नया ज्ञानोदय के सितंबर 2016 के अंक में कथाकार पूनम तिवारी की कहानी "मौसम सी बदल गई जिंदगी" पढ़ने का एक सुयोग हुआ। उससे पहले मैंने पूनम तिवारी जी की कोई भी रचना नहीं पढ़ी थी। वह एक अलग मिजाज की कहानी है। खासतौर पर गंवई आधुनिकता में डूबी कहानियों से कुछ कुछ अलग मिजाज की कहानी। चाहता था कि उस कहानी को ब्लाग में लगा कर अपने अध्ययन के लिए सहेज लूं। यही सोचकर रचनाकार पूनम तिवारी जी से सम्पर्क साधकर उस कहानी को भेजने का आग्रह किया था। संभवत: वह कहानी उनके प्रकाशनाधीन संग्रह का हिस्सा है और पाठक उसे पुस्तक से भी पढ़ पाएंगे। अभी उनके द्वारा भेजी गयी कहानी ‘बेबसी’ को यहां प्रकाशित करना संभव हो पाया है। कथाकार पूनम तिवारी के तीन उपन्याास एवं दो कहानी संग्रह एवं एक नाटक अभी तक प्रकाशित हैं। बीसवीं सदी के आखिरी दशक तक जिस मन मिजाज की कहानियां अक्सर पढ़ने को मिल जाती थी, ‘बेबसी’ कमोबेश एक वैसी ही रचना है। वे कहानियां जिनमें जीवन की आपाधापी का सच गरीब गुरबों के जीवन संघर्ष से गुंथा रहता था। इस तरह की कहानियों की अपनी एक खास विशेषता होती है कि इनके जरिये पाठक लेखक के उस सच से वाकिफ हो सकने का सुयोग पा जाता है जो लेखक की संवेदनाओं, जीवन दृष्टि और मूल्यपबोध को परिभाषित करते हैं। |
बेबसी
पूनम तिवारी
आज भी पूरा दिन यूँ ही निकल गया। सुबह से दोपहर, दोपहर से शाम, काम की तलाश में मानों शरीर का सारा
पानी ही सूख गया हो। पेट के लिए तो वैसे भी पिछले दो दिनों से अन्न का दाना भी नहीं
नसीब हुआ था। गाँव में सूखा पड़ने के बाद भुखमरी के हालात में रामलाल ने गाँव से शहर
की ओर रुख किया। चार बच्चों और पत्नी के किसी तरह सिर छिपाने वास्ते ठौर बना कर निकल
पड़ा, दो जून की रोटी के जुगाड़ में, थोड़ी सी मशक्कत के पश्चात् एक चूड़ी
के कारखाने में जैसे तैसे पेट भरने का इन्तजाम हो गया। धधकती आग की लौ पर काँच पिघलाने
से पेट की आग ठण्डी होने लगी।
अभी कुछ माह ही बीते थे। रामलाल को, कारखाने में काम करते हुए, एक दिन तैयार फैन्सी चूड़ी का बक्सा
गोदाम में ले जाते वक्त हाथ से छूट गया। जमीन में बिखरे रंग-बिरंगे काँच के टुकड़ों
को रामलाल काँपती टांगों व विस्फरित आँखों से, यूँ देखने लगा, मानों काँच के टुकड़े नहीं, वह स्वयं टूट कर बिखर गया हो। उसे
यूँ बुत बना खड़ा देख,
वहाँ काम कर रहे
रामलाल के साथी एक स्वर में चिल्लाये ‘‘भाग रामलाल जल्दी भाग, बड़ा बेरहम है मालिक, बिना दिहाड़ी दिये, बन्दी बनाकर भरपायी करवायेगा, जल्दी भाग यहाँ से, निकल बाहर।’’ अपने उतारे हुए कपड़े, चप्पल सब छोड़कर भागा वह सिर्फ कच्छा
बनियाइन में,
हाँफता-डीपता
नंगे पाँव,
कारखाने के बाहर
आकर एक लम्बी सी सांस ली, उसे महसूस हुआ
यदि कुछ क्षण कारखाने से बाहर निकलने में और लग जाते तो शायद उसका दम ही घुट जाता।
कारखाने की आग अभी भी धधक रही थी, लेकिन रामलाल के घर का चूल्हा ठण्डा
पड़ गया था। बच्चे भूख-भूख की रट लगा कर बेहाल हुए जा रहे थे। बच्चों का मुरझाया सूखा
चेहरा देखकर पिता व्याकुल हो रहा था।
उस घड़ी को और अपने आप को कोस रहा था। फर्श पर हाथ पटक-पटक
कर उन्हें दण्डित कर चुका था जिन हाथों से चूड़ी का बक्सा छूटा था। रात गहरा गयी थी, लेकिन नींद कोसों दूर थी। बच्चे
श्वान निद्रा सो जाग रहे थे, और निरन्तर खाने की गुहार लगा रहे थे ‘‘अम्मा कुछ खाने को दो, बड़ी भूख लगी है।’’ बच्चों के लगातार एक ही राग सुनसुन
कर कान थक चुके थे,
बच्चों की आवाजें
अब रामलाल के कानों में शीषे पिघला रही थी। वह दांत पीसता हुआ उठा। उसे लगा बच्चों
का गला ही दबा दे। बन्द हो जाये आवाज, न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी, दूसरे ही पल बच्चों की तरफ से ध्यान
हटाकर पत्नी की ओर मुड़ा जो बच्चे को पानी पिलाकर-पिलाकर कर चुप कराने का असफल प्रयास
कर रही थी। रामलाल ने अपनी सारी भड़ास बेकसूर पत्नी पर निकाल दी ‘‘कैसी माँ हो तुम ? बच्चों को चुप करवा कर सुला भी नहीं
सकती’’ गाँव की सीधी सरल पत्नी जिसने शहर
की भीड़ भरी सड़कों पर अभी तक ठीक से चलना भी नहीं सीखा था, पति को अनिमेष मूक देखती रह गयी।
रामलाल पत्नी से ज्यादा देर नजरें नहीं मिला सका। बाहर निकल गया। घुटनों पर सिर टिका
कर बैठ गया। फुटपाथ में बैठकर भोर होने का इन्तजार करने लगा। पत्नी को डाटने के पश्चात
स्वयं आत्मग्लानि से भर गया। वह सोचने लगा। जब वह कमा कर भी लाता है, तब भी शायद ही किसी रोज पत्नी पूरा
पेट भोजन कर पाती होगी। चार बच्चों और पति से जो बचा कुचा मिलता वह अपने लिए उसे ही
पर्याप्त समझती है। उसने कभी शिकायत नहीं की, रामलाल को आज पहली बार अहसास हुआ कि परिवार नियोजन के बारे
में सोचा होता। चार बच्चों की जगह दो बच्चे होते तो उसकी मेहनत से कमाया हुआ कुछ हद
तक पूरा पड़ जाता। विचारों का जाल बुनते-बुनते वहीं फुथपाथ पर लेट गया। चिन्तातुर करवटें
बदलता रहा। नींद तो कोसों दूर थी। भोर के चार बज रहे थे। रामलाल उठा। जिधर रास्ता समझ
आया उधर ही चल पड़ा। न रास्ते का ज्ञान था, न मंजिल का पता था, बस चलता जा रहा था। चलते-चलते आ पहुँचा चौरास्ते वाले चौराहे
पर। चौराहा दूधिया रोशनी से नहाया हुआ था। कुछ क्षण ठहर गया। चार रास्ते वह भी नितान्त
अन्जान,
चौराहे पर फैली
रोशनी आँखों में चुभने लगी। शरीर का तापमान बढ़ने लगा। उसे महसूस हुआ यदि कुछ क्षण और
रुका तो कहीं शरीर में फफोले न पड़ जायें। वह भागा अपने शरीर में मौजूद पूरे दम के साथ, रुक कर पलटा, रोशनी बहुत दूर हो चुकी थी। वह अपने
आप से ही बुदबुदाया ‘‘हम गरीब को रोशनी नहीं, रोटी की दरकार है।’’ चलते चलते आ पहुँचा स्टेशन के बाहर
शायद कोई गाड़ी अपने गन्तव्य में पहुँची थी। कुछ मुसाफिर अपना सामान स्वयं उठा सकने
में समर्थ थे,
लेकिन कुछ नजाकतवश
और कुछ शारीरिक अक्षमतावश उनकी नजरें कुली की तलाश में थी। रामलाल भी आगे बढ़ा। काम
मिलने की सुई नोंक समान उम्मीद से ही उसका मन का मयूर झूमकर नाच उठा। वह लपका कुली.कुली
की आवाज दे रहे एक सज्जन की ओर, हाथ जोड़ कर बोला।
‘‘बाबू साहब सामान उठायें ?’’ दो बड़े ब्रीफकेस, एक बड़ा बैग, एक गत्ते का डिब्बा, कूल जग सब कुछ लाद दिया। शरीर में बिना कुछ खाये पिये जान
तो थी नहीं,
लेकिन चार पैसे
मिल पाने की ललक से,
न जाने घोड़े जैसी
ताकत कहाँ से आ गयी थी। अभी दस पन्द्रह कदम ही चला होगा। उधर से जिन सज्जन का सामान
था उनका बेटा दौड़ता हुआ आ गया। पास आकर बोला ‘‘बिल्ला नं0 कितना है ? कहाँ है बिल्ला ?’’ रामलाल तो इन सबका मतलब भी नहीं जानता था। वह भौचक्का सा
देखता रहा ‘‘पापा आप भी, ये रेलवे का कुली नहीं है, पलक झपकते ही सामान इधर.उधर कर देते
हैं ये लोग। उतारो सामान’’
रामलाल ने लाख
समझाने की कोशिश की। वह उठाईगीर नहीं बेहद जरूरतमन्द है, लेकिन यह बात सत्य है कि गेहूँ के
साथ घुन भी पिसता है। अचानक अपना जीवन ही निरर्थक लगने लगा। जालिम दुनिया और बेदर्द
लोगों के बीच से अपने को समाप्त करने के उद्देष्य से उसके कदम तेजी से प्लेटफार्म की
ओर बढ़ रहे थे,
और आँखों के सामने
पटरी पर दौड़ती तेजरफ्तार की ट्रेन घूम रही थी। वह बढ़ता जा रहा था, तभी दो मासूम बच्चे सामने आकर खड़े
हो गये। जिनकी उम्र तकरीबन रामलाल के बच्चों के बराबर थी। ‘‘बाबू, कुछ दे दो, बड़ी भूख लगी है। कुछ खाया नहीं है
बाबू।’’
रामलाल के भीतर
के जंगल के हारे पक्षी,
सब एक साथ फड़फड़ाने
लगे, मानों उसका आत्महत्या का यह फैसला
उसके जीवन का सबसे बड़ा पराजय बन गया हो। वह अपने आप से ही बड़बड़ाने लगा। मैं एक मेहनती
इन्सान हूँ। आज परिस्थितियाँ प्रतिकूल हैं कल अनुकूल होंगी। वह वापस स्टेशन से बाहर
निकल कर चल दिया। रास्ते में एक ब्लड बैंक के पास रुका। अन्दर गया। कुछ देर पश्चात
बाहर निकला शरीर पीला पड़ा था। लेकिन आँखें खुषी से चमक रही थीं। हाथ में पकड़े सौ-सौ
के दो नोट देखकर।
जहाँ सामाजिक संस्थाओं से जुडे़ कुछ लोग अपना खून जरूरतमन्दों
के लिए दान कर रहे थे। वहीं कुछ शराबी, नषेड़ी, जुआड़ी अपनी बुरी आदतों के चलते अपने शरीर का खून बेच रहे
थे किन्तु,
रामलाल ने अपने
बच्चों की क्षुदा शान्त करने का जुगाड़ किया था अपने शरीर का खून बेचकर। भूख से आँतें
सिकुड़ गयी थीं। प्यास के कारण गला सूख रहा था। खून दान देने वालों के लिए वहाँ जूस, ग्लूकोस पानी, व कुछ देर आराम करने के वास्ते बेन्च
की व्यवस्था ब्लड बैंक वालों ने कर रखी थी। रामलाल को महसूस हुआ कि वह बिना पानी पिये
कुछ कदम भी आगे चलने में असमर्थ है। रामलाल वहीं पास पड़ी बेन्च में अपने को सम्भालता
हुआ बैठ गया। पानी के लिए वहीं पास की मेज पर रखे गिलासों में से एक पानी का भरा गिलास
उठाने के लिये हाथ बढ़ाया ही था, कि उधर से एक लड़का दौड़ता हुआ आया। जिसकी उम्र तकरीबन उन्नीस
बीस की रही होगी शायद अपनी ड्यूटी के बीच ही यहाँ से उठकर किसी काम के लिये गया होगा।
रामलाल के हाथ से पानी का गिलास छीन लिया और तेज आवाज में डाँटते हुए बोला।
‘‘बड़े अजीब आदमी हो। यहाँ पहली बार आये हो क्या ?’’ रामलाल ने पानी के गिलास की ओर ताकते हुए ‘हाँ’ में सिर हिला दिया।
‘‘इसीलिए तुम्हें यहाँ के कायदे कानून नहीं मालूम हैं। तुम
जैसे दारूबाजों को यहाँ ये ग्लूकोस नहीं पिलाया जाता है। ये सारे इन्तजाम उन भले लोगों
के लिए हैं। जो मुफ्त में अपना खून दान देते हैं। समझे तुम, तुम्हें तो अपने पैसे मिल गये न
?’’
‘‘हाँ, बस थोड़ा सर घूम रहा था, गला भी सूख रहा था।’’
‘‘उठो यहाँ से जो पैसे मिले हैं। बाहर जाकर उससे अपनी प्यास
बुझाओ वैसे भी इस सफेद ग्लूकोस पानी से तुम्हारी प्यास कहाँ बुझेगी। जाओ दो चार पन्नी
अपने हलक से उतारो। उठो यहाँ की बेन्च खाली करो।’’ रामलाल उठा बिना कुछ बोले चल दिया।
सड़क किनारे सार्वजनिक नल की तलाश में, जानता था अपनी सफाई में कुछ बोलना बेकार है, उसकी हकीकत कौन सुनेगा, यदि सुन भी लिया तो मानेगा कौन ?
रामलाल को किसी तरह कई फाकों के पश्चात एक पंसारी की दुकान
पर सौदा तौलने का काम मिल गया। रामलाल की खुशियों के पंख फैल गये। दुकान से घुना-फफूंदा
ही सही अनाज व कुछ पैसे तो मिलेंगे। जिससे बच्चों की भूख की व्याकुलता तो नहीं देखनी
पड़ेगी। एक पिता व पति के लिए बेरोजगारी सबसे बड़ा अभिषाप है। रामलाल मेहनत, लगन व ईमानदारी से सुबह दस बजे से
रात्रि के नौ बजे तक काम करता यानि पूरे ग्यारह घण्टे किन्तु मालिक उसके ईमानदारी से
सौदा तौलने पर उसे कई बार डाँटता भी रहता। मंगलवार की बन्दी के दिन भी रामलाल को दुकान
में बुलाकर सभी खाद्य सामग्री में मिलावट का काम करवाता। यह काम रामलाल को बिल्कुल
नहीं भाता,
किन्तु पुरजोर
विरोध भी न कर पाता।
मालिक ने रामलाल को काली मसूर में काले छोटे कंकर मिलाने
को कहा। स्वीकृति में सिर हिला दिया किन्तु मालिक की नजर बचाकर कंकर फेंक दिये। दाल
का वजन करने पर जब कंकरों का वजन दाल में नहीं आया। दाल का वजन उतने का उतना ही। रामलाल
को मालिक ने धक्के मारकर दुकान से निकाल दिया।
रामलाल फिर से गलियों-गलियों नौकरी की तलाश में भटकने लगा।
दूसरी दुकान में नौकरी मांगने गया, वहाँ के मालिक ने उसे पहचानते हुए पूछा ‘‘तुम तो जनरल स्टोर में काम करते
थे क्यों छोड़ दिया वहाँ से’’
?
‘‘साहब-वो....।’’ अभी रामलाल अपनी बात कह भी नहीं पाया था कि वहाँ बैठा दूसरा
दुकानदार बोल पड़ा।
‘‘अरे साले ने की होगी वहाँ चोरी, इसीलिए भगा दिया गया होगा।’’ रामलाल की बिना बात सुने ही वहाँ
से भी भगा दिया।
‘‘अरे भाई जरूरत होते हुये भी हम तुम्हें यहाँ नहीं रख सकते।
हमें कई बार दुकान अकेले भी छोड़नी पड़ती है तुम जैसां को छोड़कर दुकान साफ करानी है क्या
? कोई भरोसे का आदमी चाहिये। चलो आगे
देखो हमें अपना काम करने दो। रामलाल की ईमानदारी ही उसपर भारी पड़ गयी। उसे आज समझ में
आया कि समय के साथ चलने में ही भलाई है।
रामलाल की सहनशक्ति की मानों परीक्षा हो रही हो। जेब में
एक फूटी कौड़ी नहीं। छोटा बेटा बीमार हो गया। सरकारी अस्पताल से मुफ्त में दवा लिख कर
दे दी गयी,
पर मिली नहीं।
पचास रुपये की दवा के लिए सारे प्रयास कर डाले किन्तु असफल व निराश खाली हाथ वापस लौट
आया। बुखार तेज होता जा रहा था। डाक्टर के कथनानुसार बुखार बढ़ने नहीं देना था। बच्चा
बुखार में तपा जा रहा था। दिमाग पर असर होने का खतरा भी बढ़ता जा रहा था।
रामलाल फिर एक बार सड़क पर निकल पड़ा, मंजिल का पता नहीं था। बस तेज कदमों
से चला जा रहा था। चेहरे पर बेचारगी नहीं। इस समय गुस्से व उत्तेजना के भाव थे। एक
मैदान में लगे कार्निवाल वहाँ लोगों की ऐसी भीड़ मानों पूरा शहर यहीं एकत्रित हो गया हो। रामलाल ने कूड़े
के ढेर से उठाया ब्लेड धीरे से अपनी जेब से निकाल कर अपने हाथ में ले लिया और तेजी
से भीड़ में घुस गया। कुछ देर पश्चात उतनी ही तेजी से बाहर निकल आया चेहरे पर आवष्यकता
और पश्चाताप के भाव स्पष्ट दिखायी दे रहे थे। बेहद मजबूरी में चुराया हुआ बटुआ अपनी
जेब में रखकर तेज गति से दवाखाने की ओर बढ़ गया। अंततः परिस्थितियों वष एक ईमानदार व्यक्ति
के सब्र का बाँध आखिरकार टूट ही गया।
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