Saturday, December 19, 2020

लहू बहाए बिना कत्‍ल करने की अदा

 

किंतु परन्‍तु वाले मध्‍यवर्गीय मिजाज से दूरी बनाते हुए नील कमल बेबाक तरह से अपनी समझ के हर गलत-सही पक्ष के साथ प्रस्‍तुत होने पर यकीन करते हैं। सहमति और असहमति के बिंदु उपजते हैं तो उपजे, उन्‍हें साधने की कोशिश वे कभी नहीं करते हैं।

जो कुछ जैसा दिख रहा है, या वे जैसा देख पा रहे हैं, उसे रखने में कोई गुरेज भी नहीं करते। सवाल हो सकते हैं कि उनके देखने के स्रोत क्‍या हैं, उनके देखने के मंतव्‍य क्‍या हैं और उस देखने का दुनिया से क्‍या लेना देना है ? ये तीन प्रश्‍न हैं जिन पर एक-एक कर विचार करें तो नील कमल की आलोचना पद्धति को समझने का रास्‍ता तलाशा जा सकता है। उनके देखने पर यकीन किया जा सकता है और उनकी सीमाओं को भी पहचाना जा सकता है।

नील कमल द्वारा कविताओं पर लिखी टिप्पणियों से गुजरें तो इस बात का ज्‍यादा साफ तरह से समझा जा सकता है। 

‘गद्य वद्य कुछ’ आलोचना की एक ऐसी ही पुस्‍तक है। ‘गद्य वद्य कुछ’ शीर्षक से जो कुछ ध्‍वनित हो रहा है, उसमें कोई दावा होने की बजाय यूंही कह दी गई बातों का भान होता है। निश्चित ही यह एक रचनाकार की अपने लेखन को बहुत मामुली समझने की विनम्रता से उपजा होना चाहिए। जबकि पुस्‍तक जहां एक ओर हिंदी कविता के बहुत ही महत्‍वपूर्ण कवियों मुक्तिबोध, त्रिलोचन आदि की कविताओं से संवादरत होने का मौका देती है तो वहीं दूसरी ओर हाल-हाल में कविता की दुनिया में बहुत शरूआती तौर पर दाखिल होने वाले कवियों में कवि नवनीत सिंह एवं अन्‍य की कविताओं से परिचित होने का अवसर सुलभ कराती है।  यह पुस्‍तक एक रचनाकार के बौद्धिक साहस का परिणाम है। इसी वजह से नील कमल को एक जिम्‍मेदार आलोचक के दर्जे पर बैठा देने में सक्षम है।

नीलकमल से आप सहमत भी होते हैं। और एक असहमति भी उपजती रहती है। यह बात ठीक है कि सहमति का अनुपात ज्‍यादा बनता है, पर इस कारण से असहमति पर बात न की जाए तो इसलिए भी उचित नहीं होगा, क्‍योंकि इस तरह तो गद्य वद्य का कथ्‍य ही अलक्षित रह जाने वाला है। फिर नील कमल की आलोचना का स्रोत बिन्‍दु भी तो खुद असहमति की उपज है। य‍ह सीख देता हुआ कि अपने भीतर के सच के साथ सामने आओ।

बेशक, पुस्‍तक में मौजूद आलेखों में कवियों की कमोबेश एक-एक कविता को आधार बनाया गया है लेकिन उनके विश्‍लेषण में जो दृष्टि है उसमें कवि विशेष के व्‍यापक लेखन और उसके लेखन पर विद्धानों एवं पाठकों, प्रशंसकों की राय को दरकिनार नहीं किया गया है। विश्‍लेषण के तरीके में वस्‍तुनिष्‍ठता एक अहम बिन्‍दु की तरह उभरती है। बल्कि देख सकते हैं कि आलोचक नील कमल जिस टूल का चुनाव करते हैं उसमें कविता को अभिधा के रूप में उतना ही सत्‍य होने का आग्रह प्रमुख रहता है जितना व्‍यंजना में। यह भी उतना ही सच है कि व्‍यंजना को भी अभिधा के सत्‍य में ही तलाशने की कोशिश कई बार बहुत जिद्द के साथ भी करते हैं।

यही बिन्‍दु उन्‍हें उस पारंपरिक आकदमिक आलोचना से बाहर जाकर बात करने को मजबूर करता है जिसका दायरा कवि के सम्‍पूर्ण निजी जीवन तक बेशक न जाता हो पर उसके साहित्यिक जीवन की परिधि को तो छूता ही है। कवि पर विद्धानों की राय या चुप्पियां, पुरस्‍कारों और सम्‍मानों के प्रश्‍न या फिर तय तरह फैलाई गई चुप्पियों के खेल लगभग हर आलेख की विषय वस्‍तु को निर्धारित कर रहे हैं।

नील कमल की आलोचना की सीमाएं दरअसल तात्‍कालिक घटनाक्रमों पर अटक जाना है। वह अटकना ही उन्‍हें आग्रहों से भी भर देने वाला है। बानगी के तौर पर देख सकते हैं जब वे आशुतोष दुबे की कविता ‘धावक’ पर टिप्‍पणी कर रहे हैं तो कविता के विश्‍लेषण में वे जमाने की अंधी दौड़ को विस्‍तार देने की बजाय उसे साहित्‍य की दुनिया में व्‍याप्‍त छल छदमों तक ही ‘रिड्यूस’ कर दे रहे हैं। ऐसा इसलिए भी होता है कि आलोचना लिखने से पहले ही नील कमल अपने सामने एक ऐसी दीवार देखने लग जाते हैं जो इतनी ऊंची है कि अपनी सतह से अलग किसी भी दूसरी चीज पर निगाह पहुंचा देने का अवसर भी नहीं छोड़ना चाहती। नील कमल उस कथित दीवार को कूद कर पार जाने का प्रयास करते रहते हैं। लेकिन दीवार की ऊंचाई को पार करना आसान नहीं। जमाने का दस्‍तूर दीवार को चाहने वाले लोगों की उपस्थिति को बनाये रखने में सहायक है। यदा कदा की छील-खरोंच पर पैबंद लगाने वाले जत्‍थे के जत्‍थे के रूप में हैं। दीवार की वजह से ही नील कमल भी दूसरी जरूरी चीजों को सामने लाने में अपने को असमर्थ पाने लगते हैं और दीवार उन्‍हें उनके लक्ष्‍यों से भटका भी देती है। साहित्‍य की दुनिया के छल छदम जरूर निशाने पर होने चाहिए लेकिन विरोध का स्‍वर सिर्फ वहीं तक पहुंचे तो कुछ देर को ठहर जाना ही बेहतर विकल्‍प है। फिर ऐसी चीजों के विरोध के लिए जिस रणनीति की जरूरत होती है, मुझे लगता है, नील कमल का कौशल भी वहां सीमा बन जाता है। कई बार तो वह विरोध की बजाय आत्‍मघातक गतिविधि में भी बदल जाता है। शतरंज के खेल की स्थितियों के सहारे कहूं तो सम्‍पूर्ण योजनागत तरह से प्रहार करने में नील कमल चूक जाते हैं।

नील कमल इस बात को भली भांति जानते हैं कि विचारधारा को आत्‍मसात करना और उसे इस्‍तेमाल करने के लिए वैचारिक दिखना दो भिन्‍न एवं असंगत व्‍यवहार है। यूं तो इसको समझने के लिए उनके पास उनके आदर्श, वे सचमुच के फक्‍कड़ कवि और विचारक ही हैं, लेकिन उन फक्‍कड़ अंदाजों को आत्‍मसात करते हुए नील कमल से कहीं उनसे कुछ छूट जा रहा है। वह छूटना मनोगत भावों का हावी हो जाना ही है। आत्‍मगत हो जाना भी। बल्कि अपने ही औजार, वस्‍तुनिष्‍ठता को थोड़ा किनारे सरका देना है। जबकि यह सत्‍य है कि वस्‍तुनिष्‍ठता पर नील कमल का अतिरिक्‍त जोर है। कमलादासी के दुख को देखते और समझते हुए, पंक्तियों के बीच भी कविता का पाठ ढूंढते हुए, एक औरत के राजकीय प्रवास का प्रशनांकित करते हुए आदि अधिकतर आलेखों में वस्‍तुनिष्‍ठ हो कर विशलेषण करने वाला आलोचक भी मनोगत आग्रहों की जद में आ जाए तो आश्‍चर्य होना स्‍वाभाविक है। ऐसा खास तौर पर उन जगहों पर दिखाई देता है जहां नील कमल पहले से किसी एक निर्णय पर पहुंच चुके होते हैं और फिर अपने निर्णय को कविता में आए तथ्‍यों से मिलाते हुए कविता का विश्‍लेषण करते हुए आगे बढ़ते हैं।

शराब बनाने बनाने के लिए फरमेंटेशन आवश्‍यक प्रक्रिया है। फरमेंटेशन का पारम्‍परिक तरीका और डिस्टिलेशन के द्वारा शराब निकालने के दौरान होने वाली फरमेंटेशन की प्रक्रिया में लगने वाले समय में इतना ज्‍यादा अंतर है कि तुलना करना ही बेतुका हो जाएगा। डिस्टिलेशन शराब बनाने की तुरंता विधि है। मात्र फरमेंटेड को छानने की प्रक्रिया भर नहीं। 

ध्‍यान देने वाली बात यह है कि दोनों विधियों से प्राप्‍त होने वाले उत्‍पाद में नशा तो जरूर होता है लेकिन वे दो भिन्‍न प्रकार के उत्‍पाद होते हैं। ‘वाइन’ के नाम से बिकने वाला उत्‍पाद फरमेंटशन की पारम्‍परिक प्रक्रिया का उत्‍पाद है और आम शराब के रूप में बिकने वाला उत्‍पाद डिस्टिलेशन की तुरंता प्रक्रिया से तैयार उत्‍पाद है। नील इन दोनों ही विधियों को पदानुक्रम में रखकर शराब बना देना चाहते है। यह बारीक सा अंतर इस कारण नहीं कि नील दोनों प्रक्रियाओं से प्राप्‍त होने वाले उत्‍पादों से अनभिज्ञ है, बस इसलिए कि वांछित तथ्‍यों के दिख जाने पर वे उसके अनुसंधान में और खपने से बचकर आगे निकल चुके होते हैं।

कविताओं में लोक के पक्ष को प्रमुखता देते हुए नील कमल अज्ञेय की असाध्‍य वीणा को परिभाषित करना चाहते हैं। लोक और सत्‍ता के अन्‍तरविरोध को परिभाषित तो करते हैं लेकिन मनुष्‍य और प्रकृति के सह-अवस्‍थान में वे लोक को वर्गीय चेतना से मुक्‍त स्‍तर पर ला खड़ा करते हैं। लोक के दमित स्‍वपनों का अपने तर्को के पक्ष में रखते हुए वे उस पावर डिस्‍कोर्स की बात करते हैं जो शोषणकर्ता और शोषक से विहिन दुनिया तक के सफर में एक रणनैतिक पड़ाव ही हो सकता है। लिखते हैं कि एक गरीब आदमी भी जब अपने लिए वैभव की कल्‍पना करता है तो उस कल्‍पना में वह राजा ही होता है जहां उसके नौकर-चाकर होते है, जहां उसे श्रम नहीं करना होता है।

एक सच्‍चे साधक की कल्‍पना से झंकृत हो सकने वाली वीणा के स्‍वर में वे जिस लोक को देखते हैं उसमें उन राजाश्रयी प्रलोभनों को भी थोड़ी देर के लिए गौण मान लेते हैं, जो कि खुद उनकी आलोचना का स्रोत बिन्‍दु है। असाध्‍य वीणा का वह लोकेल क्‍या उस प्रतियोगिता से भिन्‍न है जो आज की समकालीन दुनिया में विशिष्‍टताबोध को जन्‍म दे रहा है। वह विशिष्‍टताबोध जो लोक की सर्वाजनिनता को वैशिष्‍टय की अर्हता से छिन्‍न-भिन्न कर दे रहा है ?

राजपुत्रों के लिए आयोजित सीता स्‍वयंवर के धनुष भंग से किस तरह भिन्‍न है असाध्‍य वीणा को स्‍वर दे सकने की अर्हता।

लोक को विशिष्‍टता के पद से परिभाषित किया जाना संभव होता तो समाज में अफरातफरी मचा रही पूंजी के मंसूबे भी लोक की स्‍थापना में जगह पा रहे होते। महंगे से महंगे रेस्‍ट्रा, हवाई यात्राओं के अवसर, उम्‍दा से उम्‍दा गाडि़यों के मॉडल और आधुनिक तकनीक के वे उत्‍पाद जो उपयोगकर्ता को विशिष्‍टता प्रदान करने वाले आदर्श को सामने रख रहे हैं, लोक की स्‍थापना के आधार हो गए होते। उन्‍हें लपकने की चाह भी उसी तरह लोक का स्‍वर हो गई होती जिस तरह देखा जा रहा है कि लोक के दमित इच्‍छाओं के स्‍वप्‍नों में राजसी जीवन सजीव हो जाना चाहता है।

आलोकधनवा की कविता पर टिप्‍पणी करते हुए नील कमल कविता की पहली पंक्ति में दर्ज समय से जिस इंक्‍लाबी राजनीति का खाका सामने रखते हैं, अपने आग्रहों के तहत वहां माओवाद को चस्‍पा कर दे रहे हैं।

इतिहास साक्षी है कि चीनी इंक्‍लाब के मॉडल- गांवों से शहर को घेरने की रणनीति पर पैदा हुई वह राजनैतिक धारा उस वक्‍त माओवाद के नाम से नहीं जानी गई। माओवाद एक राजनैतिक पद है और जिसको इसी सदी के शुरुआत में ही सुना गया। यह बात इसलिए कि पूरी कविता का विश्‍लेषण इस आधार पर करते हुए नील कमल कविता की व्‍यवाहारिक सफलता को संदिग्‍ध ठहरा रहे हैं। हालांकि कविता की व्‍यवहारिक सफलता जैसा कुछ होता हो, यह अपने में ही विचारणीय है।     

आलोचना भी दुनियावी बदलाव की गतिविधियों को गति देने में प्रभावी विधा है, बशर्ते कि आग्रह मुक्‍त हो। खास तौर पर नील जिस सकारात्‍मक तरह से आलोचना विधा का इस्‍तेमाल कर रहे हैं। बदलावों के संघर्ष में कविता की अहमियत पर बात करते हुए और एक कवि की भूमिका को रेखांकित करते हुए नील कमल उस पक्ष को अपना पक्ष मानते हैं जो कवि ऋतुराज के संबंध में वे खुद ही उर्द्धत करते हैं, ‘’जब तक कोई कवि आम आदमी की निर्बाध जीवन शक्ति और संघर्ष में सक्रियता से शामिल नहीं होता तब तक कवियों के प्रति अविश्‍वास और उपेक्षा बनी रहेगी। वे निर्वासित, विस्‍थापित और नि:संग अपराधियों की तरह रहेंगे।‘’

इस तरह से वे कविता को ‘’एक सांस्‍कृतिक संवाद कायम करना’’ कहते हैं।

सिर्फ इस जिम्‍मेदारी को एक कवि पर आयद ही नहीं कर देना चाहते, बल्कि इसी पर खुद  भी यकीन भी कर रहे हैं। कविता से उनकी ये अपेक्षाएं इसलिए अतिरिक्‍त नहीं, क्‍योंकि चमकीले स्‍वप्‍नों की बजाय वे स्‍वप्‍न भंग की किरचों को भी कविता में यथोचित स्‍थान देने के हिमायती दिख रहे हैं। कविता को उम्‍मीद और निराशा के खांचों में बांटकर नहीं देखना चाहते हैं। इतिहास की अंधी गलियों से गुजरते हुए वर्तमान के पार निकल जाने को कविता का एक गुण मानते हैं। मितकथन भी कविता का एक गुण है, उनके आलेखों में यह बात बार-बार उभर कर आती है। दुख के अभिनय को निशाने पर रखते हैं। कविता की आलोचना को ही आलोचकीय फर्ज नहीं समझते, अपितु, कवि को भी सचेत करते रहते हैं कि प्रलोभनों के मायावी संसार के भ्रम जाल में न फंसे।     



नील कमल के ही शब्‍दों में कहूं तो लहू बहाए बिना ही कत्‍ल करने की अदा को वे लगातार निशाना बनाते चले जाते हैं, और इस तरह से जहां एक ओर तथाकथित रूप से सम्‍मानित कविता की कमजोरियों का उदघाटित करते हैं तो वहीं उम्‍मीदों का वितान रचती, किंतु अलक्षित रह गई और रह जा रही कविता से परिचित कराने को बेचैन बने रहते हैं।

नीलकमल मूलत: कवि हैं। अभी तक उनके दो महत्‍वपूर्ण कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।

 

 

Wednesday, December 16, 2020

शास्त्रीय कला और अमूर्तता

 

वर्ष 2019 में पहली बार बिभूति दास के चित्रों की एकल प्रदर्शनी देखने का अवसर मिला था।  ऑल इण्डिया फाइन आर्टस एवं क्राफ्ट सोसाइटी, नई दिल्‍ली में आयोजित  बिभूति दास के चित्रों उस प्रदर्शनी की याद दैनिक जीवन की गतिविधियों के अहसास से भरे चित्रों के रूप में बनी रही। लगातार के उनके काम से इधर गुजरना होता रहा। 

जीवन के खुरदरे यथार्थ को करीब से व्‍यक्‍त करते उनके रंगों में अमूर्तता का वह भाव जो किसी बहुआयामी कविता को पढ़ते हुए होता है, शास्त्रीय कला का संग साथ होते उनके चित्रों में नजर आता रहा। उनके इधर के चित्रों से भी यह स्‍पष्‍ट दिखता है कि ऑब्जेक्ट के बाहरी रूप को हूबहू रचते हुए भी उनके ब्रश, रंगों को उस खुरदरपन की तरह फैलाते चल रह हैं, जो सिर्फ चाक्षुश अहसास नहीं छोड़ना चाहते। बल्कि दृश्‍य को घटनाक्रम के स्‍तर पर जाकर देखने को उकसाते हैं। फिर चाहे कोविड के दौरान दुनिया में छाया लॉक डाउन हो, एक पिता के भीतर अपनी बच्‍ची के प्रति अगाध स्‍नेह हो और चाहे किसी भूगोल विशेष का जनजीवन हो।   

रंगों के संयोग से उभरती यह ऐसी अमूर्तता है जो चित्रों को एक रेखीय नहीं रहने देती है। बिभूति दास की यह रचनात्मक यात्रा उत्सुकता पैदा करती है यहां प्रस्‍तुत हैं उनके कुछ चित्र।  











Wednesday, December 9, 2020

राजनीति का काव्यात्मक लहजा- सीता हसीना से एक संवाद

 

पूंजीवादी संस्‍कृति की मुख्‍य प्रवृत्ति है कि नैतिकता और आदर्श का झूठ वहां बहुत जोर-जोर से गाया जाता है। विज्ञापनी जोश ओ खरोश के साथ। तानाकसी के चलन में पूंजीवादी चालाकियों का झूठा आदर्शीकरण किया जाता है। इतने जोर से कि कोई सच स्‍वयं को ही झूठ मानने के विभ्रम में जा फंसे। यही वजह है कि व्‍यापक अर्थ ध्‍वनि से भरे शब्‍द भी वहां अपने रूण अर्थों तक ही सीमित हो जाते हैं। देख सकते हैं कि राजनीति की लोकप्रिय शब्‍दावली में राजनैतिक शुद्धता को अक्‍सर कटटरता के रूप में परिभाषित किया जाने लगताहै। हालांकि शुद्धतावाद की राजनीति की आड़ में विवेक हीनता को छुपा लेने की चालें भी दिककतें पैदा करने वाली ही होती हैं।

अतिवाद के इन दो छोरों के बीच आदर्शों का झूला मध्‍यवर्गीय मिजाज वाला हो ही जाता है। हिंदी साहित्‍य की दुनिया में व्‍याप्‍त राजनैतिक चेतना इसी मध्‍यवर्गीय मिजाज की गिरफ्त में रही है। सिद्धांतत: स्‍वीकारोक्ति के इस माहौल में ही यथार्थोन्‍मुखी आदर्शवाद को महत्‍वपूर्ण मान लिया गया है। प्रतिफल में आधुनिकता की विकास प्रक्रिया का बाधित हो जाना और गंवई ढंग का बना रहना सामाजिकी में वास करता रहा है। सामाजिक संयोग के व्‍याप्‍त वातावरण में की जाती रही कदमताल को झूठे रचनात्‍मक आंदोलन से परिभाषित करते रहने की चाल ही गंवई आधुनिकता का पर्याय भी हुई है। जबकि आदर्शोंन्‍मुखी गंवईपन की सरलता का उठान यदि वस्‍तुनिष्‍ठ यथार्थ के साथ सिलसिलेवार बना रहता तो निश्चित ही आधुनिकता की विकासमान रेखा स्‍पष्‍ट होती चली जाती। उसके लिए जरूरी था, राजनैतिक आंदोलन न सिर्फ जारी रहें बल्कि रचनात्‍मक दायरों तक अटते चले जाएं। लेकिन मुक्‍कमिल रूप से ऐसा न हो पाने के कारण रचनात्मक गतिविधियों में मौलिक होने की कोशिशें इस कदर कुचेष्‍टाएं हुई कि गंवई आधुनिकता की सरलता भी भ्रष्‍ट होने लगी और कुतर्कों को सहारा पकड़ते हुए आधुनिकता की ओर भी पेंग बढ़ाती गईं। मध्‍यवर्गीय झूलों की आवृतियों के आयाम इन दो छोरों पर ही दोलन करते नतर आते हैं। मनोगत तरह से समाज का विशलेषण करते हुए यथार्थोन्‍मुखी आदर्शवाद की गति अपने मध्‍यमान पर स्थिर रह भी नहीं सकती थी। संतुलन की स्थिति को हांसिल करने के लिए भाषायी जतन नाकाफी होते हैं। शिल्‍पगत प्रयोगों के जरिये और अन्‍य तरह से रूपाकार गढ़ने में वह बनावटीपन का शिकार हो जाते हैं। रचनाकार के भीतर की हताशा और निराशा भी उस छुपे न रह गए को स्‍वयं दिख जाने में ही जन्‍म लेती है।

 

साहित्‍य और कला की दुनिया में 'प्रतिबद्धता' और 'स्‍वतंत्रता' का शोर बहुत ज्‍यादा रहा है। प्रतिबद्धता का स्‍वांग भरते हुए सांगठनिक दायरों के भीतर भी गिरोह बनाने वाले, प्रगतिशील कहलाना चाहते रहे। प्रगतिशीलता को मूल्‍य मानते हुए भी बौद्धिक स्‍वतंत्रता का राग अलापने वाले एवं स्‍वतंत्रता को ब्‍यूरोक्रेटिक अंदाज में बरतने वाले कलावादी खेमे में पहचाने जाते रहे हैं। राजनीति को नकारने की प्रवृत्ति दोनों ही खेमों में अपने-अपने तरह से प्रभावी है। भाषा और शिल्‍प के अतार्किक प्रयोग के नाम पर 'प्रगतिशील' भी 'बौद्धिक स्वतंत्रता' का पक्षधर हो जाने में ही ज्‍यादा गंभीर रचनाकार हो जाना चाहता है। साहित्‍य एवं कला की दुनिया की इस प्रवृत्ति पर चर्चा करने लगें तो यह टिप्‍पणीकार भी मध्‍यवर्गीय दायरे के उस व्‍यवहार से शायद ही पूरी तरह मुक्‍त दिखाई दे जिसकी व्‍याप्ति के असर से विघटनकारी शक्तियां समाज में खुद को स्‍थापित करने में प्रभावी रही हैं। स्‍पष्‍ट जानिये कि मुक्तिबोध की शब्‍दावली में कहा जाने वाला मुहावरा 'पार्टनर तेरी पॉलिटिक्‍स क्‍या है' का आशय सिद्धांत को व्‍यवहार में ढालने और अनुरूप जीवनमय होने के आह्वान की पुकार बनकर हर वक्‍त गूंजता रहने वाला ऐसा राजनैतिक बोध है जिसकी संगति आधुनिकता को ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण रूप से परिभाषित करती रहने वाली है।

 

रचनात्‍मक सक्रियता और ऊर्जा से भरी कथाकार सुभाष पंत की कहानी ''सीता हसीना से एक संवाद'' को पढ़ते हुए ऐसे कितने ही सवाल जेहन में उठते हैं जो खुद के भीतर व्‍याप्‍त अन्‍तर्विरोधों से टकराने का अवसर प्रदान करते हैं। यूं तो 'पॉलीटिकली करेक्‍ट' होने की कोशिश सुभाष पंत कभी नहीं करते। उनका ध्‍येय एक ऐसी राजनीति के पक्ष को रखना होता है जिसमें आम जन के दुख दर्दों का शमन किया जा सके। 'मुन्‍नीबाई की प्रार्थना' से लेकर पहल 122 में प्रकाशित कहानी इसका साक्ष्‍य है। पहल 122 की कहानी से पहले की कहानियों में कथाकार सुभाष पंत की यह रचनात्‍मक विकास यात्रा कदम दर कदम आगे बढ़ते हुए नजर आती है। यानी पहले की कहानियों में संवेदना के स्‍तर पर पाठक को छूने की कोशिशें अक्‍सर हुई हैं। जबकि उल्‍लेखित कहानी के आशय उससे आगे बढकर बात करते हुए हैं।

वर्तमान दौर की सामाजिक चिंताओं को रखने के लिए कथाकार ने कहानी की बुनावट को विभाजन की पृष्‍ठभूमि और उस त्रासदी में की मार को झेलने वाले पात्र की मदद से बहुत से ऐसे इशारें भी किये हैं जिनका वास्‍ता दुनिया में अमन चैन कायम करने की ओर बढ़ता है। उसके लिए जिन औजारों का प्रयोग होना है, कथाकार के यहां वे औजार साहित्‍य के रूप में दिखायी देते हैं। कहानी की पात्र सीता हसीना का यह कहना यूंही नहीं, ''कृपया बताइए कि बिशन सिंह पागल है या सियासत पागल है जिसने एक लाख बीस हजार लोगों को बेघरबार किया, दस लाख्‍ लोगों को मौत के मुंह में धकेला और पिचहतर हजार औरतों को ज्‍या‍दतियों का शिकार किए जाने को मजबूर किया और यह भी कि टोबाटेक सिह कहानी बड़ी है या उसका लेखक बड़ा है ?''

घटनाओं के संयोग से बुनी जाने वाली रचनाओं पर लेखक का भरोसा हमेशा से है। साहित्‍य के प्रति लेखक के भीतर अतिशय विश्‍वास की यह उपज हिंदी की रचनात्‍मक दुनिया के बीच से ही है। लेकिन बिगड़ते सामाजिक हालातों ने शायद लेखक के भीतर के इस विश्‍वास पर सेंधमारी सी कर दी है। ऐसे में अपने भरोसे पर टिके रहना लाजिमी है। यह कहानी उस द्वंद को उभारने में भी सक्षम है। कथा पात्र सीता हसीना का सवाल इस विश्‍वास का चुनौती देता है और कथाकार के भीतर के द्वंद ही सीता हसीना के सवालों में जगह पा जाते हैं।     

  

 

पंत जी की यह कहानी समाज और साहित्‍य के जरूरी रिश्‍तों पर एक बहस शुरू करते हुए जिस तरह से अपने कथानक में प्रवेश करती है, उससे गुजरते हुए यह देखा जा सकता है कि यह कहानी आलोचना की उस शाखा से परहेज कर रही है जिसने बदलावों के झूठ में रचे गये की अनुशंसा या उसको सही दिशा मान लेने को ही सर्वोपरी माना है। ऐसी रचनाओं के कथानक सत्‍य घटनाओं वाले यथार्थ की गारंटी करते हुए भी हो सकते हैं। 'सीता हसीना' का लेखक संवेदना के धरातल पर भीतर तक हिला देने वाली रचनाओं से रिश्‍ता बनाना चाहता है। मंटो की कहानी 'टोबा टेक सिंह' का जिक्र अनायास नहीं है, लेखकीय मंशा को जाहिर करता है।

मनुष्‍य की पहचान को धर्म के साथ देखने का आग्रह, उस वैचारिकता से मुक्‍त नहीं जिसने धर्मनिरपेक्षता को 'सर्वधर्म सम्‍भाव' की तरह से परिभाषित किया है। लेकिन कहानी में लेखकीय वैचारिकी का यह तत्‍व इसलिए अनूठा होकर उभर रहा है कि यहां लेखक समाज के शत्रुओं से निपटने के लिए निहत्‍था होकर उनके घर में प्रवेश करते हुए भी उनके ही हथियारों से लड़ने की कला का नमूना पेश करता है। दुश्‍मन के खेमे में घुसकर लड़ना, निहत्‍थे होकर घुसना और दुश्‍मन के हथियारों से ही उस पर वार करना, इस कला को सीखना हो तो कथाकार सुभाष की इस कहानी को विशेष तौर पर पढ़ा जाना चाहिए। कोई रचनाकार अपने समय काल से जब पूरी तरह संवादरत रहता है, तो ही ऐसी रचनाएं सामने आती हैं।

 

समाज के विकास में राष्‍ट्रवाद एक चरण है, लेकिन अन्तिम नहीं। यह कहानी भी कुछ इसी तरह की अनुगंजों में घटित होती है। स्‍थानिकता से वैश्विक होती यह एक अन्‍तराष्‍ट्रीय फ्रेम को बनाती रचना है। यथार्थ की पृष्‍ठभूमि से उपजी और अवधारणा के स्‍तर पर जददो जहद करने को मजबूर करती यह एक राजनैतिक कहानी है। जिसकी रेंज राष्‍ट्रवाद तक सीमित नहीं है। झूठे राष्‍ट्रवाद की प्रतीक 'माता' की स्‍थापना में धर्मों की विभिन्‍नता भरे समाज की कल्‍पना करता है, बल्कि इतिहास में मौजूद इस सच को ही प्रमुख बना देता है। अपने माता-पिता के धर्मो का खुलासा करती सीता हसीना दरअसल भारत माता की उस छवि को देखने का इशारा बार-बार कर रही है जिसकी संगति में 'विशेष धर्म ही राष्‍ट्र है', मध्‍यवर्ग के बीच इधर काफी ही तक स्‍वीकार्य होता हुआ है। आपसी भाईचारे में आकार लेता समाज संरचित करने का यह तरीका उस राजनीति का पर्याय है जिसका वास्‍ता सर्वधर्म सम्‍भाव से रहा है। राष्‍ट्रवादी झूठ को फैलाने वाले भी जिसके सहारे ही जब चाहे तब प्रेममय दिख सकते हैं और जब चाहे तब 'लव-जेहाद' के फतवे जारी करते रहते हैं। पंत जी कहानी कुछ-कुछ उस ध्‍वनि को ही अपना बनाती है जिसने 'लव-जेहाद' के शाब्दिक अर्थ को विग्रहित करके उसकी नकारात्‍मक अर्थ-ध्‍वनि को चुनौती देनी शुरू की है। हालांकि अपने निहित अर्थ में यह चुनौती भी कोई ऐसा फलसफा लेकर साने नहीं आती जिसमें आर्मिक आग्रहों से जकड़ा समाज मुक्ति की राह पर बढ़ सके।     

ठीक इसी तरह पंत जी भी अपनी उल्‍लेखनी कहानी में झूठे राष्‍ट्रवादी से मुक्‍त नहीं हो पाते हैं और उसकी जद में ही बने रहते हैं। कहानी की पात्र सीता हसीना के मार्फत विभाजन के कारणों पर टिप्‍पणी करते हुए सीता हसीना का संवाद सुनाई पड़ता है- दरअसल यह ऐसा जंक्‍चर है जहां से खड़े होकर एक लेखक के भीतर परम्‍परा की गहरी जड़ों और उससे मुक्ति की चाह भरी छटपटाहट को समझा जा सकता है। उसकी गति को पहचाना जा सकता है। उसके उपजने के सामाजिक, नैतिक कारणें की पड़ताल की जा सकती है।   

      

अध्‍यात्‍म की गरिमा और कलाओं का माधुर्य कहते वक्‍त पंत जी के जेहन में क्‍या रहा होगा, यह विचारणीय है। सीता हसीना का परिचय देते हुए कथा का नैरेटर ऐसा वर्णन करता करता है। निश्चित ही यह बिन्‍दू गंवई आधुनिकता से पूरी तरह मुक्‍त न हो पाए रचनाकार का परिचय देता है। अलबत्‍ता यह कहानी अपनी बुनावट में आधुनिकता के झूठ को रचने वाली कहानियों की रफ्तार में एक हद तक शामिल होते हुए भी खुद को उससे बाहर ले आने की कोशिश भी लगती है। मेरा मानना है कि इस कहानी का महत्‍व कहानी के बीच आए इस संवाद में तलाशा जा सकता, ''मैंने एक अनिश्वरवादी धर्म के बारे में भी जाना, जिसकी मान्यता है कि सृष्टि का संचालन करनेवाला कोई नहीं है, वह स्वयं संचालित और स्वयं शासित।'' वैसे कहानी में यह संवाद एक विशेष धर्म की बात करते हुए कहा गया है लेकिन इसका अर्थ विस्‍तार करें तो धर्म विलुप्‍त हो सकता है और एक ऐसी राजनीति का चेहरा आकार ले सकता है जो सामाजिक व्‍यवस्‍था के संचालन में स्‍वय्रं को ही विलोपित कर लेने का आदर्श हो सकती है। यहीं उनकी गद्य भाषा का मिजाज भी काव्यात्मक लहजे की बानगी बनता है। हालांकि यदा-कदा की अपनी बातचीत में सुभाष पंत कविता के मामले में खुद की समझ पर संदेह से भरे रहते हैं। उनके पाठक भी उन्‍हें कहानीकार के रूप में ही जानते हैं। यूं भी उन्‍होंने कभी कोई कविता नहीं लिखी, अपने लेखन के शुरूआती दौर में भी नहीं।

Saturday, December 5, 2020

कहां हो साहेबराव फडतरे?


चाहता तो था कि यादवेन्‍द्र जी की इधर की गतिविधियों पर बात करूं। हमेशा के घुमडकड़ इस जिंदादिल व्‍यक्ति ने पिछले कुछ वर्षों से फोटोग्राफी को लगातार अपने फेसबुक वॉल पर शेयर किया है। उन छवियों में 'अभी अभी' का होना इतना प्रभावी हुआ है कि शाम और सुबह की रोशनी में वर्तमान राजनीति के षडयंत्रों पर भी लगातार टिप्‍पणी की छायाएं बहुत साफ होकर उभरती हुई हैं। लेकिन अपने अनुवादों के लिए प्रसिद्ध यादवेन्‍द्र जी के मेल से प्राप्‍त एक महत्‍वपूर्ण पत्र को प्रकाशित कर रहा हूं। अनुवादों में यादवेन्‍द्र जी के विषय चयन उनके भीतर के उस व्‍यक्ति से भी परिचय रहे हैं, जिसकी काफी स्‍पष्‍ट झलक प्रस्‍तुत पत्र के प्रभाव में भी दिखती है।

सभी चित्र यादवेन्‍द्र जी के ही हैं।

 

वि गौ   

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कहां हो साहेबराव फडतरे? कैसे हो? उम्मीद नहीं पक्का भरोसा है कि अब तक बंदीगृह से मुक्त हो गए होगे और लगभग पचपन साल का प्रौढ़ जीवन एक बार फिर से  पटरी  पर लौट आया होगा - चाहे अध्यात्म के रास्ते पर...या गृहस्थी के रास्ते पर।भारत भ्रमण के अपने सपने को पूरा करते हुए यदि कभी इधर पटना या बिहार का कार्यक्रम बनाओ तो तुम्हें अपने घर आमंत्रित करना मुझे बहुत अच्छा लगेगा।

(पच्चीस साल पुरानी बात है मैंने किसी अंग्रेजी अखबार या पत्रिका में(अब नाम याद नहीं) पुणे के येरवडा जेल के कैदी कवियों की कविताएं अंग्रेजी अनुवाद में पढ़ी थीं। उस पढ़ कर मैंने जेल के प्रमुख को उन कवियों की कविताओं के हिंदी अनुवाद करने की इच्छा के साथ एक अनुरोध पत्र लिखा था जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया।कुछ कवियों के साथ मेरा सीधा पत्र व्यवहार भी हुआ और उनमें से कुछ ने काम चलाऊ हिंदी में और कुछ ने मराठी में कविताएं मुझे भेजीं। कविताओं के साथ साथ उन्होंने अपने जीवन अनुभव और सजा के कारणों के बारे में भी मुझे बताया। इस सामग्री का उपयोग कर मैंने अपनी मित्र क वि सीमा शफक के साथ मिलकर "अमर उजाला" की रविवारी पत्रिका के मुखपृष्ठ के लिए एक विस्तृत आलेख तैयार किया - दुर्भाग्य से वह प्रकाशित सामग्री मेरे पास अब नहीं है पर एक कवि साहेबराव फड तरे की यह चिट्ठी आज हाथ लगी।इस चिट्ठी के कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं:)
यादवेन्द्र yapandey@gmail.com
09411100294






 । श्री।
।। ओम, नमो गणेशाय।।

पुणे -येरवडा
दिनांक 27- 11- 1995

प्यारे भाई साहब यादवेंद्र जी, अनोखा साथी साहेबराव का प्यार भरा सलाम

खत लिखने का वजह आपका अंतर्देशी कार्ड मिला। पढ़कर आपके दिल की बात मालुम हो गयी। मेरे यहां के साथी (कवि) उनको आपका अड्रेस देता हुं। और कविताये भेजना या नही भेजना यह उन्ही के ऊपर छोड़ देना। क्योंकि हरेकी पसंती अलग-अलग होती है। मैं और एक बात आपसे पुछना चाहता हुं। की जो कभी हिंदी में ही कविताये लिख रहे हैं। उनकी कविता भेज दिया तो चलेगा क्या? अगर आपने लिखा चलेगा, तो उन्ही को भी आपका अड्रेस दे 
दुंगा।
 आपने और चार पांच कविताये मांगी है। मैं जरूर भेज दुंगा।
 लेकीन पहले कवि तों का अनुवाद पसंत आया तो।
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आपको मैंने पहले "आक्रोश" नाम की कविता भेजी थी। उसमें दुःख से रोने वाला मैं अब बोल रहा है - "अब रोना छोड़ दे"। इतना फर्क मुझ में क्यु हो गया। इसकी वजह मेरी जन्मठेप सजा है। मैंने दुःख को ही गुरु बनाया। और दुःख का वजह भी ढुंडा। अब मुझे ऐसा लग रहा है। मुझे सजा हो गई यही अच्छा हुआ। मैंने अपने बिवी को खत लिखा की तुम मेरी जिंदगी में आयी, इसलिए मुझे खुदा मिला। अब छुटने के बाद अगर तुम मेरे जिंदगी में आने की कोशीस की तो मैं तेरे पैर छु लेगा। मैं तुझे मां कहुंगा। तुझे दुसरी शादी बनाना है तो बना डाल।
**********
भाई साब, अपनी दोस्ती कितने दिनों की है। यह मुझे भी मालुम नहीं। खुदा ने चाहा तो, आप से बाहर भी मुलाकात होगी। आप अपनी एड्रेस मराठी दोस्तों से लॉन्ग फॉर्म में लिखवा के भेजना (अच्छी अक्षर में) ।अब मेरी उम्र 39 साल की चालु है। अब मेरे पास लिखने के लिए कुछ नहीं है। इसलिए कविता भी लिखना बंद कर दीया है। आप मेरी नजर बाहर की दुनिया में लगी है। सन्यास ले के मैं पैदल से भारत भ्रमन  कर दुंगा। और क्या लिखुं। आपको लिखने के वजह से मैं अपनी बिती हुयी जिंदगी में घूम के आया। जो भुल गया था, उसको याद करना पड़ा। अच्छा कोयी बात नहीं। आपके आने वाले लेटर की राह देखुंगा। आपके दोस्त यार, घर वालों को सलाम।
आपका अनोखा दोस्त 
साहेबराव फडतरे

(यहां मैंने वर्तनी की अशुद्धियां प्रामाणिकता को बरकरार रखने के उद्देश्य से छोड़ दी हैं, मेरी कोई और मंशा नहीं है। यादवेन्द्र  )










Thursday, November 26, 2020

छद्म नैतिकता पर प्रहार करतीं मुक्तिबोध की कहानियां

  

कहानी में कथा रस की सैद्धान्तिकी वाली आलोचना ने जो परिदृश्‍य रचा है, उसने आधुनिकता को महत्‍वपूर्ण तरह से अपने लेखन के जरिये स्‍थापित करने वाले रचनाकार मुक्तिबोध को कहानी की दुनिया से बाहर धकेला हुआ है और उन पर सिर्फ एक कवि की छवि ही चस्‍पा की हुई है।  कविता के इतर कहानी, आलोचना एवं उनके अन्‍य लेखन को विश्‍लेषण करते हुए जो भी प्रयास हुए, वे भी इतने सीमित रहे कि कवि की छवि को तोड़ते, या उसका विस्‍तार करते मुक्तिबोध को देखना मुश्किल ही रहा है।

मुक्तिबोध के कथा साहित्‍य का विवेचन, उस खिड़की को खोलना ही है जो गंवई आधुनिकता के व्‍याप्‍त होते जाने वाले रास्‍ते का पता दे सकता है। गंवई आधुनिकता के भाषायी रंग-ढंग की पहचान कराने में भी सहायक हो सकता है। भाषा को मुक्तिबोध स्‍वयं कुछ ऐसे दर्ज करते हैं, भाषा विचित्र/ जिसमें शब्द हैं कलाहीन/ जिसमें प्रयोग है ग्रम्य और वे अति कठोर/ जो भी नवीन/ पर तू सुन मत ओ कलाकार/ तेरे शब्दों में लाख लाख दिलवालों का उदगार।

 आलोचक गीता दूबे ने मुक्तिबोध की कहानियों को इस जरूरी बहस की तरह ही प्रस्‍तुत किया है। कथारस वाली सैद्धांतिकी की बजाय रचना के समग्र प्रभाव को ध्‍यान में रखते हुए गीता दूबे ने बड़े साहस के साथ इस आलेख को रचा है और आधुनिकता के सवाल को तीखे तरह से उठाया। स्‍त्री मुक्ति के सवाल को सुधारवादी तरह से देखने और रचने के प्रेमचंद कालीन मुहावरें की बजाय वे राजनैतिक चेतना के उस स्‍वर को समर्थन दे रही हैं जिसका आगाज मुक्तिबोध की रचनाप्रक्रिया का हिस्‍सा रहा है।

गीता दूबे के इस महत्‍वपूर्ण आलेख को यहां प्रस्‍तुत करते हुए यह ब्‍लॉग अपने को समृद्ध कर रहा है।

गीता दूबे कोलकाता में रहती हैं। स्‍कॉटिश चर्च महाविद्यालय में हिंदी की विभागाध्‍यक्ष हैं। कविताएं लिखती हैं और लगातार लिखी रही आलोचनाओं के लिए जानी जाती हैं। 

वि.गौ.


गीता दूबे

मुक्तिबोध निसंदे एक बड़े कवि हैं और उनकी कविताएं आधुनिक हिंदी साहित्य की बहुत बड़ी उपलब्धि हैं। उन कविताओं के कई पाठ हुए हैं और संभवतः और भी पाठ होने अभी बाकी हैं लेकिन अंधेरे की बात करने वाले और देशसमाज और राजनीति के अंधेरे पक्षों को बारम्‍बार अपनी कविताओं में उकेरने के साथसाथ उधेड़ने वाले मुक्तिबोध के कवि आलोक ने मुक्तिबोध के कहानीकार का बहुत नुकसान किया है। अकादमिक साहित्यकारों ने भी लगातार उस अंधेरे को‌ गहरा करने का ही प्रयास किया। सिर्फ पाठ्यक्रम घोंटकर पढ़ने ‌और‌ पढ़ाने का दंभ करनेवाले साहित्यिक विद्वतजनों की निगाह अगर मुक्तिबोध की कहानियों त नहीं पहुंची है तो यह विडंबना मुक्तिबोध की नहीं बल्कि हमारी है। हांलाकि उनकी कहानियों पर थोड़ी बहुत बात हुई है लेकिन अंधेरा अब भी पूरी तरह से छंटा नहीं है। एक बड़ा पाठक समाज अब भी इनके विषय में अनभिज्ञ है।  

मुक्तिबोध की यह एक बड़ी खासियत है कि वह कविता, कहानी, निबंधआलोचना सब एक साथ च रहे थे और रचाव के इस निरंतर कार्य में विधागत विविधता के बावजूद रचनात्मक अंतर्संबंधता अथवा एकरूपता का निदर्शन   होता है, मसलन मुक्तिबोध कविता या कहानी तकरीबन साथ- साथ ही नहीं रचते बल्कि कई बार तो यह संयोग भी दिखाई दे जाता है कि एक ही शीर्षक से उन्होंने कविता और कहानी दोनों लिखी है। प्रश्न उठता है कि क्या यह सचमुच एक संयोग है या मुक्तिबोध स्वाभाविक रूप से अथवा जानबूझकर ऐसा कर रहे थे। यहीं यह सवाल‌ भी सिर उठाता दिखाई देता है कि मुक्तिबोध जो अपने समय के‌ एक बेहद जटिल और दुरूह कवि माने जाते रहे हैं और जिनकी कविताओं से गुजरते हुए क बार एक अंधी सुरंग से गुजरने का अहसास भी होता रहता है, वही मुक्तिबोध अपनी कहानियों में‌ बेहद सहज हैं। उनका कथ्य‌ और उद्देश्य दोनों बेहद स्पष्ट है। कहीं कोई भटकाव नहीं है लक्ष्य भी सुनिश्चित है‌ और पाठ भी एकल। एक ही पाठ में कहानी पाठकों के अंत:स्‍थल को भेदती हुईउसे उद्वेलित करती हुई प्रश्नाकुलता से भर देती है। हां, यह बात अलग है कि अगर पाठक किसी सस्ते या सतही किस्म के‌ मनोरंजन‌ के लिए  कहानी पढ़ रहा है तो‌ उसे मुक्तिबोध को‌ बिल्कुल नहीं पढ़ना चाहिए। प्रेमचंद के प्रशंसकों से माफी मांगते हुए यह कहने की हिमाकत करना चाहूंगी कि एक स्थल पर जाकर जब प्रेमचंद की कहानियां फार्मूले में बदलती हुई और आदर्शोन्मुख यथार्थ का भ्रम रचती हुई दिखाई देती हैं वहां‌ मुक्तिबोध की कहानियां यथार्थ जिंदगी क‌ पथरीली जमीन से तो टकराती ही है तथाकथित प्रगतिशीलता हो या सामाजिक नैतिकता दोनों के छद्म पर प्रहार करने का नैतिक साहस भी करत है उदाहरण के लिए जहां उनकी "ब्रह्मराक्षस" कविता को समझने -समझाने में हमें काफी मशक्कत करनी पड़ती है वहीं "ब्रह्मराक्षस का शिष्यकहानी बिल्कुल सहज है जिसे बच्चे भी समझ सकते हैं। कहा जाता है कि मुक्तिबोध ने यह कहानी बच्चों के लिए लिखी थी। इन कहानियों में प्रेमचंद की कहानियों की तरह न कोई सूक्ति वाक्य है और न ही कोई यूटोपियन अंत बल्कि यथार्थ की पथरीली जमीन से टकराकर पाठक न केवल स्तब्ध रह जाता है बल्कि तथाकथित नैतिकता से उसका मोहभंग भी होता  है।

मुक्तिबोध की कहानियों में निम्नमध्यवर्गीय जीवन के कई जीवंत चित्र दिखाई देते हैं। निम्न मध्यमवर्गीय जीवन की दीनता और विषमता अपन पूरी विरूपता के साथ मुक्तिबोध की कहानियों में उभर कर आई है। भारतीय मूल्य बोध को अगर किसी ने बचा कर रखा है तो वह है मध्यमवर्ग क्योंकि उच्च वर्ग अपने मूल्यबोध खुद गढ़ता है और निम्न वर्ग उन तथाकथित मूल्यों को चुनौती देत चलता है लेकिन मध्यमवर्ग विशेषकर निम्नमध्यवर्ग उन‌ मूल्यों को‌ अपने सीने से चिपटाए जीता है और प्रतिष्ठा के किसी और अवलंब के अभाव में उसके बलबूते ही समाज में प्रतिष्ठा की प्राप्ति करना चाहता है। 'जिंदगी की कतरननामक कहानी इस वर्ग की मानसिकता को यथार्थपूर्ण ढ़ंग से उकेरती हुई आत्महत्या के कारणों की पड़ताल करती है। कहानी का वातावरण पाठकों को इस कदर अपनी गिरफ्त में ले लेता है कि पाठक क अंतर्मन कांप उठता है और वह इस बात से सहमत हुए बिना नहीं रह सकता कि समाज में जब तक ये सारे कारण मौजूद रहेंगे तब तक आत्महत्याएं होती रहेंगी। इन कारणों में पारिवारिक विपन्नतासामाजिक हस्तक्षेप के साथ ही मानसिक उठापटक भी शामिल हैं। कोई विधवा इसलिए आत्महत्या करती है क्योंकि वह ससम्मान जीवन बिताने में असमर्थ है।‌ कहीं सामाजिक नैतिकता का छद्म बोझ न झेल पाने की वजह से भी कोई- कोई आत्महत्या करने को विवश होता है। विधवा निर्मला की आत्महत्या के बाद मुक्तिबोध उसके कारणों की पड़ताल करते हुए बेचैन हो उठते है, "जिंदगी की कोई भी अवस्थाक्षेत्रस्थिति या फल उतने बुरे नहीं होतेजब तक उन्हें किसी प्रकार के सामंजस्य का आधार प्राप्त होता रहता है। यदि वह सामंजस्य बुरा हैअपवित्र हैया अवनति की ओर ले जानेवाला हैतो उसे बदलकर नयी परिस्थिति पैदा करकेनया सामंजस्य पैदा कराना चाहिए। किंतु मैं जानता हूँनिर्मला के लिए यह असंभव ही नहींउसकी स्थिति-परिस्थिति की भयानक दु:स्थिति में इसके अलावा कदाचित ही कोई दूसरा मार्ग रहा हो।आज के तथाकथित आधुनिक समाज में जब आत्महत्याओं की संख्या कम होने की बजाय लगातार बढ़ती जा रही हैं वहाँ मुक्तिबोध की यह कहानी हमें सोचने समझने का नया रास्ता ही नहीं देती बल्कि नैतिकता के दबाव तले पिसते जीवित प्राणियों की मूर्छनाओं की बात भी करती है। लोग क्या कहेंगे और समाज क्या सोचेगा की चिंता से एक खास आभिजात्य वर्ग भले ही मुक्त हो चुका है लेकिन भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा अब भी चिंता के इस पहाड़ तले दब कर पिसताघुटता और दम तोड़ता नजर आता है। मुक्तिबोध समाजिक नैतिकता की इस पैनी छुरी की तीखी धार के वारों से घायल पीड़ितों की बड़ी जमात के साथ पूरे समर्पण और सहानुभूति के साथ खड़े नजर आते हैं।  

यह सामाजिक नैतिकता हमेशा मुक्तिबोध के निशाने पर है और वह लगातार इस पर प्रहार करते हुए प्रश्न उठाते  नजर आते हैं।‌ हमारे समाज की यह मान्यता है कि स्त्री और पुरुष कभी मित्र नहीं हो सकते। समाज स्त्री पुरुष की मैत्री को अच्छी नजर से नहीं देखताउसके पास स्त्री पुरूष संबंधों का बस एक ही स्वीकृत रूप है और वह रूप अगर तथाकथित सामाजिक मान्यताओं के दायरे में आता है तो सही है अन्यथा नाजायज। "मैत्री की मांगकहानी में मुक्तिबोध ने इसी समस्या को आधार बनाया है और इस मैत्री की मांग को जायज ठहराया है। भले ही सुशीला को यह मैत्री सुलभ नहीं हो पाई लेकिन सुशीला की वेदना को शब्दबद्ध करते हुए उसके प्रति कथाकार की संवेदना पूरी शिद्दत से उभर कर आती है। सुशीला माधवराव को मित्र के रूप में चाहती है प्रेमी रूप में नहीं लेकिन समाज इस मैत्री का आकलन नहीं कर पाता और माधवराव वह मोहल्ला छोड़कर जाने का निर्णय ले लेता है। चाहते हुए भी वह जाते समय सुशीला से मिल नहीं पाता और इस तरह तथाकथित छद्म नैतिकता की हथौड़ी किस तरह इस सहजस्वाभाविक आकांक्षा को कुचलकर रख देती इसका चित्रण कहानी में बड़ी गहराई से हुआ है, "ज्यों ही माधवराव का तांगा पत्थरों पर लड़खड़ाता हुआ आगे चलने लगा कि यकायक रामाराव (सुशीला का पति) के रसोईघर की काली खिड़की खुली और वही स्तब्धपूर्ण मुख आंखों में न्याय मैत्री की मांग करनेवाला करुण दुर्दम चेहरावही स्तब्ध मूर्त भाव।  

छद्म नैतिकता की यह छुरी किस तरह मानवीय संबंधों को तार -तार करने की कोशिश करती हैयह उनकी कहानी 'प्रश्‍न' में भी उसी शिद्दत से उभर कर आया है। समाज में स्त्री और पुरुष के लिए हमेशा ही अलग -अलग मानदंड रहे हैं। विधुर पुरुष के   पुनर्विवाह को समाज सहज स्वाभाविक और उचित ठहराता है । यहां तक कि पत्नी की उपस्थिति में भी उसके एकाधिक विवाहेत्तर संबंध हो सकते हैं और इसे भी बहुत स्वाभाविक दृष्टि से ही देखा-स्वीकारा जाता है लेकिन स्त्री तो असूर्यम्पश्या है।‌ पति के अतिरिक्त किसी और से दोस्ती के बारे में सोचना भी उसके लिए पाप है और पति की मृत्यु के बाद भी उससे यही उम्मीद की जाती है कि वह मृत पति की स्मृतियों को अगोरती हुई जीवन‌ बिता दे अगर वह प्रेम या सहारे के‌ लिए किसी दूसरे पुरुष का दामन थामती है तो समाज की नजर में कुलटा हो जाती है। "प्रश्न" कहानी में यही सवाल उठाया गया है कि क्या एक विधवा को स्वाभाविक जीवन‌ जीने का कोई हक नहीं है।‌ यह कैसा समाज है जो एक असहाय विधवा स्त्री को सिर्फ इसलिए लांक्षित करता है कि वह अपना और  अपने बेटे का पेट पालने के‌ लिए‌ ही नहीं बल्कि‌ मानसिक साहचर्य के लिए भी पुरुष विशेष से स्नेह सूत्र में आबद्ध हो जाती है। लेकिन हमारा समाज न केवल उसे लांक्षित करता है बल्कि उसके बेटे को ही उसके विरुद्ध खड़ा कर देत है। बेटे की नजर में मां को अपराधी सिद्ध करने से बड़ा अपराध क्या कुछ और हो सकता हैयह सवाल पाठकों के अंतर्मन‌ को छील कर रख देता है। कहानी का आरंभ ही पाठकों को उत्सुकता से भर देता है, "एक लड़का भाग रहा है। उसके तन पर केवल एक कुरता है और एक धोती मैली सी। वह गली में से भाग रहा है मानो हजारों आदमी उसके पीछे लगे हों भाले लेकरलाठी लेकरबर्छियां लेकर। वह हांफ रहा हैमानो लड़ते हुए हार रहा हो। वह घर भागना चाहता हैआश्रय के लिए नहींपर उत्तर के लिएएक प्रश्न के उत्तर के लिए। एक सवाल के जवाब के लिएएक संतोष के लिए।और यह सवाल क्या है जो बड़ी जद्दोजहद के बाद एक छोटा बच्चा अपनी मां से पूछने का साहस कर पाता है, "ां, तुम पवित्र हो ? तुम पवित्र हो ?" हम बस कल्पना कर सकते हैं कि कैसे यह सवाल एक बालक ने अपनी जन्मदायिनी मां से पूछा होगा किस तरह उस विवश मां ने इसका जवाब दिया होगा। लेकिन  यह मुक्तिबोध के कलम की सामर्थ्य ही है कि वह उस मां को‌ अपराधिनी सिद्ध करने या महिमामंडित करने के बजाय उसे एक साधारण रूप से समाज में स्वीकार्य दिखाते हैं और उसके बेटे को समाज क एक ख्यात शिल्पी के रूप में चित्रित करते हुए गर्वपूर्वक लिखते हैं, "सुशीला की जन्मभूमिहमारा गांवधन्य है।हां यह बिंदु गौरतलब है कि मुक्तिबोध कहीं भी प्रेमचंदीय आदर्श‌ की स्थापना करते नहीं दिखाई देते। वह विधवा विवाह की बात भी नहीं करते बल्कि एक विधवा को ससम्मान स्वाभाविक जीवन व्यतीत करते दिखाई देते हैं और उनके अपने आदर्श का मॉडल है। मुक्तिबोध की इस महत्वपूर्ण कहानी की भी कोई चर्चा शायद इसलिए नहीं होती क्योंकि यह तत्कालीन मूल्यबोध या छद्म नैतिकता पर प्रहार करती हुई समाज के लिए नये मूल्यबोध गढ़ने की पहल करती है। लेकिन आश्चर्य तो तब होता है जब निर्मल वर्मा जैसे कथाकार मुक्तिबोध को कहानीकार मानने तक से इंकार करते हुए, यह स्टेटमेंट देते दिखाई देते हैं कि, 'मुक्तिबोध की कहानियां असल में कहानियों सी नहीं दीखती...' वह 'उनकी कहानियों को अधूरी कहानियां मानते हैं जो शायद किसी की प्रतीक्षा में हैं।' यह निस्संदेह एक मुश्किल सवाल है कि जो कहानियां किसी छद्म या थोपे हुए आदर्श की स्थापना नहीं करतींकोई तयशुदा हल नहीं देती बल्कि एक ऐसे समाज की स्थापना चाहती हैं जहां स्त्री को भी पुरुष की तरह जीने क समान हक मिले, हर प्राणी को उसका उचित प्राप्य मिले तो क्या उन्हें अधूरा मानना चाहिए, क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि वे  लच्छेदार भाषा में नहीं लिखी गईं हैं या किसी तथाकथित कथा आंदोलन के तहत नहीं लिखी जा रही हैं। और अगर ऐसा मानना भी पड़े तो मेरी अपनी राय में ये कहानियां वस्तुत सामाजिक बदलाव हेतु उस आंदोलन की प्रतीक्षा में हैं जब इस तरह की स्थितियां बन पाएं जहां सभी ससम्मान जी सकें और छद्म नैतिकता से मुक्ति पा सकें।‌ स कहानी से एक बात और स्पष्ट रूप से उभरती है कि‌ मुक्तिबोध विवाह संस्था को‌ आखिरी विकल्प के रूप‌ में नहीं देख रहे थे।‌ हालांकि‌ उन्होंने स्वयं‌ प्रेम विवाह किया था लेकिन विवाह को ही वह जिंदगी का अंतिम सत्य नहीं मानते थे‌ अन्यथा आलोच्य कहानी में विधवा विवाह की संभवाना थ लेकिन संभवतः मुक्तिबोध सुधारवादी स्वर या विचार के बजाय मानव अस्मिता अथवा मानवअस्तित्व को ज्यादा महत्त्व दे रहे थे।‌ यहां एक तथ्य‌ और भी ध्यातव्य है कि जिस समय मुक्तिबोध सृजनरत थे उस समय तक हिंदी में  स्त्री विमर्श का आंदोलन अपने उफान पर नहीं था, इसके बावजूद उस दौर में भी मुक्तिबोध बड़ी दृढ़ता से स्त्री की आकांक्षाओं के साथ -साथ उसके अधिकारों की बात भी कर रहे थे लेकिन विडंबना यह है कि मुक्तिबोध के साहित्य का यह पक्ष अभी तक अंधेरे में ही रहा है। स्त्री अधिकारों के पुरोधा या पैरोकार के रूप में प्रेमचंद का नाम तो जोर- शोर से लिया जाता है लेकिन मुक्तिबोध की इस पक्षधरता पर किसी की निगाह नहीं गई।

 नैतिकता के स्थूल नियमों को मुक्तिबोध किस तरह गैरजरूरी मानते थे वह उनकी बहुत सी कहानियों में प्रकट हुआ है"वह" कहानी का नैरेटर जब अपनी बहन को उसके प्रेमी के साथ अंतरंग क्षणों में देखता है तो पहले तो वह उसे फटकारता है लेकिन दूसरे ही क्षण वह ग्लानि से भरकर सोचने लगता है कि उसे भला बहन को फटकारने का क्या हक है।‌ बहन को पूरा अधिकार है कि वह अपनी जिंदगी का निर्णय खुद ले सके। वह अपने ह्रदय पर पड़े पश्चाताप के भारी पत्थर को दूर फेंकते हुए अपनी बहन को गले से लगाकर कह उठता है, "शांताशांता... मैंने तेरा अपराध किया है।वस्तुत यहां सिर्फ स्त्री की आजादी की ही बात नहीं है बल्कि मानव मात्र की आजादी ओर उसके निर्णय के म्मान‌ ी बात भी है।‌ स्त्री अधिकारों के हिमायती माने जाने वाले प्रेमचंद के साहित्य तक में इस तरह के मुखर‌ प्रश्न‌ नहीं हैं जहां स्त्री की अपनी अलग सत्ता हो।‌ आज के उत्तर आधुनिक समय में भी साधारण परिवेश में एक अकेली स्त्री क अपनी मर्जी से जिंदगी गुजारने को‌ बहुत सम्मानजनक दृष्टि से नहीं देखा जाता है और रही बात 'सिंगल मदर' या 'अकेली मां' की तो यह साहस मशहूर हस्तियां भले ही कर लें‌ सामान्य स्त्रियां तो ऐसा करने की बात सोच तक नहीं सकती। इसके अलावा आज के सभ्य और आधुनिक समाज में भी खाप पंचायतों के दबाव में जिस तरह सम्मान रक्षा (?) के लिए दिन दहाड़े प्रेमी जोड़ों की हत्या की जाती हैं वहाँ यह कहानी प्रेम या चयन के अधिकार का सुंदर रास्ता बड़ी सहजता से दिखाती है।

भारतीय समाज की एक और समस्या है, वह है‌‌ हमारा दोहरा चरित्र, पाखंड के मुखौटे से ढंका हमारा छद्म मानवीय चेहरा, जिसने हमारी समाज व्यवस्था को तो गहराई से प्रभावित किया ही है हमारी मानसिक संरचना को भी जटिल से जटिलतम बनाते हुए हमें मानसिक रोगी तक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। हम बातें तो मानवता की करते नहीं अघाते लेकिन  मानवता के असली हकदार तक पहुंचने के पहले ही मानवीय करुणा का हमारा स्रोत सूखता दिखाई देता है। "जंक्शन"  कहानी में मानवता के साथ ही प्रगतिशीलता के इस छद्म चेहरे को देखा जा सकता है जहां नैरेटर की करुणा एक संपन्न भले घर के बच्चे के प्रति तो उमड़ती है लेकिन गरीब के प्रति नहीं क्योंकि प्रेम भी हम सामाजिक स्तर देखकर करते हैं और सहानुभूति भी। भले ही हम समाज के निचले पायदान पर ही क्यों ना खड़े‌ हों पर हमारा प्रेम पायदान‌ से नीचे खड़े व्यक्ति पर नहीं बरसता क्योंकि उसकी कृतज्ञता हमारे अहंबोध को संतुष्ट नहीं करती।‌ यह मानव‌ स्वभाव की खासियत है कि वह मानवतावाद प्रेम और करुणा की बात उसी स्तर‌ तक करता है जहां उसे विशेष कुछ करना ‌न‌ पड़े।  इससे सहज ही यह प्रश्न जन्म लेता है कि, फिर क्या यह नैतिकता बिल्कुल फिजूल है और समाज को उसकी जरूरत नहीं। लेकिन मुक्तिबोध  नैतिकता के इस पक्ष को आवश्यक मानते हैं जो हमें आत्मस्वीकार का साहस दे सके ्योंकि यह साहस भी नैतिकता से ही जुड़ा हुआ मुद्दा है जिसे स्वीकारने से हम बचते हैं लेकिन मुक्तिबोध का नायक पहले तो अपने- आपको बचाते हुए सोचता है, "मेरा बिस्तर क्या इसलिए है कि वह सार्वजनिक सम्पत्ति बने ! शी:। ऐसे न मालूम कितने बालक हैं जो सड़कों पर घूमते रहते हैं।" लेकिन अंततः अपने वैचारिक , मानवीय भटकाव को स्वीकारते हुए कह बैठता है, "मुद्दा यह है। हां मुद्दा यह है कि वह दूसरे और निचले किस्म केनिचले तबके के लोगों की पैदावार है....जिनपर दया की जा सकती है पर बिस्तर पर जगह नहीं दी जा सकती"....वह आगे कहता है, "मैं अपने भीतर नंगा हो जाता हूँ और अपने नंगेपन को ढांपने की कोशिश भी नहीं करता।"

आत्मस्वीकार के इसी नैतिक साहस को और भी शिद्दत से पाठकों के समक्ष उजागर करने के लिए  मुक्तिबोध "मैं फिलासफर नहीं हूँकहानी में उस प्रोफेसर का चरित्र उकेरते हैं जो जरा भी आत्ममुग्धता का शिकार नहीं है इस दौर में जहां‌ सभी खुद को एक दूसरे से ज्यादा  विद्वान‌ साबित करने की होड़ में कुछ इस कदर मुब्तला हैं कि कभी- कभी वह चूहा दौड़ की तरह हास्यास्पद लगने‌ लगता है, में किसी प्रोफेसर का यह आत्मस्वीकार कि 'मैं बिल्कुल कोरा हूँ,....टैब्यूला रासा।' उसकी ईमानदारी को जाहिर करता है।  'टैब्यूला रासा' लैटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है 'खाली स्लेट'।  यह कहानी इस तथ्य को उजागर करती है कि, किसी भी आदमी में विद्वाता जैसे गुण के साथ वह नैतिक साहस भी होना चाहिए कि वह अपने अंदर के‌ शून्य को भी लोगों के सामने बेझिझक परोस सके और यही ईमानदारी और साहस प्रोफेसर साहब दिखाते हैं। सवाल यह भी है कि आज तथाकथित विद्वानों की जमात में  ऐसा ईमानदार जिगर रखने वाले कितने ऐसे प्रोफेसर या फिलॉसफर मिलेंगे जो खुद को कोरी स्लेट मान सकें। शायद एक भी नहीं, और यहीं मुक्तिबोध की आलोच्य कहानी का व्यंग्य पूरी तीव्रता से पाठकों को भेद देता है।

मुक्तिबोध की एक और महत्वपूर्ण कहानी "अंधेरे में" का जिक्र करना चाहूंगी जहां लेखक की नैतिकता उसे झकझोर कर कहती हैं कि इस संसार में बगावत का झंडा बुलंद क्यों नहीं होता। 'अंधेरे में नामक अपनी विख्यात लंबी कविता में जहां‌ कवि मुक्तिबोध देशसमाज के स्याह पक्षों की काली तस्वीर उरेहते हैं वहीं कहानीकार मुक्तिबोध उस स्याह‌ को‌ रौशन‌ करने के लिए एक मात्र क्रांति का रास्ता दिखाते हैं क्योंकि अगर समाज में आमूलचूल परिवर्तन लाना‌ है तो उसे क्रांति की राह से होकर ही गुजरना‌ होगा। यह बात और है कि कहानी में क्रांति घटती नहीं दिखाई देती लेकिन उसकी जरूरत की बात जरूर कथा के मुख्य पात्र के साथ- साथ पाठक के मन में भी  उठती है और यही इस कहानी की सफलता है। इस तरह एक बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि मुक्तिबोध की कहानियां वस्तुत उनके कविताओं की पूरक हैंकविता में जिस तस्वीर की रेखाएं नजर आती हैं कहानी में वह तस्वीर मुकम्मल होती नजर आती है। कविताओं का कुहासा कहानियों में छंट जाता है और यह बेझिझक कहा जा सकता है कि कविताओं में जटिल नजर आनेवाले मुक्तिबोध कहानियों में झट से पकड़ में आ जाते हैं और एक स्पष्ट दिशा भी दिखाते नजर आते हैं। अब इतना धैर्य तो पाठकों में भी होना चाहिए कि वह उन कहानियों को पढ़े।‌ क्योंकि पाठकों को जिस तरह क कथा रस से लबरेज मुहावरेदार भाषा में रची कहानियां पढ़ने की लत होती है वह भले ही मुक्तिबोध के यहां नहीं मिलत लेकिन कथ्य और लक्ष्य बिल्कुल स्पष्ट है और विचार तो तीर की तरह पाठकों के अन्‍तरमन में पैठ जाता है। वहां आदर्श नजर‌ नहीं आता क्योंकि यथार्थ का तीखापन‌ पूरी रुक्षता से उभरा है। और तारीफ इस बात की भी होनी चाहिए कि यथार्थ को उकेरते हुए मुक्तिबोध जरा भी लाउड होते नहीं दिखाई देते लेकिन कहानी पाठकों को बेचैन कर देती है। नैतिकता का दंश इतना तीखा होता है कि पाठक के लिए उसे झेलना मुश्किल हो जाता है जैसे 'अंधेरे में' कहानी का युवक जब रात के अंधेरे में सड़क से गुजरते हुए उसी सड़क पर सोए हुए बेघरबार लोगों से टकराता है तो कांप उठता है। उसकी मानसिक बेचैनी को मुक्तिबोध ने बेहद सधी कलम से उकेरा है, "युवक के मन में एक प्रश्न, बिजली के नृत्य की भांति मुड़-मुड़कर, मटक-मटककर, घूमने लगा- क्यों नहीं इतने सब भूखे भिखारी जगकर, जाग्रत होकर, उसको डंडे मारकर चूर कर देते हैं-क्यों उसे अब तक जिंदा रहने दिया गया।" और सोचते हुए इसका जवाब भी वह स्वयं तलाशता है, "पाप, हमारा पाप, हम ढीले-ढाले, सुस्त, मध्यवर्गीय आत्मसंतोषियों का घोर पाप ! बंगाल की भूख हमारे चरित्र विनाश का सबसे बड़ा सबूत। उसकी याद आते ही, जिसको भुलाने की तीव्र चेष्टा कर रहा था, उसका ह्रदय कांप जाता था, और विवेक-भावना हांफने लगती थी।" विवेक का यह भाव या दंश ही वस्तुतः हमारी नैतिकता का केंद्र बिंदु है और होना चाहिए, ऐसा मुक्तिबोध मानते थे।

 आमतौर पर यह माना या कहा जाता है कि अनैतिक कर्म करनेवाले ही इस संसार में सुखी हैं और नैतिकता पर टिके हुए लोग अधिकतर कष्ट ही पाते हैं लेकिन नैतिकता का दंश‌ किसी को पागल भी कर सकता है यह तो "क्लाड इथरलीकहानी को पढ़कर सहज ही समझ जा सकता है। 'क्लाड इथरली' वह विमान चालक था जिसके गिराए एटम बम से हिरोशिमा नष्ट हो गया था। अपनी कारगुजारी का दुष्परिणाम देखकर वह अपराधबोध से पगला गया। हालांकि अमेरिकी सरकारी उसे 'वार हीरो' मानकर सम्मानित करती है लेकिन वह अपने अपराध का दंड पाने के लिए सरकारी नौकरी छोड़कर ऐसी वारदातें आरंभ करता है जिससे गिरफ्तार होकर जेल जा सके लेकिन सरकार जो उसे महान मानती है, अंततः उसे उसकी इन हरकतों के कारण पागल समझकर जेल में डाल देती है। मुक्तिबोध इस पागलपन की व्याख्यायित करते हुए व्यंग्यात्मक ढंग से बड़े साहस के साथ कहते हैं, "जो आदमी आत्मा की आवाज कभी-कभी सुन लिया करता और उसे बयान करके उससे छुट्टी पा लेता है, वह लेखक हो जाता है। जो लगातार सुनता मगर कुछ कहता नहीं है, वह भोला-भाला सीधा-सादा बेवकूफ है। जो उसकी आवाज बहुत ज्यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है, वह समाज-विरोधी तत्वों में यों ही शामिल हो जाया करता है। लेकिन जो आदमी आत्मा की आवाज जरूरत से ज्यादा सुनके हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्म का पालन करता है, वह निहायत पागल है। पुराने जमाने में संत हो सकता था। आजकल उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है।" यहाँ यह सवाल फिर सिर उठाए हमारे सामने खड़ा हो जाता है कि, क्या इस संसार में नैतिक लोगों के लिए कोई जगह नहीं है ?‌ क्या उनकी जगह सिर्फ पागलखाने में ही बची हुई है या कि ऐसे लोगों की जरूरत ज्यादा है ।‌ क्योंकि यह पागलपन‌ ही उनकी संवेदनशीलता को‌ रेखांकित करता है। इसी कारण मुक्तिबोध ऐसी नैतिकता के साथ -साथ ऐसे पागलों और पागलखानों को समाज के लिए अति आवश्यक मानते हुए आलोच्य कहानी के एक पात्र द्वारा कहलवाते हैं, "हमारे अपने-अपने मन- ह्रदय-मस्तिष्क में ऐसा ही एक पागलखाना है, जहाँ हम उन उच्च, पवित्र और विद्रोही भावों को फेंक देते हैं जिससे कि धीरे-धीरे या तो वे खुद बदलकर समझौतावादी पोशाक पहन सभ्य, भद्र हो जाएं, यानी दुरुस्त हो जाएं या उसी पागलखाने में पड़े रहें।" कहानी के समापन की ओर बढ़ते हुए "वह" पात्र "मैं" से कहता है, "इससे यह सिद्ध हुआ कि तुम-सरीखे सचेत जागरूक संवेदनशील जन क्लॉड इथरली हैं।" सुख भोग के सागर में डूबे संवेदनहीन गैंडों के समाज में ऐसे पागलों (?) या संवेदनशील,  नैतिक लोगों की जरूरत हमेशा बनी रहती है क्योंकि नैतिकता तथाकथित यौन‌ शुचिता या दोगलेपन में नहीं बचती बल्कि सही मनुष्य होने में होती है । वही मनुष्य जो अपने सुख के लिए किसी की हत्या को अपराध समझे और वह‌ भी जो चंद चांदी के सिक्के के बदले में व्यक्ति क आजादी का अपहरण कर‌ उसे पंगु बनाने वाले शोषक की साज़िश का पर्दाफाश कर सके।‌ (पक्षी और दीमक)

मुक्तिबोध की दो और महत्‍वपूर्ण कहानियों की बात करना चाहूंगी"जलना" और "काठ का सपना" । दोनों ही निम्न मध्यमवर्गीय जीवन‌ के दो अलग- अलग चित्र हमारे सामने उकेरती हैं। लगता है जैसे दोनों में से ही मुक्तिबोध का अपना निजी यथार्थ भी प्रस्फुटित होता है। सुखी परिवार जैसे कि टीवी के पर्दे पर हंसते मुस्कुराते, प्राणवंत नजर आते हैं प्रायवैसे नहीं होते। हंसी- खुशी से उद्भासित चेहरों के पीछे भी असहनीय घुटन छिपी होती है। बहुधा वह लोगों को‌ ऊपर से नजर नहीं आती लेकिन अंदर ही अंदर वह परिवार को घुन‌ की तरह चाटती रहती है। आज के समय में अवसाद  रोग की बड़ी चर्चा होती है लेकिन पहले इसकी चर्चा करना भी अपराध समझा जाता था और अगर कहीं कोई अवसाद की समस्या होती भी थी तो उसे देवी आना या डायन का शिकार होना मान लिया जाता था।‌ मध्यमवर्गीय परिवार की इस घुटन को‌ अज्ञेय की कहानी 'गौंग्रीनमें बड़ी कुशलता से उकेरा गया था। मुक्तिबोध की कहानी "काठ का सपना" में यही जड़ता है लेकिन कहानी सरोज के रूप में एक उम्मीद को सामने रखती है। जहां 'गैंग्रीन' की मालती अपनी संतान तक के प्रति इतनी निस्पृह हो चुकी है कि उसके खाट से गिर जाने पर भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ता वहीं मुक्तिबोध का कथानायक सरोज को का होते जीवन की उम्मीद भरी कोंपल के रूप में देखता है। यही उम्मीद का झोंका "जलना" कहानी में भी है। तमाम विषमताओं और आर्थिक तंगी के बावजूद पति हर हाल में परिवार में संतुलन बनाए रखने की कोशिश करता है। लेकिन पत्नी जिसके मन में संभवत आर्थिक तंगी के कारण पूरे परिवार, विशेषकर पति के प्रति एक अकारण आक्रोश का ज्वालामुखी फुंफकारता रहता है और जहां- तहां फूटकर बरस पड़ने को आतुर रहता है पति , बच्चों सब पर कुढ़ती नजर आती है। कथाकार के शब्दों में कहें तो, "यह वह आदमी था, जिस पर वह एक जमाने में जान देती थी। लेकिन अब वह बदल गया है। वह उसका पति है।" 'लव हेट रिलेशनशिपअर्थात घृणा और प्रेम के मिश्रित भावों का सुंदर निदर्शन‌ इस कहानी में हुआ है लेकिन अंततः एक छोटी सी दुर्घटना के कारण जब पत्नी के प्रति पति का लगाव अभिव्यक्त हो जाता है तो पत्नी के मन में भी आक्रोश के तले बहता प्रेम का झरना फूट पड़ता है और वह उसे छिपाती भी नहीं। पारिवारिक जीवन की ये दोनों कहानियां दो अलग-अलग यथार्थ को हमारे सामने रोसती हुईं किसी नारेबाजी के बावजूद मानवीय प्रेम की बात करती हैं। यहां नैतिकता का दिखावा कहीं नहीं है बल्कि नैतिकता जीवन के साथ इस तरह घुल मिल गई है कि उसे अलग से चिह्नित करने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। उसी सहज स्वाभाविक प्रेम और नैतिकता के मिश्रण से ही सामाजिक और  पारिवारिक जीवन का अस्तित्व कायम है, यह बात स्वतः उभर कर साफ हो जाती है। 

अंततः यह बात स्पष्ट रूप से कही जा सकती है कि मुक्तिबोध की कहानियों में मानवीय नैतिकता और सामाजिक नैतिकता जिसे छद्म या थोपी हुई नैतिकता भी कहा जा सकता है के बीच का अंतर साफ- साफ नजर आता है। इसी कारण छद्म नैतिकता और उसकी रूढि़यों पर मुक्तिबोध बेबाक होकर प्रहार करते हैं और मानवीय प्रेम को सहजता से स्थापित करते हुए एक सुंदर सुखद समाज की रचना के लिए सच्ची प्रगतिशीलता को आवश्यक मानते हुए सामाजिक क्रांति की आवश्यकता का सवाल भी उठाते हैं। और ये तमाम मुद्दे या सवाल बड़ी सहजता और बेहद सौम्यता लेकिन पैनेपन के साथ उनकी कहानियों में उठाए गये हैं। वे अंधेरे को चिह्नित करते हुए उसे भेदने की कोशिश लगातार करते नजर आते हैं। कवि आलोचक श्रीकांत वर्मा मुक्तिबोध की कहानियों के इसी पक्ष को रेखांकित करते हुए लिखते हैं, "मुक्तिबोध की कहानियों की प्रेरणा कहानी का कोई आंदोलन नहीं था। हर रचनाउनके लिएएक भयानक , शब्दहीन अंधकार को -जो आज भीभारतीय जीवन के चारों ओरचीन की दीवार की तरह खिंचा हुआ है-लाँघने की एक और कोशिश थी।"

इस कोशिश में इतनी तीव्रता है कि प्रायः वह कहानियों को बहुत ज्यादा विस्तार नहीं देतेपात्रों की भीड़ इकट्ठी नहीं करते, बस अपनी बात को या विचार के प्रकाश को उजागर करते हुए अंधकार को दूर करने या जिंदगी की अंतहीन गुत्थियों को सुलझाने की कोशिश करते नजर आते हैं। उनकी बहुत सी कहानियां प्रायः एकालाप या दो पात्रों के मध्य वार्तालाप पर टिकी हुई हैं। 'वहऔर 'मैंजैसे पात्रों की भरमार है। एक ही नाम के पात्र एकाधिक कहानियों में आए हैं जैसे एक कहानी दूसरी का विस्तार है।  जैसे वे विचारों के अंतर्प्रवाह से आपस में गुंथी हुई हों। आत्मालाप कब आत्मालोचन में बदल जाता हैपता ही नहीं चलता। कभी -कभी ऐसा भी लगता है कि कथाकार स्वयं से संवाद करता हुआ पूरी सभ्यता के साथ संवादरत है और  समाज की तमाम गुत्थियोंसमस्याओं पर विचार करते हुए एक राह तलाशने की कोशिश कर रहा है। भावों और विचारों के इसी दबाव के कारण कहानियों के संवादों का वाक्य गठन कभी- कभी थोड़ा असंगत सा भले लगे, जैसे "शांताशांता... मैंने तेरा अपराध किया है।में नैरेटर तेरे प्रति नहीं कहता, पर उसका भाव पाठकों तक संप्रेषित होने में जरा भी अड़चन नहीं आती।  हो सकता है कि मुक्तिबोध की ये कहानियां कहानी विवेचन के तथाकथित फ्रेम या मानदंडों पर फिट न बैठे लेकिन तब यह सवाल भी उठना स्वाभाविक है कि कभी न कभी तो हमें नए मापदंड गढ़ने ही होंगे। और अगर साहित्य की एक परिभाषा यह है कि वह हमें विचारशील और बेहतर मनुष्य बनाता है तो निस्संदेह मुक्तिबोध की कहानियां इस कसौटी पर खरी उतरती हैं।