतना ही तो था हिंदी में दलित साहित्य के उभार का वह घटनाक्रम। जबकि बाद में तो
आपकी रचनाओं को छापने वाले संपादकों के फोन और पत्रों की बाढ़ के हम आपके साथी
गवाह रहे। उस वक्त आप अपने लेखन में ठीक ठाक व्यस्क हो चुके थे। यानी एक लेखक
के रूप में आपकी पहचान आपके किशोर वय के दौरान की पहचान नहीं रही। इसी कारण हिंदी
कविताओं को ‘इतिहास’ लिखने वाली आलोचना के पास आपकी पहचान को किसी ‘दशक’ में
पहचानना मुश्किल ही बना हुआ है। जिस तरह कुछ लेखकों को किशोर वय में ही हाथों हाथ
ले लिया जाता है, आप भी यदि उसी तरह एक लेखक के रूप में स्थापित हो गए होते तो यह
आशंका जाहिर की ही जा सकती है कि हिंदी में दलित साहित्य के प्रणेता का दर्जा
आपको शायद ही मिला होता। किसी आंदोलन का प्रणेता होने के लिए जिस वैचारिक तैयारी
की जरूरत होती है, ‘तारीफ और तालियां’ आपको भी पता नहीं वैसा करने का मौका देती या
नहीं। तालियों की गड़गड़ाहट यूं भी किसी को अपने में कहां रहने देती है। आप भी
अपने करीब बने रहते, ऐसा न मानने के पीछे बस वे सामाजिक प्रवृत्तियां ही आधार हैं
जो हिंदी में ‘अतिमहत्वाकांक्षा’ का कोहराम मचाए नजर आती हैं। आशंकाओं को निर्मूल
न माने तो यह बात दृढ़ता से कही जा सकती है कि आप कवि, कहानीकार खूब कहलाए होते,
लेकिन जिस तरह की वैचारिक जद्दोजहद आपने की, हिंदी की हमारी दुनिया उससे वंचित भी
रह सकती थी।
'जाति' आदिम सभ्यता का
नुकीला औज़ार है
जो सड़क चलते आदमी को
कर देता है छलनी
एक तुम हो
जो अभी तक इस 'मादरचोद' जाति से चिपके हो
न जाने किस हरामज़ादे ने
तुम्हारे गले में
डाल दिया है जाति का फन्दा
जो न तुम्हें जीने देता है
न हमें !
यह कविता बाद के दौर की कविता है। उस दौर की, जब एक रचनात्मक स्वीकारोक्ति
ने आपको आत्मविश्वास से भरना शुरु कर दिया था। शुरुआती दौर की कविताओं से इस
मायने में भिन्न हैं कि वहां जो गुस्सा था, असहायता की क्षीण सी रेखा खींचता
देता था, इनमें वह चुनौति प्रस्तुत करने लगा था। बानगी के तौर पर शुरूआती दौर की
आपकी एक कविता का स्वर कुछ यूं था,
मैंने दुख झेले
सहे कष्ट पीढ़ी-दर-पीढ़ी इतने
फिर भी देख नहीं पाए तुम
मेरे उत्पीड़न को
इसलिए युग समूचा
लगता है पाखंडी मुझको ।
इतिहास यहाँ नकली है
मर्यादाएँ सब झूठी
हत्यारों की रक्तरंजित उँगलियों पर
जैसे चमक रही
सोने की नग जड़ी अँगूठियाँ ।
कितने सवाल खड़े हैं
कितनों के दोगे तुम उत्तर
मैं शोषित, पीड़ित हूँ
अंत नहीं मेरी पीड़ा का
जब तक तुम बैठे हो
काले नाग बने फन फैलाए
मेरी संपत्ति पर ।
मैं खटता खेतों में
फिर भी भूखा हूँ
निर्माता मैं महलों का
फिर भी निष्कासित हूँ
प्रताडित हूँ ।
इठलाते हो बलशाली बनकर
तुम मेरी शक्ति पर
फिर भी मैं दीन-हीन जर्जर हूँ
इसलिए युग समूचा
लगता है पाखंडी मुझको । (अक्टूबर 1988)
निश्चित ही यह बदलाव इस बात के गवाह हैं कि अब आप अपने रास्ते, जो यू तो पहले
से तय था, उस पर पूरी शिद्धत से बढ़ना शुरु कर चुके थे। यह विकास ही आपको आत्मविश्वासी
बनाता रहा और यह आत्मविश्वास ही आपको उदात भी बनाता चला गया,
ऐसी ज़िन्दगी किस काम की
जो सिर्फ़ घृणा पर टिकी हो
कायरपन की हद तक
पत्थर बरसाये
कमज़ोर पडोसी की छत पर!
...जारी