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Wednesday, August 29, 2018

तंग गलियों से भी दिखता है आकाश


इसलिए नहीं कि ‘तंग गलियों से भी दिखता है आकाश’ यादवेन्द्र जी की पहली किताब है, बल्कि इसलिए कि मेरे देखे हिंदी में यह पहली किताब है जिसमें दुनिया के विभन्न हिस्सों के रचनाकारों की रचनाओं के अनुवाद एक ही जगह पढ़ने को मिल रहे हैं, यह बात भी ध्या्न खींचती है कि यह किताब भारत से इतर दुनिया के स्त्री रचनाकारों के गद्य का नमूना पेश करती है। जहां तक मेरी जानकारी है, किताब में शामिल ज्यादातर अनुदित रचनाएं यादेवन्द्र जी की उस सहज प्रवृत्ति का चयन हैं जिसके जरिये वे अपने भीतर के कलारूप को अपने मित्रों के साथ शेयर करना चाहते रहे हैं। पुस्तक की भूमिका भी इस बात की गवाह है जब वे लिखते हैं, ‘’कोई पन्द्रह साल पहले की बात होगी, ‘द हिन्दू ‘ में प्रकाशित एक युवा भारतीय लेखक की कहानी ‘चॉकलेट’ मुझे बहुत पसन्द आयी भी और मैं उसे अम्मा को सुनाना चाहता था... पहले सोचा सामने बैठ कर हिन्दी अनुवाद करते-करते बोलकर सुना दूंगा पर लगा इससे कथा का तारतम्य टूट जाएगा सो बैठ कर कॉपी पर अनुवाद लिख डाला।‘’ यानी दुनिया के साहित्य से रिश्ता बनाते हुए जब उन्हेंअपने मन के करीब की कोई रचना नजर आयी उसे अपने मित्रों तक ही नहीं, बल्कि बहुत से दूसरे लोगों तक भी पहुंचाने के लिए वे उसे हिन्दी में अनुवाद करने को मजबूर होते रहे। कल्पित रूप में किसी किताब की योजना के साथ तो उनका चयन किया ही नहीं गया। यही वजह है कि अपने चयन में ये रचनाएं इस मानक से भी मुक्त कि भारतीय साहित्य से उनकी संगति एकाकार हो रही है या नहीं। यदि जुदा हैं तो उसके जुदा होने के कारण क्या हैं, विषय की  विविधता से भरी इन  रचनाओं के चयन की आलोचना में यह आरोप नहीं है ।  बल्कि उस बिन्दु की की ओर इशारा करना है कि इस पुस्तक की कुछ रचनाओं का मिजाज हिन्दी की कहानियों से ही नहीं अपितु अन्य भारतीय भाषाओं की कहानियों (यह कथन सीमित जानकारी के आधार पर) से भी भिन्न है और पाठक के अनुभव क्षेत्र को व्यापक बनाता है। 

संग्रह की दो कहानियां का विशेष रूप से जिक्र करना चाहूंगा। पहली, आयरलैंड की रचनाकार मीव ब्रेन की कहानी ‘जिस दिन हमारी पहचान हमें वापिस मिल गयी’। विचार/राजनीति और कला को दो भिन्न रूप और एक दूसरे से जुदा मानने वाले यदि इस कहानी को पढ़ेंगे तो निश्चित है कि किंचित हिचकिचाहट भी यह कहने में महसूस नहीं करेंगे कि बिना विचार के कला का कोई औचित्य नहीं। बहुत महीन बुनावट की यह उल्लेखनीय रचना है। 
दूसरी, ईराक की रचनाकार बुथैना अल नासिरी की कहानी ‘कैदी की घर वापसी’। आजकल ‘राष्ट्र वाद’ का डंका पीटने वाली मानसिकता को आईना दिखाती यह कहानी उस यथार्थ से रूबरू होने का अवसर देती है कि सत्ता किस तरह से लठैती के झूठे तमगे से नवाजती है और जीवन से हाथ धोने को मजबूर एक सैनिक के प्रियजनों को किस तरह की ‘शहादती’ प्रतिष्‍ठा से भर देती है। शहीद घोषित हो चुका कोई सैनिक यदि कई सालों के बाद, जैसे-तैसे बचते-बचाते हुए, सकुशल घर लौटता है तो आत्मीयता को मिले उपहारों में घोल कर पी चुके सगे-संबंधी किस तरह से पेश आ सकते हैं। यह किसी एक देश की सत्‍ता का चरित्र और किसी एक भूगोल का यथार्थ नहीं, बल्कि उसकी व्‍यापाकता सार्वभौमिक है। 

वे कहानियां जिनके मिजाज एक निश्चित भूगोल और समाज के यथार्थ के साथ एकाकार होने के कारण हिन्दी से भिन्न भी हैं, रचनाकारों के परिचय के तौर पर दर्ज बहुत सी बातें, पाठक को उसे अपने संदर्भों के साथ मिलान करते हुए पढने का अवसर प्रदान कर रहे हैं।


इस ब्लाग के पाठक यह फख्र महसूस कर सकते हैं कि संग्रह की कुछ रचनाओं को वे बहुत पहले ही यहां भी पढ़ चुके होंगे। अभी उसी कड़ी को संभालते हुए यादवेन्द्र जी के चयन की दो बानगियां यहां अतिरिक्तं रूप से सांझा की जा रही हैं। संभवत: भविष्य की किसी पुस्तक में ये फिर से दिखायी दें।

अर्जेंटीना की कहानी

अनूठी आदर्श जोड़ी 

                     

   -- एंद्रेस नेओमान  (अर्जेंटीना)








 ( एक)

मेरा नाम मार्कोस है। मेरी  हमेशा से क्रिस्टोबल बनने की ख्वाहिश रही है।  
पर ऐसा नहीं है कि मुझे क्रिस्टोबल कह  पुकार जाए इसकी मंशा है - वह मेरा दोस्त है ,जिसको मैं अपना  बेस्ट फ्रेंड कहता हूँ ... और कोई नहीं है मेरा बेस्ट फ्रेंड ,बस वही है। 
गैब्रिएला मेरी पत्नी है - वह मुझसे बेहद प्यार करती है ... पर सोती क्रिस्टोबल के साथ है। 
क्रिस्टोबल  इंटेलिजेंट है ,खुद पर भरपूर भरोसा है उसे और साथ साथ चुस्त तथा फुर्तीला डांसर है।उसको घुड़सवारी भी आती है ... और तो और वह लैटिन ग्रामर में उस्ताद है। रच रच कर लजीज़  खाना बनाता है जिसे औरतें बड़े चाव से खाती हैं। मैं कहूँगा कि गैब्रिएला उसकी फ़ेवरिट डिश है। 
जो सारे मामले को नहीं जानता वह सोच सकता है कि गैब्रिएला मुझसे धोखा  कर रही है पर सच्चाई इस से ज्यादा परे और कुछ  नहीं हो सकती   
मेरी  हमेशा से क्रिस्टोबल बनने की ख्वाहिश रही है पर वहाँ सामने खड़े होकर टुकुर टुकुर ताकने के लिए नहीं। मैं भरपूर कोशिश करता हूँ कि और कुछ बनूँ पर मार्कोस न बनूँ। डांसिंग की क्लास जाता हूँ और किसी विद्यार्थी की तरह किताबों को छान मारता हूँ। मुझे भली तरह से एहसास है कि मेरी पत्नी मेरा बहुत सम्मान करती है .. इतना कि  वह बेचारी सोती मेरे नहीं  उस आदमी के साथ है बिलकुल जिसके जैसा मैं बनने  का यत्न करता रहता हूँ।क्रिस्टोबल के बलिष्ट सीने में दुबक कर मेरी गैब्रिएला हमेशा अधीर होकर आशाभरी नज़रों से मेरी ओर देखती है... दोनों बाँहें फैला कर। 
उसके अंदर का धीरज देख कर मैं रोमांच और उत्तेजना से भर उठता हूँ .... बस हरदम यही मनाता रहता हूँ कि उसकी उम्मीदों पर खरा उतर पाऊँ जिस से एकदिन हम दोनों का भी संयोग बैठे। वह इस अटल प्रेम को साकार रूप देने के लिए कितनी   लगन  से लगातार प्रयास कर रही है - क्रिस्टोबल की नजर से छुप छुप कर पीठ पीछे  उसके शरीर, स्वभाव और पसंद के बारे में गहराई से पता करती रहती है जिस से वह तब पहले की तरह ही मेरे साथ भी खुश और सहज बनी रहे जब मैं बिलकुल क्रिस्टोबल की तरह बन जाने में कामयाब हो जाऊँ - तब हमें उसकी दरकार नहीं रहेगी हम उसे अकेला उसके हाल पर छोड़ देंगे।    

(दो) 

यह याद रखने वाली बात है कि फूहड़पन कभी कभी जरूरत से ज्यादा समानता से  भी उपजती है। एलिसा और इलियास को देख कर यह बात कही जा सकती है - वे इसके बिलकुल उपयुक्त उदाहरण हैं। इनमें से एक अपनी बाँयी बाँह हवा में ऊपर लहराता है और दूजा दाँयी बाँह तब जाकर वे एक दूसरे को आलिंगन  में ले पाते हैं फिर भी जब वे एक दूसरे की बातें करते हैं तो लगता है जैसे उनके मन तन में कामोत्तेजना दहाड़ें मार रही हो। उन दोनों की आदतें बिलकुल एक समान थीं और अलग अलग घटनाओं पर भी राजनैतिक मतभेदों की दूर दूर तक कोई संभावना नहीं दिखायी देती - झगड़ने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। संगीत दोनों एक ही सुनते और दोनों ठहाके लगा कर हँसते भी तो एक ही लतीफ़े पर।  जब वे किसी रेस्तराँ में खाने जाते तो बगैर दूसरे से  कुछ पूछे इनमें से एक ऑर्डर दे देता। कभी ऐसा नहीं होता कि उनमें से किसी एक को जिस समय नींद आ रही हो उस समय दूसरा नींद नहीं अलग मूड में हो और यह उनकी सेक्स लाइफ़ के लिए  बड़ा मुफ़ीद था हाँलाकि व्यावहारिक तौर पर इसके अपने नुकसान  भी थे - जैसे सुबह सुबह उठ कर पहले बाथरूम कौन जाये ....  या रात में फ्रिज में रखे  दूध का ग्लास पहले कौन पीने के लिए उठा ले ...  या कि पिछले हफ़्ते मिलजुल कर योजना बना कर खरीदा गया नॉवेल पहले कौन पढ़ कर ख़तम कर ले - इसको लेकर उन दोनों के बीच अदृश्य प्रतिद्वंद्विता रहती। सिद्धांत रूप में कहें तो एलिसा बगैर किसी अतिरिक्त  कोशिश के सेक्स में अपने ऑर्गैज़्म (चरम बिंदु) पर उसी पल पहुँचती जिस समय इलियास वहाँ कदम रखता पर व्यावहारिक जीवन में उन दोनों के शरीरों का एक समय में एक गाँठ में बँध जाना एकदम सहज  और अनायास था। उनके बीच इस तरह की समानता को देख कर एलिसा की माँ अक्सर कहती कि देखो लगता है दोनों जैसे एक ही संतरे की बीच से आधा आधा काट दी गयी दो फाँकें हों। जब भी वे यह कहतीं दोनों के गालों पर लाली छा  जाती और दोनों झुक कर एक दूजे को चूमने लगते। 
उस ख़ास उथल पुथल वाली रात एलिसा बिस्तर से उठ कर बीच सड़क पर जोर जोर से चिल्लाने को आतुर थी: मैं दुनिया में सबसे ज्यादा नफ़रत यदि किसी से करती हूँ तो वह और कोई नहीं तुम हो  ... हाँ ,तुम ... सिर्फ़ तुम। और इलियास था कि गुस्से में बोल वह भी रहा था पर उसकी आवाज़ एलिसा की चीख के सामने मामूली  और कमजोर थी सो अनसुनी रह जा रही थी। इसके बाद वे दोनों सोने की कोशिश करते रहे पर डरावने सपनों ने उन्हें चैन से सोने न दिया ... सुबह उठ कर  बगैर एक शब्द बोले पूरी ख़ामोशी के साथ उन्होंने नाश्ता किया और यह बातचीत करनी भी जरूरी न समझी कि इस घटना के बाद अब आगे क्या और कैसे करना है। शाम को जब एलिसा काम से घर लौटी और बैग में अपने सामान समेटने सहेजने लगी तो उसे पहले से आधा खाली वार्ड रोब को देख कर कोई अचम्भा नहीं हुआ। 
जैसा ऐसे मामलों में दो प्रेमियों के बीच आम तौर पर हुआ करता है , एलिसा और इलियास ने कई बार बीती बातों को भुला कर सुलह कर  लेने की कोशिशें कीं .... पर हुआ कि जब भी एक ने दूसरे से  फ़ोन पर बातचीत करने की कोशिश की उधर का फ़ोन हमेशा बिज़ी आया।इतना ही नहीं उन दोनों ने कई मौकों पर आपस में मिल बैठ कर आमने सामने बात करने की योजना बनाई पर यह सोच सोच कर कि दूसरे ने इस बात को खाम खा इतना तूल दे दिया और मिलने में इतनी देर क्यों लगाई , तय समय और स्थान पर मिलने भी नहीं गए - कोई एक नहींदोनों में से कोई भी नहीं गया।  
   
(स्पैनिश से निक केस्टर व लोरेंजो गार्सिया द्वारा किये अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित तथा ओपन लेटर द्वारा 2015 में प्रकाशित "द थिंग्स वी डोंट डू" संकलन से साभार) 

Sunday, July 1, 2018

सऊदी अरब:लम्बे संघर्ष के बाद स्त्रियों को ड्राइविंग की छूट

24 जून 2018 को स्त्रियों को ड्राइविंग से दूर रखने वाला दुनिया का इकलौता देश सऊदी अरब स्त्रियों के लम्बे अहिंसक संघर्ष के बाद अंततः झुक गया और पुरुषों की तरह वहाँ की राजशाही ने सऊदी स्त्रियों को भी अपनी कार चलाने की आज़ादी दे दी - हाँलाकि अभी भी इस्लामी शुद्धता को अक्षुण्ण रखने के नाम पर इसमें अनेक स्त्रीविरोधी शर्तें समाहित हैं। इस से पहले जब जब भी साहसी स्वतंत्रचेता सऊदी स्त्रियों ने प्रतीकात्मक विरोध प्रदर्शन किया उनपर इस्लाम विरोधी, विदेशियों के उकसावे से प्रभावित,अनैतिक और देशद्रोही होने का आरोप लगाया गया। मजेदार तथ्य यह है कि देश के कानून की कोई धारा स्त्रियों को ड्राइविंग करने से नहीं रोकती पर वहाँ इस्लामी नैतिकता की हिफ़ाजत करने वाली पुलिस बीच में आ जाती है और ज्यादातर मामलों में बगैर मुकदमा चलाये आंदोलनकारी स्त्रियों को प्रताड़ित करती है ,हिरासत में रखती है और उनकी आज़ादी का हनन करती है। 24 जून को यह इजाज़त दे तो दी गयी पर पिछले महीने इसकी माँग करने वाली प्रमुख स्त्री अधिकार कार्यकर्ताओं को अब भी हिरासत में रखा गया है - जाहिर है इसका श्रेय शासन स्त्रियों के संघर्ष को नहीं देना चाहती।मीडिया में यह बताया जा रहा है कि इस फैसले से बड़ी संख्या में शिक्षित स्त्रियाँ बाहर निकल कर कामकाज में लगेंगी और सऊदी अर्थव्यवस्था पर इसका सकारात्मक असर पड़ेगा। वास्तविक परिणाम तो आने वाला समय ही बताएगा। डॉ आयशा अलमाना ,डॉ हिस्सा अल शेख और डॉ मदीहा अल अजरूश हर वर्ष नवम्बर के शुरुआती हफ़्ते में पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार वार्षिक मेल मुलाकात के लिए एकत्र होने वाली करीब पचास सऊदी महिलाओं के समूह का हिस्सा हैं जो सऊदी अरब के इतिहास में दर्ज़ हो गये 6 नवम्बर 1990 के ऐतिहासिक विरोध प्रदर्शन की स्मृति ताज़ा करने और विरोध की मशाल जलाये रखने के लिये आयोजित की जाती हैं , "ड्राइवर" लिखे हुए टी शर्ट पहनती हैं और कार का चित्र बना हुआ केक काटती हैं -- वर्षगाँठ के रूप में साल दर साल मनाये जाने वाले वे इस प्रतीकात्मक विरोध प्रदर्शन की फ़ोटो खींच कर एकत्र करती रही हैं।इंटरनेट ,फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मिडिया में ये तस्वीरें उपलब्ध हैं भले ही सऊदी अरब का शासन उनके ऊपर दमनात्मक शिकंजा कितना भी कसता रहे। सऊदी स्त्रीवादी आंदोलन की जनक मानी जाने वाली डॉ आयशा अलमाना एक शिखर व्यवसायी होने के साथ साथ देश की पहली महिला पी एच डी हैं और किसी शिक्षा संस्थान की पहली प्रिंसिपल भी हैं। समाजशास्त्र के क्षेत्र में उनके शोध का विषय भी सऊदी महिलाओं का आर्थिक उत्थान ही था। "फ़ोर्ब्स मिडिल ईस्ट" पत्रिका ने उनको अपना खानदानी व्यवसाय चलाने वाली पाँचवीं सबसे प्रभावशाली अरब महिला के रूप में नामित किया। डॉ शेख यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हैं और डॉ अजरूश स्त्री अधिकार ऐक्टिविस्ट होने के साथ साथ देश की जानीमानी फ़ोटोग्राफ़र भी हैं। डॉ आयशा, डॉ शेख और डॉ अजरूश ने मिलकर नवम्बर 1990 के ऐतिहासिक ड्राइविंग प्रतिरोध प्रदर्शन पर एक संस्मरणात्मक किताब लिखी है जो मार्च 2014 के रियाद बुक फ़ेयर में हॉट केक की तरह बिकी (फ़ोटो )-- सऊदी अरबिया की निर्भीक ब्लॉगर ईमान अल नफ़्ज़ान इस किताब का अरबी से अंग्रेज़ी अनुवाद कर रही हैं। इसका एक छोटा सा अंश उन्होंने saudiwoman.me ब्लॉग ने पोस्ट किया है -- यहाँ पाठकों के लिए उसका हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है।
प्रस्‍तुति : यादवेन्‍द्र


6 नवम्बर 1990 को दोपहर बाद के करीब ढ़ाई बजे की बात है ,सेफ़ वे सुपर मार्किट की पार्किंग में ढेर सारी महिलायें एकत्रित होने लगी थीं। उनमें से कुछ को उनके ड्राइवर वहाँ ले के आये थे और कुछ को उनके शौहर या बेटे --- पार्किंग के अंदर पहुँच कर चाहे ड्राइवर हो या शौहर या बेटा ,सबने गाड़ी महिलाओं के हवाले कर दी। देखने से साफ़ मालूम हो रहा था कि कारों की संख्या की तुलना में महिलाओं की उपस्थिति कहीं ज्यादा थी -- कुल जमा चौदह कारें थीं जबकि विरोध प्रदर्शन में भाग लेने के लिए सैंतालीस महिलायें।ऐसा नहीं था कि सब एक दूसरे से परिचित सखियाँ सहेलियाँ ही थीं ,बल्कि उनमें से अनेक ऐसी थीं जो एक दूसरे से पहली मर्तबा मिल रही थीं। जिन जिन महिलाओं के पास सऊदी अरबिया के बाहर के  देशों से प्राप्त कानूनी ड्राइविंग था वे एक एक कर स्टीयरिंग सँभाल कर बैठ गयीं और दूसरी औरतें साथ देने के लिए बगल और पीछे की सीटों पर बैठ गयीं।दोपहर बाद की नमाज़ (जौहर) की अज़ान जैसे ही शुरू  महिलाओं ने अपनी अपनी गाड़ियाँ स्टार्ट कर दीं। उन सभी महिलाओं के ड्राइवर ,शौहर और बेटे पूरी खामोशी से पार्किंग में खड़े खड़े सबकुछ देखते रहे।इस आंदोलन की सरलता और सच्चाई ने इन महिलाओं को एक दूसरे के प्रति इतना भरोसा दिला दिया था कि वे एक तरह के श्रद्धाभाव में आकर साझा विरोध प्रदर्शन का साहस जुटाने में सफल रहीं। एकसाथ नहीं बल्कि एक के पीछे दूसरी ,तीसरी,चौथी …गाड़ी चली।कारों के इस काफ़िले में सबसे आगे आगे वफ़ा अल मुनीफ़ की कार चल रही थी .... डॉ आयशा अलमाना उनके पीछे पीछे थीं।किंग अब्दुल अजीज़ स्ट्रीट से शुरू होकर यह काफ़िला ओरोबा स्ट्रीट तक गया ,फिर बाँयी तरफ़ मुड़ गया और थालाथीन स्ट्रीट पर आ गया। वहाँ लाल बत्ती होने के कारण काफ़िला थोड़ा धीमा हुआ। इस दरम्यान कई बार आगे की कारें इसलिए धीमी हुईं कि पीछे वाले साथ आ जाएँ -- उन्होंने शुरू में ही साथ साथ चलने और रहने का फैसला किया था। कार चलाती महिलाओं को पैदल राह चलते लोग और दूसरी गाड़ियाँ चलाते लोग भरपूर अचरज के साथ मुड़ मुड़ कर देख रहे थे .... उन्हें अपनी आँखों पर विशवास नहीं हो रहा था, वे सदमे में थे पर कुछ कर नहीं पा रहे थे -- हतप्रभ होकर ताकते रहे। 


बागी तेवर अपनाये हुए ये महिलायें इस बात से उत्साहित थीं कि पुलिस ने उनको कहीं रोक नहीं … या यूँ कहें कि उनकी तरफ आँखें उठा कर नहीं देखा। नेतृत्व कर रही महिलाओं ने एक और चक्कर लगाने का निश्चय किया .... पर  जैसे ही दूसरा चक्कर शुरू हुआ पुलिस एकदम से हरकत में आ गयी- हाथ देकर गाड़ियों के काफ़िले को रोक दिया। रियाद पैलेस फंक्शन हॉल के सामने किंग अब्दुल अजीज़ स्ट्रीट पर एक एक कर सभी कारों को रोक दिया गया। पुलिस के पीछे देखते देखते धार्मिक पुलिस (आधिकारिक नाम ,कमीशन फॉर द प्रमोशन ऑफ़ वर्च्यू एंड प्रिवेंशन ऑफ़ वाइस ) के लोग जत्था बना कर खड़े हो गये। 
पुलिस ने महिलाओं की गाड़ियों का काफ़िला रोकने के बाद सबसे पहला काम यह किया कि एक एक कर ड्राइविंग सीट पर बैठी सभी महिलाओं से उनके ड्राइविंग लाइसेंस माँगे। आगे बढ़ कर एक महिला ने तपाक से अमेरिका में हासिल किया हुआ अपना ड्राइविंग लाइसेंस थमा दिया -- इस अप्रत्याशित घटना के लिए वह तैयार नहीं था ,सो घबरा कर वह अपने अफ़सर को बुलाने अंदर चला गया।उसके पीछे पीछे पुलिस के आला अफ़सर तो आये ही धार्मिक पुलिस के लोग भी सामने आ खड़े हुए। दोनों के बीच इस बात को लेकर खींच तान होने लगी कि उन महिलाओं के साथ कौन निबटेगा -- धार्मिक पुलिस के अफ़सर महिलाओं को अपने कब्ज़े में रख कर जाँच करना चाहते थे। महिलायें इसके लिए बिलकुल तैयार नहीं हुईं ,न ही पुलिस अफ़सर उन्हें धार्मिक पुलिस को सौंपने के लिए राज़ी हुए। " 
कट्टरपंथी सत्ता को खुले आम चुनौती देने वाले इस प्रदर्शन का नतीज़ा यह हुआ कि इसमें भाग लेने वाली नौकरी पेशा महिलाओं और उनके पतियों को गिरफ़्तार कर लिया गया और जेल से छूटने पर नौकरी से या तो निकाल दिया गया या प्रताड़ित किया गया।सार्वजनिक तौर पर अपमानित किये जाने का सिलसला अबतक चल रहा है पर स्वतंत्रचेता स्त्रियों के हौसले पस्त नहीं पड़े। थोड़े थोड़े समय बाद प्रतीकात्मक विरोध की ख़बरें निरंतर आती रहीं। कुवैत पर इराकी कब्ज़े के समय जब पूरा अरब जगत भयभीत था ,एकबार फिर सऊदी महिलाओं ने सामूहिक तौर पर ड्राइविंग का प्रदर्शन कर के कठमुल्लेपन को चुनौती दी -- उनका तर्क था कि पुरुषों को  लड़ाई के लिए पूर्णकालिक तौर पर उपलब्ध कराने के लिए यह ज़रूरी है कि महिलाओं को अपना कामकाज संपन्न कर सकने के लिए ड्राइविंग करने की इजाज़त दी जाये।   
प्रतिकार के इस ऐतिहासिक प्रदर्शन के इक्कीस साल बाद मक्का के पवित्र शहर में जन्मी युवा इंजिनियर मनल अल शरीफ़ ने 2011 की गर्मियों में जब सारा मध्य पूर्व लोकतंत्र की माँग करते हुए युवा विद्रोह की ज्वाला में धू धू कर जल रहा था तब सऊदी अरब की स्त्रियों की आज़ादी के लिये प्रतीकात्मक तौर पर खुली सड़क पर घंटा भर कार चला कर एक बार फिर से बड़ा धमाका कर दिया -- पहले अकेले और दूसरी बार भाई के साथ बैठ कर कार चलाने का कारनामा मनल ने इसबार रियाद में नहीं पूर्वी राज्य खोबर में किया। उनको इस "गुस्ताख़ी"के लिए न सिर्फ़ बार बार गिरफ़्तार किया गया बल्कि "अरामको" जैसी बड़ी कम्पनी की सम्मानित नौकरी से निकाल दिया गया। जेल से रिहाई के लिए शासन तब तैयार हुआ जब मनल के पिता स्वयं सऊदी अरब के बादशाह  के दरबार में माफीनामे के साथ हाज़िर हुए। एक गैर अरबी युवक से शादी के लिए शासन ने उनको अनुमति नहीं दी तब उनको देश छोड़ कर दुबई में नौकरी लेनी पड़ी -- हर हफ़्ते वे दुबई से पहली शादी से हुए बेटे से मिलने सऊदी अरब आती हैं। बाद में वे ऑस्ट्रेलिया जाकर बस गयीं। 
मई 2011 में खुले आम सऊदी सड़कों पर गाड़ी चला कर तूफ़ान खड़ा कर दीं वाली मनल कहती हैं : "मेरे आसपास सभी लोग सऊदी औरतों के ड्राइविंग पर लगे प्रतिबन्ध की आलोचना तो करते थे पर आगे आने को कोई तैयार नहीं था … उनदिनों अरब बसंत की चर्चा और हवा चारों ओर फ़ैल रही थी ,सो मुझे लगा कि घर में बैठे बैठे स्थितियों को कोसते रहने का कोई फायदा नहीं.... करना है कुछ तो इसी समय करना है ,अब और इंतज़ार नहीं .... कोई न कोई तो होगा ही जिसको अगुआई करनी होगी ,दीवार ध्वस्त करनी होगी कि अब देखो ,क्या हुआ जो तुमने खुली सड़क पर गाड़ी चला दी … ऐसा करने पर कोई रेप थोड़े कर देगा। "
आगे मनल बताती हैं कि जब पुलिस ने उनको रोका और बोला :"ऐ लड़की ,ठहरो और गाड़ी से उतर  कर  बाहर आओ .... इस मुल्क में औरतों को गाड़ी चलाने की इजाज़त नहीं है। " मैंने पूछा :"मेहरबानी कर के मुझे बतायें मैंने कौन सा कानून तोड़ा है ?"
इसका जवाब किसी के पास नहीं था ,वे सिर्फ़ यह बोले :"तुमने कोई कानून नहीं तोड़ा ....पर चलन / परिपाटी का उल्लंघन किया है। "
अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए व्यापक जान समर्थन जुटाने के लिए उन्होंने woman2drive अभियान की शुरुआत की। शासन के प्रतिबंधों का उल्लंघन करने के लिए उन्हें महीनों जेल में रहना पड़ा। माँ पिता और बेटे के सामने मनल को सार्वजानिक तौर पर वेश्या कह कर पुकारा गया - माँ जब इससे आहत होकर बेटी से अपना रास्ता बदल देने का आग्रह करतीं तो मनल का एक ही जवाब होता कि जिस दिन सऊदी सरकार पहली औरत को ड्राइविंग लाइसेंस जारी करेगी उस दिन मैं अपना अभियान रोक दूँगी। उनकी मौत की झूटी अफ़वाह भी फैलाई गयी। ड्राइविंग के अतिरिक्त सऊदी शासन के अनेक दमनात्मक कानूनों की उन्होंने खुली मुख़ालफ़त की। उन्हें इन प्रताड़नाओं के कारण अपना देश छोड़ कर जाना पड़ा ,अब वे ऑस्ट्रेलिया में रहती हैं। उनका कहना है कि पिछले कुछ वर्षों से मेरे दो चेहरे हैं - मेरे अपने देश में मैं एक विलेन हूँ - एक ऐसी गिरी हुई औरत जो धर्म को चुनती देती है इसलिए घृणा का पात्र है। पर बाहर की दुनिया में मैं एक हीरो हूँ। 
मनल को अपूर्व साहस का परिचय देने के लिए 2012 के ओस्लो फ्रीडम फ़ोरम में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया और क्रियेटिव डिसेंट के हेवेल प्राईज़ से नवाज़ा गया। टाइम पत्रिका ने उन्हें 2012 में दुनिया के सर्वाधिक प्रभावशाली लोगों के समूह में शामिल किया है। अपने देश लौटने पर उनपर आक्रमण और तेज हो गए और अंततः नौकरी से हाथ धोना पड़ा। उनके इन संस्मरणों की किताब "डेयरिंग टु  ड्राइव:ए सऊदी वुमन्स अवेकेनिंग" (2017)  दुनिया के एक बड़े प्रकाशन से छप कर आ चुकी है जिसके अनेक भाषाओँ में अनुवाद हुए हैं।  

Monday, January 9, 2017

रिश्ता

ब्राजीली कहानी

       --- लोरेना लियान्द्रो 

मैंने जरा भी बुरा नहीं माना जब तुम मुझे बड़ी बेरुखी से पीठ दिखा के दूसरे कमरे में चले गए थे , मैं ठगी सी वहीँ खड़ी की खड़ी रह गयी।  मैं तुम्हारी मिन्नतें करती रही और तुम मुझे अनसुना कर के अपने मन की ऊल ज़लूल करते रहे ,तब भी मुझे बुरा नहीं लगा। तब भी नहीं जब तुम मेरी आँखों के सामने खुली सड़क पर यहाँ वहाँ भागते रहे और उन तमाम आज़ादियों का लुत्फ़ उठाते रहे जिनकी मेरे घर के अन्दर तो बिलकुल गुंजाइश नहीं थी। कई बार ऐसा भी हुआ कि तुम अपना गुस्सा थाम न पाए और मुझपर झपट पड़े … मुझे नोंच खाया , तब भी मैंने सहज भाव से सब स्वीकार करती रही। 

देखो , मैंने उन मौकों को भी बिलकुल तूल नहीं दिया जब घर आये मेहमानों की आँखों के सामने तुमने मेरी इज्ज़त तार तार कर डाली।  रात रात भर जब तुम खुराफ़ात और मौज में घर में धमा चौकड़ी मचाते रहे और एकपल को भी मुझे सोने नहीं दिया ,तब भी मैंने धैर्य नहीं खोया…. उस समय भी नहीं जब तुमने मेरे घर के फर्नीचर और दूसरी चीजों  की बिलकुल परवाह नहीं की और तोड़ फोड़ करते रहे। यहाँ तक कि सर्दी की रातों में मेरे साथ सोते हुए तुम मुझे कम्बल से धकेल धकेल कर बाहर खिसकाते रहे ,तब भी मैंने तुम्हें कुछ नहीं कहा। एक एक कर के मेरी प्रिय चीजों पर जैसे तुम हक़ जताते रहे ,तब भी मैं बगैर किसी बात का बतंगड़ बनाये सब कुछ शान्त भाव से सहती रही। कई बार तुम्हारे साथ रहते हुए खीझ भी होती कि फलाँ चीज तुम्हें पता क्यों नहीं ,पर उसका भी बुरा नहीं लगा। दिनभर की थकान के बाद जब मैं थकी हारी बिस्तर पर निढ़ाल हुई और तब तुम्हें खेल ठट्ठा सूझने लगता ,तब भी कोई मौका ऐसा नहीं आया जब मैंने तुमपर कोई गुस्सा दिखाया हो। दीनार की मेज पर मुझे इमोशनली ब्लैकमेल का तुम्हारा ढब मुझे आहत करता था ,फिर भी मैंने यह सब तुम्हें करने दिया। 
निपट अकेले रह कर मनमर्जी जीवन जीने के तमाम मौके तुमने मुझसे छीन लिए ,पर मुझे इनका भी अफ़सोस नहीं हुआ। पर अब जब इन सारी बातों और मौकों के बावजूद आज मैं चारों ओर भाग भाग के तुम्हें ढूँढ रही हूँ … तुम मुझसे दूर भागते जा रहे हो , कहीं तुम्हारा नामो निशाँ नहीं दिखाई दे रहा है। अब मुझे समझ आने लगा है कि तुम्हारा लौटना मुमकिन नहीं… अब मैं तुम्हें  देख नहीं  पाऊँगी। 

ओ मेरे प्रिय कुत्ते ,और कुछ तो नहीं पर अब तुम्हारी गैर मौजूदगी मुझपर भारी पड़ने लगी है …. तुम्हारे रहते कभी मुझे बुरा नहीं लगा ,अब तुम्हारी अनुपस्थिति मुझे बेहद खल रही है। 

       ( "Contemporary Brazilian Short Stories" संकलन से साभार )

अनुवााद एवं प्रस्‍तुति : यादवेन्‍द्र

Monday, November 28, 2016

तुम्हें कुत्तों का भौंकना सुनाई नहीं दिया ?

पाँच सौ और हज़ार रु की नोटबंदी पर जमकर घमासान हो रहा है और अब लोहिया ,मधु लिमये और ज्योतिर्मय बसु का ज़माना रहा नहीं कि संसद में भारतीय राजनय के गंभीर विमर्श में इतिहास रचने वाले सारगर्भित वक्तव्य दिए जायें , हो हल्ला कर के सदन का स्थगन करने में सत्ता और विरोधी पक्ष दोनों का हित सधता है। जनता की परेशानियों की रिपोर्ट सामने आती है तो देशभक्ति का सवाल उठा कर कभी महाराणा प्रताप तो कभी भगत सिंह का का नाम आगे कर दिया जाता है। इन ख़बरों के बीच जम्मू के सांभा इलाके से जो वाक्य सामने आया है वह किसी मुहम्मद हारुन नाम के बकरवाल युवक का है जिसका नौ साल का बेटा उसके कन्धों पर गाँव जंगल में तीस किलोमीटर तक घिसटते घिसटते दम तोड़ देता है क्योंकि बस और डॉक्टर को देने के लिए उसकी जेब में छोटे नोट नहीं थे - ध्यान रहे कि उन्तीस हज़ार रु उसकी जेब में थे पर पाँच सौ और हज़ार रु के नोट थे।सरकारी अस्पताल पहुँच कर जब उसने बेटे को निचे उतार तो उसकी साँस थम चुकी थी। अब जैसा कि तमाम मामलों में होता है इसकी उसकी रिपोर्ट मँगवाई जा रही है ताकि ज़िम्मेदारी बाँधी जा सके। यह घटना मुझे मेक्सिको क्रांति के अनूठे चितेरे जुआन रुल्फ़ो की बेहद चर्चित कहानी "क्या तुम्हें कुत्तों का भौंकना सुनाई नहीं दिया?" (मूल स्पेनिश में इसका शीर्षक "No oyes ladrar los perros" है जिसको अंग्रेज़ी अनुवाद में "You Don't Hear the Dogs Barking" लिखा गया है )की याद दिलाती है। बीमार बेटे को सिर पर टोकरी में उठाये उठाये कथा नायक पहाड़ी से रात भर चल कर जब शहर के अस्पताल पहुँचता है तो बदहवासी और जल्दी पहुँचने की धुन में न उसको शहर के कुत्तों का भौंकना सुनाई देता है न बेटे का लुंज पुंज होकर टोकरी में लुढ़क जाना - टोकरी सिर से उतार कर जब वह नीचे टिकाता है तब असलियत मालूम होती है। मेक्सिको के क्रांति के उथल पुथल और अराजक माहौल और सत्तर साल के आज़ाद और सबसे तेज़ तरक्की करने वाले देश भारत के बीच इतनी समानता अचरज और चिंता में डाल देती है। यहाँ मित्र पाठकों के लिए जुआन रुल्फ़ो का परिचय और उपर्युक्त कहानी प्रस्तुत है : प्रस्तुति: यादवेन्द्र

लैटिन अमेरिका के प्रतिष्ठित और सर्वमान्य लेखकों में शुमार किये जाने वाले जुआन रुल्फो 1917 में मेक्सिको में एक जमींदार परिवार में जन्मे पर उनके माँ पिता बचपन में ही गुजर गए - पिता की लुटेरों(या क्रांतिकारियों ने?) ने गोली मार कर हत्या कर दी और चार वर्ष बाद माँ भी बीमारी से चल बसीं।दादा दादी ने उनकी परवरिश की जिनकी खानदानी जमीन मेक्सिको क्रांति के दौरान उनके हाथ से छिन गयी। अनाथालय और चर्च के खैराती स्कूल में पढ़े कभी सेना में भरती हुए तो कभी वकालत में दाखिल लिया पर इनका मन ऐसे किसी काम में नहीं लगा।साहित्य के प्रति उनकी रूचि धीरे धीरे मुखर होती गयी और उन्होंने एक साहित्यिक पत्रिका शुरू की हाँलाकि सेल्समैन की नौकरी करते हुए अपने देश के सुदूर इलाकों में घूमने का मौका खूब मिला।मेक्सिको क्रांति की उथल पुथल ने उनके जीवन पर ही नहीं बल्कि उनके लेखन पर बहुत गहरा असर डाला था।रुल्फो ने खुद अपने बचपन के बारे में लिखा है कि घनघोर अराजकता और मारकाट के दौर में मेरा बचपन घर के अन्दर घुस कर किताबें पढ़ते रहने में बीता -- घर से बाहर कदम निकालना खतरे से खाली नहीं था,जाने कब कौन गोली मार दे। संगठित तौर पर लिखने का मौका उन्हें 1952 - 54 के बीच एक फेलोशिप के दौरान मिला जब उन्होंने अपनी दोनों किताबें लिखीं। जोर्गे लुइस बोर्खेस के साथ रुल्फो को बीसवीं शताब्दी के सबसे महत्वपूर्ण लेखकों में गिना जाता है पर दिलचस्प बात यह है कि रुल्फो की सिर्फ दो किताबें प्रकाशित हैं--एक उपन्यास और दूसरा एक कहानी संकलन।अंग्रेजी में उनका कहानी संकलन"द बर्निंग प्लेन एंड अदर स्टोरीज"शीर्षक से प्रकाशित।मेक्सिको और स्पेन की सरकारों ने उन्हें साहित्य के सर्वोच्च सम्मान प्रदान किये। अंग्रजी में अनूदित उनकी दो कहानियां बेहद चर्चित हैं "टेल देम नॉट टु किल मी" और "यू डू नॉट हियर द डॉग्स बार्किंग".(यहाँ उनकी यही कहानी प्रस्तुत है). जादुई यथार्थवाद का जो सम्मोहन गेब्रियल गार्सिया मार्केज के साथ पूरी दुनिया को अपने घेरे में लेता गया कहते हैं उसकी शुरुआत रुल्फो ने अपने इकलौते और सिर्फ सवा सौ पृष्ठों के उपन्यास से की थी।हहे बोर्खेस हों,मार्केज हों या ओक्तोवियो पाज़ हों सब एक स्वर से रुल्फो को इसका श्रेय देते भी हैं।स्लेट मैगजीन मार्केज को उधृत करती है कि 1961 में जब मैं मेक्सिको सिटी गया तो पहली बार जुआन रुल्फो का नाम सुना और जब उनका उपन्यास मेरे हाथ लगा तो एक रात में मैंने दो दो बार उसको पढ़ डाला ...उसके बाद भी कई बार उसको पढता रहा और इतनी बार पढ़ लेने के बाद मुझे वह किताब पूरी तरह से कंठस्त हो गयी ...आप आगे से कहें या पीछे से मैं उसके शब्दशः सुना सकता था ...इस किताब की गहराई ने भविष्य में मुझे मेरे उपन्यासों को लिखने की प्रेरणा दी। मार्केज रुल्फो के बारे में यह भी कहते हैं कि वे अन्य क्लैसिक लेखकों से इस मायने में एकदम भिन्न थे कि उनकी किताब तो खूब खूब पढ़ी गयी पर उनपर चर्चा और बहसें बहुत कम की गयीं। रुल्फो ने अपने बारे में खुद भी बहुत कम लिखा है।उनका अपने बारे में मत था कि वे कोई प्रोफेशनल लेखक नहीं है बल्कि जब किसी बात नें उन्हें उद्वेलित किया तब उसको लिख डाला।रुल्फो के जीवनीकार लुइस लील का कहना है कि"पेड्रो पारमो" के बाद भी उन्होंने कुछ अन्य उपन्यास भी लिखे पर पहले उपन्यास के तब लगभग अचर्चित रह जाने के कारण संकोचवश उन्हें प्रकाशित नहीं करवाया और फाड़ कर फेंक दिया। उनका 1955 में प्रकाशित उपन्यास "पेड्रो पारमो" एक ऐसे इंसान की कहानी है जो हाल में दिवंगत हुई अपनी माँ के अतीत के बारे में जानने के लिए उनके गाँव जाता है और इस लगभग उजाड़ गाँव में उसको अपने पिता के बारे में दिलचस्प बातें सुनने को मिलती हैं।खूब चहल पहल वाले समय और अब लगभग उजड़ चुके गाँव के दृश्यों के बीच और अनेक स्त्रियों को भोग चुके दबंग पिता और अब विधवा होकर गाँव लौटी बचपन की अपनी प्रेमिका के असंतुलित बर्ताव से खिन्न और हताश पिता की छवियों के बीच आधा आधा बँटी हुई यह कृति लैटिन अमेरिका के जादुई यथार्थवाद का प्रेरक ग्रन्थ मानी जाती है।शुरू के चार वर्षों में इस किताब की महज दो हजार प्रतियाँ बिकीं पर बाद में इसको लैटिन अमेरिकी साहित्य की महत्वपूर्ण कृति माना गया और दुनिया की तीस से अधिक भाषाओँ में उसके अनुवाद लाखों की संख्या में बिके। उनके नाम से स्थापित फाउंडेशन में उनके हजारों फोटोग्राफ संरक्षित रखे गए हैं। "जुआन रुल्फोज मेक्सिको" शीर्षक से उनके श्वेत श्याम छायाचित्रों का संकलन प्रकाशित है जिसमें मेक्सिको के शीर्ष लेखकों ने उनके बारे में लिखा है और उनका मानना है कि ये फोटो किस्से नहीं कहते बल्कि विचार प्रस्तुत करते हैं। क्रांति के बाद के ग्रामीण मेक्सिको की ये तस्वीरें उनके लेखन के समकक्ष महत्वपूर्ण मानी गयी हैं। उनकी अनेक कहानियों और इकलौते उपन्यास पर एक से ज्यादा बार भिन्न भिन्न निर्देशकों ने लोकप्रिय फ़िल्में बनायीं हैं।

जुआन रुल्फो (मैक्सिको)
  
"अरे इग्नेसियो, तुम जगे हुए  हो न? बताओ क्या तुम्हें  कहीं से कोई  आवाज सुनायी दे रही है ... या कोई रोशनी दिखायी दे रही है?"

"नहीं,कहीं कुछ नहीं दिखायी दे रहा."
"पर लगता है जैसे हम शहर के कहीं आस पास ही हैं."
"लग तो मुझे भी ऐसा ही रहा है ... पर सुनायी तो कुछ नहीं दे रहा."
"अपने आस पास ढंग से आँखें खोल कर देखो."
"मुझे कुछ भी नहीं  दिखायी दे रहा है."
बेचारा इग्नेसियो.
इंसानों  की लम्बी काली परछाईं  ऊपर नीचे हरकत करती हुई दिखायी दे रही थी ... नदी के किनारे चट्टानों  पर फिसलती हुई – कभी विशाल आकार धारण कर लेती तो कभी सिमट  जाती.
यह अकेली परछाईं  थी – हवा में लहराती हुई.
चन्द्रमा धरती के सिर के ऊपर मचलता हुआ प्रकट  हुआ और रोशनी का छिड़काव करने लगा. 
"हमें  जल्द से जल्द उस शहर तक पहुँचना  है इग्नेसियो. तुम्हारे कान खुले हुए हैं ... आस पास निगाह दौड़ाओ और सुनो कि कुत्तों  का भौंकना सुनायी पड़ रहा है ? उसी से हमें  पता चलेगा कि तोनाया शहर पास आ गया है. हमें अपने गाँव से चले हुए  तो कई  घंटे हो चुके  हैं ."
"आपकी  बात दुरुस्त है... पर मुझे तो कहीं  कुछ दिखायी नहीं  दे रहा."
"मैं  तो अब बुरी तरह थक चुका हूँ ."
"आप ऐसा करो... मुझे सिर से नीचे उतार दो."
बूढ़ा आदमी पीछे चलते हुये एक दीवार तक पहुँचा और उस से टिक कर सिर की टोकरी को ऊपर ऊपर ही इस ढंग  से संतुलित करने लगा जिस से उसको धरती पर नीचे न उतारना पड़े. उसकी टाँगें  थकान से कांप  रही थीं  पर नीचे बैठने का उसका कोई इरादा नहीं था  क्योंकि एक बार बैठ  जाने पर बेटे  का उतना  बोझ लेकर दुबारा  उठा  पाना  उसके अकेले के बस का नहीं था.घंटों  पहले जब वह बेटे  को गाँव से लेकर चला था तब भी कई लोगों  ने बेटे  को टोकरी में  लाद कर उसके सिर तक उठाने में मदद की थी. इतनी देर से वह उसको अपने सिर पर लादे वैसे ही चलता आ रहा है.
"अब तुम्हारी तबीयत कैसी लग रही है बेटे ?"
"बहुत खराब ."
वे आपस में  बहुत कम बातचीत कर रहे थे ... बोलते भी तो एक दो शब्द. चलते हुए ज्यादातर समय वह सोता ही रहा – बीच बीच में उसका बदन बिल्कुल बरफ जैसा ठंडा पड़  जाता – तब वह बुरी तरह काँपने लगता. इस तरह की कँपकपी को वह तुरत भाँप जाता क्योंकि उसके  सिर पर लदा हुआ  टोकरा  हिलने डगमगाने लगता – उसको गिरने से बचाने के लिये बूढ़े को  अपने पंजे धरती पर गहराई  से अन्दर घुसाने पड़ते . दौरा पड़ते ही उसका बेटा अपनी बाँहें उसकी गर्दन के चारों  ओर कस कर लपेट  लेता – कई कई बार तो वह झटके के कारण  गिरते गिरते बचा. 
उसने अपने दाँत  किटकिटाये पर इस हिफाजत के साथ कि जीभ कटने से बची रहे ... बेटे से उसने पूछा:
"क्या तकलीफ बहुत हो रही है?"
"हो तो रही है" ... बेटे ने संक्षिप्त सा जवाब दिया।
पहले उसने कहा था कि "मुझे आप सिर से नीचे उतार दीजिये ...आप पैदल शहर की ओर बढ़िये ,मैं धीरे धीरे आपके पीछे पीछे चल कर कल तक अपने आप आपके पास पहुँच जाऊँगा ... हो सकता है और ज्यादा समय लगे ,पर आ ही जाऊँगा धीरे धीरे" ... उसने यह बात रास्ते में कम से कम पचास बार दुहराई होगी ... पर अब उसकी हिम्मत टूट रही थी।
सिर के ऊपर चाँद चमक रहा था ... और इस अँधेरे समय में वो चाँद उनकी आँखें ज्यादा आलोकित कर रहा था ... उनकी लम्बी होती जाती छाया धरती पर पड़ती उसकी रोशनी को बीच बीच से खंडित कर रही थी।
"मुझे पता नहीं चल रहा है हम जा कहाँ रहे हैं" ... उसने कहा।
इसके बाद चुप्पी छाई रही,बूढ़े ने कोई जवाब नहीं दिया। 
वह चाँदनी में नहाया हुआ उकडूँ होकर बैठा था पर चेहरा रक्तविहीन  और हल्दी जैसा पीला    
---उसके शरीर से प्रतिबिंबित होकर आ रहा प्रकाश भी मरियल .
"मैंने जो बोला तुमने सुना इग्नेसियो ?मुझे लग रहा है कि तुम्हारी तबियत ज्यादा ही ख़राब है" ...
दूसरी तरफ से कोई आवाज नहीं आई।
बूढ़ा जैसे तैसे भी हिम्मत बाँधे आगे बढ़ता रहा -- उसने कन्धों को थोड़ा झुकाने और फिर शरीर को सीधा करने का यत्न किया।

"यहाँ तो कोई सड़क भी नहीं दिखाई दे रही है ... लोगों ने कहा था कि इस पहाड़ी को पार करते ही तोनाया शहर आ जाएगा ...हमने पहाड़ी पार कर ली पर दूर दूर तक शहर का कहीं कोई नामो निशान नहीं ...कहीं से कोई शोर शराबा भी नहीं उठ रहा जिस से पता लगे कि हम आबादी के आस पास हैं ...तुम्हें तो ऊपर से सब दिखाई दे रहा होगा ...बताओ कहीं कुछ हलचल दिखाई दे रही है?"
"मुझे सिर से नीचे उतार दो ...पापा।"
"तुम्हारी तबियत ज्यादा ख़राब लग रही है?"
"हाँ सो तो है" ....
"देखो,चाहे जो हो जाये मैं तुम्हें तोनाया पहुँचा कर ही दम लूँगा ...वहाँ तुम्हारी देखभाल करने वाला कोई तो  मिलेगा  ...लोगों ने बताया था कि डाक्टर है वहाँ, उसके पास तुम्हें दिखाने ले चलूँगा ...जब इतनी दूर से तुम्हें अपने सिर पर ढो कर लाया हूँ तो यहाँ ऐसे खुले आसमान के नीचे छोड़ कर चला कैसे जाऊँ....मैं तुम्हें मरने कैसे दे सकता हूँ?" 
बूढे की लड़खड़ाहट बढ़ गयी थी ..उसके कदम डगमगाए पर जल्दी ही वह संभल गया।
"मैं जब तक तुम्हें तोनाया पहुंचा नहीं देता दम नहीं लूँगा।"
"मुझे नीचे उतार दो" ....
बेटे की आवाज मुलायम होती गयी, लगा जैसे फुसफुसा रहा हो ....
"मुझे थोड़ा आराम करने दो पापा " .... 
"वहीँ बैठे बैठे सो जाओ बेटे ...मैंने तुम्हें कस के पकड़ा हुआ है।" 
आकाश बिलकुल साफ़ था और चंद्रमा पूरे निखार पर था ...उसका रंग धीरे धीरे नीला पड़ता जा रहा था।बूढ़े का चेहरा पसीने से लथपथ हो चुका था और चाँदनी उस गीलेपन पर जैसे चिपक सी गयी हो।सिर पर बोझ होने और बेटे की बाँहें गर्दन से लिपटी होने की वजह से वह सिर्फ नाक की सीध में सामने देख सकता था सो सिर के ऊपर दमक रहा चन्द्रमा उसकी निगाहों से बाहर था। 
"मैं तुम्हारे लिए जो कुछ भी कर रहा हूँ तुम्हारे वास्ते नहीं कर रहा हूँ ...तुम्हारी गुज़र चुकी माँ की खातिर कर रहा हूँ ...तुम आखिर उसी के बेटे हो ...यदि मैंने तुम्हें ऐसे ही छोड़ दिया तो वह मुझे कभी माफ़ नहीं करेगी ..उसकी ख़ुशी के लिए मुझे ये सबकुछ करना है ...जब मैंने उस बुरी और दयनीय हालत में बीच सड़क पर तुम्हें पड़े हुए देखा तो मुझे एकदम से एहसास हुआ कि तुम्हारा इलाज करवा कर चंगा कर देना मेरा दायित्व बनता है ...इतनी दूर से तुम्हारा वजन उठा कर मैं ले आया इसके लिए शक्ति भी उसी ने मुझे दी, तुमने नहीं ...वजह सीधी सी है कि जीवन भर तुमने मुझे कष्ट और जलालत के सिवा क्या दिया ..भरपूर संताप....और जितना हो सकता था उतना अपमान ..." इतना बोलते बोलते वह पसीने से तर बतर हो गया पर धीरे धीरे बहती हुई हवा ने पसीना सुखा दिया --- पर हवा के मद्धम पड़ते ही पसीना फिर से आने लगा।
"मेरी कमर चाहे टूट जाये पर मैं तुम्हें तोनाया तक पहुँचा कर ही दम लूँगा -- तुम्हारे बदन पर जो जख्म हैं उनको ठीक करा कर ही मुझे चैन मिलेगा ... हाँलाकि मुझे पक्के तौर पर मालूम है कि ठीक होते ही तुम अपनी पुरानी शैतानी राह पर लौट जाओगे ...पर मेरे लिए तुम्हारे इस बर्ताव के ज्यादा मायने नहीं क्योंकि तुम मेरी निगाहों से दूर रहोगे,बस मुझे तुम्हारी खुराफातों और कारस्तानियों का पता न चले ... ईश्वर करे ऐसा ही हो ...मैं मानता हूँ कि तुम्हारा मेरा बाप बेटे का कोई रिश्ता है ही नहीं ...मुझे अपने लहू के उस कतरे पर शर्म आती है जो तुम्हारे बदन की बनावट में शामिल है ... यदि मेरा वश चले तो मैं तुम्हारे गुर्दे के अंदर बह रहे अपने लहू को शाप दे दूँ कि उसमें कीड़े पड़ जाएँ  .जिस दिन मुझे पता चला कि तुम राह चलते लोगों को लूटते हो ,डाका डालते हो और क़त्ल करते हो ...वो भी निर्दोष राहगीरों का क़त्ल ...उस दिन से मेरे मन में तुम्हारे लिए ऐसी नफ़रत पैदा हो गयी ...मेरी बात पर यकीन न आ रहा हो तो मेरे दोस्त ट्रैन्किलिनो से दरियाफ्त कर सकते हो ...उसी ने तुम्हारा बप्तिस्मा किया था ...तुम्हारा नाम भी उसी का रखा हुआ है ...अफ़सोस की बात कि तुम्हारे ही कारण उसको बहुत सारी जलालत भी भुगतनी पड़ी।जब तुम्हारी कारस्तानियों के बारे में यह सब मुझे पता चला तो मैंने फ़ौरन निश्चय किया कि अब से तुम्हें मैं अपना बेटा नहीं मानूँगा..अब देखो,कहीं कुछ दिखाई पड़ रहा है? ...या फिर कोई आवाज सुनाई पड़ रही है?...जो भी देख सुन पाओगे तुम्हीं कर पाओगे,मैं तो ऐसे ही बहरा बना हुआ मानुष हूँ।"
"मुझे कहीं कुछ नहीं दिखाई दे रहा है।"
"तुम्हारी किस्मत ही फूटी हुई है ...मैं क्या कर सकता हूँ।"
"मुझे बहुत तेज प्यास लगी है।"
"जरा ठहरो ...लगता है हम शहर के करीब तक पहुँच गए हैं ...हमारी बदकिस्मती है कि हमें यहाँ तक आते आते रात हो गयी ...लोगों ने अपने अपने घरों की रोशनी बुझा दी है ...पर रोशनी न भी दिखाई दे तो कुत्तों का भौंकना तो सुनाई पड़  ही जायेगा ...कान लगा कर सुनो,कहीं से कुछ आहट आ रही है?"
"प्यास से मैं मरा जा रहा हूँ ...कहीं से भी मुझे पानी लाकर दो।" 
"मेरे पास पानी है कहाँ...आस पास दिखाई भी नहीं पड़ रहा है ...चारों और पत्थर ही पत्थर ...पर एक बात कान खोल कर सुन लो ...यदि मुझे पानी दिखाई दे भी जाता है तो मैं पानी पीने के लिए तुम्हें नीचे उतारने वाला नहीं ...दूर दूर तक जहाँ कोई परिंदा न दिखाई दे वहाँ तुम्हें दुबारा मेरे सिर के ऊपर चढाने में कौन मदद कौन करने आएगा भला...मेरे बस का अकेले तुम्हें जमीन से उठा कर सिर पर रख लेना नहीं है।"
"लगता है तुरत पानी नहीं मिला तो मेरी जान ही निकल जाएगी ...चलते चलते मैं थक भी बहुत गया हूँ।"  
"तुम्हारी बातें सुन के मुझे तुम्हारे जन्म का समय याद आ रहा है ...जन्म लेते ही तुम्हें जोर की प्यास लगी थी और भूख भी ...खा पी कर तुम गहरी नींद सो गए थे ...तुम्हारी माँ की छाती में जितना दूध था तुम इसकी एक एक बूंद चूस गए फिर भी तुम्हारी राक्षसी भूख प्यास ख़तम नहीं हुई ...फिर माँ ने तुम्हें पानी पिलाया पर तुम इस से भी संतुष्ट नहीं हुए ...बचपन में तुम बेहद शरारती और उद्दंड थे ,पर बचपन की शरारत देख के मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि बाद में तुम्हारे कारण हमें ऐसे दुर्दिन देखने पड़ेंगे ...मैंने जो सोचा भी नहीं था आखिर हुआ वही।तुम्हारी माँ हमेशा यही दुआ करती रही कि तुम खूब बलवान हट्टे कट्टे बाँके जवान बनो ...जीवन भर उसकी यही आस लगी रही कि बड़े होकर तुम उसकी परवरिश करोगे...दरअसल तुम्हारे सिवा उसके पास और था भी कौन ? दूसरा बेटा तो सिर्फ उसकी जान लेने आया था -- इधर उसने जन्म लिया उधर तुम्हारी माँ चल बसी ... धरती पर पाँव रखते ही उसने माँ की जान ले ली ...गनीमत है तुम्हारी यह दुर्गति देखने को वो जीवित नहीं रही वर्ना उसको तो दुबारा शर्म से मरन पड़ता ... बेचारी दुखियारी ।"
अचानक बूढ़े को एहसास हुआ कि उसके सिर के ऊपर रखी टोकरी में बैठा हुआ इंसान हिल डुल नहीं रहा है ,अपने गठरी जैसे शरीर को कभी इधर तो कभी उधर खिसका कर संतुलन बनाने की कोशिश भी नहीं कर रहा है ...और उसके सिर से पसीना ऐसे चू रहा है जैसे कातर रुलाई से मोटे मोटे आँसू गिर रहे हों।
"इग्नेसियो ...इग्नेसियो ...तुम रो रहे हो?...माँ की इतनी याद आ रही है?...पर अपने दिल पर हाथ रख के पूछो तुमने अपनी पूरी जिंदगी में कभी उसके लिए कुछ किया?...हमें तो तुमने सिर्फ दुःख, शर्म  और अपमान ही दिए ... अब देखो जिनके साथ मिलकर तुमने यह सब किया उन्होंने बदले में तुम्हें क्या दिया -- सिर्फ घाव न?दिन रात तुम्हारे लिए कसमें खाने वाले दोस्तों का भी क्या हस्र हुआ ...वे सब के सब भी आपसी लड़ाई झगड़ों में मारे गए ...पर उनके लिए रोने वाला कोई नहीं था ...वे कहा भी करते थे कि हमारे पीछे स्यापा करने वाला कोई नहीं है ...पर तुम्हारे अपने लोग तो थे इग्नेसियो -- तुमने अपने लोगों को अपने कुकर्मों से संताप के सिवा क्या दिया?"

शहर आ गया था ...घरों की छत पर चाँदनी बिखरी हुई थी ...पर जब आखिरी बार उसने अपनी कमर सीधी करने की कोशिश की तो बूढ़े को ऐसा लगा कि वो अपने बेटे के बोझ तले दबकर वहीँ मर जायेगा।शहर में घुसते ही जो पहला मकान मिला बूढ़ा उसके पास थोडा ठहर कर सुस्ताने को हुआ --- उसने सिर की टोकरी नीचे उतारने की कोशिश की तो उसको एकदम से महसूस हुआ जैसे शरीर का कोई अंग अचानक कट कर दूर जा गिरा हो ।
अपनी गर्दन पर कस कर लिपटी हुई हथेलियाँ उसने बड़ी मुश्किल से ढीली कीं ...कान के ऊपर से बेटे की हथेली हटते ही उसको अपने चारों और कुत्तों का भौंकना सुनाई पड़ना शुरू हो गया।
"ताज्जुब है,इतने सारे कुत्ते चारों ओर भौंक रहे हैं  पर तुम्हें इनका भौंकना सुनाई नहीं पड़ा इग्नेसियो?...समय रहते शहर तक पहुँच जाने और डाक्टर को दिखा देने के भरोसे को जिन्दा रखने में भी तुमने मेरी मदद नहीं की...मरते हुए भी तुम अपनी हरकतों से बाज नहीं ही आये...जीते जी तो तुमने मेरे साथ दगा किया ही, मरते हुए भी मुझे नहीं बख्शा ....