अजेय की कविता
अलविदा ओ पतझड़!
बांध लिया है अपना डेरा डफेरा
हांक दिया है अपना रेवड़
हमने पथरीले फाटों पर
यह तुम्हारी आखिरी ठंडी रात है
इसे जल्दी से बीत जाने दे
आज हम पहाड़ लांघेंगे
उस पार की दुनिया देखेंगे!
विदा ओ खामोश बूढी सराय!
तेरी केतलियां भरी हुई हैं
लबालब हमारे गीतों से
हमारी जेबों में भरी हुई हैं
ठसाठस तेरी कविताएं
मिल कार समेट लें भोर होने से पहले
अंधेरी रातों की तमाम यादें
आज हम पहाड़ लांघेंगे
उस पार की हलचल सुनेंगे!
विदा ओ गबरू जवान कारिन्दों!
हमारी पिट्ठुओं में
ठूंस दिये हैं तुमने
अपनी संवेदनाओं के गीले रूमाल
सुलगा दिया है तुमने
हमारी छातियों में
अपनी अंगीठियों का दहकता जुनून
उमड़ने लगा है एक लाल बदल
आकाश के उस एक कोने में
आज हम पहाड़ लांघेंगे
उस पार की हवाएं सूंघेंगे!
सोई रहो बरफ में
ओ कमजोर नदियों!
बीते मौसम में घूंट-घूंट पिया है
तुम्हें बदले में
कुछ भी नहीं दिया है
तैरती है हमारी देहों में
तुम्हारी ही नमी
तुम्हारी ही लहरें मचलती हैं
हमारे पांवों में
सूरज उतर आया है आधी ढलान तक
आज हम पहाड़ लांघेंगे
उस पार की धूप तापेंगे
विदा ओ अच्छी ब्यूंस की टहनियां
लहलहाते स्वप्न हैं
हमारे आंखों में तुम्हारी हरियाली के
मजबूत लाठियां है
हमारे हाथों में
तुम्हारे भरोसे की
तुम अपनी झरती पत्तियों के आंचल में
सहेज लेना चुपके से
थोडी सी मिट्टी और कुछ नायाब बीज
अगले बसंत में हम फिर लौटेंगे!
(अकार २७ से साभार)
3 comments:
गुजरते मौसमो से विदा नये की उम्मीद ..इस बीच कितना कुछ गुजर जाता है ज़िन्दगी के सुनहरे परदे पर..
तुम अपनी झरती पत्तियों के आंचल में
सहेज लेना चुपके से
थोडी सी मिट्टी और कुछ नायाब बीज
अगले बसंत में हम फिर लौटेंगे!
____________________
इंत्ज़ार रहेगा
अजेय की एक और आश्वस्त करती कविता।
Post a Comment