Tuesday, September 26, 2023

कथाकार विवेक मोहन की स्मृतियों के साथ कवि अतुल शर्मा

देहरादून के रचनात्मक माहौल पर यदि एक निगाह डाली जाए तो कविताओं की बनिस्पत कहानियों की एक विस्तृत दुनिया दिखायी देती है। यहां तक कि कवियों की तरह ही जिन रचनाकारों ने अपने लेखन की शुरुआत की और सतत कविताएं लिखते भी रहे, उन रचनाकारों को भी कहानीकार के रूप में ही पहचाना गया। अकेले ओम प्रकाश वाल्मिकि ही इसके उदाहरण नहीं, जितेन ठाकुर का नाम भी उल्लेखनीय है।

अब यदि विस्मृति की गुफा में झांके तो देशबंधु और विवेक मोहन दो ऐसे कथाकारों की छवि उभरती है जो अपनी शुरुआती कहानियों से ही देहरादून के साहित्य समाज में अपनी अलग छवि के रूप में चमक उठे थे। लेकिन काल की अबूझ गति को उनकी रोशनी भाई नहीं शायद और असमय ही वे इस दुनिया को छोड़ गये।

विवेक मोहन ने कई महत्वपूर्ण कहानियां लिखी जो 90 c आस पास निकलने वाली लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई है।

कथाकार विवेक मोहन की स्मृतियों को सांझा कर रहे हैं, लेखक और कवि अतुल शर्मा। 


अतुल शर्मा

वृंदा एनक्लेव फेज़ बंजारा वाला देहरादून




बात चालीस साल से भी पहले की होगी,,,,, पल्टन बाजार मे एक जूतों की दुकान थी । घंटाघर से जहाँ पल्टन बाजार शुरू ही होता है उसके सामने इलाहाबाद बैंक होता था और उसी की दीवार पर एक गोल और बडी़ घड़ी लगी रहती थी,,, पल्टन बाजार की तरफ । बस उसी घड़ी के ठीक सामने यह दुकान थी । हुआ यह कि एक दिन तेज़ बारिश से बचने के लिए मै इस जूतों की दुकान से चला गया । मैने पूछा कि क्या मै यहाँ बारिश रुकने तक रह सकता हूँ तो वहाँ उपस्थित व्यक्ति ने हामी भरी और मुस्कुराते हुए मुझे एक स्टूल भी दिया बैठने के लिए । बारिश लगभग ढाई घंटे तक नहीं रुकी । और इस ढ़ाई घंटे मे उस व्यक्ति से लम्बी बात चीत का जो सिलसिला शुरू हुआ वह इस संस्मरण लिखने तक जारी है,,, यही थे विवेक मोहन। वैसे नाम तो उनका बाबा दत्ता था पर कहानी लिखने के सिलसिले ने उन्होंने अपना नाम विवेक मोहन रख लिया । फिर तो जब भी उस तरफ जाते तो उस दुकान मे ज़रूर बैठना होता । वह ऐसी दुकान थी जहाँ खरीदार कम ही आते थे । लेडीज़ सैंडिल और चप्पल ज़यादा थीं । वही साहित्य चर्चा होती । मेरी एक कविता साप्ताहिक हिंदुस्तान मे छपी थी तो उनके अनुरोध पर आनन्द पुरी मे जलेबी खाई गयी । भगवानदास क्वाटर्स मे सीढ़ियां चढ़ कर उनका घर था । भाभी जी और बिटिया रम्पी से वहीं मुलाकात हुई थी । घर मे पुरानी पत्रिकाओं को विवेक ने सम्भाल कर रखा था । उनमे से एक थी,,,, देहरादून से छपने वाली पत्रिका ' छवि' यह शायद सन् 60 के आसपास भास्कर प्रेस से छपती थी । इस अंक मे शेर जंग गर्ग, कहानी कार शशिप्रभा शास्त्री, कहानी कार राजेन्द्र कुमार, आदि की रचनाये छपी थीं। 

वहीं पर पहली बार मैने विवेक मोहन की कहानियों का रजिस्टर और बैग देखा जिसमे पन्द्रह बीस कहानियाँ थी । उनकी एक लम्बी कहानी " तबेले" वहीं सुनी । बहुत अच्छी और सशक्त कहानी थी यह । ऐसा माहौल बनता था कहानी मे जो दृष्य पैदा कर देता था । पात्र और उनकी परिस्थितियों का बारीक वर्णन । चर्चा आगे बढ़ना तो मैने कहा कि भाई इसको संग्रह के रूप मे लाओ,,,, मुश्किल काम था पर प्रयास किया,,, और सफलता नही मिली । 

पर उससे पहले एक और कठिन काम था कि इन सारी कहानियों को पढा़ गया । एक कहानी लगभग पंद्रह या दस पेज की तो थी ही। कभी जूतों की दुकान मे, कभी हमारे सुभाष रोड स्थित मकान मे, कभी गांधी पार्क तो कभी रेंजर्स कालेज ग्राउण्ड मे कहानी पढ़ी गयीं । बहुत जबरदस्त कहानियाँ थीं । वास्तविकता के करीब । सरल शब्दों । बोलचाल की भाषा । और उनके प्रति गम्भीरता। 

विवेक भाई अब हमारे पारिवारिक सदस्य की तरह हो गये थे । सुबह ही घर आ जाते और दोपहर खाना खा कर ही जाते । 

उन्हे जगजीत सिंह की ग़ज़लें बहुत पसंद थीं । कहते कि इनमे गले बाजी बहुत कम है और सहज हैं। अखबार लेते थे पंजाब केसरी। उसमे उनकी कहानी भी छपी थी । 

एक बार उनके घर कहानीकार सैली बलजीत आये तो मैने अपने घर पर एक गोष्ठी रखी थी,,,, वहाँ बहुत से रचनाकारों को भी बुलाया था । बलजीत ने विवेक मोहन की कहानी पढ़ी थी और विवेक ने सैली बलजीत की । 

आज सुबह जब भाई विजय गौड़ ने विवेक मोहन पर लिखने को कहा तो बहुत सी यादें आ बैठीं मेरे पास । 

हमने एक सिलसिला शुरू किया था कि महीने मे एक बार किसी रचना कार के घर जाते और गोष्ठी होतीं । उस रचनाकार को एक मोमेंट भी दिया जाता । इसी सिलसिले मे विवेक मोहन के घर भी गोष्ठी हुई थी । 

बहुत सी स्मृतियाँ है । 

एक दिन विवेक आये तो उनकी सांस फूल रही थी । बात करते हुए खांसी भी आ रही थी । वह अपना बैग संभाल कर बैठ गये । और बताया कि आज गाधी पार्क मे एक कहानी की शुरुआत की है । उन्होंने बैग से एक पत्रिका निकाली और मेरी तरफ बढायी । यह सारिका थी । मैने पन्ने पलटे तो उसमे मेरी कहानी छपी थी,,,, " पार्क की बैंच पर चश्मा"। नैशनल न्यूज़ एजेन्सी से खरीद कर लाये थे वे । उनके चेहरे की मुस्कान नहीं भूल पाता । 

 

वे बाहर गये हुए थे । काफी दिन वहाँ रहे । और फिर कभी नही आये । 

वहीं उनका देहांत हो गया । मन शोक से भर गया । 

 

पर वे जीवित है यादों मे। बहुत सी यादे है,,,, 

दून स्कूल मे एक गोष्ठी आयोजित की तो वहाँ विवेक भाई ने कहानी सुनाई तो रचनाकार अवधेश कुमार ने कहा कि ये तो प्रसिद्ध कहानी द कार्पेट से मिलती जुलती है,,,, उसके बाद विवेक न दो महीने तक द कार्पेट कहानी ढूंढ निकाली और पढी़ ,,,, वह कहानी विवेक की कहानी से अलग थी पर उसमे भी कालीन का जिक्र था और इसमे भी,,, अवधेश बहुत गम्भीर रचनाकार थे तो उनकी बात को भी विवेक ने गम्भीर होकर समझा और अपनी कहानी मे बदलाव की सोचने लगे,,, फिर बदलाव नही कर पाये, वे बस कालीन हटा कर कुछ और करना चाहते थे । 

 

एक गम्भीर कहानीकार और सह्रदय इंसान के रूप मे वे आज भी मेरी यादों मे हैं  

 


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