किंतु परन्तु
वाले मध्यवर्गीय मिजाज से दूरी बनाते हुए नील कमल बेबाक तरह से अपनी समझ के हर
गलत-सही पक्ष के साथ प्रस्तुत होने पर यकीन करते हैं। सहमति और असहमति के बिंदु
उपजते हैं तो उपजे, उन्हें साधने की कोशिश वे कभी नहीं करते हैं।
जो कुछ जैसा दिख
रहा है, या वे जैसा देख पा रहे हैं, उसे रखने में कोई गुरेज भी नहीं करते। सवाल
हो सकते हैं कि उनके देखने के स्रोत क्या हैं, उनके देखने के मंतव्य क्या हैं
और उस देखने का दुनिया से क्या लेना देना है ? ये तीन प्रश्न हैं जिन पर एक-एक
कर विचार करें तो नील कमल की आलोचना पद्धति को समझने का रास्ता तलाशा जा सकता है।
उनके देखने पर यकीन किया जा सकता है और उनकी सीमाओं को भी पहचाना जा सकता है।
नील कमल द्वारा कविताओं पर लिखी टिप्पणियों से गुजरें तो इस बात का ज्यादा साफ तरह से समझा जा सकता है।
‘गद्य वद्य कुछ’ आलोचना की एक ऐसी ही पुस्तक है। ‘गद्य वद्य कुछ’ शीर्षक
से जो कुछ ध्वनित हो रहा है, उसमें कोई दावा होने की बजाय यूंही कह दी गई बातों
का भान होता है। निश्चित ही यह एक रचनाकार की अपने लेखन को बहुत मामुली समझने की
विनम्रता से उपजा होना चाहिए। जबकि पुस्तक जहां एक ओर हिंदी कविता के बहुत ही
महत्वपूर्ण कवियों मुक्तिबोध, त्रिलोचन आदि की कविताओं से संवादरत होने का मौका
देती है तो वहीं दूसरी ओर हाल-हाल में कविता की दुनिया में बहुत शरूआती तौर पर दाखिल
होने वाले कवियों में कवि नवनीत सिंह एवं अन्य की कविताओं से परिचित होने का अवसर
सुलभ कराती है। यह पुस्तक एक रचनाकार
के बौद्धिक साहस का परिणाम है। इसी वजह से नील कमल को एक जिम्मेदार आलोचक के
दर्जे पर बैठा देने में सक्षम है।
नीलकमल से आप
सहमत भी होते हैं। और एक असहमति भी उपजती रहती है। यह बात ठीक है कि सहमति का
अनुपात ज्यादा बनता है, पर इस कारण से असहमति पर बात न की जाए तो इसलिए भी उचित
नहीं होगा, क्योंकि इस तरह तो गद्य वद्य का कथ्य ही अलक्षित रह जाने वाला है।
फिर नील कमल की आलोचना का स्रोत बिन्दु भी तो खुद असहमति की उपज है। यह सीख देता
हुआ कि अपने भीतर के सच के साथ सामने आओ।
बेशक, पुस्तक
में मौजूद आलेखों में कवियों की कमोबेश एक-एक कविता को आधार बनाया गया है लेकिन
उनके विश्लेषण में जो दृष्टि है उसमें कवि विशेष के व्यापक लेखन और उसके लेखन पर
विद्धानों एवं पाठकों, प्रशंसकों की राय को दरकिनार नहीं किया गया है। विश्लेषण
के तरीके में वस्तुनिष्ठता एक अहम बिन्दु की तरह उभरती है। बल्कि देख सकते हैं
कि आलोचक नील कमल जिस टूल का चुनाव करते हैं उसमें कविता को अभिधा के रूप में
उतना ही सत्य होने का आग्रह प्रमुख रहता है जितना व्यंजना में। यह भी उतना ही सच
है कि व्यंजना को भी अभिधा के सत्य में ही तलाशने की कोशिश कई बार बहुत जिद्द के
साथ भी करते हैं।
यही बिन्दु उन्हें उस पारंपरिक आकदमिक आलोचना से बाहर जाकर बात करने को मजबूर करता है जिसका दायरा कवि के सम्पूर्ण निजी जीवन तक बेशक न जाता हो पर उसके साहित्यिक जीवन की परिधि को तो छूता ही है। कवि पर विद्धानों की राय या चुप्पियां, पुरस्कारों और सम्मानों के प्रश्न या फिर तय तरह फैलाई गई चुप्पियों के खेल लगभग हर आलेख की विषय वस्तु को निर्धारित कर रहे हैं।
नील कमल की आलोचना की सीमाएं दरअसल तात्कालिक घटनाक्रमों पर अटक जाना है। वह अटकना ही उन्हें आग्रहों से भी भर देने वाला है। बानगी के तौर पर देख सकते हैं जब वे आशुतोष दुबे की कविता ‘धावक’ पर टिप्पणी कर रहे हैं तो कविता के विश्लेषण में वे जमाने की अंधी दौड़ को विस्तार देने की बजाय उसे साहित्य की दुनिया में व्याप्त छल छदमों तक ही ‘रिड्यूस’ कर दे रहे हैं। ऐसा इसलिए भी होता है कि आलोचना लिखने से पहले ही नील कमल अपने सामने एक ऐसी दीवार देखने लग जाते हैं जो इतनी ऊंची है कि अपनी सतह से अलग किसी भी दूसरी चीज पर निगाह पहुंचा देने का अवसर भी नहीं छोड़ना चाहती। नील कमल उस कथित दीवार को कूद कर पार जाने का प्रयास करते रहते हैं। लेकिन दीवार की ऊंचाई को पार करना आसान नहीं। जमाने का दस्तूर दीवार को चाहने वाले लोगों की उपस्थिति को बनाये रखने में सहायक है। यदा कदा की छील-खरोंच पर पैबंद लगाने वाले जत्थे के जत्थे के रूप में हैं। दीवार की वजह से ही नील कमल भी दूसरी जरूरी चीजों को सामने लाने में अपने को असमर्थ पाने लगते हैं और दीवार उन्हें उनके लक्ष्यों से भटका भी देती है। साहित्य की दुनिया के छल छदम जरूर निशाने पर होने चाहिए लेकिन विरोध का स्वर सिर्फ वहीं तक पहुंचे तो कुछ देर को ठहर जाना ही बेहतर विकल्प है। फिर ऐसी चीजों के विरोध के लिए जिस रणनीति की जरूरत होती है, मुझे लगता है, नील कमल का कौशल भी वहां सीमा बन जाता है। कई बार तो वह विरोध की बजाय आत्मघातक गतिविधि में भी बदल जाता है। शतरंज के खेल की स्थितियों के सहारे कहूं तो सम्पूर्ण योजनागत तरह से प्रहार करने में नील कमल चूक जाते हैं।
नील कमल इस बात को भली भांति जानते हैं कि विचारधारा को आत्मसात करना और उसे इस्तेमाल करने के लिए वैचारिक दिखना दो भिन्न एवं असंगत व्यवहार है। यूं तो इसको समझने के लिए उनके पास उनके आदर्श, वे सचमुच के फक्कड़ कवि और विचारक ही हैं, लेकिन उन फक्कड़ अंदाजों को आत्मसात करते हुए नील कमल से कहीं उनसे कुछ छूट जा रहा है। वह छूटना मनोगत भावों का हावी हो जाना ही है। आत्मगत हो जाना भी। बल्कि अपने ही औजार, वस्तुनिष्ठता को थोड़ा किनारे सरका देना है। जबकि यह सत्य है कि वस्तुनिष्ठता पर नील कमल का अतिरिक्त जोर है। कमलादासी के दुख को देखते और समझते हुए, पंक्तियों के बीच भी कविता का पाठ ढूंढते हुए, एक औरत के राजकीय प्रवास का प्रशनांकित करते हुए आदि अधिकतर आलेखों में वस्तुनिष्ठ हो कर विशलेषण करने वाला आलोचक भी मनोगत आग्रहों की जद में आ जाए तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है। ऐसा खास तौर पर उन जगहों पर दिखाई देता है जहां नील कमल पहले से किसी एक निर्णय पर पहुंच चुके होते हैं और फिर अपने निर्णय को कविता में आए तथ्यों से मिलाते हुए कविता का विश्लेषण करते हुए आगे बढ़ते हैं।
शराब बनाने बनाने के लिए फरमेंटेशन आवश्यक प्रक्रिया है। फरमेंटेशन का पारम्परिक तरीका और डिस्टिलेशन के द्वारा शराब निकालने के दौरान होने वाली फरमेंटेशन की प्रक्रिया में लगने वाले समय में इतना ज्यादा अंतर है कि तुलना करना ही बेतुका हो जाएगा। डिस्टिलेशन शराब बनाने की तुरंता विधि है। मात्र फरमेंटेड को छानने की प्रक्रिया भर नहीं।
ध्यान देने वाली बात यह है कि दोनों विधियों से प्राप्त होने वाले उत्पाद में नशा तो जरूर होता है लेकिन वे दो भिन्न प्रकार के उत्पाद होते हैं। ‘वाइन’ के नाम से बिकने वाला उत्पाद फरमेंटशन की पारम्परिक प्रक्रिया का उत्पाद है और आम शराब के रूप में बिकने वाला उत्पाद डिस्टिलेशन की तुरंता प्रक्रिया से तैयार उत्पाद है। नील इन दोनों ही विधियों को पदानुक्रम में रखकर शराब बना देना चाहते है। यह बारीक सा अंतर इस कारण नहीं कि नील दोनों प्रक्रियाओं से प्राप्त होने वाले उत्पादों से अनभिज्ञ है, बस इसलिए कि वांछित तथ्यों के दिख जाने पर वे उसके अनुसंधान में और खपने से बचकर आगे निकल चुके होते हैं।
कविताओं में लोक के पक्ष को प्रमुखता देते हुए नील कमल अज्ञेय की असाध्य वीणा को परिभाषित करना चाहते हैं। लोक और सत्ता के अन्तरविरोध को परिभाषित तो करते हैं लेकिन मनुष्य और प्रकृति के सह-अवस्थान में वे लोक को वर्गीय चेतना से मुक्त स्तर पर ला खड़ा करते हैं। लोक के दमित स्वपनों का अपने तर्को के पक्ष में रखते हुए वे उस पावर डिस्कोर्स की बात करते हैं जो शोषणकर्ता और शोषक से विहिन दुनिया तक के सफर में एक रणनैतिक पड़ाव ही हो सकता है। लिखते हैं कि एक गरीब आदमी भी जब अपने लिए वैभव की कल्पना करता है तो उस कल्पना में वह राजा ही होता है जहां उसके नौकर-चाकर होते है, जहां उसे श्रम नहीं करना होता है।
एक सच्चे साधक की कल्पना से झंकृत हो सकने वाली वीणा के स्वर में वे जिस लोक को देखते हैं उसमें उन राजाश्रयी प्रलोभनों को भी थोड़ी देर के लिए गौण मान लेते हैं, जो कि खुद उनकी आलोचना का स्रोत बिन्दु है। असाध्य वीणा का वह लोकेल क्या उस प्रतियोगिता से भिन्न है जो आज की समकालीन दुनिया में विशिष्टताबोध को जन्म दे रहा है। वह विशिष्टताबोध जो लोक की सर्वाजनिनता को वैशिष्टय की अर्हता से छिन्न-भिन्न कर दे रहा है ?
राजपुत्रों के लिए आयोजित सीता स्वयंवर के धनुष भंग से किस तरह भिन्न है असाध्य वीणा को स्वर दे सकने की अर्हता।
लोक को विशिष्टता के पद से परिभाषित किया जाना संभव होता तो समाज में अफरातफरी मचा रही पूंजी के मंसूबे भी लोक की स्थापना में जगह पा रहे होते। महंगे से महंगे रेस्ट्रा, हवाई यात्राओं के अवसर, उम्दा से उम्दा गाडि़यों के मॉडल और आधुनिक तकनीक के वे उत्पाद जो उपयोगकर्ता को विशिष्टता प्रदान करने वाले आदर्श को सामने रख रहे हैं, लोक की स्थापना के आधार हो गए होते। उन्हें लपकने की चाह भी उसी तरह लोक का स्वर हो गई होती जिस तरह देखा जा रहा है कि लोक के दमित इच्छाओं के स्वप्नों में राजसी जीवन सजीव हो जाना चाहता है।
आलोकधनवा की कविता पर टिप्पणी करते हुए नील कमल कविता की पहली पंक्ति में दर्ज समय से जिस इंक्लाबी राजनीति का खाका सामने रखते हैं, अपने आग्रहों के तहत वहां माओवाद को चस्पा कर दे रहे हैं।
इतिहास साक्षी है कि चीनी इंक्लाब के मॉडल- गांवों से शहर को घेरने की रणनीति पर पैदा हुई वह राजनैतिक धारा उस वक्त माओवाद के नाम से नहीं जानी गई। माओवाद एक राजनैतिक पद है और जिसको इसी सदी के शुरुआत में ही सुना गया। यह बात इसलिए कि पूरी कविता का विश्लेषण इस आधार पर करते हुए नील कमल कविता की व्यवाहारिक सफलता को संदिग्ध ठहरा रहे हैं। हालांकि कविता की व्यवहारिक सफलता जैसा कुछ होता हो, यह अपने में ही विचारणीय है।
आलोचना भी दुनियावी बदलाव की गतिविधियों को गति देने में प्रभावी विधा है, बशर्ते कि आग्रह मुक्त हो। खास तौर पर नील जिस सकारात्मक तरह से आलोचना विधा का इस्तेमाल कर रहे हैं। बदलावों के संघर्ष में कविता की अहमियत पर बात करते हुए और एक कवि की भूमिका को रेखांकित करते हुए नील कमल उस पक्ष को अपना पक्ष मानते हैं जो कवि ऋतुराज के संबंध में वे खुद ही उर्द्धत करते हैं, ‘’जब तक कोई कवि आम आदमी की निर्बाध जीवन शक्ति और संघर्ष में सक्रियता से शामिल नहीं होता तब तक कवियों के प्रति अविश्वास और उपेक्षा बनी रहेगी। वे निर्वासित, विस्थापित और नि:संग अपराधियों की तरह रहेंगे।‘’
इस तरह से वे कविता को ‘’एक सांस्कृतिक संवाद कायम करना’’ कहते हैं।
सिर्फ इस जिम्मेदारी को एक कवि पर आयद ही नहीं कर देना चाहते, बल्कि इसी पर खुद भी यकीन भी कर रहे हैं। कविता से उनकी ये अपेक्षाएं इसलिए अतिरिक्त नहीं, क्योंकि चमकीले स्वप्नों की बजाय वे स्वप्न भंग की किरचों को भी कविता में यथोचित स्थान देने के हिमायती दिख रहे हैं। कविता को उम्मीद और निराशा के खांचों में बांटकर नहीं देखना चाहते हैं। इतिहास की अंधी गलियों से गुजरते हुए वर्तमान के पार निकल जाने को कविता का एक गुण मानते हैं। मितकथन भी कविता का एक गुण है, उनके आलेखों में यह बात बार-बार उभर कर आती है। दुख के अभिनय को निशाने पर रखते हैं। कविता की आलोचना को ही आलोचकीय फर्ज नहीं समझते, अपितु, कवि को भी सचेत करते रहते हैं कि प्रलोभनों के मायावी संसार के भ्रम जाल में न फंसे।
नील कमल के ही शब्दों में कहूं तो लहू बहाए बिना ही कत्ल करने की अदा को वे लगातार निशाना बनाते चले जाते हैं, और इस तरह से जहां एक ओर तथाकथित रूप से सम्मानित कविता की कमजोरियों का उदघाटित करते हैं तो वहीं उम्मीदों का वितान रचती, किंतु अलक्षित रह गई और रह जा रही कविता से परिचित कराने को बेचैन बने रहते हैं।
नीलकमल मूलत: कवि हैं। अभी तक उनके दो महत्वपूर्ण कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।
2 comments:
अच्छी समीक्षा है
बहुत बढ़िया समीक्षा
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