पूंजीवादी संस्कृति की मुख्य प्रवृत्ति है कि नैतिकता और आदर्श का झूठ वहां बहुत
जोर-जोर से गाया जाता है। विज्ञापनी जोश ओ खरोश के साथ। तानाकसी के चलन में
पूंजीवादी चालाकियों का झूठा आदर्शीकरण किया जाता है। इतने जोर से कि कोई सच स्वयं
को ही झूठ मानने के विभ्रम में जा फंसे। यही वजह है कि व्यापक अर्थ ध्वनि से भरे
शब्द भी वहां अपने रूण अर्थों तक ही सीमित हो जाते हैं। देख सकते हैं कि राजनीति
की लोकप्रिय शब्दावली में राजनैतिक शुद्धता को अक्सर कटटरता के रूप में परिभाषित
किया जाने लगताहै। हालांकि शुद्धतावाद की राजनीति की आड़ में विवेक हीनता को छुपा
लेने की चालें भी दिककतें पैदा करने वाली ही होती हैं।
अतिवाद के इन दो छोरों के बीच आदर्शों का झूला मध्यवर्गीय मिजाज वाला हो ही जाता
है। हिंदी साहित्य की दुनिया में व्याप्त राजनैतिक चेतना इसी मध्यवर्गीय मिजाज
की गिरफ्त में रही है। सिद्धांतत: स्वीकारोक्ति के इस माहौल में ही यथार्थोन्मुखी
आदर्शवाद को महत्वपूर्ण मान लिया गया है। प्रतिफल में आधुनिकता की विकास
प्रक्रिया का बाधित हो जाना और गंवई ढंग का बना रहना सामाजिकी में वास करता रहा है।
सामाजिक संयोग के व्याप्त वातावरण में की जाती रही कदमताल को झूठे रचनात्मक
आंदोलन से परिभाषित करते रहने की चाल ही गंवई आधुनिकता का पर्याय भी हुई है। जबकि आदर्शोंन्मुखी
गंवईपन की सरलता का उठान यदि वस्तुनिष्ठ यथार्थ के साथ सिलसिलेवार बना रहता तो
निश्चित ही आधुनिकता की विकासमान रेखा स्पष्ट होती चली जाती। उसके लिए जरूरी था,
राजनैतिक आंदोलन न सिर्फ जारी रहें बल्कि रचनात्मक दायरों तक अटते चले जाएं।
लेकिन मुक्कमिल रूप से ऐसा न हो पाने के कारण रचनात्मक गतिविधियों में मौलिक होने
की कोशिशें इस कदर कुचेष्टाएं हुई कि गंवई आधुनिकता की सरलता भी भ्रष्ट होने लगी
और कुतर्कों को सहारा पकड़ते हुए आधुनिकता की ओर भी पेंग बढ़ाती गईं। मध्यवर्गीय
झूलों की आवृतियों के आयाम इन दो छोरों पर ही दोलन करते नतर आते हैं। मनोगत तरह से
समाज का विशलेषण करते हुए यथार्थोन्मुखी आदर्शवाद की गति अपने मध्यमान पर स्थिर रह
भी नहीं सकती थी। संतुलन की स्थिति को हांसिल करने के लिए भाषायी जतन नाकाफी होते
हैं। शिल्पगत प्रयोगों के जरिये और अन्य तरह से रूपाकार गढ़ने में वह बनावटीपन
का शिकार हो जाते हैं। रचनाकार के भीतर की हताशा और निराशा भी उस छुपे न रह गए को
स्वयं दिख जाने में ही जन्म लेती है।
साहित्य और कला की दुनिया में 'प्रतिबद्धता' और 'स्वतंत्रता' का शोर बहुत ज्यादा
रहा है। प्रतिबद्धता का स्वांग भरते हुए सांगठनिक दायरों के भीतर भी गिरोह बनाने
वाले, प्रगतिशील कहलाना चाहते रहे। प्रगतिशीलता को मूल्य मानते हुए भी बौद्धिक स्वतंत्रता
का राग अलापने वाले एवं स्वतंत्रता को ब्यूरोक्रेटिक अंदाज में बरतने वाले
कलावादी खेमे में पहचाने जाते रहे हैं। राजनीति को नकारने की प्रवृत्ति दोनों ही
खेमों में अपने-अपने तरह से प्रभावी है। भाषा और शिल्प के अतार्किक प्रयोग के नाम
पर 'प्रगतिशील' भी 'बौद्धिक स्वतंत्रता' का पक्षधर हो जाने में ही ज्यादा गंभीर
रचनाकार हो जाना चाहता है। साहित्य एवं कला की दुनिया की इस प्रवृत्ति पर चर्चा
करने लगें तो यह टिप्पणीकार भी मध्यवर्गीय दायरे के उस व्यवहार से शायद ही पूरी
तरह मुक्त दिखाई दे जिसकी व्याप्ति के असर से विघटनकारी शक्तियां समाज में खुद
को स्थापित करने में प्रभावी रही हैं। स्पष्ट जानिये कि मुक्तिबोध की शब्दावली
में कहा जाने वाला मुहावरा 'पार्टनर तेरी पॉलिटिक्स क्या है' का आशय सिद्धांत को
व्यवहार में ढालने और अनुरूप जीवनमय होने के आह्वान की पुकार बनकर हर वक्त
गूंजता रहने वाला ऐसा राजनैतिक बोध है जिसकी संगति आधुनिकता को ज्यादा महत्वपूर्ण
रूप से परिभाषित करती रहने वाली है।
रचनात्मक सक्रियता और ऊर्जा से भरी कथाकार सुभाष पंत की कहानी ''सीता हसीना
से एक संवाद'' को पढ़ते हुए ऐसे कितने ही सवाल जेहन में उठते हैं जो खुद के भीतर
व्याप्त अन्तर्विरोधों से टकराने का अवसर प्रदान करते हैं। यूं तो 'पॉलीटिकली
करेक्ट' होने की कोशिश सुभाष पंत कभी नहीं करते। उनका ध्येय एक ऐसी राजनीति के
पक्ष को रखना होता है जिसमें आम जन के दुख दर्दों का शमन किया जा सके। 'मुन्नीबाई
की प्रार्थना' से लेकर पहल 122 में प्रकाशित कहानी इसका साक्ष्य है। पहल 122 की
कहानी से पहले की कहानियों में कथाकार सुभाष पंत की यह रचनात्मक विकास यात्रा कदम
दर कदम आगे बढ़ते हुए नजर आती है। यानी पहले की कहानियों में संवेदना के स्तर पर
पाठक को छूने की कोशिशें अक्सर हुई हैं। जबकि उल्लेखित कहानी के आशय उससे आगे
बढकर बात करते हुए हैं।
वर्तमान दौर की सामाजिक चिंताओं को रखने के लिए कथाकार ने कहानी की बुनावट को
विभाजन की पृष्ठभूमि और उस त्रासदी में की मार को झेलने वाले पात्र की मदद से
बहुत से ऐसे इशारें भी किये हैं जिनका वास्ता दुनिया में अमन चैन कायम करने की ओर
बढ़ता है। उसके लिए जिन औजारों का प्रयोग होना है, कथाकार के यहां वे औजार साहित्य
के रूप में दिखायी देते हैं। कहानी की पात्र सीता हसीना का यह कहना यूंही नहीं,
''कृपया बताइए कि बिशन सिंह पागल है या सियासत पागल है जिसने एक लाख बीस हजार
लोगों को बेघरबार किया, दस लाख् लोगों को मौत के मुंह में धकेला और पिचहतर हजार औरतों
को ज्यादतियों का शिकार किए जाने को मजबूर किया और यह भी कि टोबाटेक सिह कहानी
बड़ी है या उसका लेखक बड़ा है ?''
घटनाओं के संयोग से बुनी जाने वाली रचनाओं पर लेखक का भरोसा हमेशा से है।
साहित्य के प्रति लेखक के भीतर अतिशय विश्वास की यह उपज हिंदी की रचनात्मक
दुनिया के बीच से ही है। लेकिन बिगड़ते सामाजिक हालातों ने शायद लेखक के भीतर के
इस विश्वास पर सेंधमारी सी कर दी है। ऐसे में अपने भरोसे पर टिके रहना लाजिमी है।
यह कहानी उस द्वंद को उभारने में भी सक्षम है। कथा पात्र सीता हसीना का सवाल इस
विश्वास का चुनौती देता है और कथाकार के भीतर के द्वंद ही सीता हसीना के सवालों
में जगह पा जाते हैं।
पंत जी की यह कहानी समाज और साहित्य के जरूरी रिश्तों पर एक बहस शुरू करते
हुए जिस तरह से अपने कथानक में प्रवेश करती है, उससे गुजरते हुए यह देखा जा सकता
है कि यह कहानी आलोचना की उस शाखा से परहेज कर रही है जिसने बदलावों के झूठ में
रचे गये की अनुशंसा या उसको सही दिशा मान लेने को ही सर्वोपरी माना है। ऐसी रचनाओं
के कथानक सत्य घटनाओं वाले यथार्थ की गारंटी करते हुए भी हो सकते हैं। 'सीता
हसीना' का लेखक संवेदना के धरातल पर भीतर तक हिला देने वाली रचनाओं से रिश्ता
बनाना चाहता है। मंटो की कहानी 'टोबा टेक सिंह' का जिक्र अनायास नहीं है, लेखकीय
मंशा को जाहिर करता है।
मनुष्य की पहचान को धर्म के साथ देखने का आग्रह, उस वैचारिकता से मुक्त नहीं
जिसने धर्मनिरपेक्षता को 'सर्वधर्म सम्भाव' की तरह से परिभाषित किया है। लेकिन
कहानी में लेखकीय वैचारिकी का यह तत्व इसलिए अनूठा होकर उभर रहा है कि यहां लेखक
समाज के शत्रुओं से निपटने के लिए निहत्था होकर उनके घर में प्रवेश करते हुए भी उनके
ही हथियारों से लड़ने की कला का नमूना पेश करता है। दुश्मन के खेमे में घुसकर
लड़ना, निहत्थे होकर घुसना और दुश्मन के हथियारों से ही उस पर वार करना, इस कला
को सीखना हो तो कथाकार सुभाष की इस कहानी को विशेष तौर पर पढ़ा जाना चाहिए। कोई
रचनाकार अपने समय काल से जब पूरी तरह संवादरत रहता है, तो ही ऐसी रचनाएं सामने आती
हैं।
समाज के विकास में राष्ट्रवाद एक चरण है, लेकिन अन्तिम नहीं। यह कहानी भी कुछ
इसी तरह की अनुगंजों में घटित होती है। स्थानिकता से वैश्विक होती यह एक अन्तराष्ट्रीय
फ्रेम को बनाती रचना है। यथार्थ की पृष्ठभूमि से उपजी और अवधारणा के स्तर पर
जददो जहद करने को मजबूर करती यह एक राजनैतिक कहानी है। जिसकी रेंज राष्ट्रवाद तक
सीमित नहीं है। झूठे राष्ट्रवाद की प्रतीक 'माता' की स्थापना में धर्मों की
विभिन्नता भरे समाज की कल्पना करता है, बल्कि इतिहास में मौजूद इस सच को ही
प्रमुख बना देता है। अपने माता-पिता के धर्मो का खुलासा करती सीता हसीना दरअसल
भारत माता की उस छवि को देखने का इशारा बार-बार कर रही है जिसकी संगति में 'विशेष
धर्म ही राष्ट्र है', मध्यवर्ग के बीच इधर काफी ही तक स्वीकार्य होता हुआ है। आपसी
भाईचारे में आकार लेता समाज संरचित करने का यह तरीका उस राजनीति का पर्याय है
जिसका वास्ता सर्वधर्म सम्भाव से रहा है। राष्ट्रवादी झूठ को फैलाने वाले भी
जिसके सहारे ही जब चाहे तब प्रेममय दिख सकते हैं और जब चाहे तब 'लव-जेहाद' के फतवे
जारी करते रहते हैं। पंत जी कहानी कुछ-कुछ उस ध्वनि को ही अपना बनाती है जिसने
'लव-जेहाद' के शाब्दिक अर्थ को विग्रहित करके उसकी नकारात्मक अर्थ-ध्वनि को
चुनौती देनी शुरू की है। हालांकि अपने निहित अर्थ में यह चुनौती भी कोई ऐसा फलसफा
लेकर साने नहीं आती जिसमें आर्मिक आग्रहों से जकड़ा समाज मुक्ति की राह पर बढ़
सके।
ठीक इसी तरह पंत जी भी अपनी उल्लेखनी कहानी में झूठे राष्ट्रवादी से मुक्त
नहीं हो पाते हैं और उसकी जद में ही बने रहते हैं। कहानी की पात्र सीता हसीना के
मार्फत विभाजन के कारणों पर टिप्पणी करते हुए सीता हसीना का संवाद सुनाई पड़ता
है- दरअसल यह ऐसा जंक्चर है जहां से खड़े होकर एक लेखक के भीतर परम्परा की गहरी
जड़ों और उससे मुक्ति की चाह भरी छटपटाहट को समझा जा सकता है। उसकी गति को पहचाना
जा सकता है। उसके उपजने के सामाजिक, नैतिक कारणें की पड़ताल की जा सकती है।
अध्यात्म की गरिमा और कलाओं का माधुर्य कहते वक्त पंत जी के जेहन में क्या रहा होगा, यह विचारणीय है। सीता हसीना का परिचय देते हुए कथा का नैरेटर ऐसा वर्णन करता करता है। निश्चित ही यह बिन्दू गंवई आधुनिकता से पूरी तरह मुक्त न हो पाए रचनाकार का परिचय देता है। अलबत्ता यह कहानी अपनी बुनावट में आधुनिकता के झूठ को रचने वाली कहानियों की रफ्तार में एक हद तक शामिल होते हुए भी खुद को उससे बाहर ले आने की कोशिश भी लगती है। मेरा मानना है कि इस कहानी का महत्व कहानी के बीच आए इस संवाद में तलाशा जा सकता, ''मैंने एक अनिश्वरवादी धर्म के बारे में भी जाना, जिसकी मान्यता है कि सृष्टि का संचालन करनेवाला कोई नहीं है, वह स्वयं संचालित और स्वयं शासित।'' वैसे कहानी में यह संवाद एक विशेष धर्म की बात करते हुए कहा गया है लेकिन इसका अर्थ विस्तार करें तो धर्म विलुप्त हो सकता है और एक ऐसी राजनीति का चेहरा आकार ले सकता है जो सामाजिक व्यवस्था के संचालन में स्वय्रं को ही विलोपित कर लेने का आदर्श हो सकती है। यहीं उनकी गद्य भाषा का मिजाज भी काव्यात्मक लहजे की बानगी बनता है। हालांकि यदा-कदा की अपनी बातचीत में सुभाष पंत कविता के मामले में खुद की समझ पर संदेह से भरे रहते हैं। उनके पाठक भी उन्हें कहानीकार के रूप में ही जानते हैं। यूं भी उन्होंने कभी कोई कविता नहीं लिखी, अपने लेखन के शुरूआती दौर में भी नहीं।
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