Sunday, March 1, 2020

चलचित्र


काश कोई ऐसा तरीका मेरे पास हो, मैं कहानी का पाठ करूँ और आप उसे दृश्य में देख सकें तो सम्भव है कि नवीन नैथानी की कहानी हत वाक के बारे में मुझे अलग से कुछ कहना न पड़े। 'स्मार्ट सिटी' की अवधारणा में उधेड़ी जा रही भारतीय समाज की बुनावट तो दृश्य के रूप में सामने हो ही, अपितु तंत्र द्वारा विकास का झंडा गाड़ते हुए भूगोल की जो 'सीटी' बज रही है, वह भी सुनाई देने लगे।
मेरे देखे, समकालीन यथार्थ को इतने कलात्मक ढंग से दर्ज करती यह अभी तक कि यह पहली हिंदी कहानी होनी चाहिए। अभी तो कहानी को पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश में यहां इसलिए लगा रहा हूँ कि कथादेश के फरवरी अंक में जो पढ़ न पाए हैं, पढ़ सकें।
कभी विस्तार से लिखने का अवसर निकाल पाया तो जरूर लिखूंगा। गंवई आधुनिकता से भृष्ट आधुनिकता के दो छोरों पर डोल रही हिंदी कहानियों के सामने यह कहानी ठीक मध्य में खड़े होकर आधुनिकता के सही रास्ते का मार्ग ढूंढने में सहायक हो रही है। 
वि गौ



                नवीन कुमार नैथानी


             मुझे अभी तक यकीन नहीं हो रहा कि मेरी आवाज फिर से बन्द हो गयी  थी.कहा जाता है कि हादसों  के वक्त ऐसा हो जाया  करता है .पर मेरे साथ तो कोई हादसा नहीं घटा. लोगों को  ऐसा लगता है.पुरानी ईमारतें गिरती रहती हैं.पुराने मकान भी ढह जाते हैं.सबका वक्त तय है.
          आवाज लौटने के बाद मुझे वह सब बता ही देना चाहिये.एक डर सा कुछ फिर भी बना रहता है- सुनेगा कौन? जो मैं कह रह हूँ , कोई उस पर यकीन भी करेगा? सब लोग जानते हैं कि डूबते हुए जहाजों के साथ पुराने जमानों के  कप्तान जहाज नहीं छोड़ दिया करते थे.पर टूटते हुए मकान कोई जहाज नहीं होते.मकानों को लोग बहुत आसानी से छोड़ देते हैं.जब लोग रहना छोड़ देते हैं तब भी मकान नष्ट होने लगते हैं. धीमे-धीमे...
         मुझे सादी नानी के मकान की याद है.उनका सही नाम क्या था? यह हममें से किसी को नहीं पता.उनका कोई और नाम रहा भी हो, यह जानने की शायद किसी ने कोशिश भी नहीं की.ननिहाल में नाना के घर से चार घर उत्तर की तरफ सादी नानी का मकान था – बहुत बड़ी और ऊँची दीवारों से घिरा हुआ ; मिट्टी और धूल और हवाओं मेम उड़ते हुए पत्तों से खड़खड़ाता हुआ.सादी नानी को हमने नहीं देखा.बहुत पहले वे अपनी बेटी के पास विदेश चली गयी थीं.जब तक नाना रहे,सादी नानी के मकान की देख-भाल होती रही. नाना एक हिलती हुई आरामकुर्सी की तरह स्मृतियों में दर्ज़ हैं.उनके हाथ में हमेशा एक अखबार रहा करता जो पिछली शाम को शहर से आने वाली इकलौती बस पर चलकर उनके पास पहुँचता.नाना के बाद वह मकान यतीम हो गया.उसकी चार-दीवारी पर यहाँ-वहाँ पीपल के मुलायम पत्ते निकलने लगे. बड़े दरवाजे पर मोटी और मजबूत साँकल आ टिकी.
        सादी नानी के घर की वह साँकल अब भी किसी बुरे सपने की तरह मेरी यादों में चली आती है.वह ननिहाल की मेरी आखिरी यात्रा थी.नाना के बाद नानी अकेली रह गयी थीं.वे आती हुई सर्दियों के नम दिन थे और आसमान जाती हुई बारिशों की धुलाई से बहुत साफ बना हुअ था.हम लोग हमेशा की तरह शाम की बस से पहुँचे थे.सफर की थकान के साथ सब लोग रात होने से पहले ही ऊँघने लगे थे.मैं सुबह होने से पहले ठीक से सो भी नहीं सका.सपने में भी सादी नानी का घर दिखायी देने लगा था.जब भी हम आते , नाना गोविन्द मामा को बुला लेते थे.गोविन्द मामा हमें सादी नानी का घर दिखाने ले जाते थे.उस घर की चार-दीवारी के भीतर एक बहुत बड़ा कुंआ था.हम दौड़ कर कुंए तक पहुँचते और तुलसी चौरे के पास आँख बन्द कर सूरज की पहली किरणों का इन्तज़ार करते.नाना के बाद गोविन्द मामा को बुलाने वाला कोई नहीं था.सुबह होते ही सादी नानी का घर मुझे पुकारने लगा.
      सादी नानी के घर की तरफ दौड़ते हुए दरवाजे की चौड़ी चौखट फलांगने में मुझे बहुत आनन्द आता था.उस सुबह जब मैं अकेला उस दरवाजे के पास पहुँचा तो स्तब्ध रह गया. वापस लौटा तो बहुत देर तक मेरी आवाज नहीं निकल पायी थी.वह आवाज बन्द होने का पहला हादसा था जो मेरे साथ घटा था.वह सच में एक हादसा था.सादी नानी के घर का दरवाजा बन्द था और उस पर एक मोटी साँकल लगी हुई थी.वे मेरे बचपन के दिन थे और मैंने पहले कभी बन्द दरवाजे नहीं देखे थे-बाहर से बन्द.अपने घरों में हम जब भी प्रवेश करते तो दरवाजे हमेशा खुले हुए मिलते.हम जब घरों से बाहर निकलते तो पूरा घर हमारे साथ खाली नहीं हो जाता था – घर के भीतर तब भी बहुत सारे लोग रह जाते थे.
मुझे बाद में बताया गया कि कुल चार घण्टे तक मेरी आवाज नहीं निकली थी.गोविन्द मामा को बुलाया गया.आवाज लौटने के बाद मेरी समझ में नहीं आया कि मेरे साथ क्या हुआ था?
“ तुम्हारी आवाज रूठ गयी थी” मनोज मामा ने मुझे बहलाते हुए कहा था.
“नहीं.यह सच नहीं है,”मुझे लगा जैसे आवाज का रूठना कोई बहुत बुरी बात हो,“मेरी आवाज नहीं रूठी थी.वह सादी नानी को ढूँढने चली गयी थी.”
“तुमने तो सादी नानी को देखा भी नहीं.”
“तो क्या हुआ!उनका घर तो देखा है.”
“ठीक है ,मान लेते हैं,”गोविन्द मामा की आँखों में अजीब तरह की चालाकी चली आयी थी,“तुम तो सादी नानी को पहचान लेते.तुम्हारी आवाज कैसे पहचानती ?”
एक बच्चे के लिये इस सवाल का जवाब देना मुश्किल था.गोविन्द मामा ने मुझे चुप देखा तो अपने होंठों से सीटी की तेज आवाज में एक धुन बजाने लगे.
“यह धुन मत बजाओ.” मैंने उन्हें टोक दिया था.
“क्यों”
“यह धुन सादी नानी को अच्छी नहीं लगेगी.”
“वे तो यहाँ नहीं हैं”
“जब वापस लौटेंगी तो उन्हें दिखायी दे जायेगी.”
“कैसे”
“तुम्हारे होंठों से निकल कर वह सादी नानी के दरवाजे की साँकल में छिप गयी है. वे लौटेंगी तो दरवाजे को खोलेंगी. जैसे ही साँकल हटायेंगी,धुन वहाँ से बाहर निकल जायेगी.”
बहुत देर तक वहाँ कोई आवाज नहीं निकली.सब लोग चुप होकर मुझे देखते रहे.शायद उन्हें लग रहा था कि एक छोटा बच्चा इस तराह की बातें क्यों कर रहा है.पर मेरे लिये इसमें अजूबे जैसा कुछ भी नहीं था.आज सोचता हूँ तो इस बात पर आश्चर्य नहीं होता.बचपन से अधिक सहज और सरल जीवन में और है भी क्या! वह ननिहाल की मेरी आखिरी यात्रा थी.उसके बाद कभी ननिहाल जाना नहीं हो सका.
आवाज के साथ दूसरा हादसा कोई पच्चीस साल बाद घटा .तब तक मैं पत्रकारिता को एक पेशे के तौर पर पूरी तरह अपना चुका था.लोगों से मिलना और नयी जगहें देखना मेरा शौक था.धीरे-धीरे यह शौक एक जुनून में बदलता गया. अनजाने इलाकों में जाना मुझे अच्छा लगता था. मैं कई दिनों तक घर से बाहर निकला रहता.मेरे आस-पास के ज्यादातर  लोग घरों में बने रहते.बाहर निकलते भी तो बहुत जल्दी अपने घरों में लौट आते.
“अरे , नरेन!” कहाँ निकल गये थे?” लोग मुझसे अक्सर कहते,“इस तरह भटकते हुए कहीं घर का रास्ता तो नहीं भूल जाओगे?”
मैं इस तरह के सवालों का जवाब अक्सर नहीं दिया करता था.एक रोज यही बात सावित्री चाची ने कही.
हाँ, सावित्री चाची! वही सावित्री चाची जो मेरे उस फ़ीचर की केन्द्रीय तस्वीर  में थीं .अधखुले और अधबन्द दरवाजे के बीच-दहलीज पर ठिठकी हुईं. सावित्री चाची से हमारा खून का रिश्ता नहीं था.लेकिन कभी हमने महसूस नहीं किया कि वे हमारे परिवार की सदस्य नहीं हैं.वे गली और मुहल्लों के दिन थे.तब कॉलोनियाँ सुदूर भविष्य में कहीं जन्म लेने की सोच रही थीं.
“नरेन!लोग तुम्हारे बरे में क्या-क्या बातें करते रहते हैं.”एक रोज उन्होंने कहा था,“तुम हमेशा भटकते रहते हो.अब यह भटकना बन्द करो.”
“चाची मैं भटकता नहीं हूँ.”मैंने कहा था,“जिसे लोग भटकन कहते हैं वह तो यात्रा है.आप को कहना था, मैं निरन्तर यात्रा में रहता हूँ.”
चाची सन्तुष्ट नहीं हुईं.उन दिनों वे सन्तुष्ट नहीं होती थीं.सन्तोष करने के लिये उनके पास बहुत कुछ था भी नहीं.वे उम्र के पचास बरस पार करने के बाद भी उसके इन्तज़ार में थी – जिसका उन्हें खुद भी पता नहीं था.
“आखिर मुझे भी पता चले कि तुम्हारी यात्रा में और भटकन में क्या फर्क है?” चाची बहुत संजीदा थीं.
“भटकता हुआ आदमी न कहीं पहुँचता और न कहीं लौटता है.” मुझे याद है, चाची यह जवाब सुनकर उदास हो गयी थीं.
थोड़ी देर हमारे बीच चुप्पी ठहर गयी.उसका भारीपन जमी हुई बर्फ की तरह महसूस किया जा सकता था.उसे सिर्फ आवाज की नमी से हटाया जा सकता था.
“देखो चाची,यात्रा में हम हमेशा किसी जगह पहुँचते हैं और फिर वापस लौट आते हैं.”
जो लोग कहीं पहुँच जाते हैं और वापस नहीं लौटते?
शायद चाची यह सवाल पूछना चाहती थीं.लेकिन वे चुप रहीं.उनकी उदासी और ज्यादा बढ़ गयी थी. एक सुबह चाचा घर से बाहर निकले तो कभी वापस नहीं लौटे.उनके कहीं भी होने की कुछ भी खबर नहीं मिल सकी.क्या चाचा अब भी कहीं भटक रहे होंगे.
“तो तुम एक काम क्यों नहीं करते?” चाची अचानक भीतर की यात्रा से बाहर लौट आयी थीं,“तुम जितनी जगहों पर जाते हो, जितने लोगों से मिलते हो ,जितनी बातें करते हो,उन्हें दर्ज कर लिया करो.”
तब मैंने सावित्री चाची की सलाह मान ली और अपनी यत्राओं के अनुभव लिखने लगा.शुरू में मैंने दो यत्राओं के अनुभव लिखे और चाची को सुनाये.
“इन्हें तो दुनिया के सामने आना चाहिये.तुम इन्हें अपने पास नहीं रख सकते.” बहुत देर तक चुप रहने के बाद वे बोलीं,“इन्हें छपने भेजो.”
सावित्री चाची निरन्तर मुझे लिखने और छपने के लिय उकसाती रहीं.वह एक तरह से  मेरे पत्रकार होने की शुरुअत थी.जैसे-जैसे मैं पत्रकारिता के दुनिया में रमता गया,वैसे-वैसे मेरा घर जाना कम होता गया.जब भी घर लौटता तो तीन गली पार कर सावित्री चाची के घर जरूर जाता.
“तो अब तुम्हारा भटकना बढ़ गया है.” चाची उलाहना देतीं.
“अर, कहाँ चाची.अब तो बस भागम-भाग है.बस, खबरोम के पीछे भागो,हादसों की जगहों पर भागो.”
“भागती हुई दुनिया भी भागती कहाँ है नरेन!जिसे तुम भागम-भाग कह रहे हो ना!वह और कुछ नहीं है.बस भटकन है”
उस वक्त सावित्री चाची की बात सुनकर मुझे अजीब सा अहसास हुआ था.उनका इकलौता बेटा एक अच्छी नौकरी पाकर दूसरे शहर में चला गया था.चाची एक स्कूल में पढ़ाया करती थीं.
अगली बार जब मैं घर गया तो आदतन,चाची के घर की तरफ चल दिया.जिस घर में चाची रहती थीं ,वहाँ ताला लगा हुआ था.मैं घर वापस लौटा तो कुछ बोल ही नहीं सका.मेरी आवाज कहीं चली गयी.तीन दिन तक मेरी आवाज नहीं लौटी.मैं कुछ बोलना चाहता तो बोलने के लिये आपनी आवाज को ढूँढता.वह कहीं दूर सादी नानी के कुंए में छिप जाती.मुझे सब कुछ साफ दिख रहा था.आस-पास लोग थे.उनकी आवाजें सुनायी देती थीं.
तीन दिन बाद जब मेरी आवाज लौटी तो मैंने सावित्री चाची के बारे में पूछा.माँ ने बताया कि एक महिना पहले उन्होंने अचानक नौकरी छोड़ दी.वे गाँव चली गयी हैं.वहाँ चाची का पुश्तैनी मकान है.उसमें कोई रहने वाला नहीं है.चाची त्क खब्र पहुँची थी कि मकान टूट रहा है.भारी मन के साथ मैं काम पर वापस लौटा.
गाँवों की बदलती दुनिया के बारे में एक फीचर तैयार करते हुए मुझे ननिहाल की याद आयी.सादी नानी के घर की याद आयी –उनके बन्द दरवाजे में पड़ी साँकल का दृश्य आँखों के सामने कौंध गया.नानिहाल जाने की इच्छा खत्म हो गयी.फिर मुझे सावित्री चाची का ध्यान आया – वे भी तो गाँव में रह रही हैं.मैंने तय कर लिया फीचर के लिये यात्रा की शुरुआत सावित्री चाची से मिलकर की जाये.
गरमियों की लम्बी और धूल भरी दुपहर पार कर मैं वहाँ पहुँच सका था.वह पुराना और बड़ा मकान था.बाहरी दीवार के पत्थर कई जगहों पर हिल रहे थे और टीन की छत बदरंग हो चुकी थी.बहुत बड़ा, लकड़ी का पुराना दरवाजा खुलने और बन्द होने के बीच की स्थिति में झूल रहा था-आधा बन्द और आधा खुला.
“दरवाजा बन्द है कि खुला?” मैंने सावित्री चाची से मिलते ही सवाल किया.
“कोई भी आता है समझ लेती हूँ कि दरवाजा खुला है.जब चला जाता है तो समझ लेती हूँ कि बन्द हो गया है.”
सावित्री चाची बहुत बूढी लग रही थीं. शायद चन्द सालों में वे दशकों की उम्र जी ली थीं.कद वही था,चेहरा वही था,आवाज भी वही थी.बस सावित्री चाची वह नहीं रह गयी थीं.उन्को देख कर लगा कि कुछ है जो बदल गया है. जाती हुई उम्र के छूटते हुए निशानों के अलावा भीतर कुछ है जो दरक रहा है-आहिस्ता-आहिस्ता.
“अचानक कैसे चले आये!खबर कर दी होती”
“आपसे मिलने का मन हो आया.”
“झूठ बोलना नहीम छोड़ा ,नरेन!”क्षण भर को लगा कि चाची वही हैं.
“अरे चाची! बदलती दुनुया के साथ गाँव भी तो बदल रहे हैं.पहले छूटते गाँवों की कहानी ढूँढते थे.अब बदलते गाँवों की कहानी पर काम कर रहा  हूँ”
“क्या बदलेगा नरेन!” चाची ने लम्बी सांस ली,“मैं तो ऊपर वाले से मना रही हूँ कि मेरे रहए तो हवा खराब न हो. सड़क किनारे के गाँव और घर दोनों अब पैसों में बदलते जा रहे हैं”
उनका बेटा चाहता था कि वे उसके पास रहने चली आयें.खाली मकान वैसे भी एक बोझ है.वह ढहा दिया जाये तो जमीन की ठीक कीमत मिल जायेगी.लौटते हुए आधे बन्द दरवाजे तक वे मुझे विदा करने आयीं.
“एक फोटो!” उस खुले-खुले से बन्द दरवाजे के फ्रेम में उनकी मौजूदगी जिन्दा साँसों की तरह महसूस हो रही थी.
“जानते हो नरेन!मेरी क्या इच्छा है?”उन्होंने रुकते हुए कहा था,“यही कि इस घर को भीतर से इतना सजा दूँ कियहाँ से कोई जाना ही न चाहे.”
“अरे! चाची ठीक ही है,”मुझे यह खयाल कुछ जमा नहीं.
“शृंगार तो बुढ़िया भी करती ही है.”विदाई के वक्त मैंने महौल को हलका बनाने के इरादे से कह दिया.
चाची के चेहरे के भाव जिस तरह से बदले ,उन्हें देखकर मुझे लग गया कि मैं बहुत बड़ी भूल कर चुका हूँ.उनके चेहरे में हैरानी,पीड़ा और गहरी हताशा के भाव एक के बाद एक आये और चले गये.
वे कुछ नहीं बोलीं.हलके से मुस्करायीं.उस मुस्कान में उदासी के तमाम रंग एक साथ उभर आये थे.मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं एक बार फिर से मुड़कर सावित्री चाची की तरफ देखूँ.मैं चुपचाप बाहर निकल आया.
वह फीचर बहुत पसन्द किया गया.उस फीचर में मैंने सावित्री चाची का फोटो भी छापा था.वही-आधे खुले हुए दरवाजे के पास-उदासी से भरी हुई मुस्कराहट के साथ.वे भीतर थीं कि बाहर , पता नहीं चल पाता था.
उस फीचर के चार साल बाद मुझे एक बार फिर वहाँ जाना पड़ा.तब वहाँ भीड़ थी,बहुत सारे पत्रकार थे और टेलीविजन के कैमरों की चमक थी.सड़क को चौड़ा होना था और उसकी जद में आने वाले गिने-चुके मकानों को ध्वस्त किया जा चुका था.सिर्फ एक मकान बचा रह गया जिसमें रहने वाले इकलौते बाशिन्दे ने बाहर आने से मना कर दिया था.बहुत सारे पत्रकार उसका साक्षात्कार लेने की कोशिश में असफल हो चुके थे.मेरे पास यह खबर पहुँची तो मैं समझ गया कि जरुर सावित्री चाची होंगी.मैं तुरन्त रवाना हो गया.मैं सावित्री चाची से बात करने के लिये बेताब था.रास्ते में सोचता रहा कि उनसे किस तरह बात की शुरुआत करूंगा.सबसे पहले तो मुझे पिछली बार विदा के वक्त कही गयी बात के लिये माफी माँगनी होगी.मैं कई तरह के वाक्य सोचता रहा.हर वाक्य गलत लगता.मुझे अपनी शर्मिन्दगी को बयान करने वाले शब्द नहीं मिल रहे थे.आखिर मैंने कोशिश छोड़ दी.तय कर लिया कि उनके सामने जो शब्द निकलेंगे वे  ठीक ही होंगे.
भीड़ के बीच रास्ता बनाने में ज्यादा दिक्कत नहीं हुई.बाहर का दरवाजा पूरी तरह खुला हुआ था.भीतर का दरवाजा भी. वे सीढ़ियों के ऊपर वाले कमरे में थीं.लकड़ी के बने फर्श पर पुराना कालीन बिछाये बैठी हुई थीं.उन्हें देखकर मैं स्तब्ध रह गया.मैंने पहले कभी उन्हें इस रूप में नहीं देखा था.उन्होंने पूरा शृंगार किया हुआ था.वे डूबते हुए जहाज  की डेक पर एक दुल्हन की तरह बैठी थीं.
“आओ,नरेन!”उन्होंने मुझे पहचान लिया था,“मकान को तो मैं सजा नहीं सकी.खुद को सजा लिया है.”
उनकी आवाज और चेहरे की भंगिमा देखकर मैं अवाक रह गया.मैं कुछ नहीं कह पाया.मेरी आवाज बन्द हो गयी.
मैं कैसे मान लूँ कि वह हादसा था.वह दृश्य बहुत साफ दिखायी दे रहा है.अब शायद उसके बारे में न कह पाऊँ.मुझे डर है कि मेरी आवाज एक बार फिर बन्द हो रही है...
नवीन कुमार नैथानी
ग्राम+पोस्ट भोगपुर
जिला देहरादून
248143

1 comment:

गीता दूबे, कोलकाता said...

एक गंभीर कहानी जो जितनी रोचकता से बयान की गई है ,उतना ही उद्वेलित भी करती है। कहानीकार को बधाई ।