इसलिए नहीं कि ‘तंग गलियों से भी दिखता है आकाश’ यादवेन्द्र जी की पहली किताब है, बल्कि इसलिए कि मेरे देखे हिंदी में यह पहली किताब है जिसमें दुनिया के विभन्न हिस्सों के रचनाकारों की रचनाओं के अनुवाद एक ही जगह पढ़ने को मिल रहे हैं, यह बात भी ध्या्न खींचती है कि यह किताब भारत से इतर दुनिया के स्त्री रचनाकारों के गद्य का नमूना पेश करती है। जहां तक मेरी जानकारी है, किताब में शामिल ज्यादातर अनुदित रचनाएं यादेवन्द्र जी की उस सहज प्रवृत्ति का चयन हैं जिसके जरिये वे अपने भीतर के कलारूप को अपने मित्रों के साथ शेयर करना चाहते रहे हैं। पुस्तक की भूमिका भी इस बात की गवाह है जब वे लिखते हैं, ‘’कोई पन्द्रह साल पहले की बात होगी, ‘द हिन्दू ‘ में प्रकाशित एक युवा भारतीय लेखक की कहानी ‘चॉकलेट’ मुझे बहुत पसन्द आयी भी और मैं उसे अम्मा को सुनाना चाहता था... पहले सोचा सामने बैठ कर हिन्दी अनुवाद करते-करते बोलकर सुना दूंगा पर लगा इससे कथा का तारतम्य टूट जाएगा सो बैठ कर कॉपी पर अनुवाद लिख डाला।‘’ यानी दुनिया के साहित्य से रिश्ता बनाते हुए जब उन्हेंअपने मन के करीब की कोई रचना नजर आयी उसे अपने मित्रों तक ही नहीं, बल्कि बहुत से दूसरे लोगों तक भी पहुंचाने के लिए वे उसे हिन्दी में अनुवाद करने को मजबूर होते रहे। कल्पित रूप में किसी किताब की योजना के साथ तो उनका चयन किया ही नहीं गया। यही वजह है कि अपने चयन में ये रचनाएं इस मानक से भी मुक्त कि भारतीय साहित्य से उनकी संगति एकाकार हो रही है या नहीं। यदि जुदा हैं तो उसके जुदा होने के कारण क्या हैं, विषय की विविधता से भरी इन रचनाओं के चयन की आलोचना में यह आरोप नहीं है । बल्कि उस बिन्दु की की ओर इशारा करना है कि इस पुस्तक की कुछ रचनाओं का मिजाज हिन्दी की कहानियों से ही नहीं अपितु अन्य भारतीय भाषाओं की कहानियों (यह कथन सीमित जानकारी के आधार पर) से भी भिन्न है और पाठक के अनुभव क्षेत्र को व्यापक बनाता है।
संग्रह की दो कहानियां का विशेष रूप से जिक्र करना चाहूंगा। पहली, आयरलैंड की रचनाकार मीव ब्रेन की कहानी ‘जिस दिन हमारी पहचान हमें वापिस मिल गयी’। विचार/राजनीति और कला को दो भिन्न रूप और एक दूसरे से जुदा मानने वाले यदि इस कहानी को पढ़ेंगे तो निश्चित है कि किंचित हिचकिचाहट भी यह कहने में महसूस नहीं करेंगे कि बिना विचार के कला का कोई औचित्य नहीं। बहुत महीन बुनावट की यह उल्लेखनीय रचना है।
दूसरी, ईराक की रचनाकार बुथैना अल नासिरी की कहानी ‘कैदी की घर वापसी’। आजकल ‘राष्ट्र वाद’ का डंका पीटने वाली मानसिकता को आईना दिखाती यह कहानी उस यथार्थ से रूबरू होने का अवसर देती है कि सत्ता किस तरह से लठैती के झूठे तमगे से नवाजती है और जीवन से हाथ धोने को मजबूर एक सैनिक के प्रियजनों को किस तरह की ‘शहादती’ प्रतिष्ठा से भर देती है। शहीद घोषित हो चुका कोई सैनिक यदि कई सालों के बाद, जैसे-तैसे बचते-बचाते हुए, सकुशल घर लौटता है तो आत्मीयता को मिले उपहारों में घोल कर पी चुके सगे-संबंधी किस तरह से पेश आ सकते हैं। यह किसी एक देश की सत्ता का चरित्र और किसी एक भूगोल का यथार्थ नहीं, बल्कि उसकी व्यापाकता सार्वभौमिक है।
वे कहानियां जिनके मिजाज एक निश्चित भूगोल और समाज के यथार्थ के साथ एकाकार होने के कारण हिन्दी से भिन्न भी हैं, रचनाकारों के परिचय के तौर पर दर्ज बहुत सी बातें, पाठक को उसे अपने संदर्भों के साथ मिलान करते हुए पढने का अवसर प्रदान कर रहे हैं।
इस ब्लाग के पाठक यह फख्र महसूस कर सकते हैं कि संग्रह की कुछ रचनाओं को वे बहुत पहले ही यहां भी पढ़ चुके होंगे। अभी उसी कड़ी को संभालते हुए यादवेन्द्र जी के चयन की दो बानगियां यहां अतिरिक्तं रूप से सांझा की जा रही हैं। संभवत: भविष्य की किसी पुस्तक में ये फिर से दिखायी दें। |
अर्जेंटीना की कहानी
अनूठी आदर्श जोड़ी
-- एंद्रेस नेओमान (अर्जेंटीना)
( एक)
मेरा नाम मार्कोस है। मेरी हमेशा से
क्रिस्टोबल बनने की ख्वाहिश रही है।
पर ऐसा नहीं है कि मुझे क्रिस्टोबल कह पुकार जाए इसकी मंशा
है - वह मेरा दोस्त है ,जिसको
मैं अपना बेस्ट फ्रेंड कहता हूँ ... और कोई
नहीं है मेरा बेस्ट फ्रेंड ,बस वही
है।
गैब्रिएला मेरी पत्नी है - वह मुझसे बेहद प्यार करती है ... पर
सोती क्रिस्टोबल के साथ है।
क्रिस्टोबल इंटेलिजेंट है ,खुद पर भरपूर भरोसा है उसे और साथ साथ चुस्त तथा फुर्तीला डांसर है।उसको घुड़सवारी भी
आती है ... और तो और वह लैटिन
ग्रामर में उस्ताद है। रच रच कर लजीज़ खाना बनाता है जिसे औरतें बड़े चाव से
खाती हैं। मैं कहूँगा कि गैब्रिएला उसकी फ़ेवरिट डिश है।
जो सारे मामले को नहीं जानता वह सोच सकता है कि गैब्रिएला मुझसे
धोखा कर रही है पर सच्चाई इस से
ज्यादा परे और कुछ नहीं हो
सकती ।
मेरी हमेशा से
क्रिस्टोबल बनने की ख्वाहिश रही है पर वहाँ सामने खड़े होकर टुकुर टुकुर ताकने के लिए नहीं। मैं भरपूर कोशिश
करता हूँ कि और कुछ बनूँ पर मार्कोस
न बनूँ। डांसिंग की क्लास जाता हूँ और किसी विद्यार्थी की तरह किताबों को छान
मारता हूँ। मुझे भली तरह से एहसास है कि मेरी पत्नी मेरा बहुत सम्मान करती है .. इतना कि वह बेचारी सोती मेरे नहीं उस आदमी के साथ है बिलकुल जिसके जैसा मैं बनने का यत्न करता रहता हूँ।क्रिस्टोबल के बलिष्ट सीने में दुबक कर मेरी
गैब्रिएला हमेशा अधीर होकर आशाभरी नज़रों से मेरी ओर
देखती है... दोनों बाँहें फैला कर।
उसके अंदर का धीरज देख कर मैं रोमांच और उत्तेजना से भर उठता हूँ
.... बस हरदम यही मनाता रहता हूँ कि उसकी उम्मीदों पर खरा उतर पाऊँ जिस से एकदिन
हम दोनों का भी संयोग बैठे। वह इस अटल प्रेम को साकार रूप देने के लिए कितनी लगन से लगातार प्रयास कर रही है - क्रिस्टोबल की नजर से छुप छुप
कर पीठ पीछे उसके शरीर, स्वभाव
और पसंद के बारे में गहराई से पता करती रहती है जिस से वह तब पहले की तरह ही मेरे
साथ भी खुश और सहज बनी रहे जब मैं बिलकुल
क्रिस्टोबल की तरह बन जाने में कामयाब हो जाऊँ
- तब हमें उसकी दरकार नहीं रहेगी , हम उसे
अकेला उसके हाल पर छोड़ देंगे।
(दो)
यह याद रखने वाली बात है कि फूहड़पन कभी कभी जरूरत से ज्यादा समानता
से भी उपजती है। एलिसा और इलियास को देख
कर यह बात कही जा सकती है - वे इसके बिलकुल उपयुक्त उदाहरण हैं। इनमें से एक अपनी
बाँयी बाँह हवा में ऊपर लहराता है और दूजा दाँयी बाँह तब जाकर वे एक दूसरे को
आलिंगन
में ले पाते हैं फिर भी जब वे
एक दूसरे की बातें करते हैं तो लगता है जैसे
उनके मन तन में कामोत्तेजना दहाड़ें मार रही हो। उन
दोनों की आदतें बिलकुल एक समान थीं और अलग अलग घटनाओं पर भी राजनैतिक मतभेदों की दूर दूर तक कोई
संभावना नहीं दिखायी देती - झगड़ने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। संगीत दोनों एक
ही सुनते और दोनों ठहाके लगा कर हँसते भी तो एक ही
लतीफ़े पर। जब वे किसी रेस्तराँ में खाने जाते तो बगैर दूसरे से कुछ पूछे इनमें से एक ऑर्डर दे देता।
कभी ऐसा नहीं होता कि उनमें से किसी एक को जिस समय नींद आ रही हो उस समय दूसरा नींद नहीं अलग मूड में हो और यह उनकी सेक्स लाइफ़ के
लिए बड़ा मुफ़ीद था हाँलाकि व्यावहारिक तौर
पर इसके अपने नुकसान भी थे -
जैसे सुबह सुबह उठ कर पहले बाथरूम
कौन जाये .... या रात में फ्रिज में रखे दूध का ग्लास पहले कौन पीने के लिए उठा ले ... या कि पिछले हफ़्ते मिलजुल कर योजना
बना कर खरीदा गया नॉवेल पहले कौन पढ़ कर ख़तम कर ले - इसको लेकर उन दोनों के बीच
अदृश्य प्रतिद्वंद्विता रहती। सिद्धांत रूप में कहें तो एलिसा बगैर किसी अतिरिक्त कोशिश के
सेक्स में अपने ऑर्गैज़्म (चरम बिंदु) पर उसी पल पहुँचती जिस समय इलियास वहाँ कदम
रखता पर व्यावहारिक जीवन में उन दोनों के शरीरों का एक समय में एक गाँठ
में बँध जाना एकदम सहज और
अनायास था। उनके बीच इस तरह की समानता को देख कर एलिसा की माँ अक्सर कहती कि देखो लगता है दोनों
जैसे एक ही संतरे की बीच से आधा आधा काट दी गयी दो फाँकें हों। जब भी वे यह कहतीं दोनों के गालों पर लाली छा जाती और दोनों झुक कर एक दूजे को चूमने लगते।
उस ख़ास उथल पुथल वाली रात
एलिसा बिस्तर से उठ कर बीच सड़क पर जोर जोर
से चिल्लाने को आतुर थी: मैं दुनिया में सबसे ज्यादा नफ़रत यदि किसी से करती हूँ तो
वह और कोई नहीं तुम हो ... हाँ ,तुम ... सिर्फ़ तुम। और इलियास था कि गुस्से में बोल वह भी रहा था पर उसकी आवाज़ एलिसा
की चीख के सामने मामूली और कमजोर थी सो अनसुनी रह जा रही थी। इसके बाद वे
दोनों सोने की कोशिश करते रहे पर डरावने सपनों ने उन्हें चैन से सोने न दिया ...
सुबह उठ कर
बगैर एक शब्द बोले पूरी ख़ामोशी के
साथ उन्होंने नाश्ता किया और यह बातचीत करनी भी जरूरी न समझी कि इस घटना के बाद अब
आगे क्या और कैसे करना है। शाम को जब एलिसा काम से घर लौटी और बैग में अपने सामान समेटने सहेजने लगी तो उसे
पहले से आधा खाली वार्ड रोब को देख कर कोई अचम्भा नहीं हुआ।
जैसा ऐसे मामलों में दो प्रेमियों के बीच आम तौर पर हुआ करता है , एलिसा और इलियास ने कई बार बीती बातों
को भुला कर सुलह कर लेने की
कोशिशें कीं .... पर हुआ कि जब भी एक ने दूसरे से फ़ोन पर बातचीत करने की कोशिश की उधर का फ़ोन हमेशा बिज़ी आया।इतना ही नहीं उन दोनों ने कई
मौकों पर आपस में मिल बैठ कर आमने
सामने बात करने की योजना बनाई पर यह सोच सोच कर कि दूसरे ने इस बात को खाम खा इतना तूल दे दिया और मिलने में इतनी देर क्यों लगाई , तय समय और स्थान पर मिलने भी नहीं गए - कोई एक नहीं, दोनों में से कोई भी नहीं गया।
(स्पैनिश
से निक केस्टर व लोरेंजो गार्सिया द्वारा किये अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित तथा ओपन लेटर द्वारा 2015 में प्रकाशित "द थिंग्स वी डोंट डू" संकलन से
साभार)
1 comment:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (31-08-2018) को "अंग्रेजी के निवाले" (चर्चा अंक-3080) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
---
Post a Comment