आम की टोकरी
एक बालमन की कविता है। आभारी हूं उन मित्रों का जिन्होंने कविता पर बहस करते हुए मुझे
एक खूबसूरत कविता से परिचित कराया।
इस कविता को
पढ़ते मुझे एकाएक दो अन्य रचनाएं याद आई। कथाकार नवीन नैथानी की कहानी 'पारस' और हाना मखमलबाफ़ की फिल्म Budha collapsed out of shame । यह यूंही नहीं हुआ। दरअसल कविता पर चल रही बहस ने मुझे
भी बहस का हिस्सा बना दिया।
इन दोनों रचनाओं का और
आलोच्य कविता का संबंध कैसा है, इस पर बात करने से पहले मैं यह बात जिम्मेदारी से
कहना चाहता हूं कि हमारी आलोचना मनोगतवाद से ग्रसित है। मनोगत आग्रहों के आरोपण करते
हुए ही हम अक्सर 'विमर्शों' को लादकर रचना के पाठ करने में सुकून महसूस करते हैं।
दिलचस्प है कि नवीन की कहानी, हाना की फिल्म और बच्चों के पाठयक्रम की यह कविता हमें
यह सोचने को मजबूर करती है कि 'विमर्शों' में बंटी वैचारिकता को एकांगी तरह से समझने
और उसका पक्ष लेने से दुनियावी बदलाव की तस्वीर नहीं बन सकती है। बदलाव की कोई भी
मुहिम उस दुनियावी अन्तर्वरोध को ध्यान में रखकर कारगर हो सकती है, जिसने हमारी दुनिया
को मुनाफाखौर नैतिकता में ढाल दिया है। वे मूल्य, आदर्श और नैतिकता जिनका हम सिद्धांतत:
विरोध करना चाहते हैं, कैसे हमारे भीतर जड़ जमाए होते हैं।
हाना की फिल्म में स्वतंत्रता
की पुकार के कई बिम्ब उभरते हैं। यहां एक बिम्ब का जिक्र ही काफी है। फिल्म तालीबानी
निरंकुशता के विरुद्ध है। वह तालीबानी निरंकुशता जिसने बच्चों के मन मस्तिष्क तक
को कैद कर लिया है। एक मारक स्थिति से
भरी कैद से निकल कर भागने के बाद स्कूल पहुँची लड़की (बच्ची), बाखती, कक्षा में बैठने भर की जगह हासिल करना चाहती है। दिलचस्प है कि झल्लाहट और परेशनी के भावों को चेहरे पर दिखाये जाने की बजाय फिल्म उदात मानवीय भावना से ताकती आंखों वाली बाखती को हमारे सामने रखती है। दृढ़ इरादों और खिलंदड़पने वाली बाखती। लिपिस्टिक पेंसिल की जगह नोट-बुक पर लिखे
जाने के लिए प्रयुक्त होने वाली चीज नहीं, सौन्दर्य का प्रतीक है और इसी वजह से वह
उस चुलबुली लड़की को अपनी गिरफ्त में ले लेती है जिसके नजदीक ठुस कर बैठ जाती है बाखती। वह लड़की लिपिस्टिक को छीन-झपट कर हथिया लेती है। लिपिस्टिक बाखती की जरूरत नहीं, उसे तो एक अद्द
पेंसिल चाहिए जो उन अक्षरों को नोट-बुक में दर्ज करने में सहायक हो जिसे अघ्यापिका
दोहराते हुए बोर्ड पर लिखती जा रही है। लिपिस्टिक हथिया चुकी बच्ची
बेशऊर ढंग से पहले अपने होठों पर लगाती है, फिर उतनी ही
उत्तेजना के साथ बाखती के होठों को भी रंग देने के लिए आतुर हो जाती है। एक एक करके कक्षा की सारी बच्चियों के मुंह पुत जाते हैं। बलैकबोर्ड पर लिख रही
अध्यापिका की निगाह जब बच्चों पर पड़ती है तो तालिबानी हिंसा को मुंह चिढ़ाता दृश्य
आंखों के सामने नाचने लगता है।
नवीन की कहानी का नायक पारस पत्थर को खोजना चाहता है। पारस पत्थर एक मिथ है। जिसके स्पर्श मात्र से लोहा सोने में बदल जाता है। वह सोना जो आज मुद्रा के रूप में दुनिया पर राज कर रहा है। सवाल है कि कथानायक भी लोहे को सोना बनाकर दुनिया की दौलत इक्टठा करना चाहता है क्या, वैसी ही महाशक्ति होना चाहता है, जो आज की दुनिया में ताज बांधे घूमती है ? यह प्रश्न हमें मजबूर करता है कि हम पारस के नायक के जीवन में झांके। उसकी मासूमियत को पहचाने। वह मासूमियत जिसे पारस पत्थर की पहचान नहीं और उसको खोजने के लिए वह अपने पांवों के तलुवे में घोड़े की नाल ठोककर अनंत दुर्गम चढाइयां चढना चाहता है जहां पारस पत्थर के होने की संभावना है। उसे मालूम है कि उस पत्थर से टकराने पर उसके पांव के तलुवे में लगी नाल सोने में बदल जाएगी। सोने का यह जो बिम्ब कहानी में उभरता है वह गौर करने लायक है।
आलोच्य कविता में यह
पाठ कितने खूबसूरत ढंग से आया है। आम बेचने को निकली बच्ची गरीब परिवार की है।
बच्ची जिसे बेचने के काम में लगा दिया गया, जानती ही नहीं कि बेचना क्या होता
है। इसीलिए वह तो आम के दाम भी नहीं बताती है। हां, करती है तो यह कि सारे आम अपने
जैसे बच्चों को यूंही बांट देती है। सोच कर देखें कितना खूबसूरत बिम्ब है जब एक
बच्ची आज की मुनाफाखौर व्यवस्था की सबसे कारगर प्रक्रिया बेचने-खरीदने को ही
ध्वस्त कर दे रही है। वह तो इसमें भी लुत्फ उठा रही है कि बच्चे आम चूस रहे
हैं। और वे बच्चे भी कितना अपनत्व से भर जाते हैं जो उस बच्ची का परिचय भी नहीं
जानना चाहते हैं जो उनकी खुशियों के आम बांट रही है।
बिना कुछ अतिरिक्त कहे,
बच्चों के बीच खरीदने और बेचने की नैतिकता को मुंह चिढ़ाती यह कविता गहरे सरोकारों
की कविता है।
2 comments:
बहुत ही समझदारी के साथ लिखी गई टिप्पणी। इस कविता के बहाने आज सभी आदर्श के पुतले और नैतिकता के पहरेदार बन बैठे हैं। सभी शब्द विशेष पर टिप्पणी करते हुए सच्चाई से इस कदर मुंह छिपाते हुए यह यह भूल गये हैं कि न जाने कितने असंवैधानिक शब्दों को तथाकथित पढ़ें लिखे लोग भी रोज़ दर रोज़ इस्तेमाल करते हैं। ये तथाकथित समझदार और साहित्यिक अभिरुचि वाले लोग रसखान की उस सरस कविता की पंक्तियों को भी भूल गए हैं जिसमें सहजता से उसी शब्द का इस्तेमाल करते हैं, जिस पर आज इतनी हाय तौबा मचा रही है, "ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं।।"
धन्यवाद और साधुवाद, विजय जी। इस सजग आलेख के लिए।
वाह, यह टिप्पणी इस पूरे प्रकरण को एक अलग नजरिये से देखने की दृष्टि विकसित करने में मददगार है।
Post a Comment