गीता
दूबे
आज जहाँ भरोसा शब्द पर
से ही लोगों का भरोसा उठता जा रहा है वहां संभवतः कवि या फिर रचनाकार ही एकमात्र ऐसा
जीव है जो भरोसे को बचाए रखने की बात करता है। वस्तुतः कभी कभार गंभीरता से सोचने पर
ऐसा लगता है कि साहित्य एक ऐसा अजायबघर है जहाँ वे सारी वस्तुएं एक- एक कर
अपनी जगह बनाकर सुरक्षित होती जाती हैं जो एक एक कर सचमुच के संसार से गायब हो रही
हैं। और इसीलिए कवि निरंतर लुप्तप्राय भरोसे को अपना ही नहीं पाठकों का संबल बनाकर
दुनियावी उलझनों को सुलझाने की भरपूर कोशिश करता नजर आता है। अपने पांचवे कविता संग्रह
"भरोसे की बात" में कवि शैलेंद्र अतीत
की स्मृतियों को संजोने के साथ साथ वर्तमान के सवालों से रुबरु होते हुए भविष्य के
सपने भी सजाते दिखाई देते हैं। अतीत की स्मृतियाँ कवि ही नहीं साधारण मनुष्य के लिए
भी बहुधा संजीवनी का काम करती हैं जिसकी शक्ति के बल पर वह अपने वर्मान के दुखों और
तकलीफों का भरदम सामना करता है। कवि भी इन स्मृतियों को खूबसूरती से अपने दिल ही नहीं
अपनी कविताओं में भी संजोते हुए सुकून की सांस लेता दिखाई देता है। यह अतीत हमेशा ही
खूबसूरत रहा हो यह जरुरी नहीं पर कवि अपनी स्मृतियों के झोले से अतीत के जिस टुकड़े
को निकालकर उसे पाठकों के साथ साझा अरता है वह निस्संदेह अपनी खूबसूरती से सबको मोह
लेता है। प्रसाद की कविता "वे कुछ दिन कितने सुंदर थे" का प्रेमिल
अहसास या मादकता भले ही इनमें न हो पर रोमानीपन का भला भला सा लगनेवाला संस्पर्श जरूरत
मौजूद है जो पाठकों को अंतर्मन को मृदुता से सहलाते हुए उसे वर्तमान की भयावहता से
भी परिचित कराता है। "उस वक्त की कहानी" कहते
हुए कवि अतीत और वर्तमान के इस फर्क को किस तरह उभारता है यह गौरतलब है-
"रोटियां बांटी थी
बांटी थी किताबें
कपड़े भी बांटे थे
* * * * * * *
मिल- बांट कर
भगाया था दुखों को
हांक ह़ाक कर
यह उस वक्त की कहानी है
जब बंटे नहीं थे घर -आंगन।" (पृ. 59)
हालांकि कहने को तो देश ने एक बंटवारा झेला पर उस बंटवारे की पीठ पर अनगिनत बंटवारों की लाशें लदी हुईं हैं जो वर्तमान
को सड़ांध से भर देती हैं और दर्दीले आतंक की खौफनाक परछाइयाँ आज तक आम आदमी को दहलाती
हैं। अतीत की ये यादें कवि को लगातार कोंचती और बेचैन बनाए रखती हैं और इसी कारण विकास
की दुहाई देनेवाली इक्कीसवीं सदी की उस अजीब
सी घड़ी को भी अपनी कविता में दर्ज करने से नहीं चूकता जब मानवता को शर्मसार करनेवाली
घटनाएं घटती हैं -
"अपने ही हाथों में
थे
ईंट- पत्थर
लाठी , ड़डे, खंजर भी थे
* * * * * * *
व्याभिचार की शिकार बेटियां
और अभियुक्तों की कतार
में खड़े पराक्रमी
अपने ही थे
* * * * * * *
पर सबको
अपनी अपनी पड़ी थी
इक्कीसवीं सदी की।
यह एक अजीब सी घड़ी थी।" (पृ.73)
लेकिन इनके साथ ही कुछ
मृदु मृदु स्मृतियाँ भी हैं जो किसी भी व्यक्ति का बहुत बड़ संबल होती हैं। वे स्मृतियां
कवि की उदासी और जिंदगी के बासीपन को भी अर्थवत्ता प्रदान करती हैं क्योंकि खुशी और
उदासी के योग से ही जिंदगी की लय बनी रहती है। "तुम
बिन" ऐसी ही कविता है-
"कल
खुशी टहल रही थी
घर में
आज उदासी
बाकी के सारे किस्से
वही
बासी के बासी।"
(पृ.36 )
कवि शैलेंद्र की यह विशेषता
है कि वह बहुत लंबी कविताएं नहीं लिखते, उनकी छोटी -छोटी
कविताओं में जिंदगी का मर्म लिपटा दिखाई देता है। और कविता का अर्थ बहुधा अंतिम पंक्ति
में आकर मुखर ही नहीं होता खिल भी उठता है। कई मर्तबा तो उनकी छोटी सी कविता अपने में बहुत गहरा
अर्थ समेटे नजर आती है जो उसकी ताकत बन जाती है, 'जिंदगी' शीर्षक कविता का उदाहरण देना चाहूंगी- -
"इस किताब के पन्ने
पलटने नहीं
पड़ते
फड़फड़ाने लगते हैं
खुद-ब-खुद
नित नये सबक के साथ" (पृ.47)
जिंदगी के इन्हीं सफों
को पलटते हुए कवि बहुत से अनुभवों के पन्नों को हमारे साथ साझा करता है। आलोच्य कविता
संग्रह की यह विशेषत है कि इसका कोई मूल केंद्रीय स्वर नहीं है ,यह प्रेम, प्रकृति
आदि के साथ -साथ अपने समय के सवालों के साथ टकराता है। कवि की पक्षधरता स्पष्टतः हाशिए के लोगों के साथ
है और स्वयं मध्यवर्ग का प्रतिनिधि होते हुए भी वह मध्यवर्गीय लोगों की मानसिकता पर
गाहे बगाहे व्यंग्य करने से नहीं चूकता। सत्ता ओर राजनीति के खिलाड़ी हों या नवधनाढ्य
वर्ग के विलासी उन सब पर वह हौले से प्रहार करके आगे बढ़ जाता है।विरोधी की इन कविताओं
में जरूरत से ज्यादा आक्रमकमता नहीं है जो कविता को नारे में बदल देती है लेकिन साजिशों
को समझने और उकेरने की ईमानदारी जरूर है। इसी क्रम में वह अंधाधुंध विकास के नाम पर
होनेवाले विनाश को भी वह रेखांकित करना नहीं भूलता। और उसकी समझदारी इस बात से जरूर
स्पष्ट होती है जब वह आज के पाखंडी समय में
लोगों को भरमाने और भटकाने वाले मुद्दों की न केवल पहचान करता है बल्कि इनके झूठे रंगों
को धोने की हिम्मत भी करता है -
"हम पढ़ते हैं, सफाई से टंकित झूठ
चम-चम चमकते
पन्नों पर
और देखते हैं श्याम-सफेद
रंगीन पर्दों पर दोहराए
जाते
और पाते हैं उसे
सच के रूप में स्थापित होते
* * * * * * * * *
यह एक ऐसा खेल है , जिसे
खेला जा रहा है अरसे से
अब तो झूठ भी एक उपलब्धि
है
बा-जरिए
अभिव्यक्ति की आजादी के।"
(पृ.58)
जमाने के इन झूठों और
फरेबों से बौखलाया कवि कभी कभार अपनी
कविता में एक स्टेमेंट देता नजर आता है और वहीं कविता का स्वर सपाटबयानी में ढलता नजर
आता है। दरअसल आज के समय के कई ऐसे संवेदनशील मुद्दे हैं जिनपर कुछ कहने या बोलने के
मोह से प्राय रचनकार बच नहीं पाते वह मुद्दा चाहे धर्म का हो ता राजनीति का। और इन
विषयों पर लिखी कविताएं महज एक बयान बन कर रह जाती हैं , ऐसे
बयान जो बार बार दोहराए जाने के कारण अपना अर्थ खो चुके हैं। बल्कि वे कुछ कविताएं
ज्यादा विश्वसनीय बन पड़ी हैं जहां कवि बड़ी ईमानदारी से अपनी बेबसी को बयान करता नजर
आता है। आज सच में रचनकार सत्ता या राजनीति के सामने बेबस ही है लेकिन फिर भी वह सृजनरत
रहकर समाज के प्रति अपना दायित्व जरूर निभाने की कोशिश करता है। इसी कारण वह साफ साफ
अपनी बात कहने की कोशिश करते हुए इस साफगोई को जरूरी भी मानता है
"जब साफ-साफ कुछ
कहते हैं- अच्छे लगते हैं।" ( पृ.48)
संग्रह
की इन बहुरंगी और विविध आयामी कविताओं का मूल
छोर मनुष्य की संवेदना से जुड़ता है और संवेदना के रेशों से बुनी गई कविताएँ जीवन के मधुतिक्त अनुभवों का बहुरंगी
कोलाज बनाती हैं। वहाँ अगर स्मृतियों का माधुर्य है तो उस माधुर्य के चूक जाने या बीत
जाने की पीड़ा भी है । इस सुख दुख की आंखमिचौली के बीच कवि सुख को तो सबके साथ बांटना
चाहता है लेकिन दुख की गठरी अकेले ही उठाने की बात करता दिखाई देता है शायद
वह इस दुनिया का यह दस्तूर जानता है कि दुख में अक्सर अपनी परछाई भी साथ छोड़ देती है-
"सुख को बांट लो मिलकर
दुख को मगर चुपचाप अकेले
ले लो ।"( पृ.25)
किसी भी रचनाकार के लिए
एक बड़ी चुनौती होती है उसकी समकालीन संवेदना। कई मर्तबा कालातीत कविताएँ लिखने के व्यामोह में अपने समय की
छोटी छोटी घटनाओं को
नजरअंदाज भी कर देता है। यहां तात्कलिकता में बहने की बात नही बल्कि कुछ दर्ज करने
लायक घटनाओं को दर्ज करने की कोशिशों का जिक्र है। कवि अपने जीवन
के बेहद छोटे अनुभव को भी अगर महत्वपूर्ण मानता है तो उसे दर्ज करना नहीं भूलता। इसी
के साथ एक महत्वपूर्ण सवाल स्थानीयता का भी है। कवि देश के किस हिस्से में सृजनरत है
वह हिस्सा अपनी तमाम वशेषताओं के साथ अगर उसकी रचनाओं में अंकित होता है तो वह भी कवि की एक बड़ी विशेषता है।
रचनाकार अपनी रचनाओं में
वही रचत या उकेरता है जो कुछ वह देखता, सुनता या महसूस करता है।
कवि शैलेंद्र का रचनकार अपने आस- पास के परिवेश को ही अपनी रचनाओं में उकेरता है और यह अगर
उसकी सीमा है तो उसकी विशेषता भी । वस्तुत: कई मर्तबा एक बड़े यथार्थ को रचने की चाह में हम अपने आस पास
के परिवेश को उपेक्षित करते हैं या दूसरे शब्दों में कहें तो राष्ट्रीय अथवा वैश्विक
दिखाई देने की होड़ में हम अपनी स्थानीयता को नकारने से भी नहीं कतराते गोया कि स्थानीय
होना कमतर होना है लेकिन शैलेंद्र की कविताओं में यह स्थानीय होना बखूबी दिखाई देता
है। वह कलकत्ते में रहते हुए अपनी कलकतिया पहचाना पर गर्व करते हुए वहाँ के इतिहास
को तो उकेरते ही हैं । इसके साथ ही वह जब जहाँ होते हैं वहाँ की खासियत या खूबसूरती
से प्रभावित हुए बिना भी नहीं रह पाते।
अपनी कलकतिया पहचान को
"साल्टलेक"
शीर्षक कविता में अभिव्यक्ति देते
हुए वह वहाँ समय के साथ आये बदलाव को रेखांकित करना भी नही भूलते और उनका उद्देश्य
संभवतः कलकत्ता के सांस्कृतिक ऐतिहासिक परिवेश में आए बदलावों को रेखांकित करना भी
रहा हो। जो कलकत्ता किसी समय क्रांति का शहर था, जहाँ
कुछ सिरफिरे नौजवान व्यवस्था को बदल देने का सपना देखने की कोशिशों में लगे हुए थे
वही अब अन्य विकसित शहरों की तरह विलासिता के छोटे- छोटे
द्वीपों में कैसे बदल गया, यह सचमुच सोचने की बात है। कविता की ये पंक्तियाँ विचारणीय
हैं -
"कोलकाता में एक जगह है साल्टलेक
जहां न तो साल्ट है न
लेक
यानि कि है वह पूरी तरह
फेक
* * * * * * * * * *
* *
तब झील के आसपास क्रांति
के सपने भी बुनते थे कुछ सिरफिरे
और अब वह मालो- माल
तिजोरियों की पुजारी, अलमस्त, दिलफेंक
है।" ( पृ. 33)
इसी तरह जब कवि दिल्ली
पुस्तक मेले का भ्रमण करता है तो वहाँ के परिवेश में शब्दों की बरसात में भींगते हुए
भी कलकत्ता में उस समय हो रही बरसात से अनछुआ नहीं रह पाता। अपनी पहाड़ी यात्रा के अनुभवों
को भी वह पूरे हुलास के साथ शब्दबद्ध करता है। लेकिन सैलानी हुलास के बीच भी उसका सजग
कवि मन जागृत हो उठता है और वह बांझ सौंदर्य की सीमा को भी समझता और समझाते हुए कह
उठता है-
"जहां तुम आए हो
बदलने हवा-पानी
वहां के बहुत से लोग
पहुंच चुके हैं राजधानी
तुम्हें मालूम है सैलानी
खूबसूरती बांझ भी हुआ
करती है
और सौंदर्य नपुंसक भी
और यह तो तुम्हें मालूम
ही है
कि जिस्म को चाहिए होता
है दाना-पानी।"
(पृ. 70)
संग्रह की कविताओं में
प्रगतिशीलता का ऐसा मृदुल स्वर भी मुखरित होता है जहाँ रूढ़ियों के विरोध या तिरस्कार
के साथ साथ परंपरा का सम्मान भी नजर आता है। वह रूढ़ियों के विरोध के द्वारा अपनी आधुनिकता
या तार्किकता को स्थापित करने की कोशिश जरूर करते हैं, उदाहरण
के लिए ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं -
"सारे व्रत
तीज त्योहार
निर्जल उपवास
कब तक करती रहोगी
उनकी सलामती के लिए
जो एक दिन भी नहीं करते
तुम्हारे लिए
अरे, कुछ
तो छोड़ो
कुछ तो तोड़ो।" ( पृ.32)
मुश्किल यही है कि कवि
जिन रुढियों को तोड़ने या छोड़ने की ख्वाहिश जताता नजर आता है वे सारी रूढ़ियां परंपराओं
के नाम पर ही इस देश में फलफूल रही हैं और प्रगतिशीलता के जबर्दस्त पैरोकार भी अपनी
-अपनी पत्नियों को इन स्वर्णिम परंपराओं को निभाते हुए देखकर
ऊपर -ऊपर चाहे कुछ भी क्यों न कह लें मन ही मन खुश भी होते रहते
हैं। वस्तुतः यह एक बड़ा अंतर्द्वंद्व है जो तार्किकता एक अभाव से जन्म लेता है। बहुधा
हम प्रगतिशील दिखना चाहते हैं और अपने हाव-भाव, वेशभूषा , बोलचाल
आदि से प्रगतिशीलता का छद्म भी रच लेते हैं लेकिन जब तक हमारा मानस पूरी तरह परिष्कृत
या परिमार्जित नहीं होता तब तक हमारी प्रगतिशीलता प्रश्नांकित ही रहती है।
इसके बावजूद इस संग्रह
का उल्लेखनीय बिंदु है इसमें व्याप्त सकारात्मकता जिसके कारण अविश्वास के इस घटाटोप
में भी कवि भरोसा नहीं खोता। वह आपने साथ- साथ
दुनिया पर भी भरोसा रखता है और इस भरोसे को बनाए रखने में बहुत बड़ी -बड़ी
नहीं बल्कि बेहद छोटी छोटी चीजें महत्वपूर्ण भूमिका निभाती नजर आती हैं और इसी कारण
तमाम छोटी -बड़ी मुश्किलों, विवशताओं और बेचैनियों
के बावजूद वह अपनी जिंदगी से खुश और संतुष्ट है-
"जिंदगी गुजर गई
और पूछते हो
क्या मिला
बहुत मिला
बहुत मिला
जो भी मिला
बहुत मिला
यूं ही तो नहीं कटा
दुश्वारियों का सिलसिला।" (पृ. 71)
इस अति महत्वाकांक्षी
समय में यह संतोष सचमुच सराहनीय है। कुल मिलाकर कवि शैलेंद्र का आलोच्य संग्रह इंसानियत
ही नहीं साहित्य के प्रति भी हमारे भरोसे को कायम करता है। मुक्त छंद में रचित ये कविताएं
बेहद सहजता से पाठकों के अंतर्मन में अपनी जगह बना लेती हैं। बहुत सी कविताओं में लयात्मकता
भी है जो प्रायः प्रूफ की गलतियों से बाधित होती दिखाई देती है। प्रूफ अगर थोड़ी और
सावधानी से देखा गया होता तो संग्रह की खूबसूरती और भी बढ़ जाती।
भरोसे की बात, कविता
संग्रह, शैलेंद्र शांत
बोधि प्रकाशन, जयपुर
अक्टूबर 2017, मूल्य 120/- पेपरबैक।
गीता दूबे, पूजा
अपार्टमेंट, फ्लैट ए-3,
द्वितीय तल,
58ए/1 प्रिंस
गुलाम हुसैन शाह रोड,
यादवपुर, कोलकाता-700032।
फोन:
9883224359/ 8981033867
1 comment:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (10-11-2018) को "अनोखी गन्ध" (चर्चा अंक-3151) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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