पिछले दिनों अनिल कुमार यादव और
अखिलेश विवाद के बाद मैंने फेसबुक पर दोनों से ही असहमत होते हुए एक पोस्ट लगाई
थी। मित्रों ने कमेंट किये। बहुत से मित्र संदर्भ को पकड़ नहीं पाये। कुछ ने
संदर्भ पकड़ लिया था। मेरा अनुमान है कि संदर्भ न पकड़ पाने वाले मित्रों में
निश्चित ही दो तरह के लोग हैं। एक वे, जो वाकई
अनजान थे और दूसरे वे जो संदर्भ से वाकिफ होते हुए भी चाहते रहे होंगे कि मैं स्पष्ट
तरह से कुछ कहूं। हालांकि उनके लिए भाई शशिभूषण बडूनी के कमेंट का जवाब देते हुए
मैंने एक इशारा छोड़ दिया था। खैर, जो फिर भी
नहीं समझ पाये तो मैं अब इस उधेड़बुन में नहीं पड़ना चाहता कि वे वाकई नादान थे,
या वे मेरे पक्ष को स्पष्ट जानने के लिए कुछ कह रहे थे। वैसे एक दिलचस्प
वाकया भी घटा था, मीना चुग नाम की कोई एक पाठक (जिसका नाम उससे पहले मैंने
कभी नहीं जाना), जो
संदर्भों से पूरी तरह वाकिफ रही, कुछ मित्रवत संवाद में अनिल कुमार यादव का पक्ष लेते हुए
जरूर आयीं। लेकिन अफसोस की संवाद समाप्ति पर उस श्रृंखला का अब कोई कमेंट मेरी
पोस्ट पर नहीं दिख रहा। और खोजने पर मीना चुग नाम की उस प्रोफाइल को ढूंढना संभव
नहीं हो रहा।संभवत: छद्म नाम की उस प्रोफाइल के पीछे कोई करीबी मित्र ही होना
चाहिए। चूंकि पोस्ट के मूल में वह सिर्फ अनिल कुमार यादव का विरोध देख रही/रहे थी/थे,
इसलिए उन्हें मेरे जवाबी कमेंट सिर्फ अनिल कुमार यादव के विरोध में ही दिख
सकते थे। लिहाजा जरूरी हो गया कि मुझे खुलासा कर देना चाहिए कि मेरा पक्ष आखिर क्या
है।
सर्वप्रथम तो यह स्पष्ट है कि
लम्बे समय तक खामोशी का प्रकरण, जिसे लेखक अनिल कुमार यादव ने एक पत्रिका 'तदभव'
के संपादक अखिलेश के विरुद्ध दर्ज किया, मैं उसे हिंदी की दुनिया (पत्र पत्रिकाओं
सहित अन्य जगहों पर भी) के भीतर व्याप्त अलोकतांत्रिक और गैर पेशेवर मानता हूं
और इस बिना पर पत्र पत्रिकाओं के संपादकों के व्यवाहर में उस चेहरों को देखता हूं
जिसका अक्श अकसर ब्यूरोक्रेटिक व्यवाहर वाला रहता है। लेकिन अनिल कुमार यादव के
स्वर में जो विरोध मुझे दिखता है, उसके चेहरे को इससे भिन्न भी नहीं पा रहा हूं।
यानी, इसे दो ब्यूरोक्रेट के बीच के झगड़े से भिन्न नहीं मान रहा हूं। दिक्कत
यह है कि दोनों ही अपने-अपने कारण से मुझे पसंद हैं और दोनों से ही असहमति है।
थोड़ा विस्तार में कहने से पहले
स्पष्ट करता चलूं कि संपादकों के अलोकतांत्रिक, गैरपेशेवर और ब्यूरोक्रेटिक व्यवाहर
के बावजूद अकार, पहल (अब बंद हो गई), तदभव, हंस, कथादेश, परिकथा, समयांतर आदि कुछ
हिंदी पत्रिकाएं मेरी पहली पसंद है। सवाल यह नहीं कि एक लेखक के रूप में मैं इनमें
से किसी में कभी प्रकाशित हुआ, या, नहीं। उसके पीछे सीधी वजह है कि ये ऐसी
पत्रिकाएं हैं जिनसे मुझे देश, दुनिया को देखने की तमीज मिलती रही है और मिलती
रहती है। साथ ही यह भी कहना चाहता हूं कि कंटेट की खूबियों के बावजूद हिंदी की
अलोकतांत्रिक दुनिया का असर इन पत्रिकाओं में भी भरपूर है। जिनमें कंटेट ही न भाये,
उनके बाबत तो क्या ही कहूं, उनकी अलोकतांत्रिकता तो उस कारण भी दिख जाती है।
संपादकों का गैरपेशेवर व्यवाहर
और झूठी अकड़ इनमें प्रकाशित होने वाली सामाग्री के संग्रह करने के तरीकों और उनके
चयन में बरती गई व्यवाहरिकता को इतना अपारदर्शी बनाये रहती है कि एक आम पाठक उस
प्रक्रिया को कभी भी और कहीं से भी, नहीं जान
सकता। अपने सीमित अनुभव से कहूं तो लेखक और संपादक के बीच एक हद तक व्यक्तिगत
संबंध ही वहां प्रभावी रहता है। रचना के आमंत्रण की बहुत औपचारिक सी घोषणा के
बावजूद प्रकाशन के लिए रचना के चयन में संपादक-लेखक संबंध ही महत्वूपर्ण हो उठता
है। इन सब स्थितियों की मार हमेशा उस रचनाकार पर पड़ती है जो नया-नया लिखना शुरु
कर रहा है, या जो व्यक्तिगत संबंधों को बनाने में उतना माहिर नहीं,
या उस तरह के व्यवाहर से परहेज रखता हो। जबकि वातावरण के झूठ से तैयार किये
जा चुके 'स्टार' लेखकों के लिए छपना-छपाना कभी कोई प्रश्न ही नहीं रहता।
जिसका जो 'गुट' वह हमेशा वहां का प्रकाशित लेखक। बल्कि इतनी सहज स्थिति कि
बेशक अभी किसी रचना का विचार भर कौंधा हो, और
अपने 'प्रिय' संपादक से लेखक ने जिक्र भर कर दिया हो, तो
अगले अंक में रचना की घोषणा हो चुकी होती है। जबकि पहले से रचना भेजा हुआ कोई
अनाम/संकोची रचनाकार संपादक की स्वीकृति के इंतजार में सालों गुजारते हुए रहता
है। ऐसे में 'स्टार' लेखक क्यों नहीं फिर अतिमहत्वाकांक्षाओं के झूले पर
झूलें। वह दम्भ जो एक संपादक के भीतर है, वे
उसे ही क्यों न वहन करें।
अनिल कुमार यादव के विरोध से
मेरा विरोध का कारण उनके इस अंदाज में ही है। क्योंकि वहां भी संपादकीय
अलोकतांत्रिकता का सवाल निजी वजहों की उपज है। खुद अनिल बताते हैं कि संपादक ने
उनसे प्रकाशन के लिए कुछ मांगा। अब वह किंही कारणों से,
मांगे जाने के बाद भी ताजे-ताजे प्रकाशित हो चुके अंक में नहीं दिखा होगा तो उनके
अहम को जो चोट लगी, उसे संपादक सहलाये भी नहीं तो यह तो नहीं चलेगा। और फिर जो
हो सकता था हुआ। उस होने का भी अपना मजा तो यह है न कि अतिमहत्वाकांक्षाओं के
झूले की पेंग बढ़ाना और भी आसान है! एक तीर से दो
निशाने। 'अलोकतांत्रिक' संपादक की
हेकड़ी भी निकल जाये और ऐसा प्रचार भी हो जाये कि प्रकाशित होने से पहले ही अपना
लिखा 'चर्चा' में आ जाये। क्योंकि
हिंदी में पुस्तक प्रकाशन भी तो उसी गैरपेशेवराना अंदाज का खेला है, जहां चयन की प्रक्रिया का मानदण्ड रचना से नहीं,
अकसर किंही अन्य वजहों से ही रंगा हुआ है।
2 comments:
एक तीर से दो निशाना लगाने वाले लेखक विशेष की चालाकी का आपने पकड़ा ही नहीं, स्पष्टता से उस रोशनी भी डाली, यह बात अच्छी लगी, अन्यथा लोग बिगाड़ के डर से साफ बात करने से बचते ही नजर आते हैं। रही। रही बात संपादकों का गैरपेशेवराना रवैया तो आम है। कुछ ही संपादकीय दफ्तरों से रचनाओं की स्वीकृति अथवा अस्वीकृति की सूचना मिलती है
टिप्पणी की पृष्ठभूमि में जो विवाद है उससे परिचित नहीं हूँ l लेकिन साहित्य में ( साथ ही अन्य सभी संस्थाओं, दफ़्तरों, स्कूल-कालेजों, दफ़्तरों, और घरों परिवारों में भी ) अधिकाधिक लोकतंत्र हो, इससे किसकी असहमति हो सकती है ?
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